Saturday, June 29, 2013

सोनपरी-सुआइनोआ

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एक बड़ी सूनामी ने सोनपरी सुआइनोआ और उसके साथी को नेमियागी प्रांत में समुद्र तट

पर ला छोड़ा | वे अपना रास्ता भटक चुके थे | परीलोक का रास्ता ढूँढते हुए वे नज़दीक के घर में
गये| उनका परिचय एक युवक, रोशिंजो से हुआ| सुआइनोआ के साथी ने उसे  रोशिंजो  के पास
रखते हुए कहा कि वह जल्द ही परीलोक जाने के रास्ते का पता लगाकर उसे वापस ले जाएगा|
सुआइनोआ आज से पहले किसी इंसान से साथ नही रही| उसे बड़ा अजीब लग रहा था; पर
परिस्थिति ही कुछ ऐसी थी कि उसे अपने साथी के निर्णय को मानना पड़ा|

जैसे जैसे दिन बीता, सुआइनोआ ने इंसान के साथ रहना सीखा| रोशिंजो  को सुआइनोआ की
सुंदरता और उसका भोलापन अच्छा लगने लगा| उसने सुआइनोआ की परियों सी देखभाल की|
सुआइनोआ को रोशिंजो  से प्यार हो गया|

गर्मी की रातों मे सुआइनोआ अपने पंख फड़फड़ाकर हवा ले आती और सर्दियों में उन्ही पंखों के
बीच रोशिंजो  को सुलाती| उसके लिए रोज़ दुआ करती| रोशिंजो  को जिस किसी चीज़ की ज़रूरत
होती, अपनी जादुई छड़ी घूमाकर ले आती|

एक दिन रोशिंजो  ने सुआइनोआ से कहा की उसे किसी ज़रूरी काम से बाहर जाना है और वो
जल्द ही लौट आएगा| सुआइनोआ ने मायूसी से हामी भरी| रोशिंजो  दूसरे शहर जाकर बस गया|
कभी कभी सुआइनोआ से मिलने आ जाता था| एक बार जब रोशिंजो  वापस जा रहा था,
सुआइनोआ उसके पीछे चल पड़ी| रोशिंजो  को इसका पता चलता, तब तक शहर आ चुका था|
कुछ दिन सुआइनोआ वहाँ रुकी  और फिर रोशिंजो  के पुराने घर पर आ गयी| वहाँ जाकर
रोशिंजो  का घर संभालने लगी| उधर रोशिंजो  को सुआइनोआ की कमी खलने लगी| वह अक्सर
सुआइनोआ सी दिखने वाली लड़कियाँ खरीद लाता|  

एक दिन अचानक सुआइनोआ का साथी लौट आया| उसे परीलोक जाने का रास्ता मिल चुका था|
सुआइनोआ वापस नही जाना चाहती थी| सो उसने जादू की छड़ी घुमाई और रोशिंजो  के पास जा
पहुँची| रोशिंजो  की ज़िंदगी में सुआइनोआ सी दिखनेवाली कई लड़कियाँ आ चुकी थीं| उसने
सुआइनोआ से कहा कि उसे अपने साथी के साथ परिलोक जाना चाहिए|  यह सुनकर सुआइनोआ
को दुख हुआ और वो अपने साथी के साथ परिलोक जा पहुँची| वापस जाने से पहले सुआइनोआ ने
अपनी जादुई छड़ी घुमाई और रोशिंजो  की छवि को अपने दिल में क़ैद कर लिया|
अब सुआइनोआ का मन परिलोक में नही लगता| वह रोशिंजो  को याद करती| हर पूर्णिमा की रात
वो चाँद के उजालों के साथ धरती पर आती और रोशिंजो  को देखती| उन लड़कियों को भी देखती,
जो रोशिंजो  के लिए केवल विनोद का साधन थीं| फिर भी उसे रोशिंजो  से मिलकर अच्छा लगता
था|

अपनी मेहनत और सुआइनोआ की दुआओं से रोशिंजो अमीर इंसान बन चुका था| साधारण सी
दिखने वाली एक असाधारण लड़की से शादी भी की| पिछ्ले पूर्णिमा को जब सुआइनोआ आई; तो रोशिंजो  की पत्नी, शुमेजुमी से भी मिली| उसे उपहार में अपनी जादू की छड़ी दे आई|

