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Saturday, September 18, 2021

महादेव साहा की कविताएँ

 १. अंतराल 


मनुष्यों की भीड़ में मनुष्य छुपे रहते हैं 

पेड़ों की ओट में पेड़,

आकाश छुपता है छोटी नदी के मोड़ पर 

जल की गहराईयों में मछलियाँ;

पत्तों की ओट में छुपते हैं जंगली फूल 

फूलों की ओट में काँटा,

मेघों की ओट में चाँद की हलचल 

सागर में ज्वार-भाटा |

आँखों की ओट में स्वप्न छुपे रहते हैं 

तुम्हारी ओट में मैं,

दिन के वक्ष में रात्रि को रखते हैं 

इसप्रकार दिवसयामिनी |  


२. अकेले हो जाओ 


अकेले हो जाओ, निसंग पेड़ की तरह

ठीक दुखी असहाय कैदी की तरह

निर्जन नदी की तरह,

तुम और अधिक विच्छिन्न हो जाओ

स्वाधीन स्वतंत्र हो जाओ

हिस्सों में बँटे यूरोप के मानचित्र की तरह;

अकेले हो जाओ सभी संग-साथ से, उन्माद से

आकाश के आखिरी उदास पक्षी की तरह,

निर्जन निस्तब्ध मौन पहाड़ की तरह

अकेले हो जाओ |

इतनी दूर जाओ कि किसी की पुकार 

नहीं पहुँचे वहाँ 

या तुम्हारी पुकार कोई सुन न पाये कभी,

उस जनशून्य, निःशब्द द्वीप की तरह,

अपनी परछाई की तरह, पदचिन्हों की तरह,

शुन्यता की तरह अकेले हो जाओ |

अकेले हो जाओ इस दीर्घश्वास की तरह 

अकेले हो जाओ | 


३. एक करोड़ वर्ष हुए तुम्हें नहीं देखा


एक करोड़ वर्ष हुए तुम्हें नहीं देखा

एक बार तुम्हें देख सकूँगा 

यह आश्वासन मिले तो-

विद्यासागर की तरह मैं भी तैरकर पार करूँगा भरा दामोदर

कुछेक हजार बार पार करूँगा इंग्लिश चैनल;

तुम्हें बस एक बार देख सकूँगा इतना भर भरोसा मिले तो  

अनायास फाँद जाऊँगा इस कारा की प्राचीर,

दौड़ पडूँगा नागराज्य और पातालपुरी की ओर    

या बमवर्षक विमान उड़ते हों ऐसी 

आशंका वाले शहर में।

अगर मुझे पता हो कि मैं तुम्हें एक बार मिल सकूँगा, तो उतप्त मरुभूमि 

अनायस चलकर पार करूँगा,

कँटीले तारों को फाँद जाऊँगा सहज ही, लोकलाज झाड़ पोंछकर 

फेंक जाऊँगा किसी भी सभा में 

या पार्क और मेले में;

एकबार मिल सकूँगा सिर्फ़ यह आश्वासन मिले तो 

एक पृथ्वी की इतनी सी दूरी मैं आसानी से तय कर लूँगा।

तुम्हें देखा था कितने समय पूर्व, वह कभी, किसी बृहस्पतिवार को

और एक करोड़ वर्ष हुए तुम्हें नहीं देखा।



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१. অন্তরাল


মানুষের ভিড়ে মানুষ লুকিয়ে থাকে

গাছের আড়ালে গাছ,

আকাশ লুকায় ছোট্ট নদীর বাঁকে

জলের গভীরে মাছ;

পাতার আড়ালে লুকায় বনের ফুল

ফুলের আড়ালে কাঁটা,

মেঘের আড়ালে চাঁদের হুলস্তুল

সাগরে জোয়ার ভাটা।

চোখের আড়ালে স্বপ্ন লুকিয়ে থাকে

তোমার আড়ালে আমি,

দিনের বক্ষে রাত্রিকে ধরে রাখে

এভাবে দিবসযামী।


२. একা হয়ে যাও


একা হয়ে যাও, নিঃসঙ্গ বৃক্ষের মতো

ঠিক দুঃখমগ্ন অসহায় কয়েদীর মতো

নির্জন নদীর মতো,

তুমি আরো পৃথক বিচ্ছিন্ন হয়ে যাও

স্বাধীন স্বতন্ত্র হয়ে যাও

খণ্ড খণ্ড ইওরোপের মানচিত্রের মতো;

একা হয়ে যাও সব সঙ্গ থেকে, উন্মাদনা থেকে

আকাশের সর্বশেষ উদাস পাখির মতো,

নির্জন নিস্তব্ধ মৌন পাহাড়ের মতো

একা হয়ে যাও।

এতো দূরে যাও যাতে কারো ডাক

না পৌঁছে সেখানে

অথবা তোমার ডাক কেউ শুনতে না পায় কখনো,

সেই জনশূন্য নিঃশব্দ দ্বীপের মতো,

নিজের ছায়ার মতো, পদচিহ্নের মতো,

শূন্যতার মতো একা হয়ে যাও।

একা হয়ে যাও এই দীর্ঘশ্বাসের মতো

একা হয়ে যাও।

3. এক কোটি বছর তোমাকে দেখি না


এক কোটি বছর হয় তোমাকে দেখি না

একবার তোমাকে দেখতে পাবো

এই নিশ্চয়তাটুকু পেলে-

বিদ্যাসাগরের মতো আমিও সাঁতরে পার হবো ভরা দামোদর

কয়েক হাজার বার পাড়ি দেবো ইংলিশ চ্যানেল;

তোমাকে একটিবার দেখতে পাবো এটুকু ভরসা পেলে

অনায়াসে ডিঙাবো এই কারার প্রাচীর,

ছুটে যবো নাগরাজ্যে পাতালপুরীতে

কিংবা বোমারু বিমান ওড়া

শঙ্কিত শহরে।

যদি জানি একবার দেখা পাবো তাহলে উত্তপ্ত মরুভূমি

অনায়াসে হেঁটে পাড়ি দেবো,

কাঁটাতার ডিঙাবো সহজে, লোকলজ্জা ঝেড়ে মুছে

ফেলে যাবো যে কোনো সভায়

কিংবা পার্কে ও মেলায়;

একবার দেখা পাবো শুধু এই আশ্বাস পেলে

এক পৃথিবীর এটুকু দূরত্ব আমি অবলীলাক্রমে পাড়ি দেবো।

তোমাকে দেখেছি কবে, সেই কবে, কোন বৃহস্পতিবার

আর এক কোটি বছর হয় তোমাকে দেখি না।


शक्ति चट्टोपाध्याय की कविताएँ

 1. हो सके तो दुःख दो


हो सके तो दुःख दो, मुझे दुःख पाना अच्छा लगता है

दो दु:ख, दु:ख दो- मुझे दुःख पाना अच्छा लगता है।

तुम सुख लेकर रहो, सुखी रहो, दरवाज़ा खुला है।


आकाश के नीचे, घर में, सेमल के दुलार से स्तंभित

मैं पदप्रान्त से उस स्तंभ का निरीक्षण करता हूँ।

जिस तरह वृक्ष के नीचे खड़ा होता है पथिक, उस तरह  


अकेले-अकेले देखता हूँ मैं इस सुन्दरता की संग्लिष्ट पताका को ।


अच्छा हो बुरा हो, मेघ आसमान में फैल जाता है  

मुझे गले लगाती है हवा, अपनी बाहों में ले लेती है।

दिल उसे रखता है, मुँह कहता है - 'न रखना सुख में, प्रिय सखी' !

