Wednesday, October 21, 2020

जीवनानंद दास

 पिछले साल चेन्नै के मिओट अस्पताल के लॉन में उगे हरे घास को देखकर उस पर लोटने की तीव्र इच्छा हुई | अगले ही क्षण महसूस हुआ कि हो न हो मेरे अंदर एक गधा है| इच्छा ऐसी विचित्र थी कि किसी से साझा करने में हिचकिचाहट महसूस हुई |  गधा होकर मनुष्य के शरीर में रहना साल रहा था |


पर जाड़े का अगला मौसम आते ही याद आया  कि बचपन में जाड़े के मौसम में दिन के भोजन के बाद जब घर की स्त्रियाँ घर के पीछे बागान में चटाई बिछाकर धुप सेंकते हुए स्वेटर बुना करती थीं या जूट पर ऊन से कलाकारी कर आसन बनाया करती थीं, मैं वहाँ उगे घास, घास के बीच में उग आये छोटे-छोटे फूल, दूर्वादलों, कालमेघ के पत्तों,  सत्यनाशी के फूल और भी न जाने क्या-क्या निहारा करती थी | संभव है मेरे अंदर के गधे का जन्म उन्हीं दिनों हुआ हो |


फिर जीवनानंद दास की कविताओं से गुजरते हुए उनकी कविता "घास" से साक्षात्कार हुआ | यह कविता से कम और स्वयं से साक्षात्कार अधिक था |  आज जीवनानंद दास के स्मृति दिवस पर उनकी उसी कविता का अनुवाद किया है आप सभी के लिए-


घास 

(अनुवाद : सुलोचना) 


कोमल नींबू के पत्तों की तरह नरम हरी रौशनी से 

               पृथ्वी भर गई है भोर की इस बेला में;

कच्चे चकोतरे के जैसी हरी घास - वैसा ही सुघ्राण -

                       हिरणदल दाँत से उखाड़ रहे हैं!

मेरी भी इच्छा होती है इस घास के इस घ्राण को हरित मद्य की तरह

                       भर-भर गिलास पीता रहूँ,

इस घास के शरीर को छुऊँ - आँखों में मलूँ,

                       घास के डैनों पर हैं मेरे पंख,

घास के भीतर घास होकर जन्मता हूँ किसी एक निविड़ घास-माता के 

                      शरीर के सुस्वादु अंधकार से उतरकर ।


 आकाशलीना 


सुरंजना, वहाँ नहीं जाना तुम,

नहीं करना बात उस युवक से;

लौट आओ सुरंजना:

नक्षत्र की रुपाली आग भरी रात में;


लौट आओ इस मैदान में, लहरों में;

लौट आओ मेरे हृदय में ;

दूर से भी दूर - बहुत दूर

युवक के साथ तुम नहीं जाना अब ।


क्या बात करनी है उससे? - उसके साथ!

आकाश की ओट में आकाश में

हो मृत्तिका की तरह तुम आज:

उसका प्रेम घास बन जाता है।


सुरंजना,

तुम्हारा हृदय आज घास:

बतास के उस पार बतास  -

आकाश के उस पार आकाश।


 सुदर्शना 


एक दिन म्लान हँसी लिए मैं

तुम जैसी एक महिला के पास 

युगों से संचित सम्पदा में लीन होने ही वाला था 

कि अग्निपरिधि के मध्य सहसा रुककर 

सुना किन्नरों की आवाज़ देवदार के पेड़ में,

देखा अमृतसूर्य है।


सबसे अच्छे हैं आकाश, नक्षत्र, घास, गुलदाउदी की रात;

फिर भी समय स्थिर नहीं है,

एक और गभीरतर शेष रूप देखने के लिए  

देखा उसने तुम्हारा वलय ।


इस दुनिया की चिर परिचित धूप की तरह है 

तुम्हारा शरीर; तुमने दान तो नहीं किया?

समय तुम्हें सब दान कर विधुर की भाँती कहता है 

सुदर्शना, तुम आज मृत।


 बिल्ली


 पूरे दिन घूम फिरकर एक बिल्ली से केवल मेरी ही मुलाकत हुई:

पेड़ों की छाया में, धूप में, बादामी पत्तों की भीड़ में;

कहीं कुछेक टुकड़े मछली के काँटों की सफलता के बाद

फिर सफेद मिट्टी के कंकाल के भीतर

देखता हूँ कि अपने हृदय के साथ मधुमक्खी की तरह निमग्न है;

लेकिन फिर भी उसके बाद गुलमोहर की देह नाखूनों से खरोंच रही है,

पूरे दिन सूरज के पीछे पीछे चल रही है वह।

एक बार वह दिखती है,

एक बार खो जाती है कहीं।

हेमंत की संध्या जाफरान रंग के सूर्य के कोमल शरीर में

उसे अपने सफेद पंजे से छू - छू कर खेलते देखा है मैंने;

फिर अंधकार को छोटे छोटे गेंदों की तरह पंजों से पकड़ लायी वह

समस्त पृथ्वी पर फैला दिया।



तुम्हें मैं 


तुम्हें मैंने देखा था इसलिए 

तुम मेरे कमल के पत्ते हुए;

शिशिर के कणों की तरह शून्य में घूमते हुए 

मैंने सुना था कि पद्मपत्र बहुत दूर हैं 

 ढूँढ ढूँढ कर पाया अंत में उसे ।


नदी सागर कहाँ जाते हैं बहकर?

कमल के पत्तों पर जल की बूँदें बनकर 

कुछ भी नहीं जानता - नहीं दिखता कुछ भी और 

इतने दिनों बाद मिलन हुआ मेरा तुम्हारा 

कमल के पत्ते के सीने के भीतर आकर।


तुमसे प्रेम किया है मैंने, इसलिए 

डरता हूँ शिशिर होकर रहने में,

तुम्हारी गोद में जल की एक बूंद पाने के लिए 

चाहता हूँ तुममें मिल जाना 

शरीर जैसे मिलता है मन से।


जानता हूँ कि रहोगी तुम - मेरा होगा क्षय 

कमल का पत्ता सिर्फ एक जल की बूँद नहीं।

अभी है, नहीं, अभी है, नहीं- जीवन चंचल;

यह देखते ही खत्म हो जाता है कमल के पत्तों का जल

समझा मैंने तुमसे प्रेम करने के बाद।

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ঘাস


কচি লেবুপাতার মতো নরম সবুজ আলোয়

                পৃথিবী ভরে গিয়েছে এই ভোরের বেলা;

কাঁচা বাতাবির মতো সবুজ ঘাস- তেমনি সুঘ্রাণ –

                       হরিনেরা দাঁত দিয়ে ছিঁড়ে নিচ্ছে !

আমারো ইচ্ছা করে এই ঘাসের এই ঘ্রাণ হরিৎ মদের মতো 

                       গেলাসে গেলাসে পান করি,

এই ঘাসের শরীর ছানি- চোখে ঘসি,

                       ঘাসের পাখনায় আমার পালক,

ঘাসের ভিতর ঘাস হয়ে জন্মাই কোনো এক নিবিড় ঘাস-মাতার

                      শরীরের সুস্বাদু অন্ধকার থেকে নেমে ।


আকাশলীনা


সুরঞ্জনা, ঐখানে যেয়োনাকো তুমি,

বোলোনাকো কথা অই যুবকের সাথে;

ফিরে এসো সুরঞ্জনা:

নক্ষত্রের রুপালি আগুন ভরা রাতে;


ফিরে এসো এই মাঠে, ঢেউয়ে;

ফিরে এসো হৃদয়ে আমার;

দূর থেকে দূরে – আরও দূরে

যুবকের সাথে তুমি যেয়োনাকো আর।


কী কথা তাহার সাথে? – তার সাথে!

