Thursday, December 24, 2015

कमला कमलिनी

------------------------------------------------------------------------------------
माँ के साथ मैं भी ध्यानमग्न रहती| जेठ महीने के हर मंगलवार को हमारे घर देवी मंगलचंडी की पूजा होती थी| माँ बंद आँखों से माता मंगलचंडी का ध्यान करती  और मैं खुली आँखों से सामने रखे पाँच प्रकार के कटे हुए फलों से सजी थाली में रखे इकलौते आम की गुठली का| कुछ बेवकूफियाँ जन्मजात होती हैं| पूजा-आरती  के बाद जब प्रसाद वितरण की बारी आती तो अक्सर हम दोनों भाई -बहनों के बीच आम की गुठली को लेकर ठन जाती| माँ अक्सर कहती "दूसरा आम काट देती हूँ"| पर नहीं, हमें तो प्रसाद में चढ़ाई गयी आम की गुठली ही चाहिए थी| फिर एक तरकीब निकाली गयी| गुठली के लिए हम दोनों की बारी तय हुई| एक मंगलवार गुठली मुझे मिलती तो अगले मंगलवार भाई को| इस प्रकार एक बड़ी समस्या का समाधान मिला| 

इस समस्या के सुलझने से एक और बात हुई| अब मेरा ध्यान आम की गुठली से हटकर माता मंगलचंडी की कथा में रमने लगा| कथा क्या थी एक तिलिस्म सा था| कथा में एक सौदागर कुछ वर्षों तक परदेश में रहकर बाणिज्य करता है और फिर खूब सारा पैसा कमाकर कीमती चीज़ों के साथ जहाज से घर लौट रहा होता है| अभी वह किनारे पहुँचने ही वाला होता है कि उसका जहाज डूब जाता है| वह तैरकर किनारे पहुँचता है और अपने भाग्य का रोना रोता है| अचानक उसकी दृष्टि पड़ती है एक अलौकिक दृश्य पर| एक सुंदर स्त्री कमल के फूल पर आसन जमाए बैठी है| उसके एक हाथ में सफ़ेद हाथी का सर है और दुसरे हाथ से वह हाथी का सूंड चबा रही है| ऐसा अद्भुत दृश्य देखके उससे नहीं रहा गया और वह  उस स्त्री के समीप जाकर उसका परिचय पूछता है और यह भी पूछता है कि ऐसे निर्जन जगह पर वह अकेली क्या कर रही है| स्त्री का उत्तर होता है कि वह वन देवी कमला कमलिनी है| वह सौदागर को कहती है कि उसे पता है कि उसका जहाज डूब गया है और वह जहाज के डूबने का कारण जानती है| वह सौदागर को बताती है कि उसे उसका खोया हुआ धन वापस मिल सकता है| इतना सुनते ही सौदागर साष्टांग लेट जाता है और देवी कमलिनी से धन वापस पाने की तरकीब बताने को कहता है| देवी बताती है कि उसे अपने घर लौटना होगा और घर लौटकर उसकी पत्नी को जेठ महीने के हर मंगलवार देवी मंगलचंडी की पूजा करनी होगी| ऐसा करने के एक महीने बाद उसकी खोयी हुई सम्पति वापस मिल जायेगी| कथा के अंत तक ऐसा होता भी है| हमारे धर्म में पाप कोई भी करे, प्रायश्चित स्त्रियों को ही करना पड़ता है|

उन दिनों घर में टीवी नहीं होने के कारण हमारी कल्पनाशीलता अपने चरम पर थी| पूजा समाप्त होती और आम की गुठली चूसते हुए मेरी कल्पनाएँ कई आकार लेतीं| कभी सोचती जो देवी स्वयं समृद्ध है, जो चाहें तो छप्पन भोग का आनन्द ले सकती हैं, उन्हें आखिर हाथी को खाने की क्या ज़रूरत पड़ी? दुसरे ही क्षण मैं स्वयं को देवी मान मन ही मन कमल के फूलों पर सवार होती और हाथी को खाने का प्रयास करती| अजीब विडंबना थी कि हर बार सूंड मेरे गले में फँस जाता और मैं कल्पना से बाहर इस लोक में लौट आती| 

