Monday, March 16, 2015

अन्नदाता

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वह मरता तो है आम इंसानों की ही तरह
ख़त्म होती है उसकी भी चिंता उसी के साथ
और छूट जाता है संघर्ष से उसका सम्बन्ध भी मरकर  
पर मिट्टी में मिलकर उसकी तरह कोई खुश नहीं होता


जहाँ आम इंसान छोड़ जाता है वसीयत मरने से पहले
वह छोड़ जाता है अपने हिस्से की धूप बच्चों की खातिर
कभी रख जाता है एक जोड़े बैल तो कभी एक ट्रैक्टर
और दे जाता है उन्हें अन्नदाता बने रहने की ज़िम्मेदारी 


जहाँ टंग जाता है आम इंसान मरते ही दीवारों पर अक्सर
कृत्रिम फूलों की माला से सजे सुन्दर महँगे फोटो फ्रेम में
मर जाना अन्नदाता का यहाँ एक बेहद ही आम घटना है
एक ऐसी आम घटना जिसका कहीं कोई ज़िक्र नहीं होता


जहाँ अन्नदाता पसीना बहाकर मेहनत से अन्न उगाते हैं
आम इंसानों की इस धरती पर देवी व देवता पूजे जाते हैं
ये अन्नदाता भी कहीं न कहीं देवताओं की तरह ही होते हैं
जहाँ हो सुख और पेट हों भरे, अन्नदाता कहाँ याद आते हैं 


------सुलोचना वर्मा --------

Sunday, March 15, 2015

किसान

भर आया फागुन का आकाश
तो भर आया उसका भी गला
और भर आई उसकी आँखें भी


ज्यूँ बरसने लगी बूँदे बारिश की
और धीरे-धीरे मिट्टी बैठ जाने लगी
बैठने लगा उसका कलेजा भी


सो गयी खेत में खड़ी फसल
जगी रही बर्षा रानी कुछ यूँ
जागता रहा सोते हुए वह भी


रुकी बारिश कर फसल बर्बाद
बर्बाद हुआ वह फसल से ज्यादा
वह इंसान तो है ही, किसान भी


-----सुलोचना वर्मा ---------

Wednesday, March 11, 2015

प्रकृति में प्रकृति

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वह गर्मियों में घूमने नहीं गयी हिमालय
और जमने दिया बर्फ अपनी इच्छाओं पर
नहीं देखा उसने कभी पुरी का समंदर भी 
पर डालती रही रेत आँखों के सैलाब पर

नहीं पढ़ा कभी न्यूटन के गति का तीसरा नियम
फिर भी करती रही कड़ी मेहनत घर और बाहर
सुनाया ही कब किसी ने हिग्ग्स बोसॉन के बारे में उसे
विश्वास रहा कि मानती रही कण-कण में होता है भगवान्

नहीं चखा अभी तक घर में पड़ा सल्फास उसने
और मरती रही देखकर फरवरी महीने की बारिश
वह निश्चित तौर पर किसान की पत्नी ही रही होगी
प्रकृति में प्रकृति को भला और किसने जिंदा रखा है

----सुलोचना वर्मा-------

Sunday, March 1, 2015

भूख

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मैंने देखा है उन्हें भूख से कुलबुलाते हुए
जब पार होती है उनके सहने की सीमा
वो चबाने लगते हैं संविधान के ही पन्ने
या शहीदों पर चढ़ी माला के फूलों को 
जिससे थोड़ा और पंगु हो उठता है देश
और थोड़ा भारी हमारे मुल्क की पताका
जो फहर तो जाती है ऊँचे आसमान में
विश्व के मानचित्र पर गर्व से नहीं लहराती


अब यह कोई आम भूख तो है नहीं
जो लगे अलसुबह के नाश्ते से लेकर
रात के खाने तक के सफर के ही बीच
यह एक ऐसी भूख है जो कभी नहीं मिटती
इसीलिए जब कभी नहीं भरता उनका पेट
मिठाई, रोटियों, फलों या सब्जियों से
जानने को अपनी इस भूख का आयाम
वो किसानों की जमीन ही खा जाते हैं


-----सुलोचना वर्मा----------