Monday, December 30, 2013

झुनिया


नही कर पाई झुनिया विस्मृत ह्रदय अनुराग
फिर रही है लिए निज उर में विकल वैराग
मुरझा गया फूलों सा सुवासित मन का बाग
नही गूंजती पंचम सुर में कोयल की वहाँ राग


नही करते रुनझुन पाजेब के घुँगरू
उसके धूल धूसरित थके पाँव में अब
महुआ की मादकता लिए लकदक यौवन
अप्रतिम सोंदर्य स्वामिनी बिसार चली सब


पहाड़ियों पर चलते टटोलती क्या है अधिक कठोर
पथरीली ज़मीन की सतह, या उसका हृदय प्रांगण
वितृष्णा कुछ इस प्रकार घर कर गयी उसके मन
त्याग समस्त संसार करे वो अनुसरण बीहड़ वन


सुधि आई उसे अबके मकर संक्रांति
तातलोई के गुनगुने जल में नहा आए
सुना है उष्ण पानी से कम होती है पीड़ा
निज चितवन का बोझ पवित्र जल में बहा आए


सोचती है फिर जख्म नासूर ना हो जाए
फिर कोई भूल उससे दुबारा ना हो जाए
आँखों में इक अरसे से रुके हुए अश्रुधार से
मीठे जल का स्रोत कँहि खारा ना हो जाए


सुलोचना वर्मा

Sunday, December 29, 2013

गुड़िया

हर तरफ से थी आई खुशियों भरी बधाई
पहनाकर अंगूठी साथ रहने की कसमे खाई
पिता ने जब वर के माथे पर तिलक लगाई
कुछ इस प्रकार संपन्न हुई गुड़िया की सगाई


शादी में अब बस कुछ ही समय बचा था
किसे पता था विधि ने कुछ और ही रचा था
पसंद करने लगा था वर राम गुड़िया को
और गुड़िया को भी वह कुछ ज़्यादा ही जँचा था


तय किया राम ने, गुड़िया आगे नही पढ़ेगी
उसके जैसे कामयाबी की सीढ़ियाँ नही चढ़ेगी
उसकी देहरी तक ही रहेगी, आगे नही बढ़ेगी
तिनका तिनका अपना जीवन, उसके अरमानो से गढ़ेगी


मान लिया था गुड़िया ने राम की ये चाह
उसको भी तो राम से करना था जो व्याह
पर टूट गया रिश्ता, अनगिनत माँगों की राह
दिल में दर्द उबल रहा, और लबों पर आह


सोच रही किस विषाक्त जलराशि में
घुल गयी उसके अरमानो की पुड़िया
कभी इस हाथ की, कभी उस हाथ की
बनी रह गयी वो केवल एक गुड़िया


टूटे हुए रिश्ते के व्रण से निजात पाने
गुड़िया आज गंगा में नहा आई है
बचपन से संभाल कर रखी हुई गुड़िया
गंगा के ही जल में बहा आई है


नही समझी कब गुडियों से खेलते हुए
वो सचमुच की गुड़िया थी बन गयी
चल पड़ी है आज एक नयी दिशा में
बीते हुए कल से जैसे उसकी ठन गयी


सुलोचना वर्मा

Friday, December 20, 2013

औरतें


औरतें अन्नपूर्णा सी लगती हैं
देहात के भंसा घरों से लेकर
शहरों के किचन तक


सीता की साक्षात प्रतिमा हैं
तुलसी पर जलाती दीया बाती से लेकर
सत्संग के प्रवचन तक


आती है नज़र पार्वती का स्वरूप
पितृ गृह त्याग से लेकर
विवाह के वचन तक


कहलाती है उन्मादी
चाँद पर जाने की सोच से लेकर
दूरदर्शिता के मंचन तक


करार दी जाती है अहंकारी
अपने पैरों पर खड़ा होने से लेकर
भविष्य के रचन तक


बन जाती है चरित्रहीन
स्वेक्षा से किसी को समर्पित होने से लेकर
सख़ाओं के सचन तक

सुलोचना वर्मा

Thursday, December 19, 2013

ख्वाब


कहती है बिटिया, माँ, चलो ख्वाब ख्वाब खेलें
आसमान की रेड़ी से हम वो माहताब ले लें
सुनहरी परियों से कहानी की किताब ले लें
बर्फ़ीली पहाड़ी के पीछे से, आफताब ठेलें
कहती है बिटिया, माँ, चलो ख्वाब ख्वाब खेलें


अनजानी है वो दुनिया, कौन कैसे वहम पाले
बंद कर आँखों को, पलकों का नक़ाब डालें
अगर चले पैदल तो, पैरों में पड़ जाएँगे छाले
अपने ख़याली घोड़े पर पहले  हम रकाब डालें
कहती है बिटिया, माँ, चलो ख्वाब ख्वाब खेलें


ये ख्वाब है, क्यूँ बंदिशो की इसमे हम अज़ाब डालें
चलो आरज़ू के बीज पर आज  हौसले का आब डालें
उतर कर लोगों के दिल में हम उनका पयाब पा लें
और ज़िंदगी की तिश्नगि पर ख्वाबों का चनाब डालें
कहती है बिटिया माँ, चलो ख्वाब ख्वाब खेलें