আকাশের আড়ালে আকাশে

মৃত্তিকার মতো তুমি আজ:

তার প্রেম ঘাস হয়ে আসে।


সুরঞ্জনা,

তোমার হৃদয় আজ ঘাস :

বাতাসের ওপারে বাতাস -

আকাশের ওপারে আকাশ।


সুদর্শনা


একদিন ম্লান হেসে আমি

তোমার মতন এক মহিলার কাছে

যুগের সঞ্চিত পণ্যে লীন হতে গিয়ে

অগ্নিপরিধির মাঝে সহসা দাঁড়িয়ে

শুনেছি কিন্নরকন্ঠ দেবদারু গাছে,

দেখেছ অমৃতসূর্য আছে।


সবচেয়ে আকাশ নক্ষত্র ঘাস চন্দ্রমল্লিকার রাত্রি ভালো;

তবুও সময় স্থির নয়,

আরেক গভীরতর শেষ রূপ চেয়ে

দেখেছে সে তোমার বলয়।


এই পৃথিবীর ভালো পরিচিত রোদের মতন

তোমার শরীর; তুমি দান করোনি তো;

সময় তোমাকে সব দান করে মৃতদার বলে

সুদর্শনা, তুমি আজ মৃত।


 বেড়াল


সারাদিন একটা বেড়ালের সঙ্গে ঘুরে ফিরে কেবলি আমার দেখা হয়:

গাছের ছায়ায়, রোদের ভিতরে, বাদামি পাতার ভিড়ে;

কোথাও কয়েক টুকরো মাছের কাঁটার সফলতার পর

তারপর সাদা মাটির কঙ্কালের ভিতর

নিজের হৃদয়কে নিয়ে মৌমাছির মতো নিমগ্ন হয়ে আছে দেখি;

কিন্তু তবুও তারপর কৃষ্ণচূড়ার গায়ে নখ আঁচড়াচ্ছে,

সারাদিন সূর্যের পিছনে পিছনে চলেছে সে।

একবার তাকে দেখা যায়,

একবার হারিয়ে যায় কোথায়।

হেমন্তের সন্ধ্যায় জাফরান-রঙের সূর্যের নরম শরীরে

শাদা থাবা বুলিয়ে বুলিয়ে খেলা করতে দেখলাম তাকে;

তারপর অন্ধকারকে ছোট ছোট বলের মতো থাবা দিয়ে লুফে আনল সে

সমন্ত পৃথিবীর ভিতর ছড়িয়ে দিল।


 তোমায় আমি


তোমায় আমি দেখেছিলাম ব’লে

তুমি আমার পদ্মপাতা হলে;

শিশির কণার মতন শূন্যে ঘুরে

শুনেছিলাম পদ্মপত্র আছে অনেক দূরে

খুঁজে খুঁজে পেলাম তাকে শেষে।


নদী সাগর কোথায় চলে ব’য়ে

পদ্মপাতায় জলের বিন্দু হ’য়ে

জানি না কিছু-দেখি না কিছু আর

এতদিনে মিল হয়েছে তোমার আমার

পদ্মপাতার বুকের ভিতর এসে।


তোমায় ভালোবেসেছি আমি, তাই

শিশির হয়ে থাকতে যে ভয় পাই,

তোমার কোলে জলের বিন্দু পেতে

চাই যে তোমার মধ্যে মিশে যেতে

শরীর যেমন মনের সঙ্গে মেশে।


জানি আমি তুমি রবে-আমার হবে ক্ষয়

পদ্মপাতা একটি শুধু জলের বিন্দু নয়।

এই আছে, নেই-এই আছে নেই-জীবন চঞ্চল;

তা তাকাতেই ফুরিয়ে যায় রে পদ্মপাতার জল

বুঝেছি আমি তোমায় ভালোবেসে।

फ़कीर लालन शाह

१. कहते हैं सब लालन फकीर हिंदू हैं या यवन


कहते हैं सब लालन फकीर हिंदू है या यवन,

क्या कहूं अपना मैं नहीं जानता संधान ।।


एक ही घाट पर आना जाना, एक माँझी खे रहा,

कोई नहीं खाता किसी का छुआ, अलग जल का कौन करता है पान।।


वेद पुराणों में सुनते हैं, हिन्दू के हरि हैं यवन के साईं,

फिर भी मैं समझ नहीं पाता, दो रूपों में सृष्टि के क्या हैं प्रमाण।।


नहीं है मुसलमानी, नहीं है जिसके पास जनेऊ वह भी तो है ब्राह्मणी,

समझो रे भाई दिव्य ज्ञानी, है लालन भी वैसा ही जात एक जन।।


*मुसलमानी = खतना 


२. सत्य काम में कोई नहीं राज़ी 


सत्य काम में कोई नहीं राज़ी 

देखता हूँ सब कुछ ही ता ना ना ना ।

जात गया जात गया कहकर 

यह क्या अजब पागलपना 

जात गया जात गया कहकर 

यह क्या अजब पागलपना

जात गया जात गया कहकर 

जब तुम आये थे तो जाति क्या थी तुम्हारी?

आकर तुमने कौन सी जाति अपनाई?

जब तुम आये थे तो जाति क्या थी तुम्हारी?

आकर तुमने कौन सी जाति अपनाई?

जाते समय किस जाति के रहोगे?

जाते समय किस जाति के रहोगे?

वह बात सोचकर कहो ना ।

जात गया जात गया कहकर 

यह क्या अजब पागलपना 

जात गया जात गया कहकर 

ब्राह्मण चंडाल चमार मोची 

एक ही जल से सब होते हैं शुचि 

ब्राह्मण चंडाल चमार मोची 

एक ही जल से सब होते हैं शुचि 

देख-सुनकर नहीं होती रूचि 

देख-सुनकर नहीं होती रूचि 

यम तो किसी को भी नहीं छोड़ेगा।

जात गया जात गया कहकर 

यह क्या अजब पागलपना 

जात गया जात गया कहकर 

चुपके से जो खाता है वेश्या का भात 

उससे धर्म की क्या क्षति होती है

चुपके से जो खाता है वेश्या का भात 

उससे धर्म की क्या क्षति होती है

लालन कहे जात किसे कहते हैं

लालन कहे जात किसे कहते हैं

वह भ्रम तो नहीं गया ...

जात गया जात गया कहकर 

यह क्या अजब पागलपना 

जात गया जात गया कहकर

सत्य काम में कोई नहीं राज़ी 

सत्य काम में कोई नहीं राज़ी 

देखता हूँ सब कुछ ही ता ना ना ना ।

जात गया जात गया कहकर 

यह क्या अजब पागलपना 

जात गया जात गया कहकर 

यह क्या अजब पागलपना

जात गया जात गया कहकर 

पैदा होने का भाव


३. मैंने एकदिन भी नहीं देखा उसे 


घर के पास है आरसी नगर

वहाँ एक पड़ोसी रहता है 

मैंने एकदिन भी नहीं देखा उसे 


गाँव भर अगाध पानी 

न है किनारा, न है तरणी किनारे 

इच्छा होती है कि देखूँ उसे 

कैसे वहाँ जाऊं रे ?


क्या कहूँ पड़ोसी के बारे में

हस्त पद स्कंध माथा नहीं है 

क्षण भर तैरता है शून्य के ऊपर 

क्षण भर बहता है नीर में 

 

