Tuesday, May 28, 2013

आज उसे अभिमान हुआ है


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आज उसे अभिमान हुआ है
अमलतास की आड़ से वो मुझको देख रहा है
वो कल भी आया था मुझसे मिलने
घर की खिड़की बंद पड़ी थी, सो वो रूठ गया है
आज उसे अभिमान हुआ है
 
अमावश्या की रात जब, वो नदारत रहता है
छुपके मेरे पास आकर, मुझसे कहता है
तुम मेरे बचपन की साथी, पूर्णिमा यूँ ही इतराती
तंग गलिओं से वो, फिर वापस जाता है
पर आज उसे अभिमान हुआ है
 
संग मेरे जगकर, बाँट लेता था वह तन्हाई का ग़म
जब दुनिया रहती स्वप्नमय, और शबनम की आँखे नम
उसकी रौशनी में नहाकर, रात भी हो उठती अनुपम
अँधेरा होकर भी नहीं होता, मिट जाता हर सघन तम
पर आज उसे अभिमान हुआ है
 
घर के चौखट पर खड़ी हूँ, उससे मिलने को अड़ी हूँ
नही बताया फिर भी उसने, कब वो आ रहा है
मुझे यकीं है वो आएगा, बिहू मेरे संग गाएगा
यूँ भी प्रेमियों का मिलना, कब आसान हुआ है
बस आज उसे अभिमान हुआ है
 
सुलोचना वर्मा

Prakriti

प्रिय सुरभि,
तुम्हारे लिए  

Friday, May 24, 2013

अनुपस्थिति

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मेरी अनुपस्थिति को
दर्ज किया गया मेरे स्मारक में
और मुझे दे दी गयी आकृति
एक नवीनतम कलेवर में 
 
नहीं देख पाती इन पथरीली आँखों से अब
प्रचण्ड रौशनी में विचरते असीम अन्धकार  को
और चेतन के स्वर हलक में फंसे रह जाते हैं
ढूंढते हैं प्रतिपल माध्यम, भरने चित्कार को
 
सुनाई दे रही है कहीं पास से, राग विहाग की तान
और निस्तेज आँखे घूर रही हैं घर के दरवाजे को
प्रतीक्षारत हूँ ; खुले घर के दरवाजे
और मैं समेट लूँ अपने बिखरे पड़े अतीत को
 
फिर प्रवेश करती हूँ घर में, बिना जड़ की "मैं"
देखती हूँ , मुरझा गये हैं तमाम गमलों के पौधे
जिन्हे मैं सिंचा करती थी घंटों अनुराग से
और पत्तियों के हाथ पीले हो गये इस पतझड़ में
 
नही गूंजती कलरव अब इस घर के आँगन में 
ना दाना देनेवाला है,  ना खानेवाले परिंदे
बस एक पुराना सा पिंज़डा पड़ा है कोने मे
मेरे चेतन की तरह जिसके दरवाजे है खुले
 
आह ! जब उड़े थे मेरे प्राण पखेरू
तब हुआ था औरों का भी देहवसान
अब जब खरखराते हैं सूखे पीले पत्ते
मुझे होता है "मेरे" होने का भान 
 
सुलोचना वर्मा

Monday, May 20, 2013

विधवा

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तुम्हारे अवसान  को
कुछ ही वक़्त बीता है
और तुम जा बसे हो
उस नीले नभ के पार
इंद्रधनुषी रंगो मे नहाकर
मुझे फिर से आकर्षित
करने को तैयार

उस रोज़ चौखट पर मेरा हाथ था
हर तरफ चूड़ियो के टूटने का शोर था
कितना झुंझला उठती थी मैं 
जब तुम उन्हे खनकाया करते थे
आज उनके टूटने का दर्द ही और था

तालाब का पानी सुर्ख था 
न कि रक्तिम क्षितिज की परछाई थी
माथे की लाली को धोने
विधवा वहाँ नहाई थी

समाज के ठेकेदारो का
बड़ा दबदबा है
सफेद कफ़न मे मुझे लपेटा
कहा तू "विधवा" है

वो वैधव्य कहते है
मैं वियोग कहती हूँ
वियोग - अर्थात विशेष योग
मिलूँगी शीघ्र ही
उस रक्तिम क्षितिज के परे
मिलन को तत्पर
सतरंगी चूड़िया डाली है हाथो मे
पहन रही हूँ रोज़ तुम्हारे पसंदीदा
महरूनी रंग के कपड़े
कही सजती है दुल्हन भी
श्वेत बे-रंग वस्त्रो मे !!!

------सुलोचना वर्मा --------------

Friday, May 17, 2013

Aurat



क्या वह दिवस भी आएगा
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लड़की, नारी, स्त्री
इन तमाम नामों से जानी जाती है
बेटी, पत्नी, माँ जैसी कई उपाधियाँ  हासिल कर
अनेक रूपो मे नज़र आती है
 
कभी घर की रौशनी कहलाती है
तो कभी छुपाती है आँखों के नीचे का काला स्याह
फिर बन जाती है - निर्भया, दामिनी, वीरा ..............
और किसी की पाशविकता का प्रमाण पाकर भरती है आह
 
लगा लेती है हौसले के सुनहरे पंख
जब बनती है परियों की शहजादी
कुतर देता समाज इनके परों को चुनकर
पहली उड़ान में ही खो देती आज़ादी
 
बदल डाला नाम , कुल और घर,
पर इस पराये धन की, किसी को कहाँ परवाह 
रह गयी होकर बिना पते की चिठ्ठी भर 
ऐसे समाज से आज भी, कर रही है निर्वाह
 
लड़की का पिता अपना सबसे मूल्यवान धन दान कर
सबके समक्ष कर जोड़े खड़ा है
उधर लड़के की माँ को, लड़के की माँ होने का
झूठा नाज़ भी बड़ा है
 
झूठा इसलिए कि उसकी संतान के लिंग निधारण मे
उसका कोई योगदान नही है
फिर क्यूँ लड़की के पिता का रत्न धारण करके भी
कोई स्वाभिमान नही है?
 
पिता का आँगन छोड़कर, नया संसार बसाया है
माँ के आँचल की छाँव कहाँ, "माँ जैसी" ने भी रुलाया है
रुलाने का कारण? आज उसके बेटे ने
किसी दूसरी औरत को स्नेह से बुलाया है
 
आज वो इक माँ है, उस पीड़ा की गवाह है
जो उसकी माँ ने कभी, झूठी मुस्कान से दबाया था
उर में लिए असीम पीड़ा है वह सोच रही
बेटी के पैदा होने पर, कब किसने गीत गाया था
 
पति के चले जाने के बाद, मिटा दी लोगो ने माथे की लाली
वह लाली, जो उसके मुख का गौरव था
बनाकर उसे कारण, कहा कुलटा और मनहूस
ज्यूँ पति ही उसके जीवन का एकमात्र सौरभ था
 
क्या वह दिवस भी आएगा, जब कुछ प्रान्तों की तरह
सारे विश्व से विलुप्त हो जाएगी ये "प्रजाति"
फिर राजा यज्ञ करवाएँगे, पुत्री रत्न पाने हेतु
राजकुमारियाँ सोने के पलनो मे पलेंगी
 
कोई सवाल नहीं करेगा , द्रौपदी के पाँच पति होने पर
नारी को तब कोई भी "वस्तु" नही कहेगा
उसके चरित्र पर नही होगी कोई टिप्पणी
नारी की इच्छा को भी समाज "तथास्तु" ही कहेगा
 
सुलोचना वर्मा