Sunday, February 26, 2017

पर्वतारोहण

------------------------------------------------------------
एक दिन बना लूँगी मैं अपना ठिकाना
किसी हरे-भरे पहाड़ पर  
ढूँढते हुए आस्ताना 

फिर एक दिन तपस्या में लीन आदिम पुरुष सा पहाड़  
माँगेगा मुझसे आश्रय, बन प्रणय भिक्षुक 
और प्रतिदान में चाहूँगी मैं अभयदान 
तब हमारे प्रणय अभ्यास का फल 
लेगी जन्म हमारी नैसर्गिग संतान, बन वितस्ता सी कोई नदी 

उस दिन करते हुए हमारा अनुसरण 
अपने अमरत्व के लिए 
बहुत-बहुत लोग करेंगे पर्वतारोहण 

तपस्या कर रहा है पहाड़ अनंतकाल से कि आएगा माहेन्द्र-क्षण
दे रही है आहुति कालिंदी, इक्षुला, तमसा जैसी नदियाँ इस अनुष्ठान में 
मंत्रोच्चार कर रहे है हिलाकर पत्तों को सनोबर और देवदार के वृक्ष  
मैं ढूँढ रही हूँ सूत्र पहाड़ को पिघलाने का !

दुविधा में है भगीरथ का समयपुरुष !!

Thursday, February 23, 2017

इंसान होना रह गया

---------------------------------------------------------
हुए सबसे पहले हम नर और नारी, श्वेत और अश्वेत  
हम हुए फिर हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख और साई 
दिमाग लगाया तो हम दलित और सवर्ण भी हुए 
और इन्हीं झंझटों के बीच हमारा इंसान होना रह गया 

जब हम बढ़े आगे और की हमने खूब तरक्की 
तो हम हुए अमीर और गरीब, सुखी और दुखी 
हम शिक्षित और निरक्षर, विद्वान् और मुर्ख हुए 
और इन्हीं झंझटों के बीच हमारा इंसान होना रह गया 

समय के साथ किया हमने प्रवेश जब विज्ञान के युग में  
तो हुए हम आस्तिक और नास्तिक, प्रगतिशील और पिछड़े 
हम हुए वामपंथी और दक्षिणपंथी, मूक और वाचाल 
और इन्हीं झंझटों के बीच हमारा इंसान होना रह गया 

हम भगवान् तक बन गए जब हुए "ईसा मसीह" और "बिरसा मुंडा" 
संत भी बन गए होकर रैदास, नानक, कबीर, फरीद और मीरा
वीर बने "शिवाजी", "भगत" होकर, बने आदर्श बन स्वामीजी और बापू
और इन्हीं झंझटों के बीच हमारा इंसान होना रह गया 

पढ़ा हमने गीता, कुरआन,  गुरुग्रंथ साहिब और बाइबिल, तो बने हम धार्मिक 
वैज्ञानिक बने पढ़कर भौतिकी, जीव विज्ञान, रसायन और वनस्पति शास्त्र 
राजनीति पढ़ नेता बने, हुए कलाविद पढ़ कला की तमाम विधाएँ 
और इन्हीं झंझटों के बीच हमारा इंसान होना रह गया 

कितना हो पाए सामाजिक, हम समाज शास्त्र पढ़कर ही 
जोड़ पाता जो समाज को, बनने के पहले ही पुल वो ढह गया 
पढ़कर रामायण हम ढूँढ रहे हैं सदियों से स्वर्ग जाने की सीढ़ी 
और ऐसे ही तमाम झंझटों के बीच हमारा इंसान होना रह गया 