पड़ोसी यदि मुझे छूता 

यम यातना सब दूर हो जाते 

वह और लालन एक साथ रहते हैं 

लाख योजन फाँक रे //


*तरणी = नौका, फाँक = दूरी 


४. मैं अपार होकर बैठा हूँ 


मैं अपार होकर बैठा हूँ 

हे दयामय,

उस पार ले जाओ मुझे ।।

मैं अकेला रह गया घाट पर  

भानु बैठ गया नदी के पाट पर 

(मैं) तुम्हारे बिन हूँ घोर संकट में

नहीं दिख रहा है उपाय ।

नहीं है मेरे पास भजन-साधन 

चिरदिन कुपथ की ओर गमन 

नाम सुना है पतित-पावन  

इसलिए देता हूँ दुहाई ।

अगति को यदि नहीं दी गति

इस नाम की रह जायेगी अख्याति 

लालन कहे, अकुलपति

कौन कहेगा तुम्हें ।।


*अगति=दुर्गति/दुर्दशा, भानु = सूर्य 


५. मिलन होगा कितने दिनों बाद 


मिलन होगा कितने दिनों बाद 

अपने मन के मानुष के साथ ।।

चातक प्रायः अहर्निशी

देखता है काला शशि 

होने को चरण-दासी,

ऐसा होता नहीं है भाग्य गुण से ।।

जैसे मेघ का विद्युत मेघ में ही  

छुप जाने से नहीं हो पाता अन्वेषण,

काले (ईश्वर/कृष्ण) को खोकर वैसे ही 

इस रूप को ढूँढता हूँ दर्पण में ।।

जब उस रूप का स्मरण होता है,

नहीं रहता है लोक-लज्जा का भय 

लालन फकीर सोचकर कहता है हमेशा ही 

(यह) प्रेम जो करता है वह जानता है ।।


६. तुम्हारे घर में रहते हैं 


तुम्हारे घर में वास करते हैं कौन तुम्हें नहीं पता ओ मन

तुम्हारे घर में रहते हैं कितने जन, तुम्हें नहीं पता मन

तुम्हारे घर में रहते हैं कितने जन |


एक जन आँकता है छवि होकर एकाग्र, ओ मन

दूसरा जन बैठकर लगा रहा होता है रंग,

फिर उस छवि को करता है नष्ट 

कौन जन, कौन जन 

तुम्हारे घर में रहते हैं कितने जन |


एक जन छेड़ता है राग इकतारे पर, ओ मन

दूसरा जन झाल पर देता है ताल,

फिर बेसुरे राग में गाता है देखो

कौन जन, कौन जन 

तुम्हारे घर में रहते हैं कितने जन |


रस पीकर होकर माताल, यह देखो

हाथों से फिसल जाती है घोड़े की लगाम,

उस लगाम को पकड़ता है देखो

कौन जन, कौन जन 

तुम्हारे घर में रहते हैं कितने जन |


७. विदेशी के संग कोई प्रेम ना करना


पहले भाव जानकर प्रेम करना  

अन्यथा अंत में मिलेगी यंत्रणा

विदेशी के संग कोई प्रेम ना करना ||


विदेशी के भाव में भाव मिलाने से 

भाव में भाव कभी नहीं मिलेगा

पथ के मध्य में लक्ष्य निर्धारित करने से 

किसी के साथ कोई नहीं जाएगा ||


देश का देशी यदि हुआ वह 

उसे पाया जा सकता है समय-असमय,

विदेशी होता है वह जंगली तोता 

जो कभी पोस नहीं मानता ||


नलिनी और सूर्य का प्रेम है जैसा 

उसी तरह प्रेम करना रसिक सुजान,

लालन कहे पहले धोखा खाकर 

बाद में रोने से कुछ नहीं मिलेगा ||

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 ফকির লালন শাহ


1. সবে বলে লালন ফকির হিন্দু কি যবন

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সবে বলে লালন ফকির হিন্দু কি যবন,

  কি বলিব আমার আমি না জানি সন্ধান।।


একই ঘাটে আসা যাওয়া,এক পাটনী দিচ্ছে খেওয়া,

  কেউ খায়না কারো ছোঁয়া,বিভিন্ন জল কেবা পান।।


বেদ পুরানে শুনিতে পাই,হিন্দুর হরি যবনের সাঁই,

  তাওত আমি বুঝতে নারি,দুই রূপ সৃষ্টি কি প্রমাণ।।বিবিদের


নাই মুসলমানী,পৈতা যার নাই সেওত বাওনী,

  বোঝরে ভাই দিব্য জ্ঞানী,লালন তমনি জাতএক জনা।।


২. সত্য কাজে কেউ নয় রাজি

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সত্য কাজে কেউ নয় রাজি

সবই দেখি তা না না না….

জাত গেল জাত গেল বলে

একি আজব কারখানা

জাত গেল জাত গেল বলে

একি আজব কারখানা

জাত গেল জাত গেল বলে

আসবার কালে কি জাত ছিলে

এসে তুমি কি জাত নিলে

আসবার কালে কি জাত ছিলে

এসে তুমি কি জাত নিলে

কি জাত হবে যাবার কালে

কি জাত হবে যাবার কালে

সে কথা ভেবে বলো না…

জাত গেল জাত গেল বলে

একি আজব কারখানা

জাত গেল জাত গেল বলে

ব্রাহ্মণ চন্ডাল চামার মুচি

এক জলে সব হয় গো সুচি

ব্রাহ্মণ চন্ডাল চামার মুচি

এক জলে সব হয় গো সুচি

দেখে শুনে হয় না রুচি

দেখে শুনে হয় না রুচি

যমে তো কাউকে ছাড়বে না…

জাত গেল জাত গেল বলে

একি আজব কারখানা

জাত গেল জাত গেল বলে

গোপনে যে বেশ্যার ভাত খায়

তাতে ধর্মের কি ক্ষতি হয়

গোপনে যে বেশ্যার ভাত খায়

তাতে ধর্মের কি ক্ষতি হয়

লালন বলে জাত কারে কয়

লালন বলে জাত কারে কয়

সে ভ্রম তো গেল না…

জাত গেল জাত গেল বলে

একি আজব কারখানা

জাত গেল জাত গেল বলে

সত্য কাজে কেউ নয় রাজি

সত্য কাজে কেউ নয় রাজি

সবই দেখি তা না না না….

জাত গেল জাত গেল বলে

একি আজব কারখানা

জাত গেল জাত গেল বলে

একি আজব কারখানা

জাত গেল জাত গেল বলে


৩. আমি একদিনও না দেখিলাম তারে


বাড়ির পাশে আড়শি নগর

সেথায় এক পড়শি বসত করে

আমি একদিন ও না দেখিলাম তারে


গেরাম বেড়ে অগাধ পানি

নাই কিনারা নাই তরণী পারে

বান্ছা করি দেখব তারে

কেমনে সেথায় যাইরে


কি বলব পড়শির ও কথা

হস্থ পদ স্কন্ধ মাথা নাইরে

ক্ষনিক ভাসে শূন্যের উপর

ক্ষনিক ভাসে নীরে

 


পড়শি যদি আমায় ছুতো

যম যাতনা সকল যেত দূরে

সে আর লালন একখানে রয়

লক্ষ যোজন ফাক রে//


4. আমি অপার হয়ে বসে আছি


আমি অপার হয়ে বসে আছি

ও হে দয়াময়,

পারে লয়ে যাও আমায়।।

আমি একা রইলাম ঘাটে

ভানু সে বসিল পাটে-

(আমি) তোমা বিনে ঘোর সংকটে

না দেখি উপায়।।

নাই আমার ভজন-সাধন

চিরদিন কুপথে গমন-

নাম শুনেছি পতিত-পাবন

তাইতে দিই দোহাই।।

অগতির না দিলে গতি

ঐ নামে রবে অখ্যাতি-

লালন কয়, অকুলের পতি

কে বলবে তোমায়।।


5. মিলন হবে কত দিনে


মিলন হবে কত দিনে

আমার মনের মানুষের সনে।।

চাতক প্রায় অহর্নিশি

চেয়ে আছি কালো শশী

হব বলে চরণ-দাসী,

ও তা হয় না কপাল-গুণে।।

মেঘের বিদ্যুৎ মেঘেই যেমন

লুকালে না পাই অন্বেষণ,

কালারে হারায়ে তেমন

ঐ রূপ হেরি এ দর্পণে।।

যখন ও-রূপ স্মরণ হয়,

থাকে না লোক-লজ্জার ভয়-

লালন ফকির ভেবে বলে সদাই

(ঐ) প্রেম যে করে সে জানে।।


6.  তোমার ঘরে বসত করে


তোমার ঘরে বাস করে কারা ও মন জান না,

তোমার ঘরে বসত করে কয় জনা, মন জান না

তোমার ঘরে বসত করে কয় জনা।


এক জনায় ছবি আঁকে এক মনে, ও রে মন

আরেক জনায় বসে বসে রঙ মাখে,

ও আবার সেই ছবিখান নষ্ট করে

কোন জনা,কোন জনা

তোমার ঘরে বসত করে কয় জনা।


এক জনে সুর তোলে এক তারে, ও মন

আরেক জন মন্দিরাতে তাল তোলে,

ও আবার বেসুরা সুর ধরে দেখো

কোন জনা, কোন জনা

তোমর ঘরে বসত করে কয় জনা।


রস খাইয়া হইয়া মাতাল, ঐ দেখো

হাত ফসকে যায় ঘোড়ার লাগাম,

সেই লাগাম খানা ধরে দেখো

কোন জনা, কোন জনা

তোমার ঘরে বসত করে কয় জনা।


7.  বিদেশীর সঙ্গে কেউ প্রেম করো না।


বিদেশীর সঙ্গে কেউ প্রেম করো না।

আগে ভাব জেনে প্রেম করো

যাতে ঘুচবে মনের বেদনা।।

ভাব দিলে বিদেশীর ভাবে

ভাবে ভাব কভু না মিশিবে।

পথের মাঝে গোল বাঁধিলে

কারো সাথে কেউ যাবে না।।

দেশের দেশী যদি সে হয়

মনে করে তারে পাওয়া যায়।

বিদেশী ঐ জংলা টিয়ে

কখনো পোষ মানে না।।

নলিনী আর সূর্যের প্রেম যেমন

সেই প্রেমের ভাব লও রসিক সুজন।

অধীন লালন বলে, ঠকলে আগে

কাঁদলে শেষে সারবে না।।

Sunday, October 18, 2020

दुर्गा

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1. 