वह अप्रैल की एक दोपहर थी| उस रोज मेरी कलाईयों पर नारंगी चूड़ियाँ देख नायला एकदम से बिफर गयी|  उसने कहा "ये क्या हिन्दुनी जैसी चूड़ियाँ डाल रखी हैं हाथों में...बदल लो"| दांत कटी दोस्ती थी नायला बानो से| हमारे घर के चापाकल के पानी बिना उसकी प्यास नहीं मिटती और उसके घर के बने आम के अँचार मेरे टिफिन के जायके को दुगूना कर देते| 

"हिन्दुनी"- पहली बार ऐसा कोई शब्द सुना था| उस दिन से पहले तक कभी दुपट्टा माथे पर रखकर मुग़ल ए आज़म की मधुबाला बनते हुए आईने में देखती, तो आस-पड़ोस के लोग कहते "मियाइन लग रही हो"| कभी हरे रंग का फ्रॉक पहन लिया तो भी यही कहकर चिढ़ाते थे| उस रोज़ मैं अपने भीतर एक अजीब सी ख़ुशी महसूस कर रही थी| घर लौटते ही माँ को बताया "ये जो हम हर बात में "मियाँ" और "मियाइन" कहकर मुसलमानों को बुरा दिखाने की कोशिश करते हैं न, उनके पास भी हमारे लिए वैसा ही शब्द है-"हिन्दुनी"| क्या हम बिना एक-दुसरे पर टीका-टिप्पणी किये प्रेम से नहीं रह सकते? रंगों का धर्म किसने तय किया कि हरा  मुसलमान हो गया और नारंगी हिन्दू?" 

प्रेम जल की तरह पारदर्शी होता है| उस समय मैं उसकी सबसे प्रिय सहेली थी| हमें तो हमारी दोस्ती से मतलब था| मजहब समझ से बाहर की चीज़ थी| मुझे बुरा नहीं लगा| उसकी ज़ुबान पर भले ही मजहबी शब्द थे, पर उसके सरोकार का तो बस प्रेम से बावस्ता था| सो मैंने प्रेम ही सुना| उस घटना का हमारी दोस्ती पर कोई असर नहीं पड़ा|

उन दिनों हमारे गाँव में घरों की दीवारें छोटी हुआ करती थीं| जिनके घरों का छत खपरैल न होकर पक्का था, वह तो बस छत पर चढ़कर आस-पड़ोस के  चार-पांच घरों का हाल-समाचार पूछ लिया करते थे| किसके घर में क्या खाना पका है, पड़ोसियों को पता होता था| खाना बनाने के मामले में भी हर घर की अपनी स्पेशलिटी थी| किसी के घर की कढ़ी का सुनाम था तो किसी के घर में बने छोले का| कई मौकों पर मिल-बाँटकर खाते थे| जब नायला  का परिवार हमारे घर आता, तो हमारे आँगन में रखी चारपाई पर बैठक जमती| ऐसे में जब हमारे घरवाले नायला  के घर जाते, तो हमारे बैठने का इंतजाम आँगन में किया जाता| बैठने के लिए प्लास्टिक की कुर्सियाँ होती और हमारा चाय नाश्ता बाहर से मँगाया जाता जिसे हिन्दू दूकानदार ही लाता और परोस जाता| नायला  की दादी एक बेहद ज़हीन और पाक ख्याल स्त्री थीं| अक्सर कहतीं "हम तो आपकी ठीक से खातिर ही नहीं कर पाते| आपलोगों की भावनाओं का भी ख्याल रखना पड़ता है| हमारे अल्लाह ताला ने  सबके लिए अच्छी सोच रखने को कहा है"|

मेरी माँ कहती "नायला  की शादी पर एक दर्ज़न मेवा दरवेश लड्डू खाऊँगी| तब करियेगा हमारी खातिर"| फिर सभी हँस पड़ते| 

सातवीं कक्षा के बाद जब हम हाई स्कूल गए, तो वहाँ नायला  बानो नज़र नहीं आयी|  जब कुछ दिनों तक वह नहीं दिखी, तो एकदिन मैं उसके घर चली गयी| उसकी दादी ने बताया "बेटा, हमारे कौम में लडकियाँ बड़ी होने के बाद दिन के उजाले में निकले, तो लोग तरह-तरह की बातें करेंगे| बस इसीलिए यह घर पर रहकर ही पढ़ाई करेगी|"|

