Friday, August 22, 2014

प्रेम और शिक्षा

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जब होगा प्रेम का विलय उदासीनता में
शिक्षा करेगी तय प्रेम का हश्र
समय की किताब में


इतिहास पढने वाला कर देगा दफ्न
प्रेम को गुज़रे वक़्त में
एक दिलचस्प कहानी बनाकर


किसी भाषा का स्नातक
चुभाता रहेगा शूल शब्दों का
प्रेम में साल दर साल


मनोविज्ञान का डिग्रीधारक
जो पढ़ नहीं पाया मन प्रेयसी का प्रेम में
बस करता रह गया वैज्ञानिक प्रयोग
कर देगा खारिज प्रेम को सिरे से
एक परिस्थिति का परिणाम भर बताकर


"ब्रेकिंग न्यूज़" सा तवज्जो देगा नए प्रेम को  
पत्रकारिता पढनेवाला, दीवानापन दिखलायेगा  
फिर बिसार देगा उसे किसी बासी खबर सा  
धरकर इल्ज़ाम प्रेम और परिस्थिति के माथे 
कि सिखाया है यही दस्तूर इस इल्म ने उसे  

ठीक ऐसे किसी समय में क्या करुँगी मैं?

रख दूँगी प्रेम के फ़र्न को वक़्त की फ़ाइल में
बड़े जतन से हर्बेरियम स्पेसिमेन सा
देखा करुँगी खोलकर फ़ाइल गाहे-बगाहे 
थोड़ा शोक मना लूंगी
फ़र्न में क्लोरोफिल के नहीं रहने का


मैंने वनस्पति विज्ञान पढ़ा है !

-----सुलोचना वर्मा ------

Sunday, August 17, 2014

चरवाहा

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मेरे छोटे से घर में है एक बड़ी सी खिड़की
और है दूर-दूर तक फैला हरा-भरा खलियान
उस बड़ी सी खिड़की के सामने


गुजरती है उस बड़े से खलिहान से होकर 
एक बेहद ही संकड़ी सी पगडण्डी
जिस पर से रोज गुजरता है एक चरवाहा
जो गाता है निर्गुण बांसुरी पर
अपने छरहरे बदन पर अंगोछा लिए


नहीं गा पाता है वह अब राग कम्बोज
कि चढ़ गयी भेंट उसकी आराधिका
संकीर्ण सामजिक मापदंडों की
और उसका शाश्वत प्रेम
दर्ज़ होकर रह गया है
उसकी बाँसुरी की धुनों में


जहाँ उसे गाना था राग आशावरी
निराश हो चली हैं उसकी तमाम छोटी आशाएं
याद दिला जाते हैं उसे उसके बड़े शुभचिन्तक
कि वह रहता है उसी इन्द्रप्रस्थ में
जहाँ शासन था कभी कौरवों का
जहाँ अब भी रहते हैं धृतराष्ट्र और दुःशासन
अपने-अपने आधुनिक व अद्यतन रूप में


उसे अब कृष्ण कोई नहीं मानता !

-----सुलोचना वर्मा-----

Thursday, August 14, 2014

उन दिनों

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नहीं उगे थे मेरे दूध के दांत उन दिनों
फिर भी समझ लेती थी माँ मेरी हर एक मूक कविता
जिसे सुनाती थी मैं लयबद्ध होकर हर बार
जैसे पढ़ा जाता है सफ़ेद पन्ने पर ढूध से लिखी इबारत को
ममता की आंच में स्पष्ट हो उठता था मेरा एक-एक शब्द


माँ ने अपनी कविता में मुझको कहा चाँद
और उस चाँद से की मेरी नज़र उतारने की गुज़ारिश


चाँद ने बदले में लिख डाली कविता
अपनी रौशनी से मुझ पर


उन दिनों चाँद पर एक औरत
दोनों पाँव पसारे
रेशमी धागों से गेंदरा सिला करती थी 
जिसके किनारों पर लगे होते थे
मेरी माँ की साड़ी के ज़री वाले पार


----सुलोचना वर्मा-----

Tuesday, August 12, 2014

पुनर्जन्म

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समझते थे लोग सिद्धांत पुनर्जन्म का
इस देश से लेकर सात समंदर पार तक
कि स्कित्जोफ्रेनिया का आविष्कार नहीं हुआ था तब


तब पेड़ से सेब के नीचे गिरने के लिए 
गुरुत्वाकर्षण के नियम की नहीं
जरुरत होती थी भगवान् की मर्ज़ी की


विश्वास से उत्पन्न हुई सकारात्मकता
देती चली गई साल दर साल 
शुभ और सुखद परिणाम


और भगवान् ??
उसके तो कई टुकड़े किये गए थे
हुआ था जब जन्म मनुष्य में विवेक का
फिर वो रह गया दर्ज़ होकर दंतकथाओं में 
उसे भी लेने पड़े कई जन्म
अपना आस्तित्व बचाए रखने की खातिर 


