Friday, December 30, 2016

कुहासा

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दिसम्बर की इकत्तीस तारीख है और साल का आखिरी दिन 
छाया है बाहर घना कुहासा और ढूँढ रही हूँ मैं अंतर्जाल पर 
इस हाड़ कंपाती ठण्‍ड में सर्दी से बचने के घरेलू उपाय जिस वक्त
बंद हैं घर की तमाम खिड़कियाँ और दरवाजे, पर्दे उठे हुए हैं 

देख रही है बकुल के पेड़ पर बैठी गोरैया पत्तों पर ठहरी ओस की बूंदों को 
और स्पर्श कर रहा है उसे सुबह के सफ़ेद कुहासे का नैसर्गिक हिम चुम्बन 
नहीं ठहरना चाहता है कुहासे का यह सौन्दर्यबोध सर्दी से सूजी मेरी आँखों में 
मुरीद है कुहासे की सुन्दरता का काठसोला का पीला और नीलकाँटा का बैंजनी फूल 
कमल और सिंघाड़े के पत्तों के साथ गेहूँ की बालियों का शीर्ष और हरी दूब की नोंक 

पढ़ी है मैंने कहानी कुहासे की सफेद कफन में लिपटे उन तमाम लोगों के शव पर 
जो मारे गए रेल और सड़क दुर्घटनाओं में लिए अपने अन्दर उम्मीदों का उजाला  
मैंने देखा है रंग कुहासे का शल्य शाला में मुझे निश्चेत करती चिकित्सक के पोशाक में 
मेरी नासारंध्रों ने महसूस किया है गंध कुहासे का नेबुलाइजर से फेफड़ों तक जाती दवा में 
सुना है कुहासे का संगीत मैंने होते हुए उत्सारित साइबेरियन पक्षियों के कंठ से कई बार 
चखा है स्वाद कुहासे का देर तक हिमीकृत हुई कुल्फी पर, महसूस किया पहले छू कर 

छब्बीस दिनों बाद, थोड़ी देर के लिए ही सही, मैं भी आ जाऊँगी कुहासे के इस चादर तले
मैं, जो बंद हूँ घर की चहारदीवारी में इन दिनों और हो गयी हूँ बेहद कमजोर 
गाऊँगी मुक्तकंठ से "जन-गण-मन अधिनायक जय हे" सबके साथ मिलकर 
कुछ बच्चे दौड़ रहे होंगे लेकर हाथों में केसरिया, सफ़ेद और हरे रंग के गुब्बारे 
और कुछ दौड़ रहे होंगे उन कपोतों के पीछे जो चुग रहे होंगे जमीन पर गिरी लड्डू की बूंदों को 
इसी दौड़ भाग में छूट जायेंगे कुछ गुब्बारे बच्चों के हाथों से और उड़ने लगेंगे आकाश की ओर 
होकर मायूस बच्चे उलट देंगे अपना निचला होंठ और बेबस हो देखेंगे ऊपर 
उनकी मासूम मायूसी पर होकर उदास मैं लपककर पकड़ लूँगी कोई एक गुब्बारा 
फिर क्या पता, मैं भी उड़ जाऊं गुब्बारे के संग ही उसकी सूत पकड़े !!

हो सकता है कि पहुँच जाऊं कुहासे के ऊपर जहाँ दमक रही होती है सूरज की स्वर्ण आभा 
हो सकता है कुहासे का हिमस्पर्श पढ़ दे मुझ पर अपना वशीकरण मन्त्र और मैं हो जाऊं वशीभूत
पड़ जाऊं कुहासे के हिमेल प्रेम में और भूल जाऊं मुक्ति का गीत कि प्रेम भी नेबुलाइजर होता है 
हो सकता है तब आए गोरैया उड़कर बकुल के पेड़ से और गाकर मुझे याद दिलाये धरती का गीत 
हो सकता है पहुँच जाए मुझ तक कई सारे कपोत सुन बच्चों का आग्रह, समेट ले मुझे अपने पंखों में 
और लाकर वापस धर दे मुझे कुहासे के उसी चादर तले जैसे कि जो कुछ भी घटा एक सपना भर हो 
हो सकता है कि तब मेरे प्रार्थना में जुड़े हुए हाथ करें पंछी बन जाने की कामना कुहासे के ऊपर जाने को
हो सकता है, कुहासा ही है और घने कुहासे में कुछ भी हो सकता है, फिर प्रेम हो या दुर्घटना, बात एक ही है | 