सुलोचना वर्मा

Wednesday, December 18, 2013

नया रिश्ता

हर एक शख्श आपसे जुड़ा नही होता
फिर भी हर कोई तो बुरा नही होता
मिल लेती हूँ हर किसी से हँस के की
चंद लोगों से ही महफ़िल पूरा नही होता
हर रिश्ता जीवन में कुछ नया लाया है
ना सोचो की समय किया मुफ़्त में जाया है
उधर दामिनी को गुज़रे बरस बीत आया है
आज इसी जहाँ में मैने मानस पिता पाया है

सुलोचना वर्मा

Tuesday, December 17, 2013

कलुआ

सुनो कलुआ, क्यूँ लज्जित हो
क्यूँ हीनता की भावना घेरी है तुम्हे
क्या हुआ जो श्यामल रंगत है तुम्हारी
बन जाओ स्याही, लिखो अपनी किस्मत
धर लो मुरली, बन जाओ कृष्ण
गाकर राग खमाज, चहु ओर प्रेम फैलाओ
या बनके आषाढ़ का मेघ
बिखेर दो अपनी रंगत आसमान में
फिर टूट के बरसो धरती पर
हरित क्रांति तुम लाओ
लेकर रूप धरणीधर का, तुम प्रहरी बन जाओ
हिमाच्छादित करके निज को, शीतल संतोष पाओ
या बनकर कोयला करो साधना सदियों तक
बनो ओजस्वी स्वयं के हीरे में परिवर्तित होने तक
ना सकुचित हो कलुआ कि तुम में ओज है
और  काले रंग में समाहित है विश्व का हर रंग


सुलोचना वर्मा

Monday, December 16, 2013

नारी

नारी- जो अंतरिक्ष हो आई है
और रखती है व्रत सोलह सोमवार का
कभी छोटे बाल लिए जाती है दफ़्तर में
कभी गोबर की थाप से मांडती है गोयठा
कहीं भावनाओं की तुलिका से उकेरती हैं जीवन
कहीं घंटो घर बैठकर बनाती है वो जुड़ा
कभी आती है किसी प्रतियोगिता में अव्वल
कभी घर घर जाकर वो चुनती है कूड़ा
दौड़ती है बच्चे के पीछे खिलाने को आख़िरी निवाला
चिकित्सालय में बैठ कभी मापती है रक्त चाप
नही रोक पाती है खुशी में अपने टेशु
फिर थिरकती है जब पड़ते हैं तबले पर थाप
कहीं आधुनिका, तो कहीं धर्म की आस्था है नारी
कभी ग़रीबी का संकोच, तो कभी अमीरी का जश्न है नारी
आजीविका का कहीं हूनर, तो कहीं बौधिक्ता का स्तर है नारी
अनेक रूप हैं तुम्हारे, और तुम हर रूप में संपूर्ण हो नारी


सुलोचना वर्मा

Sunday, December 15, 2013

सभ्यता

------------------------------------------
अहिल्या का शीलहरण सतयुग में हुआ
देवराज इन्द्र की ऐसी क्या लाचारी थी
सीता का अपहरण और फिर अग्नि परीक्षा
उस युग में भी सभ्यता नारी पर भारी थी


सतयुग की अहिल्या, त्रेता की सीता
द्वापर में देवकी पर कंस की पहरेदारी थी
देने को बढ़ावा इन प्रथाओं को कलियुग में
नारी को लगी शोषण की बीमारी थी


क्यूँ करें दोषारोपण पश्चिमी सभ्यता को
उन्हे कहाँ इतनी विविध जानकारी थी
विष कन्या हो, या वैशाली की नगर वधू
इतनी गौरवमयी विरासत तो हमारी थी


खजुराहो के मध्यकालीन मंदिरों में उकेरा
संभोग की विभिन्न कलाओं की चित्रकारी थी
भारतीय वस्तुकला के उस प्राचीन दौर में भी
विश्व की सर्वश्रेष्ठ व मनोरंजक वस्तु नारी थी


सुलोचना वर्मा
 

 

Saturday, December 14, 2013

शिला

कलकल बहती चंचल सरिता
जा मिली समंदर के फेनिल जल में
नही अंगीभूत कर पाई खारे पानी का स्वाद
और उसे विस्मृत हुआ बलखाना
क्यूँ जाते हो उस तट पर पथिक
मुख पर प्रश्नचिन्ह लिए निशिदिन
क्यूँ भ्रमित हो सागर के मौन व्रत पर
और प्रवाहित करते हो आशा लिए
अपनी संवेदनाओं का शिलाखंड
तो करो ! कभी ना समाप्त होनेवाली प्रतीक्षा
और निरंतर अपेक्षा करो उसी तट पर
स्वयं के शिला में परिवर्तित होने तक
तुम्हारी शिला ले लेगी आश्रय
उसी विषाक्त जलराशि में
और रत्नाकर बना लेगा सेतु
उन शिलाखंडों को जोड़कर
जिसकी तुम नीव बनोगे
या फिर पयोधि का  चक्रवात
फेंक देगा तुम्हारी शिला को कँहि दूर
और उठा ले जाएगा कोई तुम्हे देव स्वरूप मान
स्थापित करेगा तुम्हे मंदिर में
होगा नित्य जलाभिषेक तुम्हारा
और तुम पाषान सा मूक होकर
मान लोगे इसे नियति की दशा