हो सके तो दुःख दो, मुझे दुःख पाना अच्छा लगता है

दो दु:ख, दु:ख दो- मुझे दुःख पाना अच्छा लगता है।

अच्छा लगता है मुझे फूलों में काँटा, अच्छा लगता है,  भूल में मनस्ताप-

अच्छा लगता है मुझे सिर्फ़ तट पर बैठे रहना पत्थर की तरह

नदी में है बहुत जल, प्रेम, निर्मल जल -

डर लगता है।


२. एक बार तुम 


एक बार तुम प्यार करने की कोशिश करना -

देखोगी, नदी के भीतर, मछलियों के ह्रदय से पत्थर झड़ रहे हैं

पत्थर, पत्थर, पत्थर और नदी-समुद्र का जल 

नीला पत्थर लाल हो रहा है, लाल पत्थर नीला

एक बार तुम प्यार करने की कोशिश करना ।


ह्रदय में कुछ पत्थरों का होना अच्छा होता है - आवाज़  देने पर मिलती है प्रतिध्वनि 

जब पूरा पैदल पथ ही हो फिसलन भरा, तब उन पत्थरों के  

पाल एक के ऊपर एक बिछाकर

जैसे कविता का नग्न प्रयोग, जैसे लहर, जैसे कुमोरटुली की

सलमा-चमकी-जरी-जड़ी मूर्ति

बहुत दूर हेमन्त के धूसर नक्षत्र के दरवाजे तक को देखकर 

लौट सकता हूँ मैं 


ह्रदय में कुछ पत्थरों का होना अच्छा होता है

चिट्ठी-पत्र के बक्से जैसी तो कोई चीज़ नहीं होती- पत्थरों का अंतराल-

मुख में डाल आने पर ही काम हो जाता है-

कई बार घर बनाने का भी मन करता है।


मछलियों के ह्रदय के पत्थर क्रमशः हमारे ह्रदय में जगह बना रहे हैं 

हमें सब कुछ ही चाहिए। हम घरबार बनाएंगे-सभ्यता का 

एक स्थायी स्तम्भ खड़ा करेंगे 

रुपहली मछलियों के पत्थर झड़ा झड़ाकर चले जाने पर  

एक बार तुम प्यार करने की कोशिश करना ।


३. जिस तरह से जाता है, हर कोई जाता है


रास्ते में एक पेड़ के अपने दूसरे पेड़ के 

बेहद करीब रहने के दृश्य को देखते-देखते देखते-देखते 

मुझे याद आया, मैं हमेशा से ही हूँ बेहद अकेला ।


दोनों पेड़ों को क्या सभी ने देखा है ?

पेड़ को क्या सभी ने नहीं देखा है?


ऐसी बात सोचते-सोचते, हल्की बात सोचते-सोचते

मैं पोखर पर गया मुँह धोने के लिए

एक और चेहरा मुझे छूने के लिए - आते-आते बह गया

जिस तरह से जाता है, हर कोई जाता है, जिस प्रकार जाने की बात को  

अकेला छोड़।

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१. যদি পারো দুঃখ দাও 


যদি পারো দুঃখ দাও, আমি দুঃখ পেতে ভালোবাসি

দাও দুঃখ, দুঃখ দাও – আমি দুঃখ পেতে ভালোবাসি।

তুমি সুখ নিয়ে থাকো, সুখে থাকো, দরজা হাট-খোলা।


আকাশের নিচে, ঘরে , শিমূলের সোহাগে স্তম্ভিত

আমি পদপ্রান্ত থেকে সেই স্তম্ভ নিরীক্ষণ করি।

যেভাবে বৃক্ষের নিচে দাঁড়ায় পথিক, সেইভাবে


একা একা দেখি ঐ সুন্দরের সংশ্লিষ্ট পতাকা।


ভালো হোক মন্দ হোক যায় মেঘ আকাশে ছড়িয়ে

আমাকে জড়িয়ে ধরে হাওয়া তার বন্ধনে বাহুর।

বুকে রাখে, মুখে রাখে – ‘না রাখিও সুখে প্রিয়সখি!

যদি পারো দুঃখ দাও আমি দুঃখ পেতে ভালোবাসি

দাও দুঃখ, দুঃখ দাও – আমি দুঃখ পেতে ভালোবাসি।

ভালোবাসি ফুলে কাঁটা, ভালোবাসি, ভুলে মনস্তাপ –

ভালোবাসি শুধু কূলে বসে থাকা পাথরের মতো

নদীতে অনেক জল, ভালোবাসা, নম্রনীল জল –

ভয় করে।


२. একবার তুমি 


একবার তুমি ভালোবাসতে চেষ্টা করো–

দেখবে, নদির ভিতরে, মাছের বুক থেকে পাথর ঝরে পড়ছে

পাথর পাথর পাথর আর নদী-সমুদ্রের জল

নীল পাথর লাল হচ্ছে, লাল পাথর নীল

একবার তুমি ভালোবাসতে চেষ্টা করো ।


বুকের ভেতর কিছু পাথর থাকা ভালো- ধ্বনি দিলে প্রতিধ্বনি পাওয়া যায়

সমস্ত পায়ে-হাঁটা পথই যখন পিচ্ছিল, তখন ওই পাথরের পাল একের পর এক বিছিয়ে

যেন কবিতার নগ্ন ব্যবহার , যেন ঢেউ, যেন কুমোরটুলির সালমা-চুমকি- জরি-মাখা প্রতিমা

বহুদূর হেমন্তের পাঁশুটে নক্ষত্রের দরোজা পর্যন্ত দেখে আসতে পারি ।


বুকের ভেতরে কিছু পাথর থাকা ভাল

চিঠি-পত্রের বাক্স বলতে তো কিছু নেই – পাথরের ফাঁক – ফোকরে রেখে এলেই কাজ হাসিল-

অনেক সময়তো ঘর গড়তেও মন চায় ।


মাছের বুকের পাথর ক্রমেই আমাদের বুকে এসে জায়গা করে নিচ্ছে

আমাদের সবই দরকার । আমরা ঘরবাড়ি গড়বো – সভ্যতার একটা স্থায়ী স্তম্ভ তুলে ধরবো

রূপোলী মাছ পাথর ঝরাতে ঝরাতে চলে গেলে

একবার তুমি ভলবাসতে চেষ্টা করো ।


३. যেভাবে যায়, সক্কলে যায়


পথের উপর একটি গাছের মধ্যে আপন অন্য গাছের

গভীর কাছে-থাকার দৃশ্য দেখতে-দেখতে দেখতে-দেখতে

আমার মনে পড়লো, আমি আগাগোড়াই ভীষণ একা।

.

গাছ দুটি কি সবার দেখা?

গাছটি কি নয় সবার দেখা?

.

এমন কথা ভাবতে-ভাবতে, আলতো কথা ভাবতে-ভাবতে

পুকুরে মুখ গেলাম ধুতে

আর একটি মুখ আমায় ছুঁতে — আসতে-আসতে ভাসতে গেলো

যেভাবে যায়, সক্কলে যায়, যেমনভাবে যাবার কথা

একলা রেখে।

Thursday, April 1, 2021

सुबोध सरकार की कविताएँ

 अनुवाद: सुलोचना 


१. एक कुत्ते का बायोडेटा 


पिता जर्मन, माँ रहती थी एंटली की गली में

जन्म के समय वजन: २१/२ पाउंड, डाकनाम जीना

घर की लड़कियाँ पुकारती हैं फुचू, फुचूमणि, फुचान

त्वचा का रंग गहरा काला, पूँछ नहीं है।


दिन में गोमांस के आठ टुकड़े

रात में एक कटोरी दूध। फिलहाल उम्र तीन बरस 

आज तक किसी को भी नहीं काटा।


सिर्फ़ पिछली बार मतदान से पहले

धोती पहने एक सज्जन आए थे 

हाथ जोड़कर वोट माँगने 


जीना ने उन्हें दौड़ाया था सड़क तक 

काटा नहीं, काटने पर, जीना का बायोडेटा कहता है:

जीना खुद ही पागल हो गया होता ।


२. छात्र को लिखी चिठ्ठी 


तुम जिस दिन पहली बार मेरे पास आए

तुम्हारे हाथों में मायाकोवस्की

और आँखों में था 

सुबह का उजाला |


बिहार से लौटकर तुम फिर आए

धीमी आवाज़ में, वाष्प छुपाकर 

तुमने सुनाई थी बिहार की दास्ताँ 

खून हो चुके पिता के बारे में

मैं देख पाया तुम्हारे पीछे खड़ी है विषन्नता |


फिर आये एक दिन, एक दिन और, फिर से, बारबार 

एक दिन बात हुई चीन के बारे में 

एक दिन वियतनाम

एक दिन कंबोडिया

एक दिन क्यूबा

तुम्हारी आँखों में था सुबह का उजाला

तुमने सुनायी थी चे-ग्वेरा की डायरी मुँह-जबानी | 


लेकिन क्या हो गया तुम्हें ?