खोल दिए आश्विन ने अपने उदार कपाट 

तन गया माथे के उपर शरद का आकाश, 

पाँव के नीचे शिशिर से चमकती है घास

शिउली की सुगंध लिए तैर रही बतास 

शुभ्र मेघों के नीचे खिल उठा धवल कास 


अनामंत्रित ही आ धमकी है महामारी 

पृथ्वीवासियों की चिंता में घुल रहा है चाँद 

मद्धिम हो चला रात्रि का अंधकार 

कि तभी दूरदर्शन पर आता है समाचार 

जगने ही वाली हैं देवी योगनिद्रा से 

लोगों के मध्य उमग उठता है उल्लास |




2.


कुमारटुली में जमा कर ली गई है मिट्टी 

जो कुछ रोज़ पहले तक थी पाँव के नीचे 

और फिर रौंदी गई कई - कई बार 

ढाली जा रही है अब एक अलौकिक देह में 

जब होगा चक्षु दान और प्रतिष्ठित प्राण 

देवी कहकर पुकारेंगे उसे मृत्तिका संतान 



उत्सव के बाद क्या होगा देवी का 

वो मिलेगी जल में, नदी के तल में 

समुद्र उसे कर देगा नेस्तानाबूद 

क्या पूछा - "तो फिर कहाँ मिलेगी देवी?"

ज़रा गौर से देखिये अपने पाँव के नीचे की ज़मीं 

वहीं दबी पड़ी मिलेगी कोई मृत्तिका देवी !





3. 


वह आ रही है मंगलध्वनि के साथ 

होकर घोड़े पर सवार लोकालय में 

दुर्गा की आगमनी वार्ता के लिए 

चल रही है तैयारी अंतिम समय की 

कहीं रह न जाए कमी किसी चीज की

व्यस्त है मंडप का प्रत्येक मानुष इस वास्ते 

निद्रित है दक्षिणायन देवी अकाल बोधन के मध्य

की जाएगी संधि पूजा देर शाम के बाद 

कि खुल जाए देवी की तन्द्रा से चूर स्निग्ध आँखें 

पधारेंगी शक्ति की देवी षष्ठी के शुभ मुहूर्त में 

करने महिषासुर का वध, विराजेंगी मंडप में 

तीर-धनुष, गदा-चक्र, खड्ग-कृपाण, पद्म -त्रिशूल

घंटा और वज्र धारण कर त्रिनयनी दशभुजा 

करेगी जागरण, उत्सव के समाप्त होने तक |



4.


जल दर्पण ही चुना अपने विसर्जन के लिए सुलोचना ने

कि महामाया स्वयं भी भर-भर जाती है माया से हर बार 

जल में घुलकर पुनः मृत्तिका बन जाने से पहले 

देखती है अपना अलौकिक सौन्दर्य जल की आरसी में 

और करती है अचरज कि माया से भरे इस संसार में 

माया नहीं जकड़ती किसी को उसकी सुंदर प्रतिमा को 

जल में विसर्जित करने के पहले? अवसाद नहीं घेरता?

क्या उसके साथ ही बहा देते हैं लोग अपना शोक भी जल में?

देखते हैं वे किसका प्रतिबिम्ब जल दर्पण में प्रतिमा विसर्जित करते हुए?


शांत रहता है दशमी का चाँद कि वह है गवाह कई युगों से 

मनुष्य को अपने समस्त भय विसर्जित करते देखने का 

सदियों से शक्ति के ही मार्ग से, जीतते भय को उल्लास से|




5.


चला जा रहा है मनुष्यों का दल 

ढाक की थाप पर नाचते हुए 

"बोलो दुर्गा माय की जय " के उद्घोघ के साथ 


हो उठी है कातर देवी पित्रालय से जाते हुए 

धुप-दीप संग जल रहा है देवी का ह्रदय भी 

चेहरा ज़र्द है खोयछे में दिए गए हल्दी की भाँती  


है कौन सी शक्ति जो रोक लेती है शक्ति की अभिलाषा 

यही सोचते हुए डूबती चली जाती त्रिपुरसुन्दरी जल में 

पहले घुलता है जल में काजल, फिर लावण्य

घुल सके दुःख ऐसा जल कहाँ पाया जाता है पृथ्वी में !


होती है प्रतीति विसर्जित होकर 

कि विसर्जन के मूल में है पूजा 

और दुःख अकाल बोधन के  


पर अनुत्तरित ही रह जाता है वह प्रश्न 

कि त्यागता है कौन किसे 

देवी को मनुष्य या मनुष्य को देवी 

किसका प्रतिबिम्ब देखता है मनुष्य 

विसर्जित करते हुए उस प्रतिमा में !



6. 

जब जागी थी देवी योगनिद्रा से 

कर नदी में स्नान, पाँव में लगाया था आलता 

कर रहे थे श्रृंगार मुक्त केशों का नदी के जलबिंदु 

बतास में घुली थी एक नूतन गंध 

आँखों में डाल अंजन, माथे पर लगाकर कुमकुम

चढने लगी थीं सीढियां मंदिर की 


कुल पाँच सीढ़ी चढ़ उतर आई थीं उलटे पाँव 

लिए मंद मुस्कान अधरों पर 

लिखा था प्रवेश द्वार पर मंदिर के 

"रजस्वला स्त्रियों का प्रवेश वर्जित है"


जिसे तुम खड्ग कहते हो 

वह प्रश्न चिन्ह है देवी का 

कि है वह कौन जो रहती है 

मंदिर के अंतरमहल में 

फिर भी रह जाती है अपरिचित ही 

करते हो किसे तुम समर्पित फिर 

यह क्षुद्र देह्कोष और रक्तबिंदु 

देवी क्या केवल पाषाण की एक मूरत भर है ??



7.

सबसे अच्छी पत्नियाँ किसी बात का बुरा नहीं मानती थीं

सबसे अच्छी प्रेमिकाएँ नहीं करती थीं कोई भी गिला शिकवा 

सबसे अच्छी माएँ अपने हिस्से का खाना भी खिला देती थीं बच्चों को

सबसे अच्छी बहनें नहीं बताती थीं भाई से दुखती रग की व्यथा

"कैसी हो" पूछने पर मुस्कुरा देती थीं सबसे अच्छी सखियाँ


भाव का अभाव गढ़ता रहता था देवियों की नित्य नयी प्रतिमा!


8.

जो सामने थी 

औरत थी, कुलटा थी, रंडी थी 

जिसको देखा ही नहीं 

देवी थी, दयामयी थी, चंडी थी |

Saturday, September 12, 2020

बुद्धदेव बसु

१. इस सर्दी में 


यदि मैं मर सकता

इस सर्दी में,

जैसे मरता है पेड़,

मरा रहता है सांप जैसे

समस्त दीर्घ सर्दी भर ।


नए हो जाते हैं पेड़ सर्दियों के अंत में,

जड़ से उर्ध्व की ओर उठ आता है तरुण प्राणरस,

खिल उठता है चमकीला हरा हर पत्ते पर 

और अजस्र अभिमान फूलों पर।


और साँप उतार देता है अपना केंचुल,

उसकी नई त्वचा पर होती है नक्काशी शंख की तरह;

उसकी जिह्वा मुक्त हो निकल आती है आग की शिखा की तरह,

वह आग जो भय नहीं जानती।


क्योंकि वे मरे रहते हैं

समस्त दीर्घ सर्दी भर,

क्योंकि वे मरना जानते हैं।


यदि मैं भी मरा रह पाता

यदि मुझे आता बिल्कुल शून्य हो जाना,

डूब जाना स्मृतिहीन, स्वप्नहीन अतल नींद में -

तो मुझे प्रति मुहूर्त मरना नहीं पड़ता 

बचे रहने के इस प्रयास में,

खुश होने, ख़ुश करने के लिए

अच्छा लिखने, प्यार करने के प्रयास में।


२. चिल्का में सुबह


इतना अच्छा लगा आज सुबह मुझे 

कैसे कहूँ?

इतना निर्मल नील यह आकाश, इतना असह्य सुंदर,

जैसे गुणी के कंठ की अबाध उन्मुक्त तान 

दिगंत से दिगंत तक;


इतना अच्छा लगा मुझे इस आकाश की ओर देखकर;

चारों ओर हरी पहाड़ियों से घिरा टेढ़ा-मेढ़ा, कोहरे में धुँआधार,

बीच में चिल्का चमक रहा है।


तुम पास आई, थोड़ी देर बैठी, फिर गई उधर,

स्टेशन पर गाड़ी आकर रुकी, वही देखने।

गाड़ी चली गई! - तुमसे इतना प्यार करता हूँ,

कैसे कहूँ?


आकाश में सूर्य की बाढ़, नहीं देखा जाता ।

गायें एकाग्र हो घास उखाड़ रही हैं, बेहद शांत!

-क्या तुमने कभी सोचा था कि इस झील के किनारे आकर हम वो पायेंगे 

जो इतने दिनों तक नहीं पाया?