सुलोचना वर्मा

Thursday, December 12, 2013

दरबान

---------------------------------------------------------

घुमाने पालतू कुत्ते को मैडम जी बाहर आई
गले में घंटी कुत्ते के, पीठ पर ऊनी रज़ाई
गली में घूमते आवारा कुत्तों पर आपत्ति जतलाई
देख ना पाई उनको लावारिश, पीठ उनकी सहलाई

दरबान से पुछा, क्या आज इन कुत्तों ने कुछ है खाया
मिला उत्तर "ड्यूटी मेरी रात की है, सो देख नही मैं पाया"
चिल्लाया, सोसायटी के सभी लोगों को क्या कुछ नही सुनाया
बूढ़े उस दरबान के सामने मानवता का गीत गुनगुनाया

दरबान की बूढ़ी हड्डियाँ ठंड में काँप रही थी
किसी आती हुई विपत्ति को दूर से ही भाँप रही थी
उधर दरबान के सूपरवाइज़र की आँखें परिस्थिति को माप रही थी
एक मैडम थी कि कुत्तों के ही नाम की माला जाप रही थी

देखकर कुत्तों को ज़मीन पर लोटता मैडम जी बौखलाई
कहा दरबान से ज़रा इधर ही  खड़े रहना  तुम भाई
खुश हुआ जो देखा मैडम कंबल लेकर आई
सोचा आख़िर इस बुढ्ढे पर मैडम को दया है आई

देकर लाख दुआएं दिल से कहा धन्य हो माई
कहा मैडम ने देखो मैं ये कुत्तों के लिए हूँ लाई
इतना कहकर मैडम ने वो कंबल वहीं बिछायी 
ये देखते ही बूढ़े दरबान की आँखें डबडबायी

कहा मैडम ने देखो तुम ये कंबल बिछाना रोज़
सुबह शाम मैं खुद ही आकर दूँगी इनको भोज
देखकर दरबान कुत्तों को मिलता इतना सुंदर डोज़
सोच रहा था बेचारा क्या ले दूसरी नौकरी खोज

कहा हम जैसों से इन अमीरों का कोई वास्ता नही
मेहनत के अलावे और कोई शायद रास्ता नही
खाने में सैंडविच, बर्गर, नूडल और पास्ता नही
सुखी रोटी रात में और सुबह को नाश्ता नही

बूढ़े दरबान ने खुद को निहारा
ज़िस्म पर कंपनी की वर्दी और
पाँव में फटा हुआ काला जूता है
देखा आसमान की तरफ उसने
कहा, क्यूँ बनाया मुझे इंसान
मुझसे भाग्यवान तो ये कुत्ता है

Saturday, December 7, 2013

दिनकर

मेरी निशि की दीपशिखा
कुछ इस प्रकार प्रतीक्षारत है
दिनकर की एक दृष्टि की
ज्यूँ बाँस पर टँगे हुए दीपक
तकते हैं आकाश को
पंचगंगा की घाट पर


जानती हूँ भस्म कर देगी
वो प्रथम दृष्टि भास्कर की
जब होगा प्रभात का आगमन

स्निग्ध सोंदर्य  के साथ
शंखनाद होगा और घंटियाँ बज उठेंगी
मन मंदिर के कपाट पर


मद्धिम सी स्वर-लहरियां करेंगी आह्लादित प्राण
कर विसर्जित निज उर को प्रेम-धारा में
पंचतत्व में विलीन हो जाएगी बाती
और मेरा अस्ताचलगामी सूरज
क्रमशः अस्त होगा
यामिनी के ललाट पर


 सुलोचना वर्मा

Friday, December 6, 2013

निशि आभा

--------------------------------------
मैं निशि की चंचल
सरिता का प्रवाह
मेरे अघोड़ तप की माया
यदि प्रतीत होती है
किसी रुदाली को शशि की आभा
तो स्वीकार है मुझे ये संपर्क
जाओ पथिक, मार्ग प्रशस्त तुम्हारा
और तजकर राग विहाग
राग खमाज तुम गाओ
मैं मार्गदर्शक तुम्हारी
तुम्हारे जीवन
की भोर होने तक


----------सुलोचना वर्मा-------------

Thursday, December 5, 2013

चन्द्र

ये सर्व वीदित है चन्द्र
किस प्रकार लील लिया है
तुम्हारी अपरिमित आभा ने
भूतल के अंधकार को
क्यूँ प्रतीक्षारत हो
रात्रि के यायावर के प्रतिपुष्टि की
वो उनका सत्य है
यामिनी का आत्मसमर्पण
करता है तुम्हारे विजय की घोषणा
पाषाण-पथिक की ज्योत्सना अमर रहे
 युगों से  इंगित कर रही है
इला की सुकुमार सुलोचना
नही अधिकार चंद्रकिरण को
करे शशांक की आलोचना


सुलोचना वर्मा

Friday, November 29, 2013

व्याकरण

भावनाओं को शब्दों से ही पढ़ लो
क्यूँ व्याकरण के पीछे हो पड़े
कब आम लोगों ने व्याकरण का अनुसरण किया
कब अच्छे लगे लोगों को संबोधन 'हे', 'अरे'
क्यूँ सुगम जीवन को जटिल बनाया
बना डाले यूँ हि किसने नियम ये कड़े
पिता के घर पर "संज्ञा" हुआ करती थी
बन गयी "सर्वनाम" पति के द्वार खड़े

