Sunday, September 29, 2013

पूजा


-------------
वो कैसी पूजा थी
नाम संकल्प ही किया था 

कि जला बैठी स्वयं को
हवन के अग्निकुण्ड में
और वो प्रेम कलश
जिसे तुमने मेरे वक्ष पर धरा था
नही कर पाई विसर्जित उसे
अपनी पीड़ा के महा सिंधु में
घट के जीर्ण होते पल्लव की दुर्गंध
स्मरण दिला जाती है
उस अनुष्ठान में 
साधक भी मैं थी
और हवन सामग्री भी मैं

Saturday, September 21, 2013

मज़हब

गर हवा का मज़हब होता
और पानी की होती जात
कहाँ पनप पाता फिर इंसान 
मौत दे जाती मुसलसल मात

जो समय का धर्म होता
किसी बिरादरी की होती बरसात
वक़्त के गलियारों में फिर
कौन बिछाता सियासत की विसात

ज़िरह कर रहे कबसे मुद्दे पर
ढाक के वही तीन पात
ये खुदा की ज़मीं है लोगों
ना भूलो अपनी औकात

----सुलोचना वर्मा-----

Monday, September 16, 2013

दशहरा

क्यूँ पुतले को फूँककर
खुशी मनाई जाए
क्यूँ एक रावण के अंत का
जश्न मनाया जाए
कितने ही रावण विचर रहे
यहाँ, वहाँ, और उस तरफ
क्यूँ ना उन्हे मुखौटों से पहले
बाहर लाया जाए

 
इस साल दशहरे में नयी
रस्म निभाई जाए
राम जैसे कई धनुर्धरो की
सभा बुलाई जाए
हर रावण को पंक्तिबद्ध कर
सज़ा सुनाई जाए
अंत पाप का करने को उनमे
आग लगाई जाए

 
हर घर में नई आशा का
दीप जलाया जाए
अपहरण को इस धरती से
फिर भुलाया जाए
किसी वैदेही को कहीं अब
ना रुलाया जाए
गर्भ की देवियों को भी
बस खिलखिलाया जाए

 
सुलोचना वर्मा

Friday, September 13, 2013

माज़ी

मैं तन्हा तो हूँ; मगर मुंतज़िर  नही
तुम मेरे माज़ी हो, कहाँ लौट पाओगे

सुलोचना वर्मा

Sunday, September 1, 2013

जीवन घर

1.9.2013


उस घर की दीवारों पर
उभर आईं दरारें
ज्यूँ वक़्त ले आता है
चेहरे पर झुर्रियाँ


आँगन से झाँक रही हैं
माधविलता की बेलें
ज्यूँ लकीर खींच देती है
माथे पर मजबूरियाँ


खिड़कियों पर सज गये हैं
मकड़ियों के जाले
ज्यूँ टूटा रिश्ता लाता है
संग अपने दूरियाँ


छत से टपक रही है
बारीशों की बूँदें
ज्यूँ विधवा घंटो रोती है
देखके अपनी चूड़ियाँ


सुलोचना वर्मा