आना बंद क्यों कर दिया ?

एक दिन फोन किया था, तुम्हारे घर से

मुझसे कहा गया, तुम तीन दिन से घर नहीं लौटे हो

तुम ऐसे तो नहीं थे? क्या हुआ तुम्हें ?

 

अभी-अभी पता चला है 

तुम आमूल बदल गए हो 

तुम अब मुझे बर्दाश्त नहीं कर पाते 

मायाकोवस्की जला दिया है तुमने 

भारत के गो-वलय से निगलने के लिए निकलकर आये   

एक दल में तुमने नाम लिखवाया है |


मैंने कोई गलती तो नहीं की ?

लिखवाया, तो लिखवाया |

तुमने मेरे घर आना क्यों बंद कर दिया?

मैं क्या तुम्हें जबरन 

कार्ल मार्क्स पढ़ाऊंगा ?

घोड़े को तालाब तक पकड़कर लाया जा सकता है

उसे क्या जबरन पानी पिलाया जा सकता है?

ओ मेरे सुबह के उजाले, तुम एक दिन

फिर लौट आओगे मेरे पास, दरवाजा खुला रहेगा मेरा 

प्यार लेना |


३. रूपम


रूपम को एक नौकरी दीजिये  - एम. ए पास, पिता नहीं हैं 

है प्रेमिका जो एक या दो महीने देखेगी, फिर 

नदी के इस पार से नदी की दूसरी ओर जाकर कहेगी, रूपम

आज चलती हूँ 

तुम्हें याद रखूंगी हमेशा

रूपम को एक नौकरी दीजिये, कोई भी नौकरी 

चपरासी का काम हो तो भी चलेगा |


तमालबाबू ने फोन उठाया, फोन के दूसरे छोर पर

जो लोग करते हैं बात

उन्हें चूँकि देखा नहीं जा सकता है, इसलिए वे समझ से बाहर हैं |

तमालबाबू ने मामा से कहा कि रुपम को एक नौकरी की है जरूरत 

मामा ने चाचा से कहा, चाचा ने कहा ताऊ से,

ताऊ ने कहा

हवा से |

मनुष्य का जानना एक बात है, लेकिन हवा जान जाये तो 

पहले ही दौड़ जायेगी दक्षिण की ओर, वह कहेगी दक्षिण के अरण्य से 

अरण्य कहेगा आग से, आग गई अलीमुद्दीन स्ट्रीट पर

अलीमुद्दीन दौड़ा नदी को बताने के लिए 

नदी आकर गिर पड़ी 

तट पर, समुद्र से लेकर हिमाचल तक सब कहने लगे 

रूपम को एक नौकरी दीजिये, एम. ए पास कर बैठा है लड़का |


कुछेक महीने बाद की घटना, मैं घर लौट रहा था शाम के समय 

गली के मोड़ पर सात-आठ लोगों का जमावड़ा देख मैं अचानक रुक गया

था पानी से सद्य बाहर लाया गया रूपम का शव 

पूरे शरीर पर घास, पुआल, हाथ की मुट्ठी में 

पकड़ा हुआ एक एक रूपये का सिक्का |

सार्वजनिक बूथ से किसी को फ़ोन करना चाहा था, रूपम ने?

भारत सरकार के एक रूपये के सिक्के पर है मेरी नजर |


पूरे शरीर पर है हरित घास, घास नहीं, अक्षर

एम. ए. पास करने के लिए एक लड़के को जितने अक्षर पढ़ने पड़ते हैं

वे समस्त व्यर्थ अक्षर उसके शरीर पर लगे हुए हैं |


एक लड़के को आपलोग एम. ए. क्यों पढ़ाते हैं, किस ख़ुशी में 

बनाया है आठ विश्वविद्यालय ? बंद कर दीजिये 

ये बातें कहने के लिए पवित्र सरकार को फोन लगाया 

फोन बज उठा, फोन बजता रहा, फोन बजता ही रहा

२० सालों से वह फोन बजता ही चला जा रहा है, अगले बीस सालों तक बजता रहेगा |


हवा कह रही है अरण्य से, अरण्य बढ़ रहा है नदी की ओर

नदी ने तट से गिरते हुए कहा:

रूपम को एक नौकरी दीजिये |

रूपम कौन है?

रूपम आचार्य, उम्र २६, एम. ए. पास

बाएँ गाल पर कटे का निशान है|


४. एक निर्जन रास्ता 

  

कई वर्षों से मैं तुम्हें एक निर्जन रास्ते पर ले जाना चाहता हूँ 

लेकिन क्यों?

एक निर्जन रास्ता 

भीषण निर्जन एक रास्ता मैंने देखा था 

विरही नामक एक गाँव है, रास्ता उसी तरफ है।


शहर की एक गली से दूसरी गली, एक रास्ते से दूसरा रास्ता  

एक मधुशाला से दूसरे मधुशाला तक 

मध्यरात्रि में दस गिलास पलटकर रख 

निकल आया हूँ तुम्हें साथ लेकर  

फिर भी मेरी प्यास नहीं बुझी


मुझे जाना होगा एक भीषण निर्जन रास्ते पर 

निर्जन एक रास्ते पर।

'बताओ तो क्यों रह रहकर एक निर्जन रास्ते की बात करते हो?'

कौन, किसने मुझसे यह सवाल पूछा?

क्या तुम छोटानागपुर की हवा हो या 

असम की मेखला?


मैं पूर्वजन्म से ही तुम्हारे साथ एक निर्जन रास्ते पर 

जाना चाहता हूँ, रास्ते का नाम गोधूलि है

इस पृथ्वी के दो मनुष्य उस रास्ते पर थोड़ी देर चलेंगे

काम, अर्थ, यश कुछ नहीं चाहिए सिर्फ़ एक निर्जन रास्ता ।


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१. একটি কুকুরের বায়োডেটা 


বাবা জার্মান, মা থাকত এন্টালির গলিতে

জন্মের সময় ওজন : ২১/২ পাউন্ড, ডাকনাম জিনা

বাড়ির মেয়েরা ডাকে ফুচু, ফুচুমণি, ফুচান…

গায়ের রঙ কুচকুচে কালো, লেজ নেই।


দিনের বেলায় আট টুকরো গরুর মাংস

রাতে একবাটি দুধ। এখন বয়স তিন

আজ পর্যন্ত কাউকে কামড়ায়নি।


শুধু গেল বার ভোটের আগে

ধুতিপরা এক ভদ্রলোক এসেছিলেন

করজোড়ে ভোট চাইতে


জিনা তাকে তেড়ে গিয়েছিল রাস্তা পর্যন্ত

কামড়ায়নি, কামড়ালে, জিনার বায়োডেটা বলছে :

জিনা নিজেই পাগল হয়ে যেত।


२. ছাত্রকে লেখা চিঠি


তুমি যেদিন প্রথম এসেছিলে আমার কাছে

তোমার হাতে মায়াকভ্ স্কি

আর চোখে

সকালবেলার আলো |


বিহার থেকে ফিরে এসে তুমি আবার এলে

গলা নামিয়ে, বাষ্প লুকিয়ে

তুমি বলেছিলে বিহারের কথা

খুন হয়ে যাওয়া বাবার কথা

আমি দেখতে পেলাম তোমার পেছনে দাঁড়িয়ে আছে বিষণ্ণতা |


আবার এলে একদিন, আবারও এলে, আবার, আবার

একদিন চিন নিয়ে কথা হল

একদিন ভিয়েৎনাম

একদিন কম্বোডিয়া

একদিন কিউবা

তোমার চোখে সকালবেলার আলো

তুমি চে-গুয়েভারার ডায়েরি মুখস্ত বলেছিলে  |


কিন্তু কী হল তোমার ?