हादशा; जो "त्वम" से शुरू हुआ था
और "आवाम" पर आकर अटका था
ना जाने कब "युवाम" और "यूयम" के रास्ते
हौले हौले "वयम" पर आ धमका है
हर परिस्थिति का "कारक"
"अपादान" की उत्पत्ति को भाँपता है
रिश्तों का "संधि-विच्छेद" करने
जीवन व्याकरण का नक्षत्र आ चमका है

लता का शब्द रूप पढ़-पढ़ कर,पढ़-पढ़ कर
ना जाने कितनो के ही आँसू बह गये
वो ज़ुल्म, जो हमारे बालमन पर हुआ था
परीक्षा उत्तीर्ण होने की चाह में सह गये
जीवन तब से कितना आगे निकल गया है
और एक आप हैं, की बस वहीं रह गये
मेरे हमकदम हो लो, मेरे बुद्धिजीवि मित्रों
साथ चलना ही जीवन है, ऐसा महापुरुष कह गये

सुलोचना वर्मा

Friday, November 1, 2013

दीपावली

हे शीतन समीर !
तुम तनिक विराम ले लो
दीपों का उत्सव आने को है


अमावश्या की सघन कालिमा
फिर से चहूं ओर छाने को है
अवकाश पर होंगे चाँद औ तारे
असंख्य जूगनू टिमटिमाने को है
हे शीतन समीर..................


रोन्द डाली गयी माटी फिर
चाक उसे घुमाने को है
देने को दिए की आकृति
कुम्हार उसे सहलाने को है
हे शीतन समीर..................


बिटिया रानी चपल हाथों से
चटक रंगोली बनाने को है
घरोंदा भी क्या खूब सजेगा
बस फुलझड़ियाँ जलाने को है
हे शीतन समीर..................


दीप प्रज्वलित घर औ देहरी पर
अंधकार अब हटाने को है
कर चरितार्थ दीप के दिव्यार्थ को
मानव मन-तिमिर मिटाने को है
हे शीतन समीर..................


सुलोचना वर्मा

Saturday, October 19, 2013

टूटे दरख़्त

--------------------------
क्यूँ मायूस हो तुम टूटे दरख़्त
क्या हुआ जो तुम्हारी टहनियों में पत्ते नहीं
क्यूँ मन मलीन है तुम्हारा कि
बहारों में नहीं लगते फूल तुम पर
क्यूँ वर्षा ऋतु की बाट जोहते हो
क्यूँ भींग जाने को वृष्टि की कामना करते हो


भूलकर निज पीड़ा देखो उस शहीद को
तजा जिसने प्राण, अपनो की रक्षा को
कब खुद के श्वास बिसरने का
उसने शोक मनाया है
सहेजने को औरों की मुस्कान
अपना शीश गवाया है


क्या हुआ जो नहीं हैं गुंजायमान तुम्हारी शाखें
चिडियों के कलरव से
चीड़ डालो खुद को और बना लेने दो

किसी ग़रीब को अपनी छत
या फिर ले लो निर्वाण किसी मिट्टी के चूल्‍हे में
और पा लो मोक्ष उन भूखे अधरों की मुस्कान में
नहीं हो मायूस जो तुम हो टूटे दरख़्त......



 
सुलोचना वर्मा

Thursday, October 10, 2013

दुर्गा पूजा


शक्ति के उपासक हैं ये लोग
यहाँ स्कंदमाता की पूजा होती है
गणेश कार्तिक को भोग लगता है
और अशोक सुंदरी फुट फुट रोती है


चंदन नही, रक्त भरे हाथों से
देवी का शृंगार करते हैं
गर्भ की कन्याओं का जो
वंश के नाम संहार करते हैं

अचरज होता है क्यूँ शक्ति के नाम पर
नौ दिनो का उपवास होता है
कहाँ मिलेंगी कंजके लोगों को
जहाँ गर्भ उनका अंतिम निवास होता है


कभी मन्त्र से, कभी जाप से
नर तुमको छल रहा है
मत आओ इस धरती पर देवी
यहाँ तो चिरस्थायि
भद्रकाल चल रहा है


सुलोचना वर्मा

Sunday, October 6, 2013

बिखरते रिश्ते


नही बुनती जाल इस शहर में अब मकड़ियाँ
लगे हुए हैं जाले साज़िश 
की हर दीवार पर
बिखर गये हैं रिश्ते, अपनो की ही साज़िशो से
बस यादें टॅंगी रह गयी हैं घरों की किवाड़ पर
टुकड़े हुए रिश्तों के, ज़मीन के बँटवारे में
एक ही उपनाम है इस शहर के हर मिनार पर
क्यूँ बेच रहे हो आईने इस नुक्कर पर तुम
ये अंधो का शहर है, और धूल हर दीदार पर


सुलोचना 

Sunday, September 29, 2013

पूजा


-------------
वो कैसी पूजा थी
नाम संकल्प ही किया था 

कि जला बैठी स्वयं को
हवन के अग्निकुण्ड में
और वो प्रेम कलश
जिसे तुमने मेरे वक्ष पर धरा था
नही कर पाई विसर्जित उसे
अपनी पीड़ा के महा सिंधु में
घट के जीर्ण होते पल्लव की दुर्गंध
स्मरण दिला जाती है
उस अनुष्ठान में 
साधक भी मैं थी
और हवन सामग्री भी मैं

