Sunday, January 17, 2021

मछली पुराण

 1. 

जिस मछली से हुआ था प्रथम साक्षात्कार बासु दा का 

वह मछली थी बैला, जो कहलाती थी बलुआ भी 

कि उन्हें पसंद रहा स्वच्छ जल का बालुमय जनपद हमेशा 

छुपा न था किसी से भी बारिश के संग बलुआ का अन्तरंग सम्बंध

कि हर बार वही बनी वर्षा ऋतू की प्रथम जल शस्य |


पड़ी रहती मरी मछली समान वे उजान की ओर रख मुख 

पता था उन्हें कि करेंगी सरंजाम उनकी भूख का जलमाता 

बड़ा सा मुँह खोलती अपनी ओर आता देख निवाला 

आलस्य इन मछलियों का बासु दा ने करीब से था जाना 

फिर मुश्किल न था ढूँढना स्वच्छ जल में इनका ठिकाना |


बंसी में लगा कभी छोटी झींगा तो कभी मिष्टान्न का टुकड़ा 

डालते बासु दा जल में, मछलियाँ लपकती उस ओर तल में 

मासूम मछलियाँ नहीं जानती कोई लगा बैठा होगा घात 

बाहर निकलते ही बंसी के, मछलियाँ रखी जाती बटुली में 

फिर अंतिम श्वास तक लड़ती, करती रहती तुमुल उत्पात | 


बदला मौसम, बीते साल, कभी डाली बंसी, कभी डाला जाल 

हर बार तृप्त हुई बासु दा की भूख, मिला उनकी जिह्वा को स्वाद 

बहुत सालों बाद की है बात, जब वृद्ध हाथ नहीं पकड पाते थे बैला 

मछली नहीं, तड़प रहे थे बासु दा बंसी में फँसी मछली की तरह 

मृत्यु के मछुआरे ने इस संसार नामक भवसागर में था बंसी डाला|


गड्ढ़े बनाती हैं किनारों पर नदी की लहरें जहाँ जहाँ 

शुष्क मौसम में, लेती हैं आश्रय वहाँ वहाँ 

आत्मरक्षा के लिए परिपक्व वय की बलुआ मछलियाँ ।

उघड़ी ही रह जाती है उनकी पीठ बिना ढक्कन के 

रेत की प्राकृतिक बटुली में, उड़ जाता है रुपहला रंग पीठ का 

सूरज की किरणों में तप-तप कर, पर बात नही रूकती यहाँ 

इन्हीं गड्ढों में अक्सर हो जाती हैं ये कंकालसार|


दो हजार सत्रह के दिसम्बर महीने में आई थी खबर 

आशा सहनी नामक उस स्त्री की जो हो गई थी कंकालसार 

करते हुए बेटे की प्रतीक्षा, करोड़ों के अपने मुम्बई के घर में 

बासु दा अगर जिंदा रहते तो बताते लेकर सजल नेत्र 

कई बार आप सिर्फ़ इसीलिए करते हैं वरण मृत्यु का 

कि आप नहीं छोड़ना चाहते घर का अपना सुविधा क्षेत्र|


3.


श्रावण के आगमन पर वेगवती हो उठी नदी में 

गई थी करने गुसल अपनी बांधवियों संग 

तितास पार की पंद्रह साला लड़की लैला 

नहाना तो बहाना था, लाना था उसे बैला 


पहले भी किया था पार नदी को कई बार 

नया शय न था बलुआ मछली का शिकार 

ढूँढती गड्ढ़े तट पर गले भर पानी में जाकर 

पाँव की उँगलियों से रेत पर टटोल-टटोलकर 


गड्ढे के मुहाने को ज्यूँ ढूँढती उँगलियाँ 

भरकर श्वास फेफड़ों में लैला डूबकी मारती 

घुसाती हाथ बलुआ मछली के गड्ढे में 

मछलियाँ भय से रेत के और भीतर चली जाती 


पहुँचकर शिकार के इतने करीब 

छोड़ता शिकार कौन बदनसीब 

रेत के जितने भी भीतर जाती बैला 

उन्हें पकड़कर ही दम लेती थी लैला 


एक डूबकी में अगर शिकार न लगे हाथ 

तो डूबकी लगाती लैला कई-कई बार 

शिकार का नशा होता ही है ऐसा कि वह 

भूल जाती साँसों के खत्म होने की बात 


उस रोज़ कुछ अधिक तेज थी नदी की धार 

अभी रेत के भीतर ही फँसी थी लैला की हाथ 

तेज़ धार ने किया था शरीर पर कई वार 

पलट गया उसका शरीर और टूट गई श्वास 


गाँवभर ने मनाया लैला के जाने का सोग

और निकल पड़े पकड़ने बैला अगले ही रोज़ 

धतूरे से कम न होता है नशा मत्स्य शिकार का 

फिर यहाँ थी भूख, मजबूरी और प्रतिशोध 



भले ही किस्म-किस्म की मछलियाँ पकड़ते थे कुबेर माझी 

पर बासु दा की तरह वह भी कहते "माछ मानेई इलिश बुझी"

