Thursday, August 27, 2015

आरक्षण

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मानो बनाया गया हो खड़िया मिट्टी से 
आयताकार आरेखों का समुच्चय
जैसा बनाती थी लडकियाँ कितकित खेलते हुए
और कहा गया हो कि-" ये लो है तैयार 
तुम्हारे हिस्से का आयत 
जहाँ चलना होगा तुम्हें एक पाँव पर
अपने अंतिम पड़ाव तक रोके साँस" 


ठीक ऐसा ही समुच्चय  है हमारे देश में भी
जाति व्यवस्था के आयताकार आरेखों का
जो हो रहा है संकीर्ण दिन - प्रतिदिन


आप गरीब हैं तो बन सकते हैं अमीर
चाहें तो कर सकते हैं धर्म परिवर्तन भी
पर नहीं सौंपी गई परम्परा की ऐसी थाती
जिससे बदल सके आप अपनी जाति

बिसरा चुकी है कितकित को आज की नयी पीढ़ी
जोड़कर उन्ही आयतों को राजनेता बना रहे हैं सीढ़ी
ओलिंपियाड सा बन गया है प्रजातंत्र का खेल 
खून बहाती, लाश बिछाती चली आरक्षण की रेल

-------सुलोचना वर्मा ------------

Thursday, August 20, 2015

छाता

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सावन रहा और रही बारिश
रही मैं और रहा मेरा छाता 
जो रहा मुझे इतना प्रिय
कि बारिशों से मैं छाते को बचाती रही
और मुझे बारिशों से प्रेम सा होता रहा


अंतस रहा कि भींगता ही रहा
कि मन के पास नहीं रहा छाता
सिहरन भर बस कुछ बूंदें ही रहीं
रहीं जो उभरती त्वचा पर बारहा   


बारिश जो रही कभी गुल
तो कभी मेहरबान रही
एक विश्वास रहा फिर भी
जो छाता बन तना रहा


----सुलोचना वर्मा ------

Tuesday, August 11, 2015

लोहे का पुल

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कुछ समय पहले हमारे गाँव बखरी बाज़ार जाते हुए 
पार करना होता था लोहे का एक पुल डरहा में
ठीक इसके नीचे बहती थी एक टूटे कमर वाली नदी
जो चमक उठती थी तेज धुप में आईने की तरह


पड़ गई हैं अब बहुत दरारें इस जर्जर लोहे के पुल मे
गाँव वालों के साथ सरकारी महकमे के रिश्तों की तरह
और ढह सकता है यह किसी भी क्षण भरभरा कर
इस देश के जननायक के प्रति हमारी आस्था की मानिंद


गाँव वाले यहाँ तक आते तो हैं तेज क़दमों से चलते हुए
पर ठिठक कर हैं रुक जाते कि विपत्ति अचानक ही है आती  
हालाँकि नीचे बहते नदी में इतना भी नहीं बचा है पानी
कि डूब सके कोई एक साल का बच्चा भी इसमें
फिर कौन होना चाहेगा आहत कीचड़ में सन कर
जबकि नहीं छुपी है सरकारी अस्पताल की हालत किसी से
जो कि है इस जगह से कोई चार -पाँच मील दूर


करती हूँ फिर भी यह उम्मीद मैं
कि जाऊं जब अगली बार मैं अपने गाँव 
देखूं कि हो गयी है मरम्मत टूटे पुल की
जो लोहे का होकर भी जर्जर है पड़ा 
दौड़ रहें हो उस पर लोग और मोटर गाड़ी
कि वह महज एक लोहे का पुल ही नहीं
जरिया है सम्पर्क का, दस्तावेज है इतिहास का 
जिसे नहीं बहने देना चाहिए सूख चुकी नदी में भी
कि बचा रहा इतिहास और बचा रहे सम्पर्क
फिर साथ गाँव वालों का बना रहे न रहे !!!


--------सुलोचना वर्मा---------------

Sunday, August 9, 2015

शून्य

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हो जाती हैं महत्वपूर्ण अक्सर कई छोटी-छोटी बातें
जैसे होता है स्थान बड़ा शून्य का अंकगणित में
हो जाता है शून्यमय विवेक, शून्य का नाम ही सुनते 
विलीन हो जाना होता है हमें भी शून्य में ही एक दिन
नहीं बताया आर्यभट्ट ने कि यह सत्य था शाश्वत युगों से


नहीं बताया सरसतिया ने भी एक राज अपने प्रेमी से
कि वह गयी है जान कि वह है एक ऐसी शून्य
जिसके पहले लगे हैं कई अंक प्रेमी के अंकगणित में 
कि शून्य हो गये हैं भाव उसकी झूठी आँखों के
और शून्य हो गया है स्वाद उसके होठों का 


सरसतिया अब प्रेम में आर्यभट्ट बन रही है
फिर ज़रूरी नहीं होता हर बात का बताये जाना !!!


--------------सुलोचना वर्मा----------------------

Wednesday, August 5, 2015

इरोम चानू शर्मीला

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हौआ नहीं होता है मौत का आना
आप हो सकते हैं खर्च ठीक उसी तरह
जैसे खराब नल से टपकता है पानी


मृत्यु है जैसे कोई एक मछुआरा
जिसने फैला रखा है जाल हर तरफ
जल थल और आसमान तक में
आप मर सकते हैं बिना किसी योजना के
बस, ट्रक या मोटर कार के नीचे आकर
या फिर उतर सकती है पटरी से रेलगाड़ी
जिसमें आप इस वक्त सफर कर रहे हैं
फिर आम है विमान का दुर्घटनाग्रस्त हो जाना


हौआ नहीं होता है मौत का आना
आप हो सकते हैं खर्च ठीक उसी तरह
जैसे खराब नल से टपकता है पानी


चकित करता है मुझे अक्सर जिंदा रहना
उस बहादुर स्त्री इरोम चानू शर्मीला का
जिसने किया है इनकार मर-मर कर जीने से
और मर रही है हर पल जी-जी कर
जैसे उँगलियों को चाट रही हो खाने के बाद
कुछ इस तरह स्वाद ले रही जीवन का


जहाँ हममें से अधिकांश बीता रहे हैं जीवन
वह कह सकती है कि उसने इसे जीया सार्थकता से
बिस्कुट के छोटे - बड़े टुकड़ों की तरह नहीं
बल्कि पान की गिलौरी की तरह चबाकर


मुझे वह किसी किसान की तरह लगती है
जो रोप रही है बीज जीवन में आशाओं के
उसकी सोच जो है किसी पारसमणि के समान
मैं चाहती हूँ जा टकराए नियति का पत्थर उससे
और सोने सा चमक उठे मानवता का चेहरा


हौआ नहीं होता है मौत का आना
आप हो सकते हैं खर्च ठीक उसी तरह
जैसे खराब नल से टपकता है पानी


---------सुलोचना वर्मा -----------