আসা বন্ধ করে দিলে কেন ?

একদিন ফোন করেছিলাম, তোমার বাড়ি থেকে

আমায় বলল, তিনদিন বাড়ি ফেরনি তুমি

এরকম তো ছিলে না তুমি ? কী হয়েছে তোমার  ?

 

এইমাত্র জানতে পারলাম

তুমি আমূল বদলে গেছ

তুমি আর আমাকে সহ্য করতে পার না

মায়াকভ্ স্কি পুড়িয়ে ফেলেছ

ভারতের গো-বলয় থেকে গ্রাস করতে ছুটে আসা

একটা দলে তুমি নাম লিখিয়েছ |


আমি কোন দোষ করিনি তো  ?

লিখিয়েছ, লিখিয়েছ |

তুমি কেন আমার বাড়ি আসা বন্ধ করে দিলে ?

আমি কি তোমাকে জোড় করে

কার্ল মার্কস পড়াব ?

ঘোড়াটিকে পুকুর পর্যন্ত ধরে আনা যায়

তাকে কি জোড় করে জল খাওয়ানো যায় ?

ওগো সকালবেলার আলো, তুমি একদিন

আবার কাছে ফিরে আসবে, দরজা খোলা থাকবে আমার

ভালোবাসা নিয়ো  |


३. রূপম 


রূপমকে একটা চাকরি দিন—এম. এ পাস, বাবা নেই

আছে প্রেমিকা সে আর দু’-এক মাস দেখবে, তারপর

নদীর এপার থেকে নদীর ওপারে গিয়ে বলবে, রূপম

আজ চলি

তোমাকে মনে থাকবে চিরদিন

রূপমকে একটা চাকরি দিন, যে কোন কাজ

পিওনের কাজ হলেও চলবে |


তমালবাবু ফোন তুললেন, ফোনের অন্য প্রান্তে

যারা কথা বলেন

তাদের যেহেতু দেখা যায় না, সুতরাং তারা দুর্জ্ঞেয় |

তমালবাবু মামাকে বললেন কূপমের একটা চাকরি দরকার

মামা বললেন কাকাকে, কাকা বললেন জ্যাঠাকে,

জ্যাঠা বললেন

বাতাসকে |

মানুষ জানলে একরকম, কিন্তু বাতাস জানলে

প্রথমেই ছুটে যাবে দক্ষিণে, সে বলবে দক্ষিণের অরণ্যকে

অরণ্য বলবে আগুনকে, আগুন গেল আলিমুদ্দিন স্ট্রিটে

আলিমুদ্দিন ছুটল নদীকে বলার জন্য

নদী এসে আছড়ে পড়ল

উপকূলে, আসমুদ্র হিমাচল বলে উঠল

রূপমকে একটা চাকরি দাও, এম. এ. পাশ করে বসে আছে ছেলেটা |


কয়েক মাস বাদের ঘটনা, আমি বাড়িফিরছিলাম সন্ধেবেলায়

গলির মোড়ে সাত-আটজনের জটলা দেখে থমকে দাঁড়ালাম

জল থেকে সদ্য তুলে আনা রূপমের ডেডবডি

সারা গায়ে ঘাস, খরকুটো, হাতের মুঠোয়

ধরে থাকা একটা এক টাকার কয়েন |

পাবলিক বুথ থেকে কাউকে ফোন করতে চেয়েছিল, রূপম?

ভারত সরকারের এক টাকা কয়েনের দিকে আমার চোখ |


সারা গায়ে সবুজ ঘাস, ঘাস নয়, অক্ষর

এম. এ. পাস করতে একটা ছেলেকে যত অক্ষর পড়তে হয়

সেই সমস্ত ব্যর্থ অক্ষর ওর গায়ে লেগে আছে |


একটা ছেলেকে কেন আপনারা এম. এ. পড়ান, কোন আহ্লাদে আটখানা

বিশ্ববিদ্যালয় বানিয়েছেন? তুলে দিন

এই কথাগুলো বলব বলে ফোন তুললাম পবিত্র সরকারের

ফোন বেজে উঠল, ফোন বেজে চলল, ফোন বেজেই চলল

২০ বছর ধরে ওই ফোন বেজে চলেছে, আরো কুড়ি বছর বাজবে |


বাতাস বলছে অরণ্যকে, অরণ্য চলেছে নদীর দিকে

নদী উপকূল থেকে আছড়ে পড়ে বলল :

রূপমকে একটা চাকরি দিন |

কে রূপম?

রূপম আচার্য, বয়স ২৬, এম. এ. পাস

বাঁ দিকের গালে একটা কাটা দাগ আছে |


৪. একটা নির্জন রাস্তা


কয়েকবছর ধরে আমি তোমাকে একটা নির্জন রাস্তায় নিয়ে যেতে চাইছি

কিন্তু কেন?

একটা নির্জন রাস্তা

ভীষণ নির্জন একটা রাস্তা আমি দেখেছিলাম

বিরহী নামে একটা গ্রাম আছে, রাস্তাটা সেইদিকে।


শহরের এক গলি থেকে আরেক গলি, এক রাস্তা থেকে অন্য রাস্তা

এক পানশালা থেকে অন্য পানশালা

মাঝরাতে দশটা গেলাস উল্টে রেখে

বেরিয়ে এলাম তোমাকে নিয়ে

তবু আমার পিপাসা গেল না


আমাকে যেতে হবে একটা ভীষণ নির্জন রাস্তায়

নির্জন একটা রাস্তায় ।

'কেন বলো তো থেকে থেকেই একটা নির্জন রাস্তার কথা বলো?'

কে, কে আমাকে এই প্রশ্ন করলে?

তুমি কি ছোটনাগপুরের বাতাস না

আসামের মেখলা?


আমি পূর্বজন্ম থেকে তোমার সঙ্গে একটা নির্জন রাস্তায়

যেতে চাইছি, রাস্তাটার নাম গোধূলি

এই পৃথিবীর দুজন মানুষ সেই রাস্তায় কিছুক্ষণ হাঁটবে

কাম, অর্থ, যশ কিচ্ছু চাই না শুধু একটা নির্জন রাস্তা।

Wednesday, March 31, 2021

रबीन्द्रनाथ टैगोर की कविताएँ

अनुवाद : सुलोचना  


1.  हार-जीत

 

ततैये मधुमक्खी के बीच हुई रस्साकशी

हुआ महातर्क दोनों में शक्ति ज्यादा किसकी

ततैया कह रहा,  है सहस्र प्रमाण 

तुम्हारा दंश नहीं है मेरे समान

मधुकर निरुत्तर छलछला उठी ऑंखें

वनदेवी कहती कानों में उसके धीरे

क्यूँ बाबूनतसिर! यह बात है निश्चित

विष से तुम जाते हो हार और मधु से जीत


2. उदारचरितानाम

 

प्राचीर की छिद्र में एक नामगोत्रहीन

खिला है छोटा फूल अतिशय दीन

धिक् धिक् करता है उसे कानन का हर कोई

सूर्य उगकर उससे कहता, कहो कैसे हो भाई ?