रूपहला जल सो-सोकर स्वप्न देख रहा है; सारा आकाश

नील के स्रोत से झर पड़ा है उसके सीने पर 

सूर्य के चुम्बन से | यहाँ जल उठेगा अपरूप इंद्रधनुष

तुम्हारे और मेरे रक्त के समुद्र को घेर 

क्या कभी सोचा था?


कल चिल्का में नाव से जाते हुए हमने देखा था 

कितनी दूर से उड़कर आ रही हैं दो तितलियाँ 

जल के ऊपर से।- इतना दुस्साहस! तुम हँसी थी और मुझे 

बहुत अच्छा लगा था।


तुम्हारा वह उज्ज्वल अपरूप चेहरा। देखो, देखो,

कितना नीला है यह आकाश और तुम्हारी आँखों में 

काँप रहे हैं कितने आकाश, कितनी मृत्युएँ, कितने नए जन्म

कैसे कहूँ|


३.किसी मृतका के प्रति


'नहीं भूलूंगा' - इतने बड़े साहसिक शपथ के साथ

जीवन नहीं करता माफ | इसलिए मिथ्या अंगीकार हो |

तुम्हारी परम मुक्ति, हे क्षणिका, अकल्पित पथ में 

व्याप्त हो |  तुम्हारा चेहरा-माया में मिले, मिले 

घास-पत्तियों में, ऋतुरंग में, जल में-स्थल में, आकाश के नीले में |

केवल इस बात को हृदय के निभृत प्रकाश में

जला कर रखता हूँ इस रात में - तुम थी, फिर भी तुम थी|


४. रूपान्तर 


दिन मेरे कर्म के प्रहार से धूल धूसरित 

रात्रि मेरी ज्वलंत जाग्रत स्वप्न में|

धातु के संघर्ष में जागो, हे सुंदर, शुभ्र अग्निशिखा,

वायु हो वस्तुपुंज, चाँद हो नारी,

मृत्तिका के फूल हों आकाश के तारे|

जागो, हे पवित्र पद्म, जागो तुम प्राण के मृणाल में,

मुक्ति दो मुझे हमेशा के लिए क्षणिका की अम्लान क्षमा में,

क्षणिक को करो चिरंत|

देह हो मन, मन हो प्राण, प्राण हो मृत्यु का संगम,

मृत्यु हो देह , प्राण, मन 

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বুদ্ধদেব বসু


१. এই শীতে 


আমি যদি ম’রে যেতে পারতুম

এই শীতে,

গাছ যেমন ম’রে যায়,

সাপ যেমন ম’রে থাকে

সমস্ত দীর্ঘ শীত ভ’রে।


শীতের শেষে গাছ নতুন হ’য়ে ওঠে,

শিকড় থেকে উর্ধ্বে বেয়ে ওঠে তরুণ প্রাণরস,

ফুটে ওঠে চিক্কণ সবুজ পাতায়-পাতায়

আর অজস্র উদ্ধত ফুলে।


আর সাপ ঝরিয়ে দেয় তার খোলশ,

তার নতুন চামড়া শঙ্খের মতো কাজ-করা;

তার জিহ্বা ছুটে বেরিয়ে আসে আগুনের শিখার মতো,

যে-আগুন ভয় জানে না।


কেননা তারা ম’রে থাকে

সমস্ত দীর্ঘ শীত ভ’রে,

কেননা তারা মরতে জানে।


যদি আমিও ম’রে থাকতে পারতুম—

যদি পারতুম একেবারে শূন্য হ’য়ে যেতে,

ডুবে যেতে স্মৃতিহীন, স্বপ্নহীন অতল ঘুমের মধ্যে—

তবে আমাকে প্রতি মুহূর্তে ম’রে যেতে হ’তো না

এই বাঁচার চেষ্টায়,

খুশি হবার, খুশি করার,

ভালো লেখার, ভালোবাসার চেষ্টায়।


२. চিল্কায় সকাল


কী ভালো আমার লাগলো আজ এই সকালবেলায়

কেমন করে বলি?

কী নির্মল নীল এই আকাশ, কী অসহ্য সুন্দর,

যেন গুণীর কণ্ঠের অবাধ উন্মুক্ত তান

দিগন্ত থেকে দিগন্তে;


কী ভালো আমার লাগলো এই আকাশের দিকে তাকিয়ে;

চারদিক সবুজ পাহাড়ে আঁকাবাঁকা, কুয়াশায় ধোঁয়াটে,

মাঝখানে চিল্কা উঠছে ঝিলকিয়ে।


তুমি কাছে এলে, একটু বসলে, তারপর গেলে ওদিকে,

স্টেশনে গাড়ি এসে দাড়িয়েঁছে, তা-ই দেখতে।

গাড়ি চ’লে গেল!- কী ভালো তোমাকে বাসি,

কেমন করে বলি?


আকাশে সূর্যের বন্যা, তাকানো যায়না।

গোরুগুলো একমনে ঘাস ছিঁড়ছে, কী শান্ত!

-তুমি কি কখনো ভেবেছিলে এই হ্রদের ধারে এসে আমরা পাবো

যা এতদিন পাইনি?


রূপোলি জল শুয়ে-শুয়ে স্বপ্ন দেখছে; সমস্ত আকাশ

নীলের স্রোতে ঝরে পড়ছে তার বুকের উপর

সূর্যের চুম্বনে।-এখানে জ্ব’লে উঠবে অপরূপ ইন্দ্রধণু

তোমার আর আমার রক্তের সমুদ্রকে ঘিরে

কখনো কি ভেবেছিলে?


কাল চিল্কায় নৌকোয় যেতে-যেতে আমরা দেখেছিলাম

দুটো প্রজাপতি কতদূর থেকে উড়ে আসছে

জলের উপর দিয়ে।- কী দুঃসাহস! তুমি হেসেছিলে আর আমার

কী ভালো লেগেছিল।


তোমার সেই উজ্জ্বল অপরূপ মুখ। দ্যাখো, দ্যাখো,

কেমন নীল এই আকাশ-আর তোমার চোখে

কাঁপছে কত আকাশ, কত মৃত্যু, কত নতুন জন্ম

কেমন করে বলি।


३. কোনো মৃতার প্রতি


‘ভুলিবো না’ – এত বড় স্পর্ধিত শপথে

জীবন করে না ক্ষমা | তাই মিথ্যা অঙ্গিকার থাক |

তোমার চরম মুক্তি, হে ক্ষণিকা, অকল্পিত পথে

ব্যপ্ত হোক | তোমার মুখশ্রী-মায়া মিলাক, মিলাক

তৃণে-পত্রে, ঋতুরঙ্গে, জলে-স্থলে, আকাশের নীলে |

শুধু এই কথাটুকু হৃদয়ের নিভৃত আলোতে

জ্বেলে রাখি এই রাত্রে — তুমি ছিলে, তবু তুমি ছিলে |


४. রুপান্তর


দিন মোর কর্মের প্রহারে পাংশু,

রাত্রি মোর জ্বলন্ত জাগ্রত স্বপ্নে |

ধাতুর সংঘর্ষে জাগো, হে সুন্দর, শুভ্র অগ্নিশিখা,

বস্তুপুঞ্জ বায়ু হোক, চাঁদ হোক নারী,

মৃত্তিকার ফুল হোক আকাশের তারা |

জাগো, হে পবিত্র পদ্ম, জাগো তুমি প্রাণের মৃণালে,

চিরন্তনে মুক্তি দাও ক্ষণিকার অম্লান ক্ষমায়,

ক্ষণিকেরে কর চিরন্তন |

দেহ হোক মন, মন হোক প্রাণ, প্রাণে হোক মৃত্যুর সঙ্গম,

মৃত্যু হোক দেহ প্রাণ, মন

Thursday, September 10, 2020

राग-विराग

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उसने कहा प्रेम
मेरे कानों में घुला राग खमाज
जुगलबंदी समझा मेरे मन ने
जैसे बाँसुरी पर हरिप्रसाद चौरसिया
और संतूर पर शिवकुमार शर्मा


विरह के दिनों में
बैठी रही वातायन पर
बनकर क़ाज़ी नज़रूल इस्लाम की नायिका
सुना मैंने रहकर मौन राग मिश्र देश
गाते रहे अजय चक्रवर्ती "पिया पिया पिया पापिया पुकारे"


हमारे मिलन पर
शिराओं - उपशिराओं में बज उठा था मालकौंस
युगल स्वरों के परस्पर संवाद में
जैसे बिस्मिल्लाह खान बजाते थे शहनाई पर
और शुभ हुआ जाता था हर एक क्षण