यह सुनकर मैं उदास तो बहुत हुई थी पर कहीं सुकून था कि उसकी पढ़ाई बंद नहीं हुई| स्त्रियों के खिलाफ हर धर्म का अपने ही तरीके का षड्यंत्र है| फिर तीन-चार महीनों और बाद में छह-सात महीनों पर शाम के बाद नायला  अपनी दादी, जिन्हें वह अम्मी ही कहकर बुलाती, के साथ आती| शामें खूबसूरत हो जाया करतीं| 

6 दिसम्बर 1992 का दिन भी रविवार का आलस लिए हुए था| हम भाई-बहन को स्कूल नहीं जाना होता था, सो माँ दिन में ज्यादा देर तक पूजा कर सकती थी| घर के तमाम काम निपटाकर स्नान करने के बाद अभी माँ ताम्बे के लोटे में जल और हाथ में अड़हूल लिए मन्त्र बुदबुदाते हुए सूर्य देवता को जल चढ़ा रही थी| 

"जपाकुसुमसंकाशं काश्यपेयं महाद्युतिम् ........."

अचानक बाहर से आती शोर में माँ की आवाज दब गयी| चारों ओर ख़ुशी की लहर थी| सिर पर भगवा फेटा बाँधे जश्न मनाते लोग सड़क पर उतर आये थे| अयोध्या में बाबरी मस्जिद गिराई जा चुकी थी। सभी टीवी की ओर दौड़े| माँ के हाथों के अड़हूल से भी अधिक रक्तिम था टीवी स्क्रीन| "हिन्दुनी"-यह शब्द जेहन पर अतिक्रमण कर रहा था| 

टीवी से नज़र ही नहीं हट रही थी| मृतकों की संख्या में लगातार इजाफा हो रहा था| मारे जानेवाले लोग दोनों धर्मों के थे| हैरानी इस बात की थी कि इस दंगे को प्रायोजित करनेवाले किसी भी नेता को खरोंच तक नहीं आई| 

यह धर्म भी सफ़ेद हाथी ही है| कमबख्त ये सफ़ेद हाथी का सूंड आम लोगों के ही गले में क्यूँ फँसता है? वह भी तब जब वह इसे मन ही मन खा रहे होते हैं| किसी ने देखा है असल जिंदगी में सफ़ेद हाथी को? वैसे देखा तो अल्लाह को भी नहीं है| श्रीराम को भी ग्रंथो से ही जानते हैं| फिर भी आये दिन दोनों कौमों के लोग राम और रहीम के नाम पर एक-दुसरे के खिलाफ़ खड़े नज़र आते हैं|

हम मनुष्यों को जिंदा रहने के लिए हौआ चाहिए| हमारे आसपास छोटी-छोटी खूबसूरत चीज़ें हैं, सुन्दर रिश्ते हैं और प्रेमपूर्वक जीने का साधन है| पर हमें वो चीज़ें आकर्षित करती हैं जिन्हें हमने देखा ही नहीं और जिनसे हमारा नैतिक रिश्ता जन्म लेते ही तय कर दिया गया| वो रिश्ते जिन्हें हमने अपनी पसंद से बनाये थे, पीछे छूटते चले गये| वक्त के मरहम से दंगों के ये घाव भले ही भर जाते होंगे  लेकिन हिंदू और मुसलिम समुदायों के बीच संदेह और अविश्वास की जो गहरी खाई पैदा हुई है उसे भरने में न जाने कितना वक्त लगेगा| 

कुछ समय बाद हिन्दू और मुस्लिम समुदाय के लड़कों की आपसी रंजिश में हुई लड़ाई में नायला के चचा की हत्या कर दी गयी| हत्यारे का अंदाजा लगभग सभी को था पर बिल्ली के गले में घंटी बांधता कौन!!!