 

3. भक्ति और अतिभक्ति

 

भक्ति है आती रिक्तहस्त प्रसन्नवदन

अतिभक्ति कहे, देखूँ कितना मिलता है धन

भक्ति कहे, मन में है, नहीं दिखाने की औकात

अतिभक्ति कहे, मुझे तो मिलता हाथोंहाथ |

 

4. जीवन जब सूख जाए

 

जीवन जब सूख जाए

      करुणाधारा में आना

समस्त माधुरी छुप जाए

      गीतसुधारस में आना

 

कर्म ले जब प्रबल-आकार

      गरज उठे ढ़ाक से दिशा चार

हृदयप्रान्त में हे नीरवनाथ ,

      शांतचरण से आना 

 

स्वयं को जब बना कृपण

      कोने में रहे पड़ा दीनहीन मन

द्वार खोल हे उदार नाथ

      राज समारोह में आना

 

इच्छा मिले जब विपुल धूल में

      कर अंधा अबोध भूल में

हे पवित्रहे अनिद्र

      रूद्र आलोक में आना |

 


 

5. मेरा सिर नत कर दो हे देव तुम्हारे 

 

मेरा सिर नत कर दो हे देव तुम्हारे 

      चरण-धूल के तल में।

अहंकार सब हे देव मेरे

      डुबा दो आँखों के जल में।

करने को अपना गौरव दान 

किया अपना केवल अपमान,

स्वयं को केवल घुमा - घुमा कर

      चकराकर मरता हूं पल-पल में।

अहंकार सब हे देव मेरे

      डुबा दो आँखों के जल में।

 

स्वयं का कहीं न करूं प्रचार

      मेरे अपने काम में;

अपनी ही इच्छा करो हे देव पूर्ण 

      मेरे जीवन धाम में ।

मांगता हूँ तुम्हारी चरम शांति

प्राणों में तुम्हारी परम कांति

मुझे छुपाकर रख लो अपने

      हृदय-कमल के दल में।

अहंकार सब हे देव मेरे

      डुबा दो आँखों के जल में।



6. अंतर मेरा विकसित करो

 

अंतर मेरा विकसित करो

अन्तरतर हे !

निर्मल करो, उज्ज्वल करो,

सुंदर करो हे!

जाग्रत करो, उद्यत करो,

निर्भय करो हे!

मंगल करो, निरलस नि:संशय करो हे!

अंतर मेरा विकसित करो,

अन्तरतर हे ।

 

सबके संग युक्त करो,

मुक्त करो हे बंध,

सकल मर्म में संचार करो

शांत तुम्हारे छंद ।

चरणकमल में चित्त मेरा निस्पंदित करो हे,

नंदित करो, नंदित करो,

नंदित करो हे!

अंतर मेरा विकसित करो

अन्तरतर हे !

 

 

7. मेघदूत

 

कविवर, कब किस विस्मृत बरस में

किस पुण्य आषाढ़ के प्रथम दिवस में

लिखा था तुमने मेघदूत ? मेघमन्द्र श्लोक

विश्व में विरही हैं जितने, उन सबके शोक

रखा है अपना अंधेरा कई तहों में

सघन संगीत के मध्य में पुंजीभूत करके |

उस दिन उज्जयिनी के उस प्रासाद-शिखर पर

न जाने कैसी घन घटा, विद्युत--उत्सव,

उद्दामपवनवेग, गुड़गुड़ रव  ।

गंभीर निर्घोष उस मेघ संघर्ष का

जगा उठा सहस्र वर्षों के

अंतरगूढ़ वाष्पाकुल विच्छेद क्रन्दन को

एक दिन में | तोड़कर काल के बंधन को

उस दिन बह निकले थे अविरल

चिरकाल से अवरुद्ध अश्रुजल

आद्र करते हुए तुम्हारी उदार श्लोकराशि |

उस दिन क्या संसार के समस्त प्रवासी

जोड़ हस्त मेघपथ पर शून्य की ओर उठा माथा

गाते थे समवेत स्वर में विरह की गाथा

लौटकर प्रिय के गृह? बंधनविहीन

नवमेघपंख पर कर आसीन

भेजना चाहा था प्रेमवार्ता

अश्रुवाष्प से भरा - दूर वातायन में यथा

विरहन थी सोई भूतलशयन में

मुक्तकेश में, म्लान वेश में, सजल नयन में ?

उन सबों का गीत तुम्हारे संगीत में

भेज दिया क्या, कवि, दिवस में, निशीथ में

देश-देशांतर में, ढूँढते हुए विरहिणी प्रिया ?

श्रावण में जाहन्वी का जैसा हो जाता है प्रवाह

खींच लाती है दिग्दिगन्त से वारिधारा

महासमुद्र के मध्य होने के लिए दिशाहारा |

पाषाण-श्रृंखलाओं में जैसे है बंदी हिमाचल

आषाढ़ के अनन्त शून्य में हेरता हूँ मेघदल

होकर कातर लेता श्वास स्वाधीन-गगनचारी

सहस्र कन्दराओं से ला वाष्प राशि-राशि

भेजता है गगन की ओर; दौड़ते हैं वे

भागने की कामना करते हुए; शिखर पर चढ़कर

सब मिलकर अन्त में हो जाते हैं एकाकार,

समस्त गगनतल पर जमा लेते हैं  अधिकार ।

उस दिन के बाद से बीते कई सौ दिन

प्रथम दिवस की स्निग्ध वर्षा नवीन |

प्रत्येक वर्षा दे गई नवीन जीवन

तुम्हारे काव्य पर बरसाकर बरिषण

नववृष्टिवारिधारा, करते हुए विस्तार

नवघनस्निग्धछाया का करते हुए संचार

नव नव प्रतिध्वनि जलद-मन्द्र की,

स्फीत कर स्रोत-वेग तुम्हारे छंद की

वर्षातरंगिणी के समान |

कितने काल से

कितने विरही लोगों ने, प्रियतमा विहीन घरों में,

वृष्टिक्लांत बहुदीर्घ लुप्त तारा शशि

आषाढ़ संध्या में क्षीण दीपलोक में बैठ

उस छंद का मंद-मंद कर उच्चारण

निमग्न किया है निज विजन वेदना

उन सबका कंठ-स्वर कानों में आता है मेरे

समुद्र के तरंगों की कलध्वनि के समान

तुम्हारे काव्य के भीतर से|

भारत की पूर्वी सीमा पर

बैठा हूँ आज मैं जिस श्यामल बंग देश में

जहाँ कवि जयदेव ने वर्षा के एक दिन

देखी थी दिगंत के तमालविपिन में

श्यामल छाया, मेघों से पूर्ण मेंदुर अम्बर |

आज अंधकार दिवा, वृष्टि झर-झर

पवन दुरंत अति, अपने आक्रमण में

अरण्य बाहें उठाकर कर रही है हाहाकार |

विद्युत् झाँक रही है चीरकर मेघ भार

बरसकर शून्य में सुतीक्ष्ण वक्र मुस्कान के साथ |

अँधेरे बंद गृह में बैठकर अकेला

पढ़ रहा हूँ मेघदूत; मेरा गृह-त्यागी मन

मुक्तगति मेघों की पीठ पर जमाकर आसन,

उड़ रहा है देश-देशान्तर में है कहाँ

सानुमान आम्रकूट; बहती है कहाँ 

विमल विशीर्ण रेवा विन्ध्यपदमूल में

शिलाओं से बाधित है जिसकी गति; वेत्रवती के तीर पर

पके फलों से श्याम दिखने वाले जंबू-वन की छाया में

कहाँ छिपा हुआ है दशार्ण ग्राम

खिली हुई केतकी के बाड़े से घिरा;

पथतरुशाख पर जहाँ ग्रामविहंगों ने

बनाए हैं अपने वर्षाकालीन नीड़, कलरव से पूर्ण

वनस्पति; न जाने किस नदी के तीर पर

वह जुहीवन में विहार करने वाली वनांगना लौट रही है,

तप्त कपोल के ताप से क्लांत कर्णोतपल

मेघ की छाया लग वह हो रही है विकल;

भ्रू विलास नहीं सीखा; कौन हैं वे नारियाँ

जनपद की वधुएँ गगन में निहारती 

घनघटा, उर्ध्व नेत्र से देखती हैं मेघपथ की ओर,

घननील छाया पड़ती है सुनील नयनों में;

मेघों से श्याम वह कौन सा है शैल 

जिसकी शिला पर मुग्ध सिद्धान्गना

स्निग्ध नवघन को देख हुई थी अनमना

शिला के नीचे, सहसा भयानक झंझा के आते ही  

चकित चकित हो भय से काँपती थर-थर

वसन सम्भाल ढूंढती फिरती गुहाश्रय,

कहती हैं, "ओ माँ, लगता है गिरि-श्रृंग उड़ा कर ले जायेगी!"