लील लिया जीवन के दादरा और कहरवा को
वक़्त के धमार ताल ने
मिश्र रागों के आलाप पर
सुना मेरी लय को प्रलय शास्त्रीयता की पाबंद
आसपास की मेरी दुनिया ने


काश! इस पृथ्वी का हर प्राणी समझता संगीत की भाषा
और जानता कि बढ़ जाती है मधुरता किसी भी राग में
मिश्र के लगते ही, भले ही कम हो जाती हो उसकी शास्त्रीयता
और समझता कि लगभग बेसुरी होती जा रही इस धरा को
शास्त्रीयता से कहीं अधिक माधुर्य की है आवश्यकता |

लिखूंगी

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मुझे माफ़ करना प्राण सखा,
नहीं लिख पाउंगी मैं कोई महान कविता !
मैं लिखूंगी विशाल पहाड़
तुम ठीक उस जगह झरने का संगीत सुनना |


मैं लिखूंगी अलौकिक सा कुछ, लिखूंगी छल और दुःख भी
मेरे अनुभवों में शामिल है दुधमुंहे शिशु के शरीर की गंध,
कई दिनों से प्रेमी के फ़ोन का इंतजार करती
प्रेम में डूबी प्रेमिका को देखा है मैंने
"सहेला रे" गाती हुए किशोरी अमोनकर को सुना है कई बार
देखा है बिन ब्याही माँ को प्रसव से ठीक पहले
अस्पताल के रजिस्टर पर बच्चे के बाप का नाम दर्ज़ करते
देखा है परमेश्वरी काका को बचपन में
छप्पड़ पर गमछे से तोता पकड़ते हुए
कोई और कैसे लिख पायेगा भला वो तमाम दास्ताँ !


बचपन में थी जो कविता मेरे पास,उसका रंग था सुगापंछी
उसकी आँखों में देखते ही होता था साक्षात्कार ईश्वर से
कविता कभी-कभी संत बनकर गुनगुनाने लगती -
"चित्रकूट के घाट पर भई संतन की भीड़....."
मेरी कविता का तेज था किसी सन्यासिनी की मानिंद
वह कर सकती थी तानसेन से भी जुगलबंदी
वह कर सकती थी वो तमाम बातें जिनके लिए
नहीं हैं मौज़ूद कोई भी शब्द अभिधान में
एक पिंजड़ा था जो सम्भालता था
स्मृतियों का ख़ज़ाना कई युगों का


मैं अब जो कविता लिखूंगी, क्या होगा उसका रंग?
क्या उगा सकेगी जंगल "हरा" लिखकर मेरी कविता?
क्या लौट आयेंगे ईश्वर, संत और विस्मृत स्मृतियाँ?
लौट आयेंगे प्रेमी प्रतीक्षारत प्रेमिकाओं के पास?
"मंगलयान" और "चंद्रयान" हैं इस युग की पुरस्कृत कवितायेँ!

हासिल हो स्वच्छ हवा और जल हमारी भावी पीढ़ी को
ऐसी कविताएँ अनाथ भटक रही हैं न जाने कब से !
मैं उन कविताओं को गोद लूंगी |
फिर मेरी कविताओं के आर्तनाद से तूफ़ान आ जाये,
आसमान टूट पड़े या बिजली गिर जाए,
उनका हाथ मैं कभी नहीं छोडूंगी |
मेरी कविताओं के संधर्ष से फिर उगेगा हरा रंग धरा पर
गायेगा मंगल गान सुगापंछी
तो धरती चीर कर निकल पड़ेगी फल्गु और सरस्वती!


मुझे माफ़ करना प्राण सखा,
नहीं लिख पाउंगी मैं कोई महान कविता !
मैं लिखूंगी रेत, और कविता पढ़कर करूंगी नदी का आह्वान
किसी आदिम पुरुष सा उस नदी किनारे तुम करना मेरा इंतजार |

Friday, August 21, 2020

तुम्हारे साथ

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तुम्हारे साथ स्वर्ग नहीं जाऊँगी प्रिय  

मुझे पुकारती है नीलगिरी की पहाड़ियाँ

दिन रात आमंत्रित करती है बंगाल की खाड़ी

पुकारता है महाबलीपुरम का मायावी बाज़ार

नंदमबाक्क्म के आम के बागान में दावत उड़ाते पंछी

पुकारता है संयोग, पुकारता है अभियोग

कि लौटने की समस्त तिथियाँ मिट गई हैं पञ्चांग से

पुकारता है प्रेम, पुकारता है ऋण

पुकारता है असमंजस, पुकारता है रुका हुआ समय


जहाँ पुकार रही हैं मुझे असंख्य कविताएँ

मैं हो विमुख उनसे चल पडूँ तुम्हारे साथ!

नहीं कर सकती ऐसा अधर्म, ऐसा पाप!


प्रिय, तुम निकल पड़ो किसी यात्रा पर 

लिखो अपने पसंद की कविताएँ होकर दुविधामुक्त

देखना मैं मिलूंगी तुम्हें उन कविताओं में अक्षरशः

मैं नष्ट स्त्री हूँ, मुझे स्वर्ग की नहीं तनिक भी चाह !


पंचतत्व

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बनकर स्रष्टा करना सृष्टि अहर्निश प्रेम की 

दफ़न करना अपनी जमीं पर सीने भर आशा 

कि अपने आप में पूरी पृथ्वी हो तुम 

जिसकी परिक्रमा करेंगे कई कई चाँद 

जो पोषित कर सकती है कई कई जीवन 


वृष्टि के जल को भर कलशी में 

पकाना दाल, धोना कपड़े 

बन मेघ भले पी जाना भवसागर  

आँखों का पानी बचा रहे 

बस इतना सा यत्न करना 


चूल्हे की आग में पकाना भंटा बैंगन

खाना पांता संग, मत करने देना शमन 

किसी को अपने भीतर की अग्नि का 

कि आत्मा में भर कर अंधेरा

नहीं लाया जा सकता उजाला जीवन में  


संसर्ग ही करना हो तो रहे ध्यान 

कि भले ही कर ले स्पर्श कोई शरीर का 

परन्तु तुम्हारे तुम को किंचित छू भी न सके 

न करना उत्सर्ग अपना असीम किसी को 

कि जमता रहे वहाँ संभावनाओं का मेघ 


बन चैत्र की आँधी घूमना माताल की तरह 

पर साधे रहना ताल जीवन का 

प्रेमशुन्य धरा पर लौटना बार-बार अनेक रूपों में 

बन कर प्रशांति की अविरल धारा 

क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा 


Sunday, June 14, 2020

अवसाद -2

जब होता है अवसाद नदियों को
धार क्षीण होती है पहले
उग आती हैं फिर जलकुंभियाँ
फिर सूख जाती हैं नदियाँ एक दिन

जब होता है अवसाद पेड़ों को
उनसे बिछड़ जाते हैं पत्ते
छूट जाता है हरे रंग से वास्ता
और पेड़ बन जाता है ठूँठ

जब होता है अवसाद जानवरों को
क्षुधा हो जाती है शांत उत्साह की तरह
और शरीर उर्जाविहीन 
वे हो जाते हैं विदा देखते हुए कातर आँखों से

जब होता है अवसाद मनुष्यों को
दिखता है अंधकार दिन के उजाले में
मुक्ति और मृत्यु घुल जाते हैं आपस में
नमक और जल की तरह

बनकर साक्षी कई युगों के अवसाद का भी
पत्थरों को अवसाद नहीं होता
ज़िंदा होना होता है
अवसादग्रस्त होने की पहली शर्त ।

Sunday, June 7, 2020

समुद्र

मैं कर आई विसर्जित अपने समस्त दुःख
अरब सागर के लवण जल में
कि पूरी पृथ्वी पर वह लवण जल ही तो है
जो करता है दुखों से मुक्त
स्वेद, अश्रु और समुद्र !

Wednesday, June 3, 2020

अमानुष

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वे निकल आये घने जंगलों से
स्वयं को करते हुए घोषित
पृथ्वी का सर्वश्रेष्ठ प्राणी

रहकर मलय पर्वत के संसर्ग में
लम्बी अवधि तक
बाँस चंदन न बन सका
साक्षर और शिक्षित होकर भी
आधुनिक मनुष्य न हो पाया सभ्य

अपने गुणसूत्रों की स्मृति में
वे बर्बर अमानुष ही रहे!

पलक्कड़ की हस्तिनी
प्रथम नहीं थी, अंतिम भी नहीं !