Saturday, September 21, 2013

मज़हब

गर हवा का मज़हब होता
और पानी की होती जात
कहाँ पनप पाता फिर इंसान 
मौत दे जाती मुसलसल मात

जो समय का धर्म होता
किसी बिरादरी की होती बरसात
वक़्त के गलियारों में फिर
कौन बिछाता सियासत की विसात

ज़िरह कर रहे कबसे मुद्दे पर
ढाक के वही तीन पात
ये खुदा की ज़मीं है लोगों
ना भूलो अपनी औकात

----सुलोचना वर्मा-----

Monday, September 16, 2013

दशहरा

क्यूँ पुतले को फूँककर
खुशी मनाई जाए
क्यूँ एक रावण के अंत का
जश्न मनाया जाए
कितने ही रावण विचर रहे
यहाँ, वहाँ, और उस तरफ
क्यूँ ना उन्हे मुखौटों से पहले
बाहर लाया जाए

 
इस साल दशहरे में नयी
रस्म निभाई जाए
राम जैसे कई धनुर्धरो की
सभा बुलाई जाए
हर रावण को पंक्तिबद्ध कर
सज़ा सुनाई जाए
अंत पाप का करने को उनमे
आग लगाई जाए

 
हर घर में नई आशा का
दीप जलाया जाए
अपहरण को इस धरती से
फिर भुलाया जाए
किसी वैदेही को कहीं अब
ना रुलाया जाए
गर्भ की देवियों को भी
बस खिलखिलाया जाए

 
सुलोचना वर्मा

Friday, September 13, 2013

माज़ी

मैं तन्हा तो हूँ; मगर मुंतज़िर  नही
तुम मेरे माज़ी हो, कहाँ लौट पाओगे

सुलोचना वर्मा

Sunday, September 1, 2013

जीवन घर

1.9.2013


उस घर की दीवारों पर
उभर आईं दरारें
ज्यूँ वक़्त ले आता है
चेहरे पर झुर्रियाँ


आँगन से झाँक रही हैं
माधविलता की बेलें
ज्यूँ लकीर खींच देती है
माथे पर मजबूरियाँ


खिड़कियों पर सज गये हैं
मकड़ियों के जाले
ज्यूँ टूटा रिश्ता लाता है
संग अपने दूरियाँ


छत से टपक रही है
बारीशों की बूँदें
ज्यूँ विधवा घंटो रोती है
देखके अपनी चूड़ियाँ


सुलोचना वर्मा

Thursday, August 29, 2013

रिश्ता

-----------------------------------------------------------------
जो ख़त्म हो गया, वो प्रेम नही, दरकार था
क्या तौलना रिश्तों को दुनिया के तराजू में
यादें मीठी हों तो, मान लेना उपहार था
और अगर हों खट्टी, जान लेना उपकार था

हक़ीकत है ज़िंदगी की, प्रेम का अपना वज़ूद नही होता
बिना ज़रूरतों के प्यार, कँही भी मौज़ूद नही होता
क्यूँ लगाना दिमाग़ रिश्तों की ऐसी बाज़ारी में
रिश्ता वह मूलधन है, जिस पर कोई सूद नही होता

-----सुलोचना वर्मा-----


Wednesday, August 28, 2013

जन्माष्टमी

28.8.2013
ऐ चरवाहे ......
तू निर्गुन क्यों गाता  है
क्या आशावरी नही आती तुम्हे
ये प्रश्न उभर आता है
ये कौरवों का देश है
यहाँ हैं धृतराष्ट्र अनेक
बढ़ गया  दुःशासन का दुःसाहस
सिला रह गया उसका विवेक
अर्जुन को मिला था ज्ञान गीता का
सो दे रहा वो उपदेश
कर्म करते रहने का
बिसर गया निर्देश
राग कंबोजी फिर से गाओ
ना रहे कोई विषमता
मर्दों में पौरुषता भर दो
और स्त्रियों में ममता
शंख, सुदर्शन फिर उठा लो
हो जाओ रथ पर सवार
अवतरित हो नये रूप में
करो मानवता का उद्धार
एक नही कई नंद हैं
सब कर रहे इंतजार


-----सुलोचना वर्मा-----

Saturday, August 24, 2013

ज़िंदगी

23.8.2013
ऐ धरती
समेट लेने दे मुझे मेरी चादर
मेरा आसमान पिघल रहा है
मेरी तकलीफ़ों का सूरज
मेरा चाँद निगल रहा है
आरजू के पहाड़ बढ़ते ही जा रहे हैं
इस पथरीली ज़मीन पर
मेरा पाँव फिसल रहा है
सितारों की बारिश हुए
अरसा बीत गया है
आसमान में अब सिर्फ़
काला बादल निकल रहा है
हौसले की उँची उड़ान
उड़ चुकी हूँ अविरल
उम्र के इस मोड़ पर
मेरा पंख विकल रहा है


-----© सुलोचना वर्मा-------
 

हालात

23.8.2013

इल्म-ए- नज़ुम नही है हमे लेकिन
हालात कहते  हैं, सितारे गर्दिश में हैं

(c) सुलोचना वर्मा

Saturday, June 29, 2013

सोनपरी-सुआइनोआ

------------------------------
एक बड़ी सूनामी ने सोनपरी सुआइनोआ और उसके साथी को नेमियागी प्रांत में समुद्र तट