कहाँ है अवंतिपुरी; निर्विन्ध्या तटिनी;

कहाँ उज्जयिनी ढूंढती शिप्रा नदी के जल में

स्वयंहिमछाया - जहाँ द्विप्रहर में

प्रणय चंचलता भूल भवन के शिखर में

सुप्त कपोत, है केवल विरह विकार में

रमणी निकलती है बाहर प्रेम-अभिसार के लिए

सूची भेद्य अंधकार में राजपथ के मध्य

कदाचित विद्युतलोक में; कहाँ विराजता है

ब्रह्म्नावर्त में कुरुक्षेत्र; कहाँ है कनखल,

जहाँ वह चंचल यौवना जहूकन्या,

गौरी की भृकुटी भंगिमा की कर अवहेलना

छोड़कर झाग कर रही है परिहास

पकड़कर धुर्जटि की जटा भालचन्द्रस्पर्शी तरंग रूपी हाथों से

इस प्रकार मेघ रूप में कई देशों से होकर

हृदय तैरता जाता है, उत्तरीय के अंत में

कामनाओं का मोक्षधाम अलका के मध्य,

विरहणी प्रियतमा विराजती है जहाँ

होती है सौन्दर्य की आदिसृष्टि | कौन ले जा सकता था

वहाँ, तुम्हें छोड़, बिना खर्च के

लक्ष्मी की विलासपूरी - अमर भुवन में !

अनंत वंसत में जहाँ नित्य पुष्पवन में

नित्य चन्द्रलोक में, इन्द्रनील पर्वत के मूल में

स्वर्ण सरोज खिलकर सरोवर कूल में

मणिमहल के असीम सम्पदा में हो निमग्न

रो रहे हैं एकाकीपन की विरह वेदना पर |

खुले वातायन से उन्हें देखा जा सकता

शैयाप्रान्त में लीन कमनीय क्षीण शाशिरेखा

पूर्व गगन के मूल में लगभग अस्तप्राय |

कवि, तुम्हार मन्त्र से आज मुक्त हो जाता है

रुद्ध हो चुकी है इस हृदय के बंधन की व्यथा;

पाया है विरह का स्वर्गलोक, जहाँ

चिरनिशि जाप रही है विरहिणी प्रिया

जागकर अकेले अनंत सौन्दर्य के साथ |

फिर खो जाता है- ढूंढता हूँ चहुँओर

वृष्टि होती है अविरल; छा जाता है अंधियारा

आई है निर्जन निशा; प्रान्त के अंत में

रोता हुआ चला जा रहा है वायु बिना किसी उद्देश के |

सोच रहा हूँ आधी रात, हैं अनिद्रनयान,

किसने दिया ऐसा श्राप, काहे का व्यवधान?

क्यूँ उर्ध्व में देख रोता रुद्ध मनोरथ?

क्यूँ प्रेम को नहीं मिल पाता निज पथ?

सशरीर कौन नर गया है वहाँ,

मानस सरसी तट पर विरह निद्रित

रविहीन मणिदीप्त साँझ के देश में

जगत की नदी, गिरी, सभी के शेष में |

 

 

8. अफ्रीका

 

उद्भ्रांत उस आदिम युग में

         जब स्रष्टा ने स्वयं से होकर असंतुष्ट

              किया था विध्वस्त नूतन सृष्टि को बारम्बार,

                            अधैर्य होकर बार-बार अपना सर हिलाने के उन दिनों में

                                      रुद्र समुद्र के बाहू

                               प्राची धरित्री के सीने से

                             छीनकर ले गए तुम्हें, अफ्रीका,

                   बाँधा तुम्हें वनस्पतियों के निविड़ पहरे में

                            कृपण आलोक के अन्तःपुर में।

 

                     वहाँ तुमने निभृत अवकाश पर

                           किया संग्रह दुर्गम के रहस्यों को,

                               पहचान रहे थे तुम जल, स्थल और आकाश के दुर्बोध संकेतों को,

                                      प्रकृति का दृष्टि-अतीत जादू

                          जगा रहा था मंत्र तुम्हारी चेतनातीत मन में  ।

 

                                                विद्रूप कर रहा था भीषण को

                                                   विरूप के छद्मवेश में,

                                                 चाह रहा था शंका से हार मनवा लेना

 

          स्वयं को कर उग्र विभीषिका की प्रचण्ड महिमा में

                             तांडव के दुन्दुभिनाद में ।

 

हाय छायावृता,

            काले घूंघट के पीछे

          अपरिचित था तुम्हारा मानवरूप

 

                            उपेक्षा की आबिल दृष्टि में।

          वे आए लोहे की हथकड़ी लेकर

                   जिनके नाखून भेड़ियों से भी हैं तेज,

                   आए लोगों कों गिरफ्तार करनेवाले दल

          गर्व से जो हैं अंधे तुम्हारी बिना सूर्य की रौशनी वाले अरण्य से अधिक।

 

                   सभ्यों के बर्बर लोभ ने

                               नग्न की अपनी निर्लज्ज अमानवीयता ।

          तुम्हारी भाषाहीन क्रंदन के वाष्पाकुल अरण्य पथ पर

 

                   पंकिल हुई धूल तुम्हारे रक्त और अश्रु में मिल;

          बड़े पाँव वाले कँटीले जूतों के नीचे

                            वीभत्स कीचड़ पिण्ड

          चिरचिन्ह लगा गए तुम्हारे अपमानित इतिहास में ।

 

          समुद्र तट पर उसी मुहूर्त उनके हर मोहल्ले के

                     गिरजाघरों में बज रहा था प्रार्थना का घड़ियाल

                     सुबह- शाम, दयामय देवता के नाम पर;

                              शिशु खेल रहे थे माँ की गोद में;

                              कवि के संगीत से गुंजायमान थी

                                      सुंदरता की आराधना |

 

                   आज जब पश्चिम-दिगंत में

          प्रदोष काल के झंझा बतास से है रुद्ध श्वास ,

                   जब बाहर निकल आए पशु गुप्त गुफा से,

                             अशुभ ध्वनि के साथ करता है घोषणा दिन का अंतिम काल,

                                         आओ, युगांतकारी कवियों,

                                        आसन्न संध्या की शेष रश्मिपात में

                                         खड़े हो जाओ उस सम्मान खो चुकी मानवी के द्वार पर,

                                                कहो "क्षमा कीजिए" -

                                              हिंस्र प्रलाप के मध्य

                             वही हो तुम्हारी सभ्यता की शेष पुण्यवाणी ।

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1. হার-জিত


ভিমরুলে মৌমাছিতে হল রেষারেষি,

দুজনায় মহাতর্ক শক্তি কার বেশি।

ভিমরুল কহে, আছে সহস্র প্রমাণ

তোমার দংশন নহে আমার সমান।

মধুকর নিরুত্তর ছলছল-আঁখি—

বনদেবী কহে তারে কানে কানে ডাকি,

কেন বাছা, নতশির! এ কথা নিশ্চিত

বিষে তুমি হার মানো, মধুতে যে জিত।


2.উদারচরিতানাম্

প্রাচীরের ছিদ্রে এক নামগোত্রহীন

ফুটিয়াছে ছোটো ফুল অতিশয় দীন।

ধিক্‌ ধিক্‌ করে তারে কাননে সবাই—

সূর্য উঠি বলে তারে, ভালো আছ ভাই?


