Saturday, November 11, 2017

अँधेरे में जगमग

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कमरे की दायीं ओर पूरब में रौशनदान से मनी प्लांट की बेलें झाँक रही हैं और उसके ठीक नीचे दरवाजे पर लटक रहा है ताम्बई रंग का पर्दा | इसी पर्दे से छनकर सुबह की धूप कमरे में उजाला करती है| इस पर्दे को हटाने पर आँखों को हरियाली नसीब हो सकती है; पर यह भी हो सकता है कि कोई जख्म हरा हो जाए| इसलिए यह पर्दा अमूमन हटाया नहीं जाता है| अवसाद ने उसे अपने शिकंजे में इस कदर ले लिया है कि हर निर्जीव वस्तु से अपनी तुलना कर बैठती है | दरवाजे के पास ही आयताकार दर्पण वाला सिंगार-मेज है जिस पर वक्त की बेरहमी के निशान जगह-जगह परिलक्षित हो रहे हैं| जब यह सिंगार-मेज न होकर एक हरा-भरा पेड़ था, तब इसने भी आनंद लिया था शरद की गुनगुनी धूप का, महसूस किया था बासंती हवा का सरसराकर बहना और नहाने का, सावन की पहली बारिश में फिर इक रोज उसे काटा गया, चीर डाला गया, उसमें कीलें ठोक दीं गयीं, उसमें जड़ा गया दर्पण और वह बन गया सिंगार-मेज !! उसमें जो दर्पण जड़ा है, वह अक्सर अवाक होकर देखता है उन तमाम चेहरों को जो उसमें झांकते हैं और समझ नहीं पाता कि लोग दिन में कई - कई बार उसमें क्या देखने के लिए झांकते हैं जबकि उसमें चेहरे के सिवाय कुछ भी नहीं दिखता | उसे मलाल होता होगा कि काश वह लोगों को दिखा पाता उनके अंदर का बढ़ता अभिमान, उनके आँखों से गायब होती लज्जा, उनके अंदर बढ़ती ईर्ष्या, उनके अंदर पैदा होता अवसाद  .... यदि ऐसा होता तो शायद इंसान प्रतिदिन थोड़ा और बेहतर होता जाता ! दर्पण और संध्या अपने - अपने ख्यालों में गुम हैं...

अचानक हॉर्न की तेज आवाज उसके कानों में पड़ती है| वह दौड़कर बालकनी में जाती है और नीचे झाँकती है| कोई नया परिवार आया है उस बिल्डिंग मेंउसे क्या, कोई भी आए ! वह वापस कमरे में आ जाती है| कमरे के बाहर चहलकदमी की आवाज सुन मुआयना करने के लिए अपना दरवाजा हल्का सा खोलती है| नया परिवार उसके सामने वाले फ्लैट में अपना सामान रखवा रहा है| पिछले तीन सालों से उस तीन कमरे के फ्लैट में कॉलेज के लड़के रह रहे थे जो स्नातक की परीक्षा के बाद चले गए|

वह दरवाजा बंद कर बायीं ओर मुड़ती है| उत्तर दिशा की ओर दीवार पर काले रंग की वलयाकार घड़ी टंगी है जो न जाने कब से किसी बुरे वक्त को दर्ज किए बंद पड़ी है| इस घड़ी की स्मृति में बजता है टिकटिक का अनवरत लय स्पंदन | घड़ी के शीशे के ऊपर नीचले भाग में, जहाँ छह का निशान बना हैडायनासोर का स्टीकर लगा है| वह बचपन से सुनती आयी थी कि वक़्त ने ऐसा सितम किया कि डायनासोर पृथ्वी से लुप्त हो गए; पर जिस जगह उसकी निगाह टिकी हुई है, वहाँ देखने पर ऐसा लगता है जैसे कि डायनासोर ने पिछले कई जन्मों का बदला लेते हुए कमबख्त वक़्त को निगल लिया और घड़ी की सुइयाँ रुक गयीं | दीवार घड़ी से थोड़ी दूरी पर पच्चीस वाट का एलइडी बल्ब न जाने कितनी बिजली बचाता हुआ जल रहा है और दूधिया रौशनी बिखेर रहा है | क्या उसे पता होगा कि कुछ बचाते हुए खुद भी खर्च हो जाना होता है !!