Tuesday, December 27, 2016

चाहतें

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​माँग ली मैंने तुमसे तुम्हारी सबसे उदास शामें
और मेघ ढंके आकाश वाली तमाम काली रातें
बदले में मैंने चाहा तुमसे केवल तुम्हारा सावन 

बाँट लिया मैंने तुमसे अपना खिला हुआ वसंत 
और संजोकर रखे बहार के अपने सपने अनंत 
आस रही कि तुम रंग दोगे मन का घर-आँगन

तुमने हरा किया मेरे पुराने जख्मों को सावन में 
वसंत और बहार अब उतरता ही नहीं आँगन में 
एकांत की नीरवता से लीपा मन के घर का प्रांगण

तुम्हारी निष्ठुरता ने जगाया मुझमें अलख ज्ञान का 
होकर बुद्ध एकाकीपन के बोधिवृक्ष तले गई जान 
कि प्रेम में जिसे चाहते हैं, उससे कुछ नहीँ चाहते

प्रेम में चाहनाओं का तर्पण ही मुक्त हो जाना है !!

इम्तिहान की बारिश के संग
देखें आत्मीय रिश्तों के रंग

Sunday, December 25, 2016

द स्कारलेस पिम्परनल


अस्पताल से विदा करते हुए सर्जन ने कहा "यू विजिट अगेन ओन फ्राइडे, वी विल रिमूव योर स्टिचेज़"| मैंने घबराते हुए कहा "ओह ! आई थॉट यू यूज्ड सेल्फ डिस्सोल्विंग स्टिचेज़ !" उन्होंने कहा "सेल्फ डिस्सोल्विंग स्टिचेज़ लीव्स स्कार्स" | तो उन्होंने भी यह मान लिया था कि मुझे भी शरीर के तीन अलग-अलग जगहों पर दाग अच्छा नहीं लगेगा| स्कारलेस सर्जरी की परिकल्पना किसी स्त्री ने ही की होगी | पर क्यूँ? समाज ने तय किया होगा कि स्त्रियाँ बिना दाग की ही अच्छी होती हैं| कभी किसी ने यह नहीं सोचा जो स्त्रियाँ दाग देखकर घबरा जाती हैं, उन्हें अपने ही शरीर के कई हिस्सों से धातु की तारनुमा चीज बाहर निकली दिखाई देगी, तो उन्हें कितनी घबराहट होगी!!!


