Saturday, January 31, 2015

मौत

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जब चूमे मुझे हिमालय की बर्फ सी निष्ठुर मौत
तो बस मिले स्वाद उस गुलाबी बर्फ के गोले का
जो खाया करते थे हम अक्सर अपने बचपन में
हमारी मुलाक़ात हो खुशियों की ही तरह संक्षिप्त
जब बाँहे डाले मौत अन्धकार में कभी मेरे गले में  

 
मैं चाहूँगी कि उड़े मेरी आत्मा उस चिड़ियाँ की तरह
जो कर देती है बादलों को भी अनदेखा उड़ते हुए
या चख लेती है स्वाद कभी उनका हवा मिठाई जान
रखती नहीं है डर मन में वह बिजली के कौंध जाने का 
नहीं देखना चाहती मैं भी अपनी परछाई मौत को मान


जब पक जाए उम्र की फसल समय की घूप से
कह देना चाहूँगी तब "हाँ" मैं भी बिना कुछ सोचे
जैसे त्याग देता है पेड़ पीले पत्तों को पतझड़ में
झर जाना चाहूंगी मैं जीवन के उस बसंत के पार
पसन्द होगा मुझे बहते रहना अनंत के निर्झर में


मौत हो सकती है एक बेहद खूबसूरत यात्रा भी
जिसका नहीं होता होगा कोई भी गंतव्य स्थान
नहीं होता होगा जहाँ कोई अप्रिय या बहुत ख़ास
फिर थक जाता है इंसान भी जीते-जीते एक दिन
और मौत है इक कभी न ख़त्म होनेवाला अवकाश


----सुलोचना वर्मा------

Friday, January 30, 2015

सप्तर्षि

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मेरे जीवन में रह गए हैं कुछ अनुत्तरित सवाल 
और मेरे ऊपर है विस्तार असीम आकाश का
जहाँ मौजूद अनेकों नक्षत्रों में है एक सप्तर्षि
बनाता है जो आकार प्रश्नवाचक चिन्ह जैसा 
दरअसल है मेरा अपना सवाल आकाश पर 
और जब कभी भी जिंदगी लेती है इम्तिहान
मैं जानती हूँ आते हैं सारे प्रश्न उसी सप्तर्षि से


अक्सर रात में जब होती हूँ खड़ी मैं अपने घर के बाहर
मेरे सिर से नब्बे अंश का कोण बनाता होता है वह भी
जानती हूँ कि हो जाएगा हल यह प्रश्न शाश्वत होकर भी
ज्यूँ ले जाएगा समय मौसम को वैशाख के महीने में
हल मिलता जाएगा कुछ एक सवालों का जीवन में भी
कि यह वही प्रश्न है जो रहता है इस गोलार्ध के उत्तर में


----सुलोचना वर्मा-----

Saturday, January 24, 2015

ऊब

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ऊब गयी हूँ मैं सर्दियों की ठण्ड से
जैसे ऊब जाती हूँ गर्मियों की गर्मी से
ऊब जाती हूँ कभी निद्राहीन रातों से
तो कभी नींद के आने से जाती हूँ ऊब 


ज्यूँ शुरू होता है घटना तापमान मौसम का
मिमियाने लगती हैं समस्त हड्डियाँ शरीर की 
नींद की सलाइयों पर ख़्वाब बुनती है गर्माहट
तभी देखकर भेड़ों का विरोध, मैं ऊब जाती हूँ


आती है अक्सर सपनों में साइबेरिया की चिड़ियाँ
और भरती रहती है मेरे ख़्वाबों का सारा आकाश
कि तभी बजा जाता है मौसम घंटी गर्मी आने की
लौटती हुई चिड़ियाँ को देखकर मैं ऊब जाती हूँ


मेरी ऊब की टीस से पीली हो जाती है धरती वसंत में
और गाती रहती है कोयल मेरी नींद में उठती हूक को 
पक जाती हैं गेहूँ की बालियाँ भी मेरी ऊब को देखकर
ठीक ऐसे में आम को बौराते हुए देख मैं ऊब जाती हूँ