एक अजीब सी कशमकश से बेचैन होकर वह बालकनी में आकर खड़ी हो गयी| बाहर के वातावरण में एक परिचित खुशबू तैर रही थी| हर त्यौहार का अपना ही एक सुगंध होता है और होती है उस त्यौहार से जुड़ी असंख्य स्मृतियाँ| अभी दीपावली आने में कुछ ही दिन बचे थे| मोहल्ले से लेकर बाज़ार तक हर ओर चहलपहल थी, पर उसे तो चौथी मंजिल से नीचे उतरे हुए भी लगभग एक महीना हो गया था| अपनी बालकनी से वह गली के मोड़ पर सजा दिवाली का बाजार देख रही थी| रंग-बिरंगे दीयों, कलश, लक्ष्मी-गणेश की मूर्तियों और मिट्टी के खिलौनों के खूबसूरत रंग उसकी आँखों में  उतर रहे थे कि अचानक उसकी नजर मिट्टी के घरौंदे पर जा टिकी और उसका मुख मलीन हो उठा| कुछ स्मृतियाँ काल की तरह पीछा करती हैं और किसी सुखद पल में सेंध मारकर आत्मा की घड़ी का बारह बजा जाती हैं। वह स्मृतियों के रसातल में डूबती चली गई| वह याद करने लगी किस तरह दीवाली के कई दिन पहले ही वह घरौंदा बनाने में जुट जाती थी| तीन साल पहले उसने आखिरी बार घरौंदा बनाया था| गेरू, नील और चूने से रंगा था उसे | घरोंदे की दिवारों पर हाथी, घोड़ा, फूल - पत्ती और चिड़ियाँ उकेरा था| कुल मिलाकर स्थापत्य कला और भिति-चित्र की आदिम संस्कृति का उदाहरण था उसका घरौंदा| उस साल दिवाली की रात उसके गाँव के एकमात्र डॉक्टर का कम्पाउण्डर, अमित, जो उसके एकमात्र बड़े भाई का प्रिय दोस्त था, उसके घर रात्रि भोज पर आमंत्रित था| घरौंदे को देखकर इस कदर मोहित हुआ कि संध्या से कह बैठा "मुझे भी इतना प्यारा घर चाहिए| बसाओगी मेरा घर?"

संध्या के पास "ना" कहने की कोई वजह नहीं थी| अमित की आवाज और उसकी वेश भूषा उसके प्रिय नायक से मिलती जुलती थी| संध्या के भाई को यह रिश्ता मंजूर न था, इसलिए संध्या और अमित ने शहर जाकर अदालत में शादीनामा पर दस्तखत किया था| गाँव लौटते ही अमित को बता दिया गया कि संध्या के घरवालों का दबाव है और इसलिए अमित को नौकरी से निकाल दिया गया हैदोनों लौटकर शहर आ गए| अमित के पिता सरकारी मुलाज़िम थे और घर की स्थिति भी ठीक -ठाक थी; पर बहू तो उन्हें बेहद खूबसूरत और अमीर परिवार की चाहिए थी| अमित के पिता ने उस घर में रहने के लिए अमित के समक्ष शर्त रखा कि वह संध्या को उसके घर वापस छोड़ आए और उनकी पसंद की लड़की से ब्याह कर ले| बहरहाल अमित और संध्या उसी मोहल्ले की एक बिल्डिंग में एक कमरे के फ्लैट में किराये पर रहने लगे| पहले बरस घर में खाने-पीने और सुख - सुविधाओं के सामान का अभाव रहा तो दुसरे बरस संध्या को मातृत्व का अभाव भी खटकता रहा| तीसरे बरस  हिपेटाईटिस नामक काल ने उसके जीवन में वो अभाव पैदा किया कि वह अवसाद के गर्त में डूब गई| अमित के असमय जाने के बाद कोई बचा ही कहाँ था उसका जहाँ जाती|

दीपावली से दो दिन पूर्व धनतेरस का दिन था| शाम के लगभग चार बजे थे| संध्या के दरवाजे पर दस्तक हुई| संध्या ने दरवाजा खोला| सामने सात-आठ बरस की एक लड़की खड़ी थी

"दीदी, मेरा नाम ज्योति है| माँ ने पूछा है कि आप धनतेरस की खरीदारी करने कब जाएँगी| हमलोग नए हैं इस शहर में....तो माँ ने कहा कि आप जब जाने लगेंगी, तो हमें बता दीजिएगा" सामने खड़ी लड़की एक साँस में कह गई|

"अपनी माँ से कहना कि मैं नहीं जा पाऊँगी" एक अन्तराल के बाद संध्या के मुख से बस इतना ही निकला और उसने दरवाजा बंद कर दिया|

वह पलटती है| दक्खिन की ओर जो दीवार है, वह बिलकुल उसके जीवन की तरह ही बेरंग और बेनूर है| एक फोटो फ्रेम तक नहीं है उस दीवार पर! अरसा हुआ इस स्मृति-विहीन दीवार के ठीक बीचोंबीच बिजली की एक तार बल्ब लगाये जाने की प्रतीक्षा करती हुई लटक रही है| इसी दीवार पर अपना सर टिकाए एक पलंग पसरा हुआ है| पलंग के सिरहाने पर बीच में फूल और पत्तियों वाली नक्काशी की गयी है जबकि दोनों किनारों पर हंस उकेरा गया है| पलंग के पायताने पर कमल की पंखुड़ियों-सा आकार उकेरा गया है| कमरे की सफेद फर्श पर जब दूधिया रौशनी पड़ती है, तो वह क्षीरसागर सा प्रतीत होता है| न जाने ऐसा कब हुआ होगा कि कमल, हंस और क्षीरसागर ज्ञान का प्रतीक न रहकर ऐश्वर्य का प्रतीक बना दिए गए !!!