मन पर आघात करनेवालों को भी स्कारलेस तकनीक पर शोध करना चाहिए |

Wednesday, December 21, 2016

कमरे की आत्मकथा

कमरे की दायीं ओर पूरब में रौशनदान से मनी प्लांट की बेलें झाँक रही हैं और उसके ठीक नीचे दरवाजे पर लटक रहा है ताम्बई रंग का पर्दा | इसी पर्दे से छनकर सुबह की धूप कमरे में उजाला करती है| इस पर्दे को हटाने पर आँखों को हरियाली नसीब हो सकती है; पर यह भी हो सकता है कि कोई जख्म हरा हो जाए| इसलिए यह पर्दा अमूमन हटाया नहीं जाता है| दरवाजे के पास ही आयताकार दर्पण वाला सिंगार-मेज है जिस पर वक्त की बेरहमी के निशान जगह-जगह परिलक्षित हो रहे हैं| जब यह सिंगार-मेज न होकर एक हरा-भरा पेड़ था, तब इसने भी आनंद लिया था शरद की गुनगुनी धूप का, महसूस किया था बासंती हवा का सरसराकर बहना और नहाने का सावन की पहली बारिश में |  फिर इक रोज उसे काटा गया, चीर डाला गया, उसमें कीलें ठोक दीं गयीं, उसमें जड़ा गया दर्पण और वह बन गया सिंगार-मेज !! उसमें जो दर्पण जड़ा है, वह अक्सर अवाक होकर देखता है उन तमाम चेहरों को जो उसमें झांकते हैं और समझ नहीं पाता कि लोग दिन में कई - कई बार उसमें क्या देखने के लिए झांकते हैं जबकि उसमें चेहरे के सिवाय कुछ भी नहीं दिखता | उसे मलाल होता है कि काश वह लोगों को दिखा पाता उनके अंदर का बढ़ता अभिमान, उनके आँखों से गायब होती लज्जा, उनके अंदर बढ़ती ईर्ष्या, उनके अंदर पैदा होता अवसाद  .... यदि ऐसा होता तो शायद इंसान प्रतिदिन थोड़ा और बेहतर होता जाता ! दर्पण अपने ही ख्यालों में गुम रहता है....

वह बायीं ओर मुड़ती है| उत्तर दिशा की ओर दीवार पर काले रंग की वलयाकार घड़ी टंगी है जो न जाने कब से किसी बुरे वक्त को दर्ज किए बंद पड़ी है| इस घड़ी की स्मृति में बजता है टिकटिक का अनवरत लय स्पंदन | घड़ी के शीशे के ऊपर नीचले भाग में, जहाँ छह का निशान बना है,  डायनासोर का स्टीकर लगा है| वह बचपन से सुनती आयी थी कि वक़्त ने ऐसा सितम किया कि डायनासोर पृथ्वी से लुप्त हो गए; पर जिस जगह उसकी निगाह टिकी हुई है, वहाँ देखने पर ऐसा लगता है जैसे कि डायनासोर ने पिछले कई जन्मों का बदला लेते हुए कमबख्त वक़्त को निगल लिया और घड़ी की सुइयाँ रुक गयीं | दीवार घड़ी से थोड़ी दूरी पर पच्चीस वाट का एलइडी बल्ब न जाने कितनी बिजली बचाता हुआ जल रहा है और दूधिया रौशनी बिखेर रहा है | क्या उसे पता होगा कि कुछ बचाते हुए खुद भी खर्च हो जाना होता है !!

वह पलटती है| दक्खिन की ओर जो दीवार है, वह बिलकुल उसके जीवन की तरह ही बेरंग और बेनूर है| एक फोटो फ्रेम तक नहीं है उस दीवार पर! अरसा हुआ इस स्मृति-विहीन दीवार के ठीक बीचोंबीच बिजली की एक तार बल्ब लगाये जाने की प्रतीक्षा करती हुई लटक रही है| इसी दीवार पर अपना सर टिकाए एक पलंग पसरा हुआ है| पलंग के सिरहाने पर बीच में फूल और पत्तियों वाली नक्काशी की गयी है जबकि दोनों किनारों पर हंस उकेरा गया है| पलंग के पायताने पर कमल की पंखुड़ियों-सा आकार उकेरा गया है| कमरे की सफेद फर्श पर जब दूधिया रौशनी पड़ती है, तो वह क्षीरसागर सा प्रतीत होता है| न जाने ऐसा कब हुआ होगा कि कमल, हंस और क्षीरसागर ज्ञान का प्रतीक न रहकर ऐश्वर्य का प्रतीक बना दिए गए !!!