पर ला छोड़ा | वे अपना रास्ता भटक चुके थे | परीलोक का रास्ता ढूँढते हुए वे नज़दीक के घर में
गये| उनका परिचय एक युवक, रोशिंजो से हुआ| सुआइनोआ के साथी ने उसे  रोशिंजो  के पास
रखते हुए कहा कि वह जल्द ही परीलोक जाने के रास्ते का पता लगाकर उसे वापस ले जाएगा|
सुआइनोआ आज से पहले किसी इंसान से साथ नही रही| उसे बड़ा अजीब लग रहा था; पर
परिस्थिति ही कुछ ऐसी थी कि उसे अपने साथी के निर्णय को मानना पड़ा|

जैसे जैसे दिन बीता, सुआइनोआ ने इंसान के साथ रहना सीखा| रोशिंजो  को सुआइनोआ की
सुंदरता और उसका भोलापन अच्छा लगने लगा| उसने सुआइनोआ की परियों सी देखभाल की|
सुआइनोआ को रोशिंजो  से प्यार हो गया|

गर्मी की रातों मे सुआइनोआ अपने पंख फड़फड़ाकर हवा ले आती और सर्दियों में उन्ही पंखों के
बीच रोशिंजो  को सुलाती| उसके लिए रोज़ दुआ करती| रोशिंजो  को जिस किसी चीज़ की ज़रूरत
होती, अपनी जादुई छड़ी घूमाकर ले आती|

एक दिन रोशिंजो  ने सुआइनोआ से कहा की उसे किसी ज़रूरी काम से बाहर जाना है और वो
जल्द ही लौट आएगा| सुआइनोआ ने मायूसी से हामी भरी| रोशिंजो  दूसरे शहर जाकर बस गया|
कभी कभी सुआइनोआ से मिलने आ जाता था| एक बार जब रोशिंजो  वापस जा रहा था,
सुआइनोआ उसके पीछे चल पड़ी| रोशिंजो  को इसका पता चलता, तब तक शहर आ चुका था|
कुछ दिन सुआइनोआ वहाँ रुकी  और फिर रोशिंजो  के पुराने घर पर आ गयी| वहाँ जाकर
रोशिंजो  का घर संभालने लगी| उधर रोशिंजो  को सुआइनोआ की कमी खलने लगी| वह अक्सर
सुआइनोआ सी दिखने वाली लड़कियाँ खरीद लाता|  

एक दिन अचानक सुआइनोआ का साथी लौट आया| उसे परीलोक जाने का रास्ता मिल चुका था|
सुआइनोआ वापस नही जाना चाहती थी| सो उसने जादू की छड़ी घुमाई और रोशिंजो  के पास जा
पहुँची| रोशिंजो  की ज़िंदगी में सुआइनोआ सी दिखनेवाली कई लड़कियाँ आ चुकी थीं| उसने
सुआइनोआ से कहा कि उसे अपने साथी के साथ परिलोक जाना चाहिए|  यह सुनकर सुआइनोआ
को दुख हुआ और वो अपने साथी के साथ परिलोक जा पहुँची| वापस जाने से पहले सुआइनोआ ने
अपनी जादुई छड़ी घुमाई और रोशिंजो  की छवि को अपने दिल में क़ैद कर लिया|
अब सुआइनोआ का मन परिलोक में नही लगता| वह रोशिंजो  को याद करती| हर पूर्णिमा की रात
वो चाँद के उजालों के साथ धरती पर आती और रोशिंजो  को देखती| उन लड़कियों को भी देखती,
जो रोशिंजो  के लिए केवल विनोद का साधन थीं| फिर भी उसे रोशिंजो  से मिलकर अच्छा लगता
था|

अपनी मेहनत और सुआइनोआ की दुआओं से रोशिंजो अमीर इंसान बन चुका था| साधारण सी
दिखने वाली एक असाधारण लड़की से शादी भी की| पिछ्ले पूर्णिमा को जब सुआइनोआ आई; तो रोशिंजो  की पत्नी, शुमेजुमी से भी मिली| उसे उपहार में अपनी जादू की छड़ी दे आई|

कल भी पूर्णिमा की रात थी| सुआइनोआ रोशिंजो  से मिलने धरती पर आ पहुँची| रोशिंजो  ने घर
का दरवाजा बंद कर लिया था| खिड़कियों पर पर्दे लग चुके थे| किसी पर्दे की आड़ से रोशिंजो 
सुआइनोआ को रोते हुए वापस जाते देख रहा था|

सुआइनोआ परिलोक लौट आई है| अब वो रोशिंजो  को भूलना चाहती है; पर भूलना तो इंसान की
फ़ितरत है!!! वह जादुई छड़ी, जिसे घूमाकर रोशिंजो  की छवि दिल में क़ैद की थी और दिल के
दरवाजे पर ताला कसा था, वो तो रोशिंजो  की पत्नी को भेंट कर आई थी|

रोशिंजो  सुआइनोआ से नही मिलना चाहता| शायद यह भी नही चाहता कि सुआइनोआ उसे कभी
देखे| तभी तो घर का पता बदल लिया है|उसे शायद मालूम नही कि उसकी छवि सुआइनोआ की
दिल में क़ैद है| उसे देखने के लिए सुआइनोआ को किसी चीज़ की ज़रूरत नही; वो अपनी आँखे
बंद करेगी और दिल में क़ैद रोशिंजो  की छवि देख लेगी|