संध्या देर तक ख्यालों में गुम रहती है और फिर उसकी आँख लग जाती है|अमित को गुजरे दो महीने बीत गए और ठीक इतने ही महीने पहले संध्या ने आखिरी बार इस कमरे का किराया दिया था| वह आगे की जिंदगी के बारे में कुछ सोच पाने की स्थिति में ही नहीं है| उसे तो खाए हुए भी दो-दो दिन बीत जाते हैं|
अगले दिन बारह बजे दरवाजे पर हुई दस्तक ने संध्या को बिस्तर से उठने पर मजबूर किया| दरवाजे पर ज्योति अपनी बड़ी बहन के साथ खड़ी थी|

"नमस्ते दीदी! मैं दीपिका, ज्योति की बड़ी बहन | नरक चतुर्दशी के दिन हमारे घर चौदह साग बनता है| माँ ने थोड़ा आपके लिए भेजा है" कहते हुए दीपिका ने कटोरा संध्या की तरफ बढाया|
संध्या ने दोनों बहनों को अन्दर आने का निमंत्रण दिया| ज्योति और दीपिका कमरे में रखी प्लास्टिक की कुर्सी पर बैठ कमरा निहारने लगी|

कमरे के एक ओर रखे मेज पर संध्या और अमित की तस्वीर है|

"जीजा जी हैं न" दीपिका उस तस्वीर को देखकर संध्या से पूछती है

"हूँ" कहती हुई संध्या रसोई की ओर चली गई| शायद उसे अंदेशा हो गया था कि अब उससे कठिन पश्न पूछे जाएँगे|

"और कौन - कौन हैं तुम्हारे घर में" संध्या ने उस तस्वीर से बहनों का ध्यान हटाने के लिए पूछा|

"माँ, पापा, भैया और हम दोनों बहनें " कहते हुए दीपिका संध्या की रसोई की ओर गई| संध्या चाय बनाने की तैयारी कर रही थी| दीपिका ने चाय के लिए यह कहकर मना करते हुए विदा लिया कि घर में खाना तैयार है और घर में सभी खाने पर इंतजार कर रहे हैं|

संध्या ने दरवाजा बंद किया | कमरे का प्रवेश द्वार पश्चिम की ओर है और उसके पास ही खाली जगह है जहाँ शायद किसी अलमारी को होना था| दक्खिन की दीवार पर लटकती बिजली की तार अक्सर इस रिक्त स्थान को देख संतोष कर लेती है| क्या हुआ जो उसकी किस्मत में बल्ब नहीं, उस रिक्त स्थान को भी तो अलमारी नसीब न हो पाई!! कुछ चीजों का बस इन्तजार ही किया जाता है; कुछ रिश्ते नहीं पहुँच पाते मुकाम तक और कुछ स्थान रिक्त ही रह जाते हैं| दोनों बहनों के जाते ही सबसे पहले संध्या ने मेज से उस तस्वीर को हटाकर बक्से में रख लिया| फिर चावल बनाकर साग के साथ खाया| साग खाते हुए उसे अपनी माँ की बहुत याद आई|

शाम के करीब सात बजे संध्या साग का कटोरा लौटाने ज्योति के घर गई| ज्योति की माँ ने संध्या के हाथ में कटोरा देखते ही उसे पहचान लिया| उसे बैठकखाने में आमंत्रित करते हुए कहा "तुम दीपिका और ज्योति से तो मिल ही चुकी हो, आओ तुम्हारा परिचय मैं अपने पति ज्योतिर्मय और बेटे आलोक से  करवा दूँ| ज्योतिर्मय बैंक में हैं और आलोक ने अभी -अभी ललित कला से स्नातोकोत्तर किया है"

सबसे अंत में अपना नाम बताते हुए कहा "और मेरा नाम लक्ष्मी है और मैं सुघड़ गृहिणी हूँ| कुल मिलाकर मैं इस घर की माँ लक्ष्मी हूँ "|