1992 के बाद मैं नायला  से कभी नहीं मिली| न ही उसके परिवार का हमारे घर आना हुआ| ऐसा नहीं था कि हमारे परिवारों के बीच दंगे को लेकर कोई मनमुटाव रहा हो, पर आसपास के माहौल का हमारी निजी जिंदगी पर असर तो पड़ता ही है| मैट्रिक पास करने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए गाँव छोड़ शहर आ गयी थी| इस बीच नायला  के घर से कभी कोई हमारे घर नहीं आया| १९९५ में दुर्गा पूजा के मौके पर जब घर गयी, तो माँ ने बताया नायला  की शादी हो चुकी थी| अभी मैं पूछना ही चाह रही थी कि माँ ने शादी में शिरकत की या नहीं, कि माँ बताने लगी दो महीने पहले एक शाम एक स्त्री बड़ी सी थाली में बायना लेकर आई| माँ के पूछे जाने पर कि किसके घर से आया है उसने बिना कुछ कहे उस कशीदेकारीवाले कपड़े को हटाया | थाली में एक दर्ज़न मेवा दरवेश लड्डू थे|

मुझे देवी कमला कमलिनी याद आई| इसबार उनकी शक्ल नायला की दादी से मिल रही थी| आखिरकार वह कोई देवी ही हो सकती थी जो पाखण्ड के सफ़ेद हाथी के सूंड को चबाकर निगल गयीं| अतीत के गभीर जल में सुन्दर स्मृतियों का हंस देर तलक विचरता रहा|

विधि का विधान

--------------------------------------------------------------------------------------------------
वह हमेशा की तरह ठीक बीच में उत्तर की ओर कुर्सी पर बैठा हुआ था| यह महज संयोग नहीं था कि वह जब भी यहाँ आया, यह सीट उसके लिए हमेशा उपलब्ध रही| वह जुगाड़ करने में माहिर था | पूरे चाय बार में अक्सर ही ऐसी भीड़ रहती थी और यह विशेष सीट सबसे गोचर और सुकून देनेवाली थी। उसे लाइमलाइट में रहना पसंद था| फिर उसके प्रशंसकों की भारी संख्या में मौजूदगी उसे आत्मविश्वास से भर रही थी|

उसे देखते ही विधि अतीत में खो गयी|

विधि सैकिया ने जब उसे पहली बार देखा था तो एकबारगी उसकी आँख उस आदमी के चेहरे पर रुक गयी थी| वह कुपोषित दिख रहा था| उम्र यही कोई तीस-बत्तीस रही होगी| रंग गेहूँआ, दुबला-पतला कद और लम्बाई भी कुछ ख़ास नहीं| विधि के आँखों की चमक कम हो गयी थी| पर ज्योतिर्मय बरुआ, उसे तो ऐसा लगा जैसे वह आँखें खोलकर कोई सपना देख रहा हो| ज्योतिर्मय ने विधि को जितना आँका था, वह उससे कहीं ज्यादा खूबसूरत निकली| विधि ज्योतिर्मय से मिलने उसकी आर्ट गैलरी गयी थी| अभी वह गैलरी में लगे चित्रों में ही उलझी थी कि ज्योतिर्मय ने अचानक से उसे अपनी बाँहों में भर लिया था|

"ये क्या कर रहे हो" विधि असहज महसूस कर रही थी|

"तुम्हारी तरह मैं भी बेहद अकेला हूँ| चलो साथ में सुकून के कुछ पल साथ जीते हैं" ऐसा कहकर ज्योतिर्मय विधि को बेतहाशा चूमने लगा| विधि बर्फ सी पिघलती चली गयी| सूखी धरती जिस प्रकार बारिश का स्वागत करती है, विधि ने उसी प्रकार ज्योतिर्मय का अपने जीवन में स्वागत किया|