Monday, February 20, 2017

स्मृतियाँ

---------------------------------------------------------------------------------
पड़ी हैं कुछ बेशकीमती स्मृतियाँ स्मरण अरण्य की किसी उपेक्षित गुफा में 
जिनका है अपना ही कोई अदृश्य तिलस्मी अंतर्द्वार 
गुफा, जहाँ नहीं है मौजूद कोई भी खिड़की या कोई रौशनदान ही 
खुलता है उसका द्वार अकस्मात कुछ ऐसे  
जैसे दिया हो दस्तक जंग लगे हुए फाल्गुन के सांकल ने 
और किया हो उच्चारण शून्य में दबी जुबान 
अरबी उपन्यास के जादुई शब्द "खुल जा सिमसिम" का 
द्वार के खुलते ही दिखता है करीने से सजाकर रखा हुआ 
खजाना स्मृतियों का, दमकता है अँधेरे में  

निरूद्देश नौका पर हैं सवार निरुपाय स्मृतियाँ 
भाषा भूल चुकी स्मृतियाँ पोषित हो रही हैं हमारी करोटी में 
किसी परजीवी की तरह और चला रहीं हैं काम शब्दों का 
होकर निःशब्द, कर रही हैं संक्रमित हमारे मन को बार-बार 

धूसर स्मृतियों के तन पर लगे हैं मोरपंख 
जब छा जाता है मन के आकाश पर भावनाओं का मेघ 
और गिरने लगती हैं रिमझिम बूँदें गगनचारिणी आँखों से 
नाचता है स्मृतियों का अबाध्य मयूर !!

Friday, February 17, 2017

फ़ूड फ़ूड

न जाने आजकल एपिक चैनल को क्या हो गया है, जब भी टीवी ऑन करती हूँ, "महाभारत" आ रहा होता है| ऐसे में एक ही चैनल रह जाता है देखने लायक - "फ़ूड फ़ूड"| इस चैनल को देखते हुए जीवन के सारे लक्ष्य बेकार लगने लगते हैं और बढ़िया खाना खाना; फिर खाते रहना ही जीवन का एकमात्र लक्ष्य लगने लगता है| कैलोरीज की बातें करने वाले संसार के सबसे क्रूर प्राणी लगते हैं|

कल "छपते छपते" पत्रिका का दीवाली विशेषांक प्राप्त हुआ। पत्रिका एक बड़े लिफाफे में बंद थी जिसके ऊपर एक तरफ मेरा पता और दूसरी ओर पत्रिका का नाम और पता अंग्रेजी में लिखा था। पत्रिका को मुझ तक पहुँचाने वाले ने अंग्रेजी में लिखे पत्रिका के नाम को जल्दबाजी में पढ़ा और कहा "चटपटी चटपटी" है। यह बात मुझे अटपटी लगी। फ़ूड फ़ूड चैनल ने आँखों पर ही चाट मसाला चढ़ा दिया है।

Thursday, February 16, 2017

नदी की आत्मकथा

-----------------------------------------------------------
जब लौट आयी मैं कोलकाता के बाबुघाट से 
तो देखा नदी ने लिख दी थी अपनी आत्मकथा 
मेरे दुपट्टे के किनारों पर अपने जल से 

पढ़ रही हूँ आत्मकथा नदी की इन दिनों 
तो उतर रही है एक नदी मेरे भीतर भी 
नींद की नौका अक्सर ले जाती है मुझे हुगली पार 

लौटने से महज कुछ घंटों पहले भी गयी थी घाट पर 
जब फिसलकर गिरी थी सीढ़ियों पर घाट के 
मेरी आँखों से छलका जल जा मिला था नदी में 
और चखा था नदी ने मेरे दुखों का स्वाद 

अब कुछ बूँद बनकर बह रही हूँ मैं भी नदी के साथ 
साझा है यात्रा में हमारा परस्पर अन्तर्जलीय दुःख 
नदी महज नदी नहीं, एक प्रान्त है, हर लहर उसका जनपद 

निकल जाना चाहती थी बैठ डिंघी में किसी रात निरूद्देश 
जैसे बहता रहता है नदी पर केले के पत्ते पर रखा नैवैद्य 
कौशिकी अमावश्या की अगली सुबह काली पूजा के बाद 