सागर में करती है वास पद्मा की इलिस और गंगा की हिलसा 

हजारों मील चलकर है आती नदी में छोड़ने वे अपने डिम्ब 

लौट जाते बच्चे बड़े हो सागर में यदि बच जाए होने से शिकार

बेआइनि है इलिश के नन्हें बच्चों का शिकार नदी के दोनों पार 


सुस्वादु व्यंजन बनाने के लिए खरीदना पड़ता है सुस्वादु इलिश

तमाम अभिज्ञता और गवेषणा करते हैं पुष्टि पद्मा के इलिश के सुस्वादु होने की 

पर जानते थे कुबेर माझी कि उत्कृष्ट है केवल वह इलिश जो पायी जाती है 

पद्मा, मेघना और डाकातिया नदियों के संगम पर चाँदपुर में 

खरीदना है आपको इलिश ही, भले ही हर ओर होता हो केवल पद्मा के इलिश का गुणगान 

जिह्वा के चाहने पर भी मारना पड़ सकता है मन कि बढ़ता इलिश का दाम, ग्राम दर ग्राम


रुपाली इलिश के पेट पर होता ललछौंह सुनहलापन, पीठ होती मोटी  

बताते थे कुबेर माझी कि बेहतरीन इलिश की पहचान ही यही होती

मछली पकड़ना ही होता है मछुआरों का एकमात्र काम दिवानिशी  

जुगनुओं सी प्रतीत होती थी मछुआरों के नौके पर लालटेन की रौशनी  

जिसमें चाँदी सी दमकती थी नौके पर रखी मृत मछलियों की त्वक

और नीलाभ मणि की मानिंद दिखती थीं उनकी आँखें निष्पलक 


आज भी उतरते हैं कुबेर माझी के वंशज उत्ताल पद्मा में पकड़ने मछली 

उनकी नौकायें हो गई हैं पालविहीन इंजन के साथ, बढ़ गई है उनकी गति 

नहीं बदला कुछ तो प्रकृति पर उनकी निर्भरता, पद्मा आज भी है जलमाता   

कर रहे हैं वहन वंश परम्परा का पकड़कर इलिश कभी कम तो कभी ज्यादा 

पद्मा की इलिश है अब एक ऐसा स्वप्न जिसका पीछा कर रहे हैं हर वर्ग के लोग 

किसी के हिस्से स्वप्न ही रह जाता; किसी किसी को ही मिलता है इलिश का भोग 


बिला शौक के मनुष्य कहाँ बचता है जिंदा

इसी प्रवृत्ति से तो वह करता है आनन्द का उपभोग 

कौन बताये कि कितने किस्म-किस्म के होते हैं ये शौक 

पूरा करने को अपना शौक कुछ भी कर जाते कुछ लोग

मानो शौक नहीं हुआ पूरा, तो वह जिंदा ही नहीं बचेगा 

तब समझ जाना चाहिए कि वह शौक नहीं रहा 

अब केवल शौक, बन चुका है वह उसका नशा 

मनुष्य की वे तमाम प्रवृत्तियाँ जिनमें शौक बन जाता है नशा 

उनमें पहली है मछली पकड़ने की प्रवृत्ति 


रूपक बाबु को भी था लगा ऐसा ही एक चस्का 

जो न जाने कब तब्दील हो गया शौक में 

चाँद मियाँ के साथ जाते हैं मछली पकड़ने 

सेमुअल के पोखर में जो है गाँव के दक्षिण में 

जो है शौक रूपक बाबु का, नशा है चाँद मियाँ के लिए  

और है जरिया अतिरिक्त आय का सेमुअल के लिए

पचास रूपये से एक कम न लेती बीबी ऑगस्टीना  

साथ में मछली भी मिल जाए तो क्या ही कहना 


गाँव वालोँ के लिए जो हैं हिन्दू, मुसलमान और इसाई 

पसंद करते हैं पहचाने जाना वे खुद को बतौर 'मत्स्य शिकारी' 

पृथ्वी के जल वाले भूभाग की लगभग हर जनजाति के बीच 

पाए जाते हैं ये मत्स्यशिकारी, जिनकी नहीं होती कोई जाति 

नहीं होता है कोई गोत्र, कोई धर्म नहीं होता है, 

कोई लिंग नहीं, अमीर और गरीब का भी कोई भेद नहीं होता


मत्स्य शिकार का नशा बनाये रखता है उन्हें ख़ालिस आदिम इंसान !