फिर दोनों हफ्ते में कभी एकबार तो कभी दो बार मिलते| तीन-चार महीनों में ही विधि प्रेम में इस कदर पागल हो चुकी थी कि वह मन ही मन ज्योतिर्मय से शादी का मन बना चुकी थी| ज्योतिर्मय की एक आदत थी कि वह जिन लोगों से प्रभावित होता या जिन लोगों लोगों को प्रभावित करना चाहता, उनकी एक तस्वीर बनाकर आर्ट गैलरी में रखता| उन तस्वीरों की एक विशेषता यह थी कि उनमे मौजूद इंसान की शक्ल तो असल इंसान से नहीं मिलती पर जिसके लिए तस्वीर बनाई गयी है, अलबत्ता वह उस तस्वीर में अपनी मौजूदगी को जरूर पहचान सकता था| कुछ समय पहले ज्योतिर्मय ने जब पेरिस के चित्रकार फ्रांसुआ से प्रभावित होकर उनका स्केच बनाया, तो किसी आम इंसान के लिए यह बता पाना मुश्किल था कि तस्वीर में मौजूद शख्स कौन है; पर जब फ्रांसुआ अपने भारत प्रवास के दौरान उस आर्ट गैलरी में गए तो उनकी नजर उस तस्वीर पर गयी जिसमे सफेद कमीज और खाकी पेंट पहना हुआ इंसान टोपी से मुंह ढंककर पेड़ के नीचे बैठा है| उस आदमी के दाहिने हाथ में छह उंगलियाँ हैं, बाएं हाथ में सिगार है और बाएं हाथ की एक ऊँगली में अंग्रेजी अक्षर ऍफ़ लिखी हुई प्लैटिनम की अंगूठी है| फ्रांसुआ बेहद प्रभावित हुए और जब फ्रांसुआ ने वह चित्र खरीदना चाहा तो ज्योतिर्मय ने उन्हें वह उपहारस्वरूप भेंट किया| ज्योतिर्मय के कैनवास पर स्त्री अब मेखला पहनी हुई नजर आने लगी|

ज्योतिर्मय असम के सोनितपुर का रहनेवाला था, विधि उसी जिले के बिस्वनाथ चरियाली की रहनेवाली थी| जहाँ विधि नौकरी करने कोलकाता आयी थी, ज्योतिर्मय असफल प्रेम की यादों से मुक्त होने के लिए असम छोड़कर पड़ोसी  राज्य  पश्चिम बंगाल आ गया था| दोनों फेसबुक पर मिले, दोस्ती हुई, दोस्ती गहरी हुई और फिर मिलने का कार्यक्रम तय हुआ| विधि ज्योतिर्मय से अक्सर फोन पर बात करती, उसके चित्रों का ज़िक्र करती और कभी-कभी अपनी परेशानियाँ भी बाँट लेती|  वह धैर्यपूर्वक विधि की बातें सुनता और उसे नैतिक समर्थन देता| विधि को ज्योतिर्मय के बारे में इतना ही पता था कि स्नातक स्तर की पढ़ाई के बाद उसने बैंकिंग और रेलवे के परीक्षाओं की तैयारी की थी और असफल रहा था| दरअसल वह दौर ही उसकी असफलताओं का था| उसके पहले प्रेम का भी यही हश्र हुआ| फिर अपनी वीरान जिन्दगी में रंग भरने के लिए उसने रंगों का सहारा लिया और चित्रकार बन गया| चित्रकारी का शौक उसे बचपन से ही था| उसकी चित्रों के पात्र और विषय इतने संवेदनशील होते थे कि देखते ही देखते उसके प्रशंसकों की लम्बी कतार खड़ी हो गयी|

विधि के सफल प्रेम की असफलता उसके जीवन का सबसे बड़ा दुःख थी| समाज और परिवार से लड़कर अपने से कम कमानेवाले बंगाली लड़के विधान चक्रवर्ती से  प्रेम विवाह किया था| विधि इंटरनेशनल बीपीओ में मैनेजर थी और विधान किसी प्राइवेट फर्म का सेल्स इग्जेक्युटिव| शादी के कुछ ही महीनों में रूपये-पैसों को लेकर लड़ाई शुरू हो गयी थी| विधान, जो शादी से पहले बेहद संजीदा और संवेदनशील जान पड़ता था, अब बात-बात में विधि पर हाथ उठाने लगा था| कभी दोस्त तो कभी रिश्तेदार आकर बीच-बचाव करते और विधान को समझाते| पर विधान पर कोई असर न पड़ता देख सभी चुप रहने लगे| रिश्तेदारों ने विधि को समझाया कि बच्चे के आ जाने से विधान में बदलाव आएगा और फिर शादी के तीन सालों के बाद विधि ने एक लड़के को जन्म दिया| बच्चे के आने से विधान में कुछ समय के लिए परिवर्तन तो दिखा, पर ज्यादा दिन नहीं टिका| उसकी बदमिजाजी की वज़ह से अक्सर उसकी नौकरी चली जाती और वह एक-एक पैसे का मोहताज हो जाता| संसार का पूरा भार विधि के नाजुक कांधों पर ही रहता| जीवन में प्रेम हो तो इन्सान पहाड़ भी तोड़  देता है लेकिन जहाँ जीवन में लेशमात्र भी प्रेम न हो और ऊपर से संसार का समस्त बोझ उठाना हो, तो जीवन पहाड़ बन जाता है| विधि का जीवन पहाड़ बन चूका था|