3. ভক্তি ও অতিভক্তি


ভক্তি আসে রিক্তহস্ত প্রসন্নবদন—

অতিভক্তি বলে, দেখি কী পাইলে ধন।

ভক্তি কয়, মনে পাই, না পারি দেখাতে।—

অতিভক্তি কয়, আমি পাই হাতে হাতে।


4. জীবন যখন শুকায়ে যায়


- রবীন্দ্রনাথ ঠাকুর---গীতাঞ্জলি


জীবন যখন শুকায়ে যায়

              করুণাধারায় এসো।

       সকল মাধুরী লুকায়ে যায়,

              গীতসুধারসে এসো।

 

                           কর্ম যখন প্রবল-আকার

                           গরজি উঠিয়া ঢাকে চারি ধার,

                           হৃদয়প্রান্তে হে নীরব নাথ,

                                  শান্তচরণে এসো।

 

       আপনারে যবে করিয়া কৃপণ

       কোণে পড়ে থাকে দীনহীন মন,

       দুয়ার খুলিয়া হে উদার নাথ,

              রাজ-সমারোহে এসো।

 

                                  বাসনা যখন বিপুল ধুলায়

                                  অন্ধ করিয়া অবোধে ভুলায়

                                  ওহে পবিত্র, ওহে অনিদ্র,

                                         রুদ্র আলোকে এসো।


5. আমার মাথা নত করে দাও হে তোমার

- রবীন্দ্রনাথ ঠাকুর---গীতাঞ্জলি


আমার মাথা নত করে দাও হে তোমার

                     চরণধুলার তলে ।

          সকল অহংকার হে আমার

                     ডুবাও চোখের জলে ।

                            নিজেরে করিতে গৌরব দান

                            নিজেরে কেবলই করি অপমান,

                            আপনারে শুধু ঘেরিয়া ঘেরিয়া

                                       ঘুরে মরি পলে পলে ।

                            সকল অহংকার হে আমার

                                       ডুবাও চোখের জলে ।


          আমারে না যেন করি প্রচার

                      আমার আপন কাজে ;

          তোমারি ইচ্ছা করো হে পূর্ণ

                      আমার জীবন-মাঝে ।

                            যাচি হে তোমার চরম শান্তি

                            পরানে তোমার পরম কান্তি

                            আমারে আড়াল করিয়া দাঁড়াও

                                        হৃদয়পদ্মদলে ।

                            সকল অহংকার হে আমার

                                        ডুবাও চোখের জলে ।

6. অন্তর মম বিকশিত করো

- রবীন্দ্রনাথ ঠাকুর---গীতাঞ্জলি


অন্তর মম বিকশিত করো

     অন্তরতর হে।

নির্মল করো, উজ্জ্বল করো,

    সুন্দর কর হে।

           জাগ্রত করো, উদ্যত করো,

                নির্ভয় করো হে।

      মঙ্গল করো, নরলস নিঃসংশয় করো হে।

           অন্তর মম বিকশিত করো,

                অন্তরতর হে।


যুক্ত করো হে সবার সঙ্গে,

  মুক্ত করো হে বন্ধ,

সঞ্চার করো সকল মর্মে

  শান্ত তোমার ছন্দ।

      চরণপদ্মে মম চিত নিঃস্পন্দিত করো হে,

          নন্দিত করো, নন্দিত করো,

              নন্দিত করো হে।

          অন্তর মম বিকশিত করো          

 অন্তরতর হে।

7. মেঘদূত – রবীন্দ্রনাথ ঠাকুর

কবিবর, কবে কোন্ বিস্মৃত বরষে
কোন্ পুণ্য আষাঢ়ের প্রথম দিবসে
লিখেছিলে মেঘদূত! মেঘমন্দ্র শ্লোক
বিশ্বের বিরহী যত সকলের শোক
রাখিয়াছে আপন আঁধার স্তরে স্তরে
সঘনসংগীতমাঝে পুঞ্জীভূত করে।
সেদিন সে উজ্জয়িনীপ্রাসাদশিখরে
কী না জানি ঘনঘটা, বিদ্যুৎ-উৎসব,
উদ্দামপবনবেগ গুরুগুরু রব।
গম্ভীর নির্ঘোষ সেই মেঘসংঘর্ষের
জাগায়ে তুলিয়াছিল সহস্র বর্ষের
অন্তর্গূঢ় বাষ্পাকুল বিচ্ছেদ ক্রন্দন
এক দিনে। ছিন্ন করি কালের বন্ধন
সেই দিন ঝরে পড়েছিল অবিরল
চিরদিবসের যেন রুদ্ধ অশ্রুজল
আর্দ্র করি তোমার উদার শ্লোকরাশি।
সেদিন কি জগতের যতেক প্রবাসী
জোড়হস্তে মেঘপানে শূন্যে তুলি মাথা
গেয়েছিল সমস্বরে বিরহের গাথা
ফিরি প্রিয়গৃহপানে? বন্ধনবিহীন
নবমেঘপক্ষ-‘পরে করিয়া আসীন
পাঠাতে চাহিয়াছিল প্রেমের বারতা
অশ্রুবাষ্প-ভরা– দূর বাতায়নে যথা
বিরহিণী ছিল শুয়ে ভূতলশয়নে
মূক্তকেশে, ম্লান বেশে, সজল নয়নে?
তাদের সবার গান তোমার সংগীতে
পাঠায়ে কি দিলে, কবি, দিবসে নিশীথে
দেশে দেশান্তরে, খুঁজি’ বিরহিণী প্রিয়া?
শ্রাবণে জাহ্নবী যথা যায় প্রবাহিয়া
টানি লয়ে দিশ-দিশান্তের বারিধারা
মহাসমুদ্রের মাঝে হতে দিশাহারা।
পাষাণশৃঙ্খলে যথা বন্দী হিমাচল
আষাঢ়ে অনন্ত শূন্যে হেরি মেঘদল
স্বাধীন-গগনচারী, কাতরে নিশ্বাসি
সহস্র কন্দর হতে বাষ্প রাশি রাশি
পাঠায় গগন-পানে; ধায় তারা ছুটি
উধাও কামনা-সম; শিখরেতে উঠি
সকলে মিলিয়া শেষে হয় একাকার,
সমস্ত গগনতল করে অধিকার।
সেদিনের পরে গেছে কত শত বার
প্রথম দিবস স্নিগ্ধ নববরষার।
প্রতি বর্ষা দিয়ে গেছে নবীন জীবন
তোমার কাব্যের ‘পরে করি বরিষন
নববৃষ্টিবারিধারা, করিয়া বিস্তার
নবঘনস্নিগ্ধচ্ছায়া, করিয়া সঞ্চার
নব নব প্রতিধ্বনি জলদমন্দ্রের,
স্ফীত করি স্রোতোবেগ তোমার ছন্দের
বর্ষাতরঙ্গিণীসম।
কত কাল ধরে
কত সঙ্গীহীন জন, প্রিয়াহীন ঘরে,
বৃষ্টিক্লান্ত বহুদীর্ঘ লুপ্ততারাশশী
আষাঢ়সন্ধ্যায়, ক্ষীণ দীপালোকে বসি
ওই ছন্দ মন্দ মন্দ করি উচ্চারণ
নিমগ্ন করেছে নিজ বিজনবেদন!
সে সবার কন্ঠস্বর কর্ণে আসে মম
সমুদ্রের তরঙ্গের কলধ্বনি-সম
তব কাব্য হতে।
ভারতের পূর্বশেষে
আমি বসে আজি; যে শ্যামল বঙ্গদেশে
জয়দেব কবি, আর এক বর্ষাদিনে
দেখেছিলা দিগন্তের তমালবিপিনে
শ্যামচ্ছায়া, পূর্ণ মেঘে মেদুর অম্বর।
আজি অন্ধকার দিবা, বৃষ্টি ঝরঝর্,
দুরন্ত পবন অতি, আক্রমণে তার
অরণ্য উদ্যতবাহু করে হাহাকার।
বিদ্যুৎ দিতেছে উঁকি ছিঁড়ি মেঘভার
খরতর বক্র হাসি শূন্যে বরষিয়া।
অন্ধকার রুদ্ধগৃহে একেলা বসিয়া
পড়িতেছি মেঘদূত; গৃহত্যাগী মন
মুক্তগতি মেঘপৃষ্ঠে লয়েছে আসন,
উড়িয়াছে দেশদেশান্তরে। কোথা আছে
সানুমান আম্রকূট; কোথা বহিয়াছে
বিমল বিশীর্ণ রেবা বিন্ধ্যপদমূলে
উপলব্যথিতগতি; বেত্রবতীকূলে
পরিণতফলশ্যাম জম্বুবনচ্ছায়ে
কোথায় দশার্ণ গ্রাম রয়েছে লুকায়ে
প্রস্ফুটিত কেতকীর বেড়া দিয়ে ঘেরা;
পথতরুশাখে কোথা গ্রামবিহঙ্গেরা
বর্ষায় বাঁধিছে নীড়, কলরবে ঘিরে
বনস্পতি; না জানি সে কোন্ নদীতীরে
যূথীবনবিহারিণী বনাঙ্গনা ফিরে,
তপ্ত কপোলের তাপে ক্লান্ত কর্ণোৎপল
মেঘের ছায়ার লাগি হতেছে বিকল;
ভ্রূবিলাস শেখে নাই কারা সেই নারী
জনপদবধূজন, গগনে নেহারি
ঘনঘটা, ঊর্ধ্বনেত্রে চাহে মেঘপানে,
ঘননীল ছায়া পড়ে সুনীল নয়ানে;
কোন্ মেঘশ্যামশৈলে মুগ্ধ সিদ্ধাঙ্গনা
স্নিগ্ধ নবঘন হেরি আছিল উন্মনা
শিলাতলে, সহসা আসিতে মহা ঝড়
চকিত চকিত হয়ে ভয়ে জড়সড়
সম্বরি বসন ফিরে গুহাশ্রয় খুঁজি,
বলে, “মা গো, গিরিশৃঙ্গ উড়াইল বুঝি!”
কোথায় অবন্তিপুরী; নির্বিন্ধ্যা তটিনী;
কোথা শিপ্রানদীনীরে হেরে উজ্জয়িনী
স্বমহিমচ্ছায়া– সেথা নিশিদ্বিপ্রহরে
প্রণয়চাঞ্চল্য ভুলি ভবনশিখরে
সুপ্ত পারাবত, শুধু বিরহবিকারে
রমণী বাহির হয় প্রেম-অভিসারে
সূচিভেদ্য অন্ধকারে রাজপথমাঝে
ক্বচিৎ-বিদ্যুতালোকে; কোথা সে বিরাজে
ব্রহ্মাবর্তে কুরুক্ষেত্র; কোথা কন্খল,
যেথা সেই জহ্নুকন্যা যৌবনচঞ্চল,
গৌরীর ভ্রুকুটিভঙ্গী করি অবহেলা
ফেনপরিহাসচ্ছলে করিতেছে খেলা
লয়ে ধূর্জটির জটা চন্দ্রকরোজ্জ্বল।
এইমতো মেঘরূপে ফিরি দেশে দেশে
হৃদয় ভাসিয়া চলে, উত্তরিতে শেষে
কামনার মোক্ষধাম অলকার মাঝে,
বিরহিণী প্রিয়তমা যেথায় বিরাজে
সৌন্দর্যের আদিসৃষ্টি। সেথা কে পারিত
লয়ে যেতে, তুমি ছাড়া, করি অবায়িত
লক্ষ্মীর বিলাসপুরী– অমর ভুবনে!
অনন্ত বসন্তে যেথা নিত্য পুষ্পবনে
নিত্য চন্দ্রালোকে, ইন্দ্রনীলশৈলমূলে
সুবর্ণসরোজফুল্ল সরোবরকূলে
মণিহর্ম্যে অসীম সম্পদে নিমগনা
কাঁদিতেছে একাকিনী বিরহবেদনা।
মুক্ত বাতায়ন হতে যায় তারে দেখা
শয্যাপ্রান্তে লীনতনু ক্ষীণ শশীরেখা
পূর্বগগনের মূলে যেন অস্তপ্রায়।
কবি, তব মন্ত্রে আজি মুক্ত হয়ে যায়
রুদ্ধ এই হৃদয়ের বন্ধনের ব্যথা;
লভিয়াছি বিরহের স্বর্গলোক, যেথা
চিরনিশি যাপিতেছে বিরহিণী প্রিয়া
অনন্তসৌন্দর্যমাঝে একাকী জাগিয়া।
আবার হারায়ে যায়– হেরি চারি ধার
বৃষ্টি পড়ে অবিশ্রাম; ঘনায়ে আঁধার
আসিছে নির্জননিশা; প্রান্তরের শেষে
কেঁদে চলিয়াছে বায়ূ অকূল-উদ্দেশে।
ভাবিতেছি অর্ধরাত্রি অনিদ্রনয়ান,
কে দিয়েছে হেন শাপ, কেন ব্যবধান?
কেন ঊর্ধ্বে চেয়ে কাঁদে রুদ্ধ মনোরথ?
কেন প্রেম আপনার নাহি পায় পথ?
সশরীরে কোন্ নর গেছে সেইখানে,
মানসসরসীতীরে বিরহশয়ানে,
রবিহীন মণিদীপ্ত প্রদোষের দেশে
জগতের নদী গিরি সকলের শেষে।