6

काक चेष्टा, बको ध्यानं का बीज मन्त्र 

बैठता है सटीक विद्यार्थियों से कहीं ज्यादा 

मत्स्य शिकारियों के लिए 

बताते हैं ऐसा रूपक बाबु को चाँद मियाँ

चाहिए किसी तपस्वी का धैर्य एक मत्स्य शिकारी में होना 

कि मछलियाँ कहलाती हैं जल का सोना 

 

कई बार ऐसा हुआ कि मछली पकड़ने बैठे रूपक बाबु 

पर हाथ न आई एक भी मछली 

फिर हुआ ऐसा भी

कि अलसुबह ही हाथ कतला आ गई 

और पूरा दिन बिन माछ के यूँ ही हुआ जाया 

जबकि कई किलो पकड़े दिन भर में चाँद मियाँ    


धुप हो या बारिश, आंधी हो या तूफ़ान 

बैठे रहे रूपक बाबु अपलक बंसी की ओर निहार 

बारिश में भीगे, आँधी में सूखे और फिर भीगे बारिश में  

पर हिले नहीं रूपक बाबु तनिक भी अपने आसन से 


क्षुधा के देवता हों या गरीबी के 

इन्हें साधने के लिए करनी ही पड़ती है तपस्या 

आप अमीर हैं तो खरीद सकते हैं देवताओं को !


सुस्वादु इलिश खाने की उत्कट इच्छा 

ले जा सकती है आपको कहाँ - कहाँ 

जानती थी कहाँ खुद भी बेगम नूरजहाँ   


विश्व की सबसे सुस्वादु इलिश मछली 

पकाते थे खानसामा मुसव्विर अली

जा पहुँची एक रोज़ बेगम अली की गली 


अकेले रहते मुसव्विर अली, घर पहुँची मेहमान 

पूछा कैसे बनाते इतना स्वादिष्ट इलिश पकवान 

इत्मिनान से किया अली ने पाकविधि का बखान 


खरीदते हैं जिस दिन इलिश, उसी रोज़ पकाते 

काटने के बाद इलिश मछली को नहीं धोते 

धोने से सुस्वादु इलिश अपना स्वाद खोते 


तो उसका रक्त ! बेगम चिल्ला पड़ी बेतरह 

पोंछना चाहिए सूती कपड़े से अच्छी तरह

अज़ीब बात थी, बेगम ने ख़ूब किया ज़िरह 


खा लेना होता है व्यंजन को पका लेने के फ़ौरन बाद 

कि खो जाता है दुबारा गर्म करने पर इलिश का स्वाद 

बेगम ने भी सुना था इलिश मछलियों के लिए यह प्रवाद 

 

थोड़ी काली मिर्च, थोड़ा नमक मिला कर नीम्बू संग मछली में 

रख दिया धुप में और पकाया बासंती पुलाव पीतल की बटुली में 

बेगम हैरान कि सूर्य की गर्मी में ही पक जायेगी इलिश थाली में 


सूरज की ताप में न सही पानी की भाप में तो 

पक ही जायेगी इलिश की सबसे मशहूर पकवान

इलिश पकाना जितना है मुश्किल,उतना ही है आसान 


कहते अली लगती है एक उम्र इलिश पकाने की कला को साधते 

आज भी ज़ायके के कदरदान लोग इलिश को भाप में हैं राँधते 

लगा मछली में नून तेल मसाले ऊपर से केले का पत्ता हैं बाँधते 


नोश फ़रमाती जातीं बेग़म बनाते जाते मुसव्विर अली इलिश,  

सरसों इलिश, इलिश पुलाव, इलिश खिचड़ी, भूना इलिश,  

इलिश दाल, बेगुन इलिश, भापा इलिश, पोस्तो इलिश..... 


व्यंजनों का कोई अंत ही न था, खत्म हुए जा रहे थे इलिश !    