"अरे वाह! आलोक, ज्योति, दीपिका, ज्योतिर्मय और लक्ष्मी; आपका तो एकदम जगमग परिवार है" संध्या ने मजाक के लहजे में कहा और सभी हँस पड़े|

ज्योति दूसरे कमरे में हारमोनियम पर रियाज करती रही|

"दीदी, आज रात का खाना हम साथ खाएँगे| आप जीजा जी को फोन कर दीजिये" दीपिका ने अनुरोध किया |

"वो नहीं आ सकते" कहते हुए संध्या ने पलकें झुका लीं|

"क्या वह दुसरे किसी शहर में रहते हैं" ज्योतिर्मय बाबु ने उत्सुकतावश पूछा|

"शहर क्या, अब तो वो इस दुनिया में ही नहीं रहते" कहते हुए संध्या की आँखें भर आईं |

यह सुनकर सभी अवाक रह गए थे | फिर संध्या ने अपनी आपबीती सुनाई|

"अब? आगे का क्या सोचा है?" माँ लक्ष्मी ने संध्या के माथे पर हाथ फेरते हुए पूछा|

"कुछ सोच पाने की स्थिति में नहीं हूँ" कहते हुए संध्या का दर्द असह्य्नीय हो चला था|

"पर तुम्हें जल्द से जल्द कुछ निर्णय लेना चाहिए" ज्योतिर्मय बाबु की आवाज में चिंता थी|

"अच्छा, आप लोग बात कीजिये| मैं रात के खाने की तैयारी करती हूँ" कहकर माँ लक्ष्मी रसोई में चली गईं|

"राग भैरवी में कोमल "रे" का प्रयोग होता है ज्योतिशुद्ध "रे" का नहीं" संध्या बैठकखाने से ही ज्योति से मुखातिब हुई|

"दीदी, आपने संगीत कहाँ से सीखा है" दीपिका ने पूछा|

"गाँव के सरकारी स्कूल के संगीत के गुरु जी से| उनकी बेटी अन्तरा मेरी सहेली थीशुरू में तो मैं बस अन्तरा का साथ देने के लिए उसके साथ बैठती थी, पर बाद में मेरी रूचि देखकर गुरु जी ने मुझे यह उपहार दिया" संध्या की आवाज में कृतज्ञता थी|

"यह तो बहुत अच्छा संयोग है| हम इस नए शहर में दीपिका और ज्योति के लिए संगीत शिक्षक ढूँढ रहे हैं| अब दिवाली के अगले दिन से तुम ही इन दोनों को संगीत सिखाओगी|" कहते हुए ज्योतिर्मय बाबु ने पर्स से तीन हजार रूपये निकालकर संध्या को देना चाहा|

संध्या मूरत बन बैठी रही| उसे समझ ही नहीं आ रहा था कि उस क्षण उसे क्या करना चाहिए| तभी माँ लक्ष्मी सामने प्रकट हुईं और ज्योतिर्मय बाबु के हाथों से रूपये लेकर संध्या के हाथ में रखते हुए कहा "देखो संध्या, दीये और हम इंसानों के बीच कई समानताएं हैं। दोनों ही मिटटी के बने होते हैं।  चेतना ही दोनों को प्रज्वलित करती है। दीया जलता है तो चारों ओर उजाला फैलाता है। हमारी चेतना प्रदीप्त होती है तो समाज और परिवेश में उजाला फैलता है। देखो, तुम्हें इस समय सबसे अधिक जरुरत है आत्मनिर्भर होने की और हमें एक संगीत शिक्षक की| समझ लो एक दीये से दूसरा जल रहा है और उज्जवल भविष्य तुम्हारा स्वागत करने को आतुर है"|

संध्या का आत्मविश्वास तो साथ नहीं दे रहा था पर उस क्षण उसे लगा मानो नियति उसका साथ देने के लिए मचल रही है| रात का खाना खाकर संध्या जब अपने कमरे में जाने लगी, तो माँ लक्ष्मी ने पूछा "तुम आज की रात यम का दीया नहीं निकालोगी?"

"मेरे जीवन का अंधकार तो अब यम ही मिटा सकते हैं" मलिन मुस्कान के साथ संध्या ने कहा|

"ऐसी निराशाजनक बातें नहीं करते| कल की दीवाली तुम्हारे जीवन में उजाला लेकर आए, यही कामना करती हूँ| हम कल दीपावली भी साथ मनाएंगे" कहकर माँ लक्ष्मी ने संध्या को विदा किया|