Saturday, May 9, 2020

हृदयाघात

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था इक यंत्र
जो संभालता था
यंत्रणाओं की पोटली
रुकने से यंत्र के
यंत्रणा बिखर गई

था एक सरोवर
स्नान जहाँ करती थी
आत्मा डूबकर
सरोवर के सूखने से 
आत्मा निकल गई

था एक मैदान
जहाँ करती थी शवासन
प्रतीक्षा मनोयोग से
काल से उजड़ा मैदान
प्रतीक्षा संजोग से

था प्रत्याशाओं का जंगल
जो बाँटता था प्रशस्ति
प्राप्ति की बेला में
है मृत्यु ही अंतिम प्राप्ति
जीवन के मेला में

Saturday, April 11, 2020

इक चराग़ जला दिया कभी इक चराग़ बुझा दिया

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आलस ने दोपहर के ढाई बजा दिए। बहुत कुछ करना चाहा था ढाई बजे से पहले तक। कुछ लिखने बैठी। पाँच पंक्तियाँ भी न लिख पाई। एक दोस्त का फोन आ गया और मेरा मन उस शहर की ओर भाग गया जिसे मैं अपना घर कहती हूँ । फोन रखकर खाना खाने जा ही रही थी कि वातावरण की नीरवता ने मानो मौन व्रत तोड़ा हो! यह हवाई जहाज की आवाज़ थी। बालकनी में गई। बाहर धूप तेज़ थी पर हवा चल रही थी। हवा में वह गर्माहट भी नहीं थी जो अमूमन अप्रैल महीने में चेन्नै की आबोहवा में होती है। आसमान में हवाई जहाज को देख मन एकदम वैसे ही मचल गया जैसे बचपन में हम सभी आसमान की ओर माथा उठाये तब तक उसे निहारा करते थे जबतक वह आँखों से ओझल न हो जाता था।

"ऐ हवाई जहाज! क्या तुम हमारे शहर जा रहे हो?" यह पूछना चाहा पर तभी दिमाग़ ने कहा कि हवाई जहाज भी भला उत्तर देता है! लॉक डाउन में एयर इंडिया का ऐसा कोई जहाज शायद एमरजेंसी मिशन पर विदेश को जा रहा होगा । यह भी हो सकता है कि यह एयर इंडिया का कार्गो विमान हो। तेज़ धूप में इतनी ऊँचाई पर कुछ भी स्पष्ट नहीं दिखता सिवाय हवाई जहाज के रंग रूप के।

हवाई जहाज के जाते ही कोयल और पंडुक की जुगलबंदी शुरू हो गई। सामने पेड़ पर कोयल को देख उसकी तस्वीर फोन में कैद करने का सोच ही रही थी कि वह पत्तों की ओट में छुप गयी। फोटो लेना भी रह गया।

खाना खा लेने के बाद सूरज की रौशनी संग लुकाछिपी का खेल खेला। कई सालों बाद ऐसा संयोग हुआ कि दिन को ढ़लते हुए देखकर शाम किया। इससे पहले आठ बरस पूर्व कौसानी की हिमाच्छादित नंदा देवी की चोटियों पर सूरज की कलाकारी देखकर दिन तमाम किया था।

पास के सुपरमार्केट में तीन दिन पहले गयी थी तो चाय पत्ती नहीं मिली। बची हुई चाय पत्तियाँ ज़्यादा दिन चले, इसलिए शाम को नींबू चाय पीने का निर्णय लिया।

फिर यह डायरी लिख रही थी कि एक दोस्त का फोन आया और उसने बताया कि वह जेनरेटर के लिए फ्यूल लेने बाहर गया था। उसे लगा शायद रात के नौ बजे प्रधानमंत्री के कहे मुताबिक बिजली चली जायेगी। उसे यह बताना फ़िज़ूल लगा कि प्रधानमंत्री ने स्वेच्छा से 9 मिनट के लिए बिजली बंद कर दीया जलाने को कहा है। बिजली विभाग बिजली बंद नहीं करेगा।

स्नान करते हुए साढ़े आठ बजे गए। मन में संशय था कि अच्छे दिनों में कुछ भी हो सकता है। "कहीं सचमुच बिजली चली गयी, तो!" ऐसे में डिनर जल्द बनाकर खा लेना ही उचित था। रोटियाँ बनाई और सब्जी काटने और फिर बनाने का जोखिम लिए बिना बैंगनापल्ली आम के साथ खाकर तृप्त हुई।

 नौ बजकर दो मिनट पर एक बार फिर हवाई जहाज के आसमान से गुजरने की आवाज़ आई। दिल फिर बच्चे की तरह मचल गया "मुझे दिल्ली जाना है"। फिर ख़ुद को तसल्ली दी कि शायद ज़ल्द ही थोड़े दिनों के लिए लॉक डाउन से राहत मिले। क्या पता देर रात तक कोई ऐसी खबर ही सुना दे। इसी उधेड़बुन के बीच ख़ुशी ने फोन किया और बताया कि ग्रेटर नोएडा में लोग दिया, मोमबत्ती और टॉर्च जलाने के अलावा शंख और थाली भी बजा रहे हैं और पटाखे भी जला रहे हैं। उसके पास कई प्रश्न थे जिनका जवाब मैंने अभिधा में न देकर व्यंजना में दिया। उसके प्रत्युत्तर ने समझा दिया कि लड़की बड़ी समझदार हो गई है।

फोन रखकर सोशल मीडिया की सैर करने लगी, तो पता चला कि जहाँ देश भर के लोगों ने कोरोना समय में प्रधानमंत्री का कहा मान दीया, टॉर्च और मोमबत्ती जलाया, वहीं कई राज्यों में लोग संवेदना को परे रख ढोल के साथ सड़कों पर उत्सवधर्मी होते दिखे। कई जगहों से आगज़नी की खबरें भी आईं। नहीं आई तो वह ख़बर जिसका मुझे इंतज़ार था! उदासी और इंतज़ार में सुबह हो गई। मजरूह सुल्तानपुरी जी ने ऐसे ही कश्मकश वाले लम्हों के लिए कहा होगा-
शब-ए-इंतिज़ार की कश्मकश में न पूछ कैसे सहर हुई
कभी इक चराग़ जला दिया कभी इक चराग़ बुझा दिया

सु लोचना
5 अप्रैल

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Saturday, April 4, 2020

राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा


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25 मार्च का दिन था। कोरोना काल में घर से काम करते हुए तीसरा दिन। नियमानुसार सुबह 9:25 से कॉन्फ्रेंस कॉल पर थी। हम मुम्बई और पुणे के सहकर्मियों को "गुडी पाडवा" और तेलगु भाषी सहकर्मियों को "उगाडी" की शुभकामनाएँ दे चुके थे और अब सिर्फ काम की बातें हो रही थीं।  लगभग 11 बजे कॉलिंग बेल की आवाज़ सुनकर लैपटॉप हाथ में लिए ही दरवाजा खोलने चली गई। दरवाजा खोलते ही सामने एक चेहरा नमूदार हुआ। दिमाग़ पर ज़ोर दिया तो याद आया यह वही शख़्स था जिससे कम्युनिटी वाशिंग स्पॉट पर मिली थी। मिली क्या थी, उस पर रौब जमाते हुए कहा था "आई एम इन द क्यू"। वह सरल स्वभाव का इंसान दिखा। बिना किसी बहस के मान गया। फिर थोड़ी देर की बातचीत के बाद पता चला कि बंगलुरु में पले बढ़े उस गौर वर्ण पुरुष की जड़ें हैदराबाद में हैं और यह तेलगु भाषी शख़्स पिता की नौकरी के कारण बचपन में कुछ साल पटना भी रह चुका है। यह जानकर कि मैं बिहार से हूँ, वह अंग्रेजी से सीधे हिन्दी पर आ गया। उस रोज बात वहीं ख़त्म हुई। उसे पहले दिन यह सुनकर भी अजीब लगा कि मैं वर्क फ्रॉम होम के तहत सचमुच काम करती हूँ!