जीवन अगर पहाड़ था तो विधि और विधान उस पहाड़ के दो अलग-अलग छोड़ पर थे| विधि ने कई बार विधान के साथ अपने रिश्ते को सुधारने की कोशिश की, पर हर बार हार गयी| विधान हीनभावना से इस प्रकार ग्रस्त हो चूका था कि अतीत को भुलाकर आगे बढ़ पाने में असमर्थ हो रहा था| वह विधि पर शक करने लगा| कभी दफ्तर से लौटने में देर हो, तो विधि पर इल्जाम लगाया जाता; कभी किसी से देर तक फोन पर बातें कर ले, तब भी यही होता| ऐसे में कभी जब विधान शराब के नशे में होता तो विधि के हाथों से फोन छीनकर अगले इंसान का परिचय बिना पूछे ही कहने लगता "सालों! तुम सब ऐश कर रहे हो| जहाँ जिम्मेदारी निभाने की बात आएगी तो ऐसे गायब हो जाओगे जैसे  गधे के सिर से सींग| याद रखना, दुखों का निदान है, विधि का विधान है|"

विधि बाद में फोन करनेवाले से माफ़ी मांग लेती|

हीनभावना एक तरह की मानसिक बीमारी है जो व्यक्ति के व्यवहार को बेहद अस्वाभाविक एवं असामाजिक बना देती है और कर्मशीलता में अवरोधक बन जाती है। विधान खुद को रोगी ही नहीं मानता था तो विधि द्वारा प्रस्तावित मनोचिकित्सक की सलाह लेने की बात को कैसे मान लेता! दोनों के बीच दूरियां इतनी बढ़ चुकी थी कि बातचीत भी लगभग खत्म हो गयी| एक तरह के अवसाद ने विधि को घेर लिया था| पैसा था, शोहरत थी, दोस्तों की कतार थी| जीवन में कुछ नहीं था, तो वह था प्यार| निराशा जीवन में इस कदर घर कर चुकी थी कि उसे आत्महत्या का ख्याल आने लगा| जिंदा रहने के लिए विधि को अब प्रेम की सख्त जरूरत थी|  ऐसे में ज्योतिर्मय से परिचय होना एक सुखद अनुभूति थी|

जैसे-जैसे समय बीता, विधि को पता चला कि ज्योतिर्मय की आर्ट गैलरी उसकी अपनी नहीं है| उसके किसी प्रशंसक ने उसे वह जगह अपने पेंटिंग्स की प्रदर्शनी लगाने के लिए दी है| फिर एकदिन उसे पता चला कि जब कभी ज्योतिर्मय को पैसों की जरुरत होती है, ओडिशा की जानीमानी समाज सेविका नीता रथ उसे पैसे भेज देती है| ज्योतिर्मय कई दफे नीता से मिलने भुवनेश्वर जा चूका है| पार्क स्ट्रीट के शेक्सपीयर सरणी में ज्योतिर्मय का नीता से करीबी रिश्ता सभी की जुबां पर था| ज्योतिर्मय की कई चित्रों में विधि को परिचित स्त्रियाँ दिखने लगीं| कभी गले की हंसुली तो कभी गले का स्कार्फ; ज्योतिर्मय के चित्रों में मौजूद स्त्रियों का परिचय दे देता| विधि का दिमाग बहुत कुछ कह रहा था पर "दिल है कि मानता नहीं" की तर्ज़ पर उसने तमाम सुनी-सुनायी बातों को अफवाह मानते हुए ख़ारिज कर दिया| कहते हैं सावन के अंधे को सभी कुछ हरा नजर आता है; तो प्रेम में डूबे हुए इंसान को भी प्रेम के सिवाय कुछ नजर कहाँ आता!