किया है नालिश अपनी आत्मकथा में नदी ने धर्म के ठेकेदारों का 
कि उनके व्यर्थ के कर्मकाण्ड का बोझ सहना पड़ता है उसे 
और लिए धरती का कचड़ा वह कूद रही है समंदर में  
कर रही है वह कई सदियों से प्रायोजित आत्महत्या इस प्रकार

किंकर्तव्यविमूढ़ नदी नहीं दे पायी जवाब आज तक 
भूपेन हजारिका के गीत का 'ओ गंगा बहती हो क्यों'
तैरता है गंगा का संगीत हुगली के पानी में 
गंगा का स्थायी है, अंतरा हुगली का 

करती हूँ नदी को याद मैं इतना इन दिनों 
नहीं किया होगा भगीरथ ने भी स्मरण उतना गंगा का 
धरती पर होने के लिए अवतरित 
लम्बी होती है आत्मकथा हमेशा ही किसी मन्त्र की अपेक्षा  

बाबुघाट के सुनहले जल पर खूब दमक रहा था आसमान 
उसी आसमान में विचरता है मेरी स्मृतियों का राम चिरैया 
उस राम चिरैया के होठों के बीच है दबा हुगली का संसार 
उस संसार पर शोध कर रहे हैं इन दिनों देश के वैज्ञानिक 

मेरी स्मृतियों के पाँव सने हैं हुगली की रेत में अब भी 
जबकि मैं बैठी हूँ देश की राजधानी के पास छोटे शहर में 
जहाँ सिटी पार्क में बैठ किसी नीलकंठ को सूना रही हूँ 
नदी की आत्मकथा; नीलकंठ सुनता है, कुछ नहीं कहता  

एक रात नींद की नौका पर सवार मैं फिर उतरी हुगली पार 
नदी के जल को छूकर पूछा "तुम्हें ठीक किस जगह दर्द है'?
नदी ने कहा इशारों में - रेत पर, सुन्दरी के पेड़ों की जड़ के पास 
बची हुई हिलसा मछलियों की छटपटाहट के ठीक मध्य

हुगली के दुःख से मलिन है बांग्लादेश की पद्मा 
पद्मा की हिलसा मछली गाती है हुगली की हिलसा का विरह 

गंगा का कोई मजहब नहीं है 
हिन्दू हो या मुसलमान, मिटाती है प्यास सभी की 
नहा सकता है कोई भी इसके जल में 
और यह बनी रहती है पवित्र 
नहीं लिखा गया कोई मन्त्र इसके शुद्धिकरण के लिए 

लौट ही रही थी मैं कि मेरे पाँव पखारती नदी ने कहा 
"बचा लो मुझे, जो करती हो प्यार, मुझे रहना है जिंदा"
देखा मैंने शहर की गंदगी को नदी में मिलाते नलिका को 
क्या कहती, चुप ही रही और खूब हुई शर्मिंदा 

उसी क्षण पढ़ा था मैंने मोबाईल में अंतर्जाल पर 
जल प्रदुषण पर हुए शोधों के विषय में 
और पाया था कि खेल रहे हैं जल वैज्ञानिक 
पृथ्वी पर कबड्डी का खेल अन्धकार में  

गैर सरकारी संगठन बेच रहे हैं दुःख अलग-अलग मंचो पर 
कि नदी का दुःख ही है उनका प्रिय व्यवसाय 
हम किए जा रहे हैं प्रदुषण से प्रणय 
और किए जा रहे हैं वहन प्रदुषण प्रणय के साथ 

बता रहे हैं सुंदरवन से चलकर कोलकाता तक पहुँचे सुन्दरी के पेड़ 
कि जान्हवी इन दिनों लौटना चाहती है स्वर्ग 
धरती पर जान्हवी जहन्नुम की साक्षी है !

रोती है गंगा आलमगीर मस्जिद के बाहर; अल्लाह नहीं सुनते 
बिलखती है हुगली कालीघाट पर; देवी रहती है मौन

कर तपस्या भगीरथ ने गंगा को बुलाया था धरती पर स्वर्ग से 
धरती के हम मानव मानवियों का श्रम उसे बना न डाले "स्वर्गीय" !!