दीवाली के दिन सुबह के आठ बजे संध्या बिस्तर पर पड़ी सोच रही थी कि अब उसके घर ज्योति और दीपिका संगीत सीखने आएँगे और मुमकिन है कि उनके माता-पिता भी आ पहुंचे | अगले ही पल वह उठ बैठी और फिर चाय पीकर घर की साफ़-सफाई में लग गई| सफाई करते हुए वह खुद हैरान थी कि घर में हर चीज पर धूल की परत पड़ी थी, पर उसका ध्यान न जाने इस ओर क्यूँ नहीं गया | साफ-सफाई करते कब शाम के चार बज गए , पता ही न चला| नहा-धोकर कमरे से बाहर निकली तो देखा, ज्योति की घर के प्रवेश द्वार के दोनों ओर केले के पेड़ लगाये गए थे| घर की देहरी से संध्या के दरवाजे तक, बैठकखाने के केंद्र और पूजा के स्थान पर रंगोली बनाया जा रहा था| रंगोली बनाने में संध्या ने भी मदद की | संध्या की बनाई हुई रंगोली किसी कलाकृति से कम न थी| आलोक एकटक उस कलाकृति को देख रहा था| अगले दो घंटों में संध्या ने गत्तों, थर्मोकोल, रंग और रंगीन कागज से पूजा का ऐसा मंडप बनाया कि सब देखते रह गए|

पूजा का समय हो गया| ज्योति और दीपिका ने कुलिया-चुकिया में खील-बताशे-चीनी के खिलौने भरे| सबने मिलकर पटाखे फोड़े| रात का खाना खाकर जब संध्या विदा ले रही थी, आलोक ने कहा "मैने कुछ दिनों पहले अपना छोटा सा स्टूडियो खोला है| जैसा मंडप आपने आज बनाया है, क्या आप मेरे लिए वैसे दस मंडप बना सकती हैं?" आलोक यह कहकर उत्तर की प्रतीक्षा करता रहा|

संध्या कुछ देर तक निरुत्तर खड़ी रही, तो आलोक ने पर्स से दस हजार रूपये निकालकर उसकी ओर बढ़ाते हुए कहा " ओह! मैं बताना भूल गया| मैं प्रति मंडप आपको दो हजार रूपये दूँगा और यह रही दस हजार की अग्रिम राशि| बाकी काम हो जाने के बाद"

संध्या अब भी बुत बनी आलोक को अपलक देख रही थी कि माँ लक्ष्मी ने मौन भंग करते हुए कहा "दीवाली के दिन घर आई लक्ष्मी को "ना" नहीं कहते"| तुम्हारे जीवन में नया उजाला होने को है, उसका स्वागत करो"|

"मैंने तो कल मजाक - मजाक में आपलोगों को जगमग परिवार कहा था; पर आपलोगों ने तो सच में मेरे जीवन में उजाला कर दिया| मेरे जीवन में ऐसी दीवाली पहले कभी नहीं आई" कहते हुए संध्या की आँखें डबडबा गयीं और उसने एकदम से अपने कमरे का रुख कर लिया|

दरवाजा बंद करते ही वह बालकनी में गयी| घोर अमावश्या की काली रात में मोहल्ले के घरों के दीये के अतिरिक्त कुछ भी नहीं दिखाई दे रहा था|

"ठीक मेरे जीवन की तरह - अँधेरे में जगमग" बुदबुदाती हुई संध्या कमरे में आई |

कमरे की छत से लटका हुआ पंखा लगातार घूम रहा है| उसकी गति इतनी तेज है कि एकटक देखते रहने पर इसके स्थिर होने का भान होता है | कहा गया है कि जो कुछ भी इंद्रियों के दायरे में आता है, वो कभी स्थिर नहीं हो सकता| पर पंखे के पास तो इंद्रियों का अभाव है और इसीलिए उसकी गति को नियंत्रित किया जा सकता है| पृथ्वी भी तो न जाने कब से अपने केंद्र से गुजरने वाले काल्पनिक अक्ष पर लगातार घूम रही है| क्या किसी को पता है कि पृथ्वी के पास कितनी इन्द्रियां होती हैं?


दिन भर की थकान और आत्मनिर्भर होने की आश्वस्ति के सुकून की छाँव में संध्या जल्द ही सो गई| उस रात स्वप्न में माँ लक्ष्मी उसका हाथ पकड़ उसे किसी दिव्यलोक की ओर ले जा रही थी और पार्श्व में असंख्य दिव्यत्माएँ श्लोक पाठ कर रही थीं "तमसो मा ज्योतिर्गमय".......