कल भी पूर्णिमा की रात थी| सुआइनोआ रोशिंजो  से मिलने धरती पर आ पहुँची| रोशिंजो  ने घर
का दरवाजा बंद कर लिया था| खिड़कियों पर पर्दे लग चुके थे| किसी पर्दे की आड़ से रोशिंजो 
सुआइनोआ को रोते हुए वापस जाते देख रहा था|

सुआइनोआ परिलोक लौट आई है| अब वो रोशिंजो  को भूलना चाहती है; पर भूलना तो इंसान की
फ़ितरत है!!! वह जादुई छड़ी, जिसे घूमाकर रोशिंजो  की छवि दिल में क़ैद की थी और दिल के
दरवाजे पर ताला कसा था, वो तो रोशिंजो  की पत्नी को भेंट कर आई थी|

रोशिंजो  सुआइनोआ से नही मिलना चाहता| शायद यह भी नही चाहता कि सुआइनोआ उसे कभी
देखे| तभी तो घर का पता बदल लिया है|उसे शायद मालूम नही कि उसकी छवि सुआइनोआ की
दिल में क़ैद है| उसे देखने के लिए सुआइनोआ को किसी चीज़ की ज़रूरत नही; वो अपनी आँखे
बंद करेगी और दिल में क़ैद रोशिंजो  की छवि देख लेगी|

इतने दिनों तक इंसानो के साथ रहकर भी सुआइनोआ इंसानी फ़ितरत नही अपना पाई| रोशिंजो 
के लिए अब भी दुआएँ मांगती है| रोशिंजो  अक्सर सकुचाते हुए पर्दे की आड़ से आसमान की
तरफ देख लेता है|

अब गर्मियों मे सुआइनोआ आँखे बंदकर अपने पंख फड़फड़ाती है और सर्दियों में पंख समेटकर
आँखें बंद कर लेती है|

----------सुलोचना वर्मा---------------

Saturday, June 8, 2013

Aaj ki Seeta


आज की सीता
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वह आज की सीता है
अपना वर पाने को
अब भी स्वय्म्वर रचाती है
वन में ही नही

रण में भी साथ निभाती है
अपनी सीमाएँ खुद तय करती है
लाँघेघी जो लक्ष्मण की रेखा है
परख है उसे ऋषि और रावण की
पर दुर्घटना को किसने देखा है

 
रावण का पुष्पक सीता को ले उड़ा
लोगो का जमघट मूक रहा खड़ा
लक्ष्मण को अपने कुल की है पड़ी
रावण लड़ने की ज़िद पे है अड़ा
राम ने किया है प्रतिकार कड़ा
कुलवधू का अपहरण अपमान है बड़ा
येन केन प्रकारेन युद्ध है लड़ा
फूट गया रावण के पाप का घड़ा

 
वैदेही अवध लौट आई है
जगत ने अपनी रीत निभाई है
आरोप लगा है जानकी पर
अग्निपरीक्षा की बारी आई है

 
तय किया है सती ने अब
नही देगी वो अग्नि परीक्षा
विश्वास है उसे खुद पर
क्यों माने किसी और की इच्छा

 
सहनशील है वो, अभिमानी भी है
किसी के कटाक्ष से विचलित
न होने की ठानी है
राम की अवज्ञा नही कर सकती
रघुकुल की बहूरानी है

 
दुष्कर क्षण है आया
क्या करे राम की जाया
भावनाओं का उत्प्लावन
नैनों में भर आया
परित्याग का आदेश
पुरुषोत्तम ने सुनाया
परित्यक्तता का बोध
हृदय में समाया
भूल किया उसने जो
वन में भी साथ निभाया
राजमहल का सुख
व्यर्थ में बिसराया


हृदय विरह व्यथा से व्याकुल है
मन निज पर शोकाकुल है
उसका त्याग और अर्पण ही
सारे कष्टों का मूल है


किकर्तव्यविमूढ, पर संयमी
नही कहेगी जो उस पर बीता है
अश्रु को हिम बनाएगी
विडंबना यह है कि वो आज की सीता है


____सुलोचना वर्मा___