नींद की नौका, जो ले गयी थी मुझे बाबुघाट पर हुगली किनारे 
छोड़ गयी है मुझे भोर की छोर पर 
अनुसरण करते हुए सूरज की स्वर्ण रेखाओं का 
घेर रखा है एक अपरिचित मौन ने मुझे इन दिनों 
कि नदी ने अपनी आत्मकथा में छोड़ रक्खे हैं कुछ पन्ने रिक्त !

Monday, February 13, 2017

शाम्भवी योग

---------------------------------------------------------
किसी  रक्तपूर्णिमा की रात 
मेरे अभिधान से झड़े थे कुछ शब्द
विषाद के रंग में सने  
रोप आयी थी उन्हें मैं घर के दक्षिण दुआर पर 
कि कहा था पिता ने विदाई से ठीक पहले 
नहीं दिखाना कभी किसी को अपना दुःख 

डाला मेरे दुखों पर बारिश ने पानी और रौशनी सूरज ने
जब बदला करवट मौसम ने और चली बसंती हवा 
उग आया पेड़ मेरे दुखों पर, खिला जिस पर रक्त जवा 

चढ़ा रहें है पत्थर के महादेव को रक्त जवा 
आजकल, मेरे ही असीम दुखों के अधिष्ठाता
मेरे अश्रुजल से हो रहा है उनका जलाभिषेक 

मौन हैं देवता, चुप हूँ मैं भी 
खुली हैं आँखें हम दोनों की 
और कुछ देख भी नहीं रहे 
शाम्भवी योग कहते हैं जिसे

देवता ढूँढ रहे हैं सूत्र 
मनुष्य होने का, योग द्वारा 
कि समझ सकें इंसानों के तुच्छ दुःख 
मैं हूँ प्रतीक्षारत कि न जाने लगेंगे कितने कल्प 
मुझे पत्थर हो जाने में !!

समझना चाहती हूँ मैं देवताओं की विवशता !

Sunday, February 12, 2017

साथ चलना

--------------------------------------------------------------
चल पड़ी थी मैं किसी गोधूलि बेला में तुम्हारे साथ 
कर प्रतिवेश के विधिनिषेध की देहरी को पार 
कि तुम्हारे साथ चलना था किसी सृष्टिसुख में होना 

ठीक जैसे हमारा परस्पर दुःख नहीं छोड़ता हमें अकेला 
जो चलते हम कुछ और कदम साथ
तो शायद नियति रचती कुछ और ही खेला 

नियति दुविधा में थी हमारी ग्रहण-योग्यता को लेकर 
या तुम भांप चुके थे गति का विधान 
प्रणय अभ्यास में तुम समय के साथ रहे  

चल रही हूँ इन दिनों मैं अकेली आस्तित्व के साथ 
बेकल करता है स्मृतियों का निःशब्द तुषारापात 
जीवन बीत रहा है जैसे निष्प्रदीप एक रात 

मालूम तो नहीं मुझे ठीक जा रही हूँ किस ओर 
क्यूँ करूँ चिंता मैं गंतव्य के दूरियों की अब 
जब चलती ही जा रही हूँ अहर्निश स्व-विभोर

Saturday, February 11, 2017

खाली बर्तन सा रिश्ता

आसपास के किसी घर में, जब किसी के हाथ से कोई खाली बर्तन गिर जाता है, तो देर तक वह आवाज हमारे कानों में गूँज रही होती है और हमें यह आवाज परेशान करती है| यही बात रिश्तों के साथ भी है| रिश्ता किसी का भी टूटता है, तो दर्द हमें भी होता है| ये खाली बर्तन इतना शोर क्यूँ करता है? हाथ से ज्यादातर खाली बर्तन ही गिरता है इसलिए कि हम उसे संभालने के लिए कोई अतिरिक्त प्रयत्न नहीं करते| हमारा यह अतिरिक्त आत्मविश्वास हमें धोखा दे जाता है| रिश्ते भी तभी टूटते हैं जब वह प्रेम या परवाह से खाली हो जाते हैं| कल किसी परिचित का रिश्ता टूटा| बात भी कभी-कभार ही होती थी उससे, फिर भी एक शोर अब तक मेरे अन्दर मचा हुआ है|