कमरे की छत से लटका हुआ पंखा लगातार घूम रहा है| उसकी गति इतनी तेज है कि एकटक देखते रहने पर इसके स्थिर होने का भान होता है | कहा गया है कि जो कुछ भी इंद्रियों के दायरे में आता है, वो कभी स्थिर नहीं हो सकता| पर पंखे के पास तो इंद्रियों का अभाव है और इसीलिए उसकी गति को नियंत्रित किया जा सकता है| पृथ्वी भी तो न जाने कब से अपने केंद्र से गुजरने वाले काल्पनिक अक्ष पर लगातार घूम रही है| क्या किसी को पता है कि पृथ्वी के पास कितनी इन्द्रियां होती हैं?

कमरे का प्रवेश द्वार पश्चिम की ओर है और उसके पास ही खाली जगह है जहाँ शायद किसी अलमारी को होना था| दक्खिन की दीवार पर लटकती बिजली की तार अक्सर इस रिक्त स्थान को देख संतोष कर लेती है| क्या हुआ जो उसकी किस्मत में बल्ब नहीं, उस रिक्त स्थान को भी तो अलमारी नसीब न हो पाई!! कुछ चीजों का बस इन्तजार ही किया जाता है; कुछ रिश्ते नहीं पहुँच पाते मुकाम तक और कुछ स्थान रिक्त ही रह जाते हैं|

Friday, December 9, 2016

आवाज

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तुम्हारी आवाज सुने जब बीत जाते हैं कई - कई दिन 
आँगन के पेड़ पर बैठ रूपक ताल में अहर्निश पुकारते 
कपोत की आवाज ही मुझे लगती है तुम्हारी आवाज 

तुम्हारी आवाज जैसे पतझड़ में झड़े पत्तों की विकलता 
तुम्हारा मौन जैसे झड़कर गिर जाने के बाद मोक्ष की शांति 
द्रुत विलंबित और अतिविलम्बित लय की चंद रागिनियाँ 

तुम्हारी आवाज सुने फिर बीत गए हैं कई दिन 
इसी बीच कई बार हुई बारिश और मैने सोचा 
तुम्हें खूब भाता यदि सुन पाते गीत टपकते बूंदों का 
कटहल के पेड़ से, कमरे की टीन की छत पर 
फिर सोचा कैसा लगता यदि तुम गाते काफी थाट में
कुमार गंधर्व की तरह मियां मल्हार "बोले रे पपीहरा"

नहीं, मैं नहीं पकड़ पा रही तुम्हारी ध्वनि का कम्पन 
ठीक-ठाक किसी भी शय में
जबकि वह हो रहा है संचारित मेरी स्मृतियों में, आभास में 

यदि मैं होती संगीत विशारद या संगीत अलंकार
बाँध देती तुम्हारी आवाज 
किसी ताल में, किसी राग में, किसी लय में

अभ्यास कर सिद्ध कर लेती !!

Wednesday, December 7, 2016

मध्यरात्रि की चाय

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महकती हुई एक इलाइची रात जो है काली 
इलाइची के काले दानों के ही समान 
जगा जाती है मुझे देकर स्वप्निल संकेत डूबने का

मैं बिसार कर नींद का उत्सव 
डालती हूँ इलाइची के कुछ दाने केतली में 
उबालती हूँ रात्रि को चाय की पत्तियों संग 
दूध डाल उजाला करती हूँ 
और छान लेती हूँ उम्मीदों की छन्नी से  
मध्यरात्रि की चाय, पोर्सलिन की प्याली में  

बह जाती है मेरी नींद अँधेरे में 
भूमध्यसागर में आहिस्ता-आहिस्ता 

लोग जो डूब जाने का उत्सव भूल 
चढ़ रहे हैं पहाड़ों पर 
क्या यह नहीं जानते कि ठीक से तैरना आता हो 
तो आप डूब कर ले सकते हैं स्वाद जीवन का 

Monday, December 5, 2016

इन दिनों (चाय बागान)

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नहीं तोड़ती एक कलि दो पत्तियाँ 
कोई लक्ष्मी इन दिनों रतनपुर के बागीचे में 
अपनी नाजुक-नाजुक उँगलियों से 
और देख रहा है कोई जुगनू टेढ़ी आँखों से
बागान बाबू को, लिए जुबान पर अशोभनीय शब्द 