8. আফ্রিকা – রবীন্দ্রনাথ ঠাকুর

উদ্‌ভ্রান্ত সেই আদিম যুগে

         স্রষ্টা যখন নিজের প্রতি অসন্তোষে

                   নতুন সৃষ্টিকে বারবার করছিলেন বিধ্বস্ত,

                             তাঁর সেই অধৈর্যে ঘন-ঘন মাথা-নাড়ার দিনে

                                      রুদ্র সমুদ্রের বাহু

                               প্রাচী ধরিত্রীর বুকের থেকে

                             ছিনিয়ে নিয়ে গেল তোমাকে, আফ্রিকা,

                   বাঁধলে তোমাকে বনস্পতির নিবিড় পাহারায়

                             কৃপণ আলোর অন্তঃপুরে।

                     সেখানে নিভৃত অবকাশে তুমি

                             সংগ্রহ করছিলে দুর্গমের রহস্য,

                               চিনছিলে জলস্থল-আকাশের দুর্বোধ সংকেত,

                                      প্রকৃতির দৃষ্টি-অতীত জাদু

                               মন্ত্র জাগাচ্ছিল তোমার চেতনাতীত মনে।

                                                বিদ্রূপ করছিলে ভীষণকে

                                                   বিরূপের ছদ্মবেশে,

                                                শঙ্কাকে চাচ্ছিলে হার মানাতে

          আপনাকে উগ্র করে বিভীষিকার প্রচণ্ড মহিমায়

                             তাণ্ডবের দুন্দুভিনিনাদে।

হায় ছায়াবৃতা,

            কালো ঘোমটার নীচে

          অপরিচিত ছিল তোমার মানবরূপ

                             উপেক্ষার আবিল দৃষ্টিতে।

          এল ওরা লোহার হাতকড়ি নিয়ে

                   নখ যাদের তীক্ষ্ণ তোমার নেকড়ের চেয়ে,

                   এল মানুষ-ধরার দল

          গর্বে যারা অন্ধ তোমার সূর্যহারা অরণ্যের চেয়ে।

                   সভ্যের বর্বর লোভ

                               নগ্ন করল আপন নির্লজ্জ অমানুষতা।

          তোমার ভাষাহীন ক্রন্দনে বাষ্পাকুল অরণ্যপথে

                   পঙ্কিল হল ধূলি তোমার রক্তে অশ্রুতে মিশে;

          দস্যু-পায়ের কাঁটা-মারা জুতোর তলায়

                             বীভৎস কাদার পিণ্ড

          চিরচিহ্ন দিয়ে গেল তোমার অপমানিত ইতিহাসে।

          সমুদ্রপারে সেই মুহূর্তেই তাদের পাড়ায় পাড়ায়

                     মন্দিরে বাজছিল পুজোর ঘণ্টা

                     সকালে সন্ধ্যায়, দয়াময় দেবতার নামে;

                              শিশুরা খেলছিল মায়ের কোলে;

                              কবির সংগীতে বেজে উঠছিল

                                      সুন্দরের আরাধনা।

                   আজ যখন পশ্চিমদিগন্তে

          প্রদোষকাল ঝঞ্ঝাবাতাসে রুদ্ধশ্বাস,

                   যখন গুপ্তগহ্বর থেকে পশুরা বেরিয়ে এল,

                             অশুভ ধ্বনিতে ঘোষণা করল দিনের অন্তিমকাল,

                                         এসো যুগান্তরের কবি,

                                         আসন্ন সন্ধ্যার শেষ রশ্মিপাতে

                                         দাঁড়াও ওই মানহারা মানবীর দ্বারে,

                                                বলো “ক্ষমা করো’–

                                                হিংস্র প্রলাপের মধ্যে

                             সেই হোক তোমার সভ্যতার শেষ পুণ্যবাণী।