पास के कमरे में बेटी हाई वॉल्यूम पर "चीप थ्रिल्स" सुन रही है, साथ में गा रही है और शायद थिरक भी रही है| कायदे से तो मुझे अपने अन्दर मचे इस शोर से मुक्ति पाने के लिए उसके साथ शोर मचाते हुए थिरक लेना चाहिए, पर मेरे अन्दर मचा यह शोर ही मुझे रोक लेता है| संजीदगी और संवेदनशीलता बेहद बुरी शय है| हम नहीं कह पाते "भाड़ में जाए दुनिया, हम बजाए हरमुनिया" 

Thursday, February 9, 2017

दुनियादारी

---------------------------------
मैंने ऐसा तो नहीं कहा
कि लोग छोड़ दे समस्त दुनियादारी
कैसे कहूँ ऐसा !

बिखर रहा है धरती पर समाज उन दिनों से
जब सपने में भी नहीं सोचा था किसी वैज्ञानिक ने
जीवन के संभावना होने की मंगल ग्रह पर

अब जबकि हम पहुँच चुके हैं मंगल ग्रह पर सच में
और पाल रहे हैं उम्मीद जीवन का वहाँ
तो क्या यह नहीं है सामाजिक बिखराव के अगले स्तर की नींव ?

काँधों पर शव ढ़ोते लोग चल रहे हैं वृताकार इस तरह
जैसे कि वो कर रहे हों प्रदक्षिणा धरती की
श्मशान से लौटते यात्री भूल रहे हैं करना गंगास्नान 
और कर रहे हैं प्रस्थान मलय पर्वत की ओर
होकर चंदन की सुगंध से वशीभूत

तो यहाँ ले आयी है दुनियादारी हमें  !

जमीन को जमींदोज कर जमींदार
पका रहे हैं तंदूर पर बगेरी
प्रतिरोध अब एक वर्जित शब्द है
फिर कोई चीज है दुनियादारी!

Wednesday, February 8, 2017

शिल्प

---------------------------------------------
खड़ा रहता है पहाड़ सर उठाये 
कि धरती सह लेती है उसके हिस्से का दर्द 
उसे उठाये हुए निरंतर अपनी गोद में 

भय नहीं जानता पहाड़ 
कि भय स्वभाव है टूटने का 
टूटकर बिखर जाने का पत्थरों में 

पहाड़ अगर पहाड़ है
तो पत्थर से ही गढ़े जाते हैं शिल्प 
शिल्प अगर शिल्प  है 
तो सारा संसार है उसका ठिकाना 

तो प्रेम ?

पहले पहाड़ था प्रेम, 
फिर तो पत्थर भी नहीं रहा 
अब शिल्प बन बिकता है बाजार में !

और प्रेम?

----------------------------------------------
1.
मैं नदी हो जाना चाहती थी 
कि मुझे तुम समुद्र दिखते थे 
घुलकर तुम्हारे जल में होना चाहती थी एक 

और प्रेम?

था बहती हुई नदी के मानिंद प्रेम 
जो प्रेम में पड़ बहना गया भूल 
प्रेम को घेरे बना रहा ताल चंद रोज़  
बचा प्रेम की समाधि पर रेत ही मूल 
अब चुभता है आँखों में, उड़ता है जब धूल !

2.
मैं तुम्हारी जमीन हो जाना चाहती थी  
जहाँ तुम बोते बीज अपनी पसंद के 
और मैं हरी हो जाती, लहलहाती 

और प्रेम?

प्रेम की धरती हमेशा उर्वराशील थी 
तुमने खेती की उपेक्षा के नील की 

3.
मैं हो जाना चाहती थी रात 
जहाँ तुम बन जुगनू टिमटिमाते 
मेरी सुन्दरता में लगाते चार चाँद 

और प्रेम?