इतने दिनों तक इंसानो के साथ रहकर भी सुआइनोआ इंसानी फ़ितरत नही अपना पाई| रोशिंजो 
के लिए अब भी दुआएँ मांगती है| रोशिंजो  अक्सर सकुचाते हुए पर्दे की आड़ से आसमान की
तरफ देख लेता है|

अब गर्मियों मे सुआइनोआ आँखे बंदकर अपने पंख फड़फड़ाती है और सर्दियों में पंख समेटकर
आँखें बंद कर लेती है|

----------सुलोचना वर्मा---------------

Saturday, June 8, 2013

Aaj ki Seeta


आज की सीता
---------------------
वह आज की सीता है
अपना वर पाने को
अब भी स्वय्म्वर रचाती है
वन में ही नही

रण में भी साथ निभाती है
अपनी सीमाएँ खुद तय करती है
लाँघेघी जो लक्ष्मण की रेखा है
परख है उसे ऋषि और रावण की
पर दुर्घटना को किसने देखा है

 
रावण का पुष्पक सीता को ले उड़ा
लोगो का जमघट मूक रहा खड़ा
लक्ष्मण को अपने कुल की है पड़ी
रावण लड़ने की ज़िद पे है अड़ा
राम ने किया है प्रतिकार कड़ा
कुलवधू का अपहरण अपमान है बड़ा
येन केन प्रकारेन युद्ध है लड़ा
फूट गया रावण के पाप का घड़ा

 
वैदेही अवध लौट आई है
जगत ने अपनी रीत निभाई है
आरोप लगा है जानकी पर
अग्निपरीक्षा की बारी आई है

 
तय किया है सती ने अब
नही देगी वो अग्नि परीक्षा
विश्वास है उसे खुद पर
क्यों माने किसी और की इच्छा

 
सहनशील है वो, अभिमानी भी है
किसी के कटाक्ष से विचलित
न होने की ठानी है
राम की अवज्ञा नही कर सकती
रघुकुल की बहूरानी है

 
दुष्कर क्षण है आया
क्या करे राम की जाया
भावनाओं का उत्प्लावन
नैनों में भर आया
परित्याग का आदेश
पुरुषोत्तम ने सुनाया
परित्यक्तता का बोध
हृदय में समाया
भूल किया उसने जो
वन में भी साथ निभाया
राजमहल का सुख
व्यर्थ में बिसराया


हृदय विरह व्यथा से व्याकुल है
मन निज पर शोकाकुल है
उसका त्याग और अर्पण ही
सारे कष्टों का मूल है


किकर्तव्यविमूढ, पर संयमी
नही कहेगी जो उस पर बीता है
अश्रु को हिम बनाएगी
विडंबना यह है कि वो आज की सीता है


____सुलोचना वर्मा___

Tuesday, May 28, 2013

आज उसे अभिमान हुआ है


-----------------
आज उसे अभिमान हुआ है
अमलतास की आड़ से वो मुझको देख रहा है
वो कल भी आया था मुझसे मिलने
घर की खिड़की बंद पड़ी थी, सो वो रूठ गया है
आज उसे अभिमान हुआ है
 
अमावश्या की रात जब, वो नदारत रहता है
छुपके मेरे पास आकर, मुझसे कहता है
तुम मेरे बचपन की साथी, पूर्णिमा यूँ ही इतराती
तंग गलिओं से वो, फिर वापस जाता है
पर आज उसे अभिमान हुआ है
 
संग मेरे जगकर, बाँट लेता था वह तन्हाई का ग़म
जब दुनिया रहती स्वप्नमय, और शबनम की आँखे नम
उसकी रौशनी में नहाकर, रात भी हो उठती अनुपम
अँधेरा होकर भी नहीं होता, मिट जाता हर सघन तम
पर आज उसे अभिमान हुआ है
 
घर के चौखट पर खड़ी हूँ, उससे मिलने को अड़ी हूँ
नही बताया फिर भी उसने, कब वो आ रहा है
मुझे यकीं है वो आएगा, बिहू मेरे संग गाएगा
यूँ भी प्रेमियों का मिलना, कब आसान हुआ है
बस आज उसे अभिमान हुआ है
 
सुलोचना वर्मा

Prakriti

प्रिय सुरभि,
तुम्हारे लिए  

Friday, May 24, 2013

अनुपस्थिति

 -------------
मेरी अनुपस्थिति को
दर्ज किया गया मेरे स्मारक में
और मुझे दे दी गयी आकृति
एक नवीनतम कलेवर में 
 
नहीं देख पाती इन पथरीली आँखों से अब
प्रचण्ड रौशनी में विचरते असीम अन्धकार  को
और चेतन के स्वर हलक में फंसे रह जाते हैं
ढूंढते हैं प्रतिपल माध्यम, भरने चित्कार को
 
सुनाई दे रही है कहीं पास से, राग विहाग की तान
और निस्तेज आँखे घूर रही हैं घर के दरवाजे को
प्रतीक्षारत हूँ ; खुले घर के दरवाजे
और मैं समेट लूँ अपने बिखरे पड़े अतीत को
 