Friday, November 10, 2017

नटी बिनोदिनी

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यह उस युग की बात है जब स्त्रियों का अपना कोई वजूद नहीं होता था| वो बस हुआ करतीं थीं| यह उस युग की बात है जब चार-पाँच बरस का होते ही लड़कियों को लड़की बनने की शिक्षा देना समाज का हर नागरिक अपना परम कर्त्तव्य समझता था| ऐसे समय में सन १८६२ में कोलकाता के कॉर्नवालिस स्ट्रीट (आज की विधान सरणी ) के १५४ नंबर की खोली में एक अत्यंत गरीब वारांगना के घर जन्म लिया एक गोरी-चिट्टी लड़की ने, जिसका नाम रखा गया "पूँटी"| 

न जाने क्या सोचकर पूँटी की नानी ने बचपन में ही उसका ब्याह साथ खेलने वाले एक लड़के से कर दिया| कुछ दिनों बाद लड़के के घरवाले आए और अपने लड़के को लेकर चले गए| पीछे रह गयी नित्तांत अकेली पूँटी| उसे अवसाद में डूबता देख उसे व्यस्त रखने के लिए उसकी माँ ने उसका दाखिला करवाया कॉर्नवालिस स्ट्रीट के एक अवैतनिक स्कूल में, जहाँ उसका नाम लिखवाया गया "बिनोदिनी दासी"| गौरतलब बात है कि जिस समाज में स्त्रियों का  वजूद ही नहीं माना जाता था, वहाँ एक अभावग्रस्त वारांगना ने अपनी बेटी की शिक्षा के विषय में सोचा | न सिर्फ सोचा, अपितु उसे स्कूल भी भेजा | हालाँकि जिस परिवेश में बिनोदिनी रहती थी, वहाँ पढ़ने -लिखने का माहौल तो नहीं था; पर बिनोदिनी अत्यंत मेधावी निकली| पढ़ाई-लिखाई में अव्वल तो थी ही, गाती भी शानदार थी|  

अभी पूँटी को स्कूल गए और पूँटी से बिनोदिनी दासी बने अधिक समय नहीं हुआ था, पर गरीबी ने उसके घर पर ऐसा अतिक्रमण किया कि उसकी माँ और नानी ने अपने पेशे के अनुरूप  ही उसे संगीत की शिक्षा के लिए गंगाबाई के सुपुर्द किया| गंगाबाई बिनोदिनी के घर के एक हिस्से में किराये पर रहती थी और उम्र में बिनोदिनी से काफी बड़ी होकर भी मित्रवत थीं, इसलिए बिनोदिनी के संगीत सीखने का सफर आसान रहा| कुछ ही समय में बिनोदिनी संगीत में निपुण हो गयी| यह विडंबना ही थी कि जहाँ संगीत को साध लेना समाज में सम्मान पाने का वायस होना चाहिए था, बिनोदिनी की सुमधुर आवाज़ और परिस्थिति ने महज ११ वर्ष की आयु में उसे वारांगना बना दिया| पर बिनोदिनी उस दीये के समान थी जो मंदिर में हो या कोठे पर, रौशनी समान रूप से बांटता है| जल्द ही गुणीजन उसकी विलक्षण प्रतिभा के कायल होने लगे | यह समाज का दोगलापन ही रहा है कि जहाँ गाने वालियों को हेय दृष्टि से देखा जाता रहा है, वहीं समाज के नामी-गिरामी पुरुष उस महफ़िल का हिस्सा होकर भी सम्मान के पात्र बने रहते हैं| गंगाबाई के घर गाने की महफ़िल सजती थी जिसमें शहर के कई नामचीन लोग आते थे| जब पूर्णचंद्र मुखोपाध्याय और ब्रजनाथ सेठ ने बिनोदिनी को गाते सुना, उसे दस रूपये की मासिक आय पर ग्रेट नेशनल थियेटर में नौकरी पर रखवा दिया|  शुरुआत के दिनों में उसकी नाट्य शिक्षा का दायित्व महेंद्रलाल बसु को दिया गया| बाद में उस समय के नाट्य जगत की अन्य बड़ी हस्तियों ने उसे प्रशिक्षित किया| ग्यारह बरस की उम्र में बिनोदिनी ने "शत्रु संहार" नाटक से अपने रंगमंच के सफर की शुरुआत की और अपने पहले ही नाटक से दर्शकों को अभिभूत कर दिया| उन दिनों अभिजात्य वर्ग की लडकियाँ/स्त्रियाँ रंगमंच से दूर रहती थी और नाटकों में अभिनय के लिए वारांगनाओं को ही बुलाया जाता था| पहली नाटक से बिनोदिनी को ऐसी प्रशंसा मिली कि अगले नाटक में उसे नायिका की भूमिका दी गयी जबकि उसकी उम्र मात्र बारह बरस थी| बिनोदिनी ने अपने संस्मरण में लिखा था कि उसकी सज्जा करनेवालों को काफी मशक्कत करनी पड़ती थी क्यूँकि वह अभी छोटी थी और उसे युवती दिखना होता था| नाटक का चरित्र पौराणिक, सामजिक या ऐतिहासिक जैसा भी होता, बिनोदिनी उसी के अनुरूप खुद को ढाल लेती| वह एक ही नाटक के कई चरित्रों का अभिनय करती थी| नाटक "मेघनाद वध" में उसने सात अलग चरित्रों का अभिनय किया था| उसने स्त्री और पुरुष चरित्रों का अभिनय किया और हर किरदार में खूब वाहवाही लूटी|

