Tuesday, June 30, 2015

उचित है

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उचित है बचे रहना थोड़ी संवेदना का
असंख्य सीपियों की मांसल छाती में
कि बरकरार रहे हरापन समंदर का


उचित है लहराते रहना काले बालों का
तमाम लड़कियों के सुन्दर चेहरों पर
कि दुनिया ले सुध आकाश में जमे मेघ की


उचित है विदा लेना मनुष्य का अपने भ्रम से 
प्रेम की रात ढलने से भी पहले ही जीवन में
कि चला जाता है विद्युत् आँधी के पूर्वाभास में


उचित है उठा लेना काँधे भर ज़िम्मेदारी
जीवन में बने खूबसूरत रिश्तों का
कि बना रहे फर्क प्रेम और सुविधा में


स्वार्थ के दौर का का गुजर जाना उचित है|

-------सुलोचना वर्मा------------

Sunday, June 21, 2015

जन्मदाता

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लेकर जाते रहे जहाँ हम अपनी फरियाद
रही हमारे जीवन में किसी मंदिर जैसी माँ
पिता हुए तीर्थ स्थल जीवन की धरती पर
कि पूरी हुई हमारी जितनी माँगें थीं वहाँ


दुनिया में थी भीड़ और भटक जाना था तय
फिर माँ जैसा कोई अवलम्ब होता है कहाँ
हम भूले, हम भटके, फिर घर को भी लौटे
कि पिता नाम का मानचित्र अंकित रहा यहाँ


-----सुलोचना वर्मा-----

Monday, June 15, 2015

खेल-खेल में

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नहीं खेलते अब बच्चे इस देश में 
'राजा' 'मंत्री' 'चोर' 'सिपाही' का खेल
कि खेल-खेल में सारे चोर डाकू हैं बन गए
कहाँ मानते सिपाही अब पाँच सौ रुपयों में
आठसौ का मंत्री अब करोड़ों का राजा है!!

खेल-खेल में बीतता रहा सुन्दर-सा समय
खत्म हुआ रजवाड़ा खेल-खेल में ही जैसे
खर्च हो गई हजारों की बादशाहत बचपन की
स्मृतियों का चोर मगर शून्य में ही उलझा रहा !!


-------सुलोचना वर्मा-------------

Friday, June 12, 2015

शून्य के जनसमुद्र में

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हो उठा है कुत्सित ये मनहूस शहर
किसी स्तनविहीन नग्न नारी की देह के समान 
और रात है एक पेड़ जिसपर लटक रहा है लालच
बनकर चमगादड़ों का कोई झुण्ड


खो गयी है इक रात उसके जीवन की 
जिसे वह जी सकती थी सोकर या जागते हुए
जिसे पी गया है अंधकार स्वाद की ओट में
और अवाक रह गयी अभिसार को निकली युवती


कहाँ से ढूँढे सांत्वना का कोई भी शब्द ऐसे में
जहाँ ले चुकी हैं समाधि हमारी भावनाएँ
गूँजती हो जहाँ साज़िश शून्य के जनसमुद्र में
जहाँ भोर होते ही पूजी जायेगी फिर एक कन्या


------सुलोचना वर्मा--------------

Thursday, June 4, 2015

मस्कुलर डिस्ट्राफी

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उसके नसों में बह रही है रिक्तता लहू की तरह
जो उसकी आँखों में है ठहरा, वह सूनापन है
शिथिलता जमी है मांसपेशियों में बर्फ की तरह
उसके अन्दर चरमराता हड्डियों का कम्पन है


उसकी साँसों में है दुर्गन्ध निराशा की
दिल की जगह जो धड़क रहा वो भय है
 जिंदा रहना उसका है एक बड़ी चुनौती
जो उसके रोमकूपों में है बसा, वो प्रलय है


उसकी साँसे तो चल रहीं हैं, पर वह जिंदा नहीं है
उसे इच्छा-मृत्यु देने में लोगों की सम्मति नहीं है
मुझे वह हम्पी के चट्टान से बने रथ की तरह लगती है
जिसमे पहिये तो लगे हैं, पर गति नहीं है|


-------सुलोचना वर्मा -----------