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१.
आषाढ़ के दुलार से झरती हैं वृष्टि की बूँदें
और प्रकृति की तृषित इच्छाओं से मनुष्य
हम मनुष्य भी बूँदें हैं इस भवसागर की
अभिसार को निकली मृत्यु जब हो उठेगी असभ्य
और करेगी दुलार जीवन को आपादमस्तक
झर जायेंगे हम बूँदें, जमा होंगे मेघ सरोवर में
दीर्घतपा पृथ्वी करेगी प्रतीक्षा आषाढ़ की हर बरस
सहस्र जन्मों बाद हम भी बरसेंगे मिलन-ऋतू में
वृष्टि की पवित्र बूँदें बनकर किसी रोज़ कहीं धरा पर
जीवन क्या है?
बारिश की नौका पर सवार एक जलीय यात्रा है|
२.
जब सृष्टि करती है वृष्टि
सुविन्यस्त वर्षा के जल में
बूँदें बनकर उतरते हैं हमारे पूर्वज
बरसते हैं सर पर बनकर आशीष
लगते हैं तन को बनकर दिव्य औषधि
ठहर जाते हैं कुछ देर धरा पर बन नदी
कि जता सकें हम उनपर अपना अधिकार
और चला सकें उन पर ख्वाहिशों की नाव
डूब जाती है कागज़ की नौका कुछ देर चलकर
जल में नहीं, प्रेम में !
बारिश क्या है?
पूर्वजों से हमारा साक्षात्कार है|