पर आज आते ही पूछा "आप कैसे मैनेज करने वाली हैं सब कुछ?"
"क्या सब कुछ?"
"शायद आपको मालूम नहीं सोसायटी के सारे गेट्स बंद कर दिए गए हैं। पानी वाले को भी अंदर नहीं आने दिया जा रहा। मैं पोरुर जा रहा हूँ ग्रॉसरी लाने। आपको कुछ चाहिए तो लिस्ट दे दीजिए।"

अचानक यह सुनकर घबरा गयी। मैंने दिमाग़ पर फिर से ज़ोर डालते हुए कहा "आई हैव स्टेपल्स। जस्ट नीड फ्रूट्स एंड वेजिटेबल्स...मिल्क पाउडर...एन्ड वाटर.."
उसने कहा "चलिए, चलकर ले आते हैं।"
मैं यूपी नम्बर की अपनी कार लेकर ऐसे माहौल में जाने के पक्ष में नहीं थी। उसके स्कूटर पर पानी और कुछ खानेपीने का सामान आ सकता था। तय हुआ कि डेढ़ -दो किलोमीटर पैदल चलकर इस मोहल्ले या अगले वाले से सब्जी, फल और अन्य ज़रूरी चीजों को खरीदा जाएगा। उसने मुझसे तैयार होकर 15 मिनट बाद आने को कहा और चला गया। कोरोना काल में सर और नाक -मुँह ढँकने की अतिरिक्त तैयारी भी करनी पड़ती है।

मैं जब तैयार होकर तीसरी मंज़िल गयी और उसके कमरे का बेल बजाया, वह फोन पर किसी से बात कर रहा था। मुझे सोफे पर बैठने को कहकर बालकनी में चला गया। मैं कमरे का मुआयना करने लगी।  कमरा किसी मंदिर से कम न था। एक मंदिर था, नीचे लोबान जल रहा था, बिस्तर पर यजुर्वेद की किताब और बिस्तर के सिरहाने कई देवता टंगे हुए थे। आईआईटी मद्रास, सेंटर ऑफ एक्सेलेंस और यह कमरा... मेरा दिमाग तारतम्य ढूँढ ही रहा था कि आवाज़ आई "सॉरी मैम! आपको इंतज़ार करना पड़ा। चलिए।"

हम सबसे पहले सब्जी की दुकान गए, वहाँ बैंगन और मुनगा को छोड़ एक भी सब्जी लेने लायक हालत में न थी। पास के सुपरमार्केट में मिल्क पाउडर, ब्रेड आदि सामान देख सुकून मिला पर तय हुआ कि सब्जी और फल लेने के बाद लिया जाएगा। आगे डेढ़ -दो किलोमीटर चलने के बाद फल की दुकान थी। वहाँ पहुँचने से पहले ही सर्विस डिलीवरी हेड का मुम्बई से फोन आ गया "व्हेर आर यू सुलोचना! वी आर वेटिंग फ़ॉर यू"। सुनसान सड़क पर आवाज़ साफ थी। मैंने उन्हें दो घंटे में लौटने का कहकर जैसे ही फोन बन्द किया, पास से आवाज़ आई "यू गाइज़ रियली वर्क!" मैं जवाब देने के लिए मुख़ातिब हुई तो देखा उसके चेहरे पर सचमुच की हैरानी थी। उसे टेलीकॉम और आईटी के कामकाज का विवरण देती हुई फल की दुकान तक गई। वहाँ से हमने सप्ताह भर का फल खरीदा। भुगतान उसने किया। सब्जी कहीं भी ठीकठाक हालत में नहीं मिली। फिर सुपरमार्केट आए और यहाँ से जो कुछ ले सकते थे, लिया। यहाँ भुगतान मैंने किया।

लौटते हुए जब लिफ़्ट में गए, तो मेरी शक्ल देखकर वह चिंतित हुआ। चेन्नै की गर्मी से चेहरा सुर्ख हो चुका था। मैंने बताया कि मेरी त्वचा हाइपोअलर्जेनिक है और डरने की कोई बात नहीं है। पर मेरे हिस्से के फल और अन्य चीजें मुझे थमाने के बाद उसने अपने बैग से आँवला निकालकर तत्काल खाने का निर्देश दिया। फिर पानी पीने का भी। जब तक चेहरे की रंगत फीकी नहीं पड़ गई, वह दरवाजे पर खड़ा रहा।

फलों को धोकर और बाकी चीजों को पोछकर रखने के बाद बाहर पहने हुए कपड़ों को धोकर नहाने की बारी थी।   नहाते हुए यह सोच रही थी कि दो अजनबियों का कोरोना काल में एक दूसरे की ग्रोसरी का भुगतान करना ज़्यादा अजीब है या उस इंसान का आपकी मदद को आगे आना जिसे आपने वाशिंग सेंटर से दो बार लौटा दिया हो!

स्नान करने के बाद खाना बनाया और उसे भी खाने का निमंत्रण दे दिया। दफ्तर के कॉल और रसोई के बीच सामंजस्य स्थापित करने की तमाम कोशिशों के बाद भी चावल थोड़ा सा बर्तन की सतह पर लग/जल गया था। सब्जी भी इंडक्शन पर कुछ खास नहीं बनी थी। पर उसने  तृप्ति सहित खाना खाते हुए कहा "थैंक यू मैम! आपकी वज़ह से मेरा उगाडी हैप्पी हो गया"! मैं उसकी थाली में और चावल डालने लगी, तो वह उठा और हवा की तरह बाहर गया और तीसरी मंजिल के अपने फ्लैट से दही का पैकेट लेकर तूफ़ान की तरह पुनः मेरे फ्लैट में दाखिल हुआ। वह मुझसे भी दही भात खाने का आग्रह करने लगा। मैंने उसे बताया कि हम मिष्टी दोई (मीठा दही) खाने वाले प्राणी हैं, नमकीन दही भात हमसे न खाया जाएगा।

खाना खाते हुए दफ़्तर और घर की बात चली, तो उसने बताया कि उसका छोटा भाई गूगल में कार्यरत है और पत्नी तथा बेटी के साथ हैदराबाद में रहता है। जब मैंने पूछा कि उसने ब्याह क्यों नहीं किया तो पहले कुछ देर चुप रहा और फिर शर्माते हुए कहा "आई एम इन लव विथ माय कज़न"।

दक्षिण में रहते हुए डेढ़ बरस हो गए, तो यह मेरे लिए कोई नयी बात नहीं थी, पर उसने अपनी ओर से स्पष्टीकरण देते हुए कहा "इधर कज़न में शादी होता है और इसका कारण भले ही ज़मीन जायदाद से जुड़ा है, पर जब आप बचपन से सुनते आए हों कि बड़े होने के बाद आपकी बुआ या आपके मामा की बेटी से आपका ब्याह होगा, तो कम उम्र से ही उसके प्रति आकर्षण होता है और किशोरावस्था तक पहुँचते प्यार हो जाता है।"

"सो योर ब्रदर हैड अरेंज्ड मैरेज?"

"नहीं मैम। उसने गलत काम किया। उसे बुआ की बेटी से प्यार था। बुआ के पति तैयार नहीं थे। ये दोनों लिव इन में रहने लगे, फिर सबको मान लेना पड़ा"

"स्मार्ट चैप! व्हाई डोंट यू फॉलो दैट पाथ!"

"मेरे मामा को बहुत अमीर लड़का चाहिए। वे किसी कीमत पर हमारी शादी नहीं करना चाहते हैं। जब उनकी बेटी ने शादी करने से मना कर दिया, तो उन्होंने मुझसे कहा "इलोप विथ हर"। पर मैं सही रास्ते पर चलकर ही मंज़िल को प्राप्त करना चाहता हूँ। सच कहूँ तो अब यह सोचने लगा हूँ कि इस उम्र में शादी क्या करना। मैं छत्तीस बरस का हो गया। वो मुझसे सात साल छोटी है और जेएनयु से एमफिल करने के बाद लॉ पढ़ रही है। अभी तो उसे भी वक़्त लगेगा। सोचता हूँ सन्यास ले लूँ"

"पर उम्र होने पर तो संग-साथ की ज़रूरत और भी बढ़ जाती है। शादी का मतलब सिर्फ़ बच्चा पैदा करना ही तो नहीं होता है न" ऐसा ज्ञान देते हुए मानस पटल पर उसके कमरे की तस्वीर उभर आई थी।

"कोई बात नहीं। हम दोनों एक-दूसरे से प्यार करते हैं और इतना काफी है ज़िन्दगी जी लेने के लिए" कहते हुए उसके चेहरे पर आत्मविश्वास झलक रहा था।

मेरे मना करने के बावजूद वह थाली और कटोरी उठाकर अपने फ्लैट ले गया और बर्तन माँजकर वापस दे गया।
लंच ब्रेक ओवर हो गया था, लैपटॉप से प्रोग्राम मैनेजर की आवाज़ आई "सुलोचना मैम, आर यू देयर!"

मैं दफ़्तर की कॉल में सॉफ्टवेयर के मसले सुलझाने में लग गई, पर दिमाग में फ़ैज़ की पंक्तियाँ चल रही थी -

"तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है
तू जो मिल जाये तो तक़दीर निगूँ हो जाये
यूँ न था मैं ने फ़क़त चाहा था यूँ हो जाये
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा"

सु लोचना
चेन्नै
25/3/2020

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