रहती हैं कतला मछलियाँ जोड़ियों में 

विचरती हैं जल के समृद्ध संसार में साथ-साथ 

जब उठ आती है एक कतला बंसी में 

अगली बार बंसी डालते ही जल में 

पकड़ी जा सकती है उसकी सहचर भी  

वह बंसी हो सकती है आपकी या 

किसी पड़ोसी मत्स्य शिकारी की 

चाहिए होता है यथेष्ट अनुभव 

एक कतला को बंसी में फँसाकर 

जल से बाहर निकाल पाने के लिए 


भरपूर मनोरंजन है मत्स्य शिकार 

जिसके दीवाने होते हैं हजारों हज़ार 

मानों वे बैठे हों कोलोसियम में  

बहु वर्ष पुराने रोमन साम्राज्य के 

और देख रहें हों ख़ूनी खेल शिकार का 

होता है मुश्किल यह तय कर पाना 

कि कौन होता है अधिक उत्तेजित 

शिकारी या मनोरंजन पसंद दर्शक 


दिखता है आनंद चेहरे पर मत्स्य शिकारियों के 

तो उल्लास मनोरंजन से तृप्त दर्शकों के मुख पर 

बराबर ईर्ष्या भी दिख ही जाती है मुखमंडल पर 

उन शिकारियों के जो नहीं पकड़ सके मनपसंद मछली 

नहीं दिखती चिंता किसी के भी चेहरे पर  

एक जोड़े प्रेममय माछ के बिछड़ जाने की 

जिन्होंने नहीं किया कोई अनिष्ट मनुष्यों का कभी 

थल पर नहीं जल पर ही किया वास आजीवन !


किसने कहा प्रकृति के घर होता है न्याय बराबर !


9

वह होती है चारे की गंध ही  

जो करती है आकर्षित मछली  

फँसती बंसियों में भोजन की आड़ में 

हर मछली की होती है पसंद अपनी-अपनी 

जानते हैं ये भलीभाँति तमाम मत्स्य शिकारी 

तभी इतने जतन से करते हैं तैयार वे चारा 

पाव रोटी, हँड़िया, सूजी, चावल, सरसों की खल्ली 

चने का सत्तू, चींटी के अंडे, इलाइची, झींगा मछली 

अरवा चावल का पुलाव, मक्खन, मिष्टान्न का टुकड़ा, 

खसखस, तिल, नारियल और भी न जाने क्या - क्या 


अगर दिल की मुराद में है रोहू मछली 

तो ले जाते हल्की मक्खन लगी पाव रोटी

छिड़क उस पर हड़िया, उसे बंसी में फँसा 

लग जाते मत्स्य तपस्या में, मिलती है तृप्ति 


नैनी मछली को पुकार रही हो आत्मा 

तो ले जाते केंचुआ या चींटी का अंडा  

चने के सत्तू से भी बन सकती है बात 

बंसी जल में डालकर लगा बैठते घात 

 

सोल मछली को पसंद जिंदा घोंघा और छोटी माछ 

कतला को चाहिए होता नारियल कोरमा संग पुलाव

लगाकर बंसी में अनुकूल चारा डाल बैठते मुँह में पान 

निःशब्द साधु की तरह हैं करते जल शस्य का आह्वान 


मंजे हुए मत्स्य शिकारी रखते हैं ख्याल 

अपनी जिह्वा से पहले शिकार की जिह्वा का 

समझते हैं वे कि नहीं मिलती है आत्म-तृप्ति 

बिना तृप्त किये हुए दूसरों की आत्मा |


10 

इक्कीसवीं सदी के इस महादेश में 

दिखता है हर ओर ईंट और कंक्रीट 

सूखती जा रही हैं नदियाँ और 

पाट दिए जा रहे हैं तालाब 

ज़्यादातर लोगों की सुधि में 

पोखर नहीं, पानी नहीं 

वर्षा नहीं, हरीतिमा नहीं 

खेत नहीं, धान नहीं 

झील नहीं, मछली नहीं 

वह मातम भी तो नहीं 

जो बहा करती थी हवाओं संग 

शस्य श्यामला धरा के उपर 

मत्स्य शिकार का आनन्द भी नहीं !


यह विनाश नहीं आया स्वतः ही 

किया गया इसे आमंत्रित कायदे से 

जो आया विकास की वेशभूषा में 

फिर पसरता ही गया !


रुष्ट हो रही है जलमाता 

मत्स्य देवी देने ही वाली हैं 

पृथ्वीवासियों को श्राप 

कब करेंगे प्रतिवाद हम और आप!!