वह आषाढ़ की दोपहर थी, हालाँकि बारिश नहीं हो रही थी| प्रेम में डूबी युवती की हालत फिल्म "मुग़ल ए आज़म" की मधुबाला की तरह होती है जो गा रही होती है "छुप न सकेगा इश्क़ हमारा, चारों तरफ है उनका नज़ारा"| खुली आँखों में भी वह था और बंद आँखों में तो उसके सिवाय कुछ और था ही नहीं| ज्योतिर्मय की उपस्थिति विधि के लिए किसी दिव्य आसव का काम करती| विधि एक लम्बे अरसे के बाद उससे मिलने वाली थी| अपराह्न दो से ढ़ाई बजे के बीच का समय हो रहा था और चाय बार खाली था। यह पहला मौका था जब विधि की बनायी हुई रेखा चित्रों का प्रदर्शन ज्योतिर्मय की पेंटिंग्स के साथ हो रहा था| विधि खुद किसी कलाकृति से कम नहीं लग रही थी| इस प्रदर्शन का आयोजन ज्योतिर्मय की करीबी नताशा राय ने किया था| विधि निर्धारित समय से आधे घंटे देर से पहुंची|

"ये कौन हैं" ज्योतिर्मय ने विधि को चाय बार में प्रवेश करते देख नताशा से पूछा|

"विधि सैकिया" कहते हुए नताशा ने विधि का अभिवादन किया|

विधि को दुःख हुआ और उसे यह समझते देर नहीं लगी कि ज्योतिर्मय किसी को अपने और विधि के रिश्ते की बात नहीं बताना चाहता है|  दुःख अपनी जगह है पर प्रेम ने यदि आपको थेथर न बना दिया हो, तो इसका मतलब है कि आपका प्रेम अभी परवान नहीं चढ़ा! थेथर नहीं बने तो काहे का प्रेम किया! विधि ने बैठने के लिए ज्योतिर्मय के पास बरसाती के नीचेवाला सीट चुना| छाते को पास ही की एक कुर्सी पर टांगा और एक ओलोंग चाय (मकाईबाड़ी बागान की खास किस्म) की फ़रमाइश की| चाय की चुस्कियाँ लेते हुए वह ज्योतिर्मय को एकटक निहारती रही| ज्योतिर्मय भी दूसरों की नजर बचाकर बीच-बीच में उसे देख लेता| चाय जी अंतिम चुस्की लेते ही वह प्रदर्शनी में लगे चित्रों को देखने के लिए उठ खड़ी हुई| कई नए चित्रकारों से परिचय भी हुआ| चित्रकारी में प्राकृतिक रंगों के इस्तेमाल पर खूब चर्चा हुई|

शाम हो आयी थी और लौटते हुए पक्षी बता रहे थे कि घर लौटने का समय हो आया था| चाय बार के बाहर चित्रकारों और उनके प्रशंसकों की भीड़ थी| ज्योतिर्मय एक ओर खड़े होकर नताशा के उलझे बालों को सुलझा रहा था और आसपास खड़े लोग उन दोनों की करीबी रिश्तों की कहानियाँ सूना रहे थे| विधि के लिए यह सब असह्यनीय हो रहा था| अभी-अभी मिला अनुभव उसे गहराई तक आंदोलित कर रहा था|