उसका बचपन तो बचपन के शुरुआती दिनों में ही में ही ख़त्म हो गया था| ग्यारह बरस की उम्र में वह शादीशुदा भी थी और परित्यक्ता भी, वह गायिका भी थी और नटी भी, वह लड़की भी थी और युवती भी, पर समाज ? उसके लिए वह अब भी केवल वारांगना ही थी !

अपने नाट्य दल की प्रमुख अभिनेत्री होने के साथ-साथ वह एक मेहनती इंसान भी थी| ग्रेट नेशनल थियेटर के धनोपार्जन के लिए उसने उत्तर भारत के कई  शहरों का दौरा किया था | उसे "नीलदर्पण" नाटक से खूब ख्याति मिली | 

रवीन्द्रनाथ टैगोर के बड़े भाई ज्योतिन्द्रनाथ टैगोर के नाटक "सरोजिनी"में बिनोदिनी के अभिनय ने नया इतिहास रचा| इसके बाद वह ग्रेट नेशनल थियेटर छोड़ बंगाल थियेटर का हिस्सा बन गयी| यहाँ दो साल से भी कम समय में उसने वह मुकाम हासिल किया जो अब तक किसी ने नहीं किया था| एक रोज़ उसका नाटक "कपालकुंडला" देखने रंगमंच की एक बड़ी हस्ती गिरीश घोष आए और बिनोदिनी की अभिनय क्षमता से प्रभावित होकर उसे अपने साथ नेशनल थियेटर ले आए| गिरीश बाबू के साथ काम करते हुए उसने बहुत कुछ सीखा और सफलताओं की नयी बुलंदियाँ छूती चली गयी| उसने जब बंकिमचंद्र के उपन्यास "मृणालिनी" के मनोरमा का किरदार निभाया, तो नाटक देखने के बाद बंकिम बाबू ने कहा था "इस किरदार को लिखते हुए मैंने कभी कल्पना ही नहीं की कि एक रोज़ मनोरमा को साक्षात् देख पाऊँगा| आज मंच पर बिनोद ने मुझे मनोरमा से मिला दिया"| एक कलाकार के लिए कितने गर्व की बात है न? पर बिनोद असाधारण व्यक्तित्व की स्वामिनी होते हुए भी बेहद सहज थीं| उनकी सफलता आसमान छू रही थी, पर उनके पाँव जमीन पर अपनी पकड़ बनाये हुए थे| 

कुछ समय बाद गुर्मूख राय नामक २०-२१ वर्षीय एक धनी बिनोद की ओर आकर्षित हुआ और बिनोद को पचास हजार रुपयों में खरीदने की पेशकश की| शर्त थी कि उसे रंगमंच छोड़ना होगा| बिनोदिनी बिकने के लिए तो तैयार थी, पर उसे रंगमंच को छोड़ने की यह शर्त मंजूर नहीं थी|  नाटक के अतिरिक्त बिनोद के जीवन में था ही क्या और फिर सफलताओं के शिखर पर भी समाज के लिए वह एक वारांगना ही थी| उसने समझौता स्वीकार कर लिया| वह पचास हजार रूपये लेकर गुर्मूख राय  की रक्षिता बन गयी| उन रुपयों से थियेटरयेटर के लिए जगह खरीदा गया| थियेटर का नाम बिनोदिनी की इच्छानुसार "बी थियेटर" होना था, पर समाज एक वारांगना के नाम को कैसे स्वीकार कर पाता ! उस समाज के तथाकथित सम्मानित भद्रलोक इस वारांगना की देह की जमीन में धँसने के लिए उतावले तो रहते थे, पर उनके समझ की जमीन भी कच्ची थी और उनका ज़मीर भी | थियेटर का पंजीकरण "स्टार थियेटर" के नाम से हुआ| बिनोद ने इसे नियति मान लिया और पूरी लगन से मेहनत करती रही, पर नियति को कुछ और ही मंजूर था| गुर्मूख राय पर परिवार ने दबाब डाला और स्टार थियेटर को बेचने की नौबत आ गयी | गुर्मूख हालाँकि बिनोद को सच्चे दिल से चाहते थे और उसे थियेटर का स्वामित्व देना चाहते थे, पर इस बार बिनोद को उन्हीं लोगों ने छला, जिन्होंने बिनोद को सफलता के इस मुकाम तक पहुँचाया| स्वयं गिरीश बाबू ने बिनोद और उसकी माँ को इस प्रस्ताव को अस्वीकार करने के लिए कहा और स्वामित्व गया रंगमंच के मित्र और बसु बंधुओं के पास|