फिर प्रवेश करती हूँ घर में, बिना जड़ की "मैं"
देखती हूँ , मुरझा गये हैं तमाम गमलों के पौधे
जिन्हे मैं सिंचा करती थी घंटों अनुराग से
और पत्तियों के हाथ पीले हो गये इस पतझड़ में
 
नही गूंजती कलरव अब इस घर के आँगन में 
ना दाना देनेवाला है,  ना खानेवाले परिंदे
बस एक पुराना सा पिंज़डा पड़ा है कोने मे
मेरे चेतन की तरह जिसके दरवाजे है खुले
 
आह ! जब उड़े थे मेरे प्राण पखेरू
तब हुआ था औरों का भी देहवसान
अब जब खरखराते हैं सूखे पीले पत्ते
मुझे होता है "मेरे" होने का भान 
 
सुलोचना वर्मा

Monday, May 20, 2013

विधवा

-----------------------------------
तुम्हारे अवसान  को
कुछ ही वक़्त बीता है
और तुम जा बसे हो
उस नीले नभ के पार
इंद्रधनुषी रंगो मे नहाकर
मुझे फिर से आकर्षित
करने को तैयार

उस रोज़ चौखट पर मेरा हाथ था
हर तरफ चूड़ियो के टूटने का शोर था
कितना झुंझला उठती थी मैं 
जब तुम उन्हे खनकाया करते थे
आज उनके टूटने का दर्द ही और था

तालाब का पानी सुर्ख था 
न कि रक्तिम क्षितिज की परछाई थी
माथे की लाली को धोने
विधवा वहाँ नहाई थी

समाज के ठेकेदारो का
बड़ा दबदबा है
सफेद कफ़न मे मुझे लपेटा
कहा तू "विधवा" है

वो वैधव्य कहते है
मैं वियोग कहती हूँ
वियोग - अर्थात विशेष योग
मिलूँगी शीघ्र ही
उस रक्तिम क्षितिज के परे
मिलन को तत्पर
सतरंगी चूड़िया डाली है हाथो मे
पहन रही हूँ रोज़ तुम्हारे पसंदीदा
महरूनी रंग के कपड़े
कही सजती है दुल्हन भी
श्वेत बे-रंग वस्त्रो मे !!!

------सुलोचना वर्मा --------------

Friday, May 17, 2013

Aurat



क्या वह दिवस भी आएगा
----------------
लड़की, नारी, स्त्री
इन तमाम नामों से जानी जाती है
बेटी, पत्नी, माँ जैसी कई उपाधियाँ  हासिल कर
अनेक रूपो मे नज़र आती है
 
कभी घर की रौशनी कहलाती है
तो कभी छुपाती है आँखों के नीचे का काला स्याह
फिर बन जाती है - निर्भया, दामिनी, वीरा ..............
और किसी की पाशविकता का प्रमाण पाकर भरती है आह
 
लगा लेती है हौसले के सुनहरे पंख
जब बनती है परियों की शहजादी
कुतर देता समाज इनके परों को चुनकर
पहली उड़ान में ही खो देती आज़ादी
 
बदल डाला नाम , कुल और घर,
पर इस पराये धन की, किसी को कहाँ परवाह 
रह गयी होकर बिना पते की चिठ्ठी भर 
ऐसे समाज से आज भी, कर रही है निर्वाह
 
लड़की का पिता अपना सबसे मूल्यवान धन दान कर
सबके समक्ष कर जोड़े खड़ा है
उधर लड़के की माँ को, लड़के की माँ होने का
झूठा नाज़ भी बड़ा है
 
झूठा इसलिए कि उसकी संतान के लिंग निधारण मे
उसका कोई योगदान नही है
फिर क्यूँ लड़की के पिता का रत्न धारण करके भी
कोई स्वाभिमान नही है?
 
पिता का आँगन छोड़कर, नया संसार बसाया है
माँ के आँचल की छाँव कहाँ, "माँ जैसी" ने भी रुलाया है
रुलाने का कारण? आज उसके बेटे ने
किसी दूसरी औरत को स्नेह से बुलाया है
 
आज वो इक माँ है, उस पीड़ा की गवाह है
जो उसकी माँ ने कभी, झूठी मुस्कान से दबाया था
उर में लिए असीम पीड़ा है वह सोच रही
बेटी के पैदा होने पर, कब किसने गीत गाया था
 
पति के चले जाने के बाद, मिटा दी लोगो ने माथे की लाली
वह लाली, जो उसके मुख का गौरव था
बनाकर उसे कारण, कहा कुलटा और मनहूस
ज्यूँ पति ही उसके जीवन का एकमात्र सौरभ था
 
क्या वह दिवस भी आएगा, जब कुछ प्रान्तों की तरह
सारे विश्व से विलुप्त हो जाएगी ये "प्रजाति"
फिर राजा यज्ञ करवाएँगे, पुत्री रत्न पाने हेतु
राजकुमारियाँ सोने के पलनो मे पलेंगी
 
कोई सवाल नहीं करेगा , द्रौपदी के पाँच पति होने पर
नारी को तब कोई भी "वस्तु" नही कहेगा
उसके चरित्र पर नही होगी कोई टिप्पणी
नारी की इच्छा को भी समाज "तथास्तु" ही कहेगा
 
सुलोचना वर्मा