सिंगार-मेज के वलयाकार आईने में 
उतर रही हैं जासूसी कहानियाँ बागान बाबू के घर 
दोपहर की निष्ठुर भाव - भंगिमाओं में 

नित्य रक्त रंजित हो रहा बागान 
दिखता है लोहित नदी के समान 
इन दिनों ब्रह्मपुत्र की लहरों में नहीं है कोई संगीत 

नहीं बजते मादल बागानों में इन दिनों 
और कोई नहीं गाता मर्मपीड़ित मानुष का गीत 
कि अब नहीं रहे भूपेन हजारिका 
रह गए हैं रूखे बेजान शब्द 
और खो गयी है घुंघरुओं की पुलकित झंकार 

श्रमिक कभी तरेरते आँख तो कभी फेंकते पत्थर 
जीवन के बचे-खुचे दिन प्रतिदिन कर रहे हैं नष्ट 
मासूम ज़िंदगियाँ उबल रही है लाल चाय की तरह 
जहाँ जिंदा रहना है कठिन और शेष अहर्निश कष्ट 

बाईपास की तरह ढ़लती है सांझ चाय बागान में  
पंछी गाते हैं बचे रहने का कहरवा मध्यम सुर में 
तेज तपने लगता है किशोरी कोकिला का ज्वर 
है जद्दोजहद बचा लेने की, देखिए बचता क्या है!

Sunday, December 4, 2016

ओलोंग चाय

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चाय की पत्तियों की मानिंद महकती तुम्हारी यादें 
हैं प्रेम की पगडंडी पर उगी मेरी हरित चाहनाएँ 
अक्सर घुल जाता है मेरा चीनी सा अभिमान जिसमें 
और मैं बीनती रह जाती हूँ बीते हुए खूबसूरत लम्हें 

मानो घोषपुकुर बाईपास से दार्जिलिंग तक का सफर 
दौड़ता है स्मृतियों का घोड़ा चुस्की दर चुस्की कुछ ऐसे 
सिर्फ "ओलोंग" सुन लेने से बढ़ जाता है जायका चाय का 
मैं संज्ञा से सर्वनाम बन जाना चाहती हूँ अक्सर ठीक वैसे 

जिंदगी होती है महँगी मकाईबाड़ी के ओलोंग चाय की ही तरह 
काश यहाँ भी मिलती कुछ प्रतिशत छूट देते हैं जैसे बागान वाले 
शायद चढ़ चुका है हमारे मन के यंत्र पर चाय के टेनिन का रंग 
वरना सुन ही लेते पास से आ रही सदा हम निष्ठुर अभिमान वाले 

चाय की खुशबू

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पतीले से भाप बन उठती चाय की खुशबू 
खोल देती है यादों का खजांचीखाना
चाय में हौले - हौले घुलती मिठास 
दे देती है इक आस अनायास 
कि आओगे तुम एकदम अचानक 
बिन मौसम की बारिश की तरह 
और नहीं होगा जाया मेरा तनिक ऊंचाई से 
चाय छानने का संगीतमय लयबद्ध अभ्यास 

चाय की पहली चुस्की देती है जीभ को जुम्बिश मगर 
तुम्हारी अफ़्सुर्दगी का कसैलापन चाय पर तारी रहता है 
हर चुस्की पर हम देते तो हैं खूब तसल्ली दिल को अपने 
पर कमबख्त ये दिल है कि फिर भी भारी-भारी रहता है|

वक्त-2

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हम जी सकते थे जिंदगी  
देखते हुए एक-दूसरे की आँखों में 
पर देखा हमने परस्पर को 
जमानेवालों की नजरों से 
अपनी आँखें होते हुए भी 

बड़ा ही बेदर्द और जालिम निकला वक़्त 
वक्त न दिया कमबख्त ने, हमे लील गया