बिनोदिनी अभिनीत नाटक "चैतन्यलीला" देखने के बाद स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने  ग्रीनरूम में जाकर बिनोद को आशीर्वाद देते हुए कहा था "चैतन्य हो !"| आशीर्वाद देते हुए स्वामी जी का स्पर्श पाकर उसका ग्लानिबोध कुछ कम हुआ और शायद थोड़े साहस का भी उसमें संचार हुआ | अब वह अपने सहकर्मियों का अपने प्रति व्यवहार देखकर रोष प्रकट करती और कई बार रंगमंच के नामी गिरामी लोगों का भी प्रतिरोध करतीं| फिर एक रोज़ दुःख, अपमान और थियेटर जगत के तिरस्कारपूर्ण व्यव्हार से क्षुब्ध होकर मात्र 23 बरस की उम्र में रंगमंच को अलविदा कह गयीं |

जब देश में ग्रामोफोन आया, तो बिनोद ने गाना भी गाया जिसे लोगों ने पसंद किया| आख़िरकार वह प्रशिक्षित गायिका थी| दुनिया जिसे नटी कहती रही, उसके व्यक्तित्व का एक और पहलू बहुत लोगों को आज भी पता नहीं है| कम पढ़ा-लिखा होकर भी भाषा पर बिनोदिनी की जबरदस्त पकड़ थी| उन्होंने बतौर संस्मरण "आमार कॉथा" और "आमार ओभिनेत्री जीबोन" नामक दो किताबें लिखीं और साथ ही "वासना" और "कनक नलिनी" नामक दो काव्य-संग्रह भी लिखा| 

हर स्त्री की तरह उसे भी अपना एक परिवार चाहिए था| हालाँकि उसके जीवन में कई पुरुष आए और गए, पर साथी नहीं मिला| संतान सुख भी कम समय के लिए ही मिला| उसकी एकमात्र बेटी १३ वर्ष में किसी अज्ञात रोग से संसार छोड़ गयी|

जिसके प्रशंसकों की तालिका में रामकृष्ण परमहंस, बंकिमचंद्र, स्वामी विवेकानंद, एड्विन अर्नोल्ड जैसे लोग रहे, नियति ने उसके साथ बेहद ही क्रूर मजाक किया और परिस्थिति ऐसी हुई कि उसे वापस उन्हीं गलियों में जाना पड़ा जहाँ से निकल उसने अपना नया परिचय पाया था| नाट्य साम्राज्ञी को जीवनपर्यन्त रक्षिता बन रहना पड़ा| ७९ वर्ष की आयु रही होगी, जब उनके जीवन के रंगमंच का पर्दा गिर गया और वह इहलोक छोड़ गयी| उनके जीवन में कितना दर्द था इस बात का अंदाजा उनकी किताब "आमार कॉथा" की भूमिका को पढ़कर लगाया जा सकता है जिसमें उन्होंने लिखा "मर्म और वेदना की क्या भूमिका होगी ! यह सिर्फ एक अभागिनी के जले हुए हृदय की राख है| इस पृथ्वी में मेरा कुछ भी नहीं है, है तो बस अनंत निराशा, कातरता साझा कर सकूँ, ऐसा भी कोई नहीं है क्यूँकि इस संसार के लिए मैं केवल एक पतिता वारांगना हूँ ! आत्मीय बंधुहीना कलंकिनी ! " 

 "आमार कॉथा" की भाषा किसी विदुषी की ही भाषा हो सकती है| बिनोदिनी दासी ने इस किताब को लिखकर साबित किया कि विदुषी होने के लिए आपको डिग्रीधारी होने की कोई जरुरत नहीं| इस किताब में लिखे उनके संस्मरण को पढ़कर उनके सरल स्वभाव और विशाल हृदय का भी पता चलता है| जिस गिरीश घोष ने उन्हें कई बार छला, बिनोदिनी ने उन्हें सिर्फ एक गुरु के रूप में याद कर कृतज्ञता जताया| 

वह बिनोदिनी दासी ही थी जिसने रंगमंच की दुनिया में स्त्रियों की मौजूदगी को बंगाल के दर्शकों के समक्ष सहज बनाया| वक़्त भी कम नाटक नहीं करता है|  क्या अजीब इत्तेफाक है कि बिनोदिनी दासी की मृत्यु के लगभग १५० बरस बाद "स्टार थियेटर" का नाम बदलकर "बिनोदिनी थियेटर" कर दिया गया|