बंद कर देती हूँ मैं अपनी चाहतों को समय के पिंजड़े में
ठहर सा जाता है समय, जो है इस्पात से भी अधिक कठोर
करती हैं आक्रमण बिजली की तरह आत्मघाती आकांक्षायें
फिर एकबार देखकर समय की कठोरता मैं ऊब जाती हूँ


मैं करती हूँ प्रार्थना इक ऐसे भोर की,जो निगल ले मेरी ऊब
एक ऐसे दिन की, जहाँ सभी कुछ हो औसत सही तरीके से 
शाम भी हो तो ऐसी कि कह सकूँ दिन अच्छा ही गुज़र गया
और नहीं करनी पड़े प्रार्थना रात में कभी ऊब से उबरने की


--------सुलोचना वर्मा---------

Saturday, January 17, 2015

आतंक

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वो आते हैं धर्म की संकीर्ण गलियारों से 
और गाते रहते हैं गुप्त गीत आतंक का 
आतंक सुनते हैं कुछ लोग उन गीतों में
कुछ लोग गीतों से ही हो जाते हैं मुग्ध
इसलिए उन्हें आतंक सुनायी नहीं देता


उनकी आवाज़ में होती है सम्मोहन शक्ति
जो कर सकती है आकर्षित देवदूतों को
जिसपर कर सकते हैं विश्वास देवता सभी
उनके मुख से निकलता शब्द होता है श्राप 
जो करता रहता है प्रदूषित आत्मा धरती की


वो रौंद सकते हैं तमाम सुन्दर चीजें दुनिया की
कर सकते हैं दिग्भ्रमित लोगों को धर्म की आड़ में
मना सकते हैं जश्न फिर अपनी घातक खुशियों का
बस तृप्त हुआ करता है जंगली उनके अन्दर का
जब जल उठता है समाज इस आतंक की आग में 

ऐसी ही किसी विभीषिका की घड़ी में किसी रोज 
टूट चुके हों जब हम सभी अपने-अपने अन्दर 
मैं चाहूँगी कि देख पायें एक ऐसा चेहरा सभी
दे सके जो सांत्वना कि हम देख पाए जीवन में
हरे घास का मैदान और तारों से भरा आकाश


सुना सके जो हमें कोई कहानी चमत्कार की
और बता सके कि होनेवाला है अंत आतंक का
फडफ़ड़ाता है जैसे कोई दीया बुझने से पहले
बढ़ रहा है आतंकवाद भी वैसे अपने चरम पर
बस उगने ही वाला है एक सूरज उम्मीदों का


-----सुलोचना वर्मा----------

Wednesday, January 14, 2015

अखबार

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क्या पढ़ते हो अखबार तुम भी 
जिसमे होता है ज़िक्र मुद्दों का
जो उगलती हैं आग की लपटें
क्या तुम तक पहुँचती है ताप
सुन पाते हो क्या शब्दों को तुम


क्या तुम भी देखते हो सपने 
सामान्य मनुष्यों की ही तरह
तो क्या देखा कभी ऐसा ख्व़ाब
जिसमे तुमने जलायी हो मशाल
अमावश्या की किसी रात में


हम पढ़ रहे हैं ज़िक्र अखबारों में 
रैलियों का,व्यवसायिक जलसों का
जिनकी अगुआई करते हो तुम 
पर नहीं पढ़ पाते तुम्हारी प्रतिक्रिया
किसी भी सामाजिक सरोकार पर


क्या झुकी थी तुम्हारी भी आँखे
जब निर्वस्त्र की गयी आदिवासी लड़की
क्या कहा तुमने सांत्वना सन्देश में
जो नहीं छाप पाया कोई भी अखबार
या नहीं पढ़ पाए वे तुम्हारा मौन


आखिर कुछ तो बड़बड़ाया ही होगा तुमने
जब नहीं मिल पायी श्मशान में दो गज़ जमीन
दलित लड़की को अपनी ही अंत्येष्टि में यहाँ
अच्छा यह बताओ कैसा था स्वाद उस दही का
जो खाया तुमने किसी पर्व पर एक दलित के घर


तनिक बताओ कि क्या रही तुम्हारी प्रतिक्रिया 
जब आहत हुए मछुआरे तट रक्षकों के हाथों
और देश की सेना कर आई नष्ट कोई पुलिस चौकी
जैसे खो जाते हैं मसले बड़े-बड़े विज्ञापनों के बीच
क्यूँ क्षीण हो जाती है इन मसलों पर आवाज़ तुम्हारी