"लौट चलो, उधर मत देखो," कहीं से आवाज आयी|

विधि ने इधर-उधर देखा| यह आवाज उसकी अंतरात्मा की थी| वह घर लौट आयी|

विधान सो चूका था| पर्दा खुला था। कमरे की खिड़की पर लैम्प पोस्ट की रौशनी आ रही थी| वह सोने की कोशिश करती रही| कुछ समय तक बारिश की बूंदों का कांच पर बनाती हुई तरह-तरह की आकृतियाँ देखती रही। शायद वह कुछ सोच रही थी। नहीं, वह कुछ सोच पाने की स्थिति में नहीं थी। शायद कुछ भी कल्पना कर पाने की क्षमता को खत्म करने के लिए ही उसने खिड़की से पर्दा हटाया था कि बाहर के दृश्यों में खो जाए। उसने अपने आप से कहा कि वह कुछ भी नहीं सोचना चाहती है। पर यह संभव कैसे था, ज्योतिर्मय अब भी उसकी यादों में था। यादों में गर्माहट भी थी। यादें समुद्र तट पर रखे किसी लकड़ी के चारों ओर लिपटे उस समुद्री शैवाल की तरह होती हैं जो बहने के लिए ऊँचे ज्वार का इंतज़ार करती हैं। हम इंसानों को बहने के लिए भावनाओं की जरुरत होती है| कभी-कभी तो इस बात का संशय होता है कि हमारे अंदर खून अधिक बहता है या कि भावनाएँ।

विधि भावनाओं का खूनी वजन अधिक देर तक नहीं उठा पायी| उसके अन्दर उफनता पश्चाताप का सैलाब उसकी आँखों से बह निकला|

 "मुझे बुरा लगा। बहुत, बहुत बुरा लगा" विधि ने आपसे यह बात कही और विधान से लिपटकर रोने लगी। विधान की नींद खुल गयी| कुछ दार्शनिक और कुछ व्यंगात्मक लहजे में वह रविन्द्र संगीत की एक पंक्ति को तोड़ -मरोड़कर गुनगुनाने लगा "तोमरा जे बौलो दिबोशो रोजोनी, भालोबाशा भालोबाशा, सोखी भालोबाशा कारे कोय, से जे केबोली जातोनामोय" (तुम जो कहते हो दिन रात प्रेम...प्रेम...प्रेम क्या है, ये सिर्फ़ पीड़ादायी है)

 मूसलाधार बारिश होने लगी - आसमान से अषाढ़ की और विधि की आँखों से पश्चाताप की|

Friday, December 18, 2015

सर्दी के मौसम में

----------------------------------------------
घेर लेती हैं स्मृतियाँ सर्दी के मौसम में 
चारों ओर छाये घने कोहरे की तरह  
और महकने लगती हैं रह-रहकर यादें 
जैसे जुड़े के गजरे में लगी बेला की लड़ी 

झटक देना चाहती हूँ मैं स्मृतियों को 
सद्य गीले बालों से पानी की तरह 
स्मृतियाँ ढँक लेती हैं मुझे बनकर लिहाफ़ 
और तप्त हो उठता है मेरा एकाकीपन 

स्मृतियाँ हैं जैसे कोई पुराना असाध्य रोग 
और मैं, ठीक जैसे एक सुश्रुषा-विहीन रोगी 
कभी स्मृतियाँ हैं अतीत का शब्दहीन सुख 
तो कभी कोई आर्तनाद या विषाद -पुराण   

जहाँ बीता हुआ वक़्त लौटकर नहीं आता 
मौसम बेहया है, लौटकर आया है फिर 
सजने लगी हैं ओस की नरम-नरम बूँदें फिर 
कुछ घास की नोंक पर तो कुछ पलकों पर मेरी 

-------सुलोचना वर्मा-----------

Saturday, December 5, 2015

ठण्ड का मौसम

-----------------------------------
अक्सर ही मैं पड़ जाती हूँ बीमार इस मौसम में 
जहाँ बजने लगते हैं दाँत, सूज जाती हैं आँखे मेरी 
और कड़कड़ाने लगती हैं शरीर की हड्डियां बेतरह
 तो कैसे कहूं कि ठण्ड का मौसम मुझे पसंद आता है 

जबकि हर पल रंग बदलते इस निर्मम संसार में
माँ के स्नेह के बाद ठण्ड ही एकमात्र अनुभूति है
जो कर जाती है प्रवेश इतने अपनेपन से
लहू के साथ मेरी कम कैल्शियम वाली हड्डियों में 

हालांकि इस अजीब अपनेपन से अभिभूत कर जाता है 
और जीवन में अंगीकरण का ज़रूरी मन्त्र सिखा जाता है 
फिर भी है तो यह एकतरफा प्रेम ही, जो दर्द दे जाता है 
 तो कैसे कहूं कि ठण्ड का मौसम मुझे पसंद आता है!!! 

----सुलोचना वर्मा------