सबको पड़ी थी जन्मों के फेर की
कि लिखा था गीता में
आत्मा अमर है


जीता रहा इंसान किश्तों में बनकर संतोषी
तय हुआ कि दुःख है परिणाम पिछले जीवन के कर्मों का
और करता रहा अच्छे कर्म अगले जनम के लिए


जन्म लेती रही एक इच्छा मानव शरीर में
हर बार एक नया जन्म लेने की
और हर जन्म के साथ ही
होता रहा जन्म नयी-नयी इच्छाओं का
जन्म और मरण से इतर


पूरी हो जाती है कई इच्छाएं एक ही जीवन में कभी तो
लेना पड़ता है कई जन्म उस एक इच्छा के लिए
जिसके कभी ना पूरा होने की कहानियाँ
हम दंतकथाओं में सुनते आये हैं


-----सुलोचना वर्मा---------
 

Sunday, August 3, 2014

प्रेम स्वप्न

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तुम आते हो मेरे जीवन में एक दिवास्वप्न की तरह
और छोड़ जाते हो कई प्रश्नचिन्ह मेरी आँखों के कोरों पर
स्वप्न टूट जाता है ; प्रश्न चुभने लगते हैं
मैं अपने आंसू की हर बूँद पर डाल देती हूँ एक मुठ्ठी रेत 
थोड़ा और भारी हो उठता है मन पहले से
और तैरने लगते हैं कई सवाल जेहन में 

तुम जीते हो स्वप्न हकीकत की ठोस ज़मीन पर
और जिंदगी जीना होता है किसी प्रयोग सा तुम्हारे लिए
चखा है स्वाद जबसे तुमने उस आम की गुठली का
छोड़ आई थी जिसे मैं खाकर तुम्हारी छोटी सी रसोई में
महसूस करती हूँ कसैलापन तुम्हारे शब्दों की तासीर में

मैंने अपने स्वप्न में भर लेना चाहा केवल प्रेम
जबकि प्रेम को पाना है किसी स्वप्न सा तुम्हारे लिए
जहाँ तुम्हारे कई सपनो में से एक सपना भर हूँ मैं
मेरे हर सपने की दीवार पर कीलबद्ध हो तुम
आज जब तौल बैठे हो तुम मेरे प्रेम को किसी सपने से
सोचती हूँ क्यूँ नहीं पढ़ा प्रेम का प्रतियोगिता दर्पण मैंने
कि नहीं है जवाब तुम्हारे पूछे गए प्रश्नों का मेरे पास
अब कौन तय करेगा कि स्वप्न से ज़रूरी है प्रेम 
या प्रेम से ज़रूरी कोई स्वप्न है जीवन में !

-----सुलोचना वर्मा ------

Saturday, August 2, 2014

चाय

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आलस की सुबह को जगाने के क्रम में
ठीक जिस वक़्त ले रहे हैं कुछ लोग
अपनी अपनी पसंद वाली चाय की चुस्की
उबल रही है कुछ जिंदगियां बिना दूध की चाय की तरह 
जो खौल खौल कर हो चुकी है इतनी कड़वी
जिसे पीना तो दूर, जुबान पर रख पाना भी है नामुमकिन


जहाँ ठन्डे पड़ चुके हैं घरों में चूल्हे  
धधक रही है  पेट की अंतड़ियों में
भूख की अनवरत ज्वाला
जो तब्दील कर रही है राख में इंसानियत आहिस्ता आहिस्ता
जैसे कि त्वचा को शुष्क बनाती है चाय में मौजूद टैनिन चुपके से


पहाड़ों के बीच सुन्दर वादियों में
जहाँ तेजी से चाय की पत्तियाँ तोड़ते थे मजदूर
दम तोड़ रही है इंसानियत झटके में हर पल
चाय के बागानों के बंद होते दरवाजों पर


बस उतनी ही बची है जिंदगी रतिया खरिया की
जितनी बची रहती है चाय पी लेने के बाद प्याले में 
रख आई है गिरवी अपनी चाय सी निखरती रंगत सफीरा
ब्याहे जाने से कुल चार दिन पहले बगान बाबू के घर
उधर बेच आई है झुमुर अपने चार साल के बेटे को
कि बची रहे उसकी जिंदगी में एक प्याली चाय बरसों


बदला कुछ इस कदर माँ, माटी और मानुस का देश
कि बेच आई माँ अपने ही कलेजे का टुकड़ा भूख के हाथों
आती है चाय बगान की माटी से खून की बू खुशबू की जगह 
और मानुस का वहाँ होना रह गया दर्ज इतिहास के पन्नों पर !


-----सुलोचना वर्मा--------