प्रेम की हुई रात, चाँदनी छायी 
बस यही बात जुगनू को न भायी 

4.
मैं चाहती थी कि तुम बन पाते मेरा अंतिम निवास 
जहाँ मैं कर पाती विश्राम हो निश्चिंत सांझ ढले  
और तुम जुटा पाते मेरे लिए शांति का बतास 

और प्रेम?

प्रेम बतास था, उड़ गया 
मेरा अंतिम निवास उजड़ गया 

तुम्हारे बाद (क्षणिकाएँ)

----------------------------
1.
बाद तुम्हारे स्मृतियाँ 
रहती हैं तो रहे 
मार्च महीना और पपीहा 
पिहू पिहू कहे 

2.
देकर दर्द बेइन्तेहाँ  
तोड़ा बेआवाज 
सुर ही कैसे सधे जब
टूटा दिल का साज 

3.
नैनों से रूठे नैना 
न ही मिलन, न ही चैना 

4.
मैं बदली, गुजरी थी तलैया ऊपर
थे अक्स तुम, मैंने पानी समझा था 
मैं बरसी नेह की मेह लेकर, सब गड्डमड्ड   
तुम कविता थे, मैंने कहानी समझा था 

5. 
दिन गुजर रहा कुछ ऐसे
जैसे पेड़ से टूटा पत्ता 
जो बीता साथ, वही जीवन था 
बच गयी हैं साँसें अलबत्ता 

Sunday, February 5, 2017

इमोटिकॉन

------------------------------------
हाथों में स्मार्टफोन लिए 
इनबॉक्स के पत्रशिल्पी 
भूल जाते हैं अक्सर मादरी ज़बान
और बतियाते हैं सुविधा की विदेशी भाषा में 

जहाँ बात-बात में इमोटिकॉन चेपते 
वह दिखना चाहते हैं आधुनिक 
नहीं करती है उनका ध्यान आकर्षित 
उनके शब्दकोष के अक्षरों की यह दरिद्रता 

इमोटिकॉन संभाल लेता है भावनात्मक आवेगों को 
बिना इस्तेमाल किए मादरी ज़बान के वो तमाम शब्द 
जिनका प्रयोग माना जाता है अनुचित पत्राचार में
शिष्टाचार के मद्देनजर, भद्रलोक के संसार में 
फिर यह बचा भी तो लेता है व्याकरण के अतिरिक्त बोझ से 

मुझे भयाक्रांत करती है एक आशंका 
कि मुझे नहीं है विशेष समझ चित्रकला की 
और अगर होते रहें इसी तरह लोग स्मार्ट दिन-प्रतिदिन 
किसी रोज गुम हो जाएँगे समस्त अक्षर इतिहास की गुफाओं में 

शायद किसी रोज़ हम वापस पहुँच जाएँ उसी आदिम समाज में 
जहाँ है दर्ज कंदराओं के पाषाण पर हमारे पूर्वजों का होना चित्रों में 
पर भूल जाएँ स्वयं पाषाण होकर दर्ज करना अपना होना पाषाण पर 
पत्राचार के मशीनी भाव में डूबे हम मानव और मानवी 

जहाँ पाषाण शिल्पी महसूस कर सकते हैं दर्द पत्थरों का तराशते हुए 
इनबॉक्स के पत्रशिल्पी बन रहे हैं स्वयं पाषाण सा- इमोटिकॉन 
जो बस दिखता ही है भावपूर्ण जबकि होता है भावशून्य असल में 

इन दिनों मेरी मूक प्रार्थनाओं में उभर आता है अक्स  
किसी अज्ञात पाषाण शिल्पी का अक्सर बंद आँखों में 
कि किसी रोज जब हम हों चुके हों परिवर्तित पाषाण में
एक वही तो होगा जो तराशकर हमें फिर मनुष्य बनाएगा

देख लेना, अंततः शिल्पी ही शिल्पी को बचाएगा !!!