बताओ न, क्या पढ़ते हो अखबार तुम भी

------सुलोचना वर्मा------------

Friday, January 9, 2015

चुप्पी

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बेहद ज़रूरी था मेरा चुप रहना इक रोज
कि छुपे रहते मेरे सपने और मेरी भावनायें
मुझे ढूँढ लेना था कोई बहाना चुप्पी की खातिर
जैसे कि मैं देख सकती थी आसमान में चाँद
और घंटों निहार सकती थी उसे मौन रहकर


मुझे नहीं खनकने देना था मन के मंजीरे को
उसे दुहराने देना था कहरवा की पंचम मात्रा
कि नहीं समझ पाते हैं लोग मन की बातें
जैसे नहीं लग पाता है बबूल पर आम का फल
दिलों की जमीन की उर्वरकता समान नहीं होती


रच लेना था मुझे विचारों का एक समुद्र मन में
जहाँ मैं कर सकती थी गोताखोरी मौन रहकर
और तैरता हुआ आ पहुँचता वहाँ सारा संसार
जैसे पी जाता है आसमान नदी को चुपके से
और वाष्प से घन बनने की प्रक्रिया मूक होती है


डाल सकती थी मैं मुँह में पान की एक गिलोरी
और करती रह सकती थी जुगाली चुप रहकर
पर नहीं सूझी कोई भी ऐसी तरकीब चुप्पी की
खाली मन भर भी ले खुद को उदासियों से तो
खाली मुँह खाने के विकल्प में शब्द माँगता है


--------सुलोचना वर्मा-----------

Wednesday, January 7, 2015

स्वतंत्रता

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जलायी है मशाल किसी हरिया ने आज़ादी की
जहाँ आग की लपटें गाती हैं गीत मुक्ति का
मुक्ति दर्द और भूख से,अभाव और निराशा से
नुकसान से और लाभ से,नस्ल और क्रोध  से
विफलता और सफलता से,वर्तमान और अतीत से
संघर्ष और युद्ध से, लालच से और वासना से
अज्ञानता से और किसी अनभिज्ञ परिस्थिति से
नफरत से और ईर्ष्या से, गरीबी और बीमारी से
गलत और अपराध से,अन्धकार और अहंकार से


गाती है गीत कोई राफ़िया बानो स्वतंत्रता का
जिसमे लयबद्ध शब्द छेड़ते हैं तान आज़ादी की 
आज़ादी भ्रम और बंधन से मुक्ति की 
जीवन का आनंद लेने की और खुश रहने की
ज्ञान प्राप्त करने की और विकसित होने की
सोच पाने की और घटनाओं का संज्ञान लेने की 
खतना नहीं करवाने की और गर्भ धारण करने की
स्वयं के निर्णय के आधार पर कार्य कर पाने की
स्वतंत्रता चुनने की और अस्वीकार कर पाने की


जो हम किसी प्रकार के भेद से परे होते केवल मनुष्य
तो फिर दरकार होती हमें बस ऐसी स्वतंत्रता की
जो हमें वो ही बने रहने दे जो हम असल में हैं
फिर हमारे पास होती स्वतंत्रता स्वाभिकता की
जीने की और मरने की, हँसने की और रोने की 
बात करने और सुनने की, प्यार करने और शांति की
संक्षिप्त में कहें तो अपने ढंग से जीवन जी लेने की


हाँ, हम सब  हैं ग़ुलाम कि नहीं रह सके स्वाभाविक
जबकि हम हैं वासी  लोकतंत्रात्मक स्वतंत्र देश के 
और है कहने को हमारा भी अपना एक संविधान
जो देता है हमें स्वतंत्रता विचारों की अभिव्यक्ति की
जो करता है बातें राष्ट्र की एकता और अखण्डता की
व्यक्ति की गरिमा की और प्रतिष्ठा की समता की
फिर हो जाता है परतंत्र अपने ही अनुच्छेदों में
और करता है लम्बा इंतज़ार उसमे संशोधन का
कायम रहती है ऐसे सम्प्रुभता हमारे गणराज्य की 


----सुलोचना वर्मा---------