Friday, December 30, 2016

कुहासा

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दिसम्बर की इकत्तीस तारीख है और साल का आखिरी दिन 
छाया है बाहर घना कुहासा और ढूँढ रही हूँ मैं अंतर्जाल पर 
इस हाड़ कंपाती ठण्‍ड में सर्दी से बचने के घरेलू उपाय जिस वक्त
बंद हैं घर की तमाम खिड़कियाँ और दरवाजे, पर्दे उठे हुए हैं 

देख रही है बकुल के पेड़ पर बैठी गोरैया पत्तों पर ठहरी ओस की बूंदों को 
और स्पर्श कर रहा है उसे सुबह के सफ़ेद कुहासे का नैसर्गिक हिम चुम्बन 
नहीं ठहरना चाहता है कुहासे का यह सौन्दर्यबोध सर्दी से सूजी मेरी आँखों में 
मुरीद है कुहासे की सुन्दरता का काठसोला का पीला और नीलकाँटा का बैंजनी फूल 
कमल और सिंघाड़े के पत्तों के साथ गेहूँ की बालियों का शीर्ष और हरी दूब की नोंक 

पढ़ी है मैंने कहानी कुहासे की सफेद कफन में लिपटे उन तमाम लोगों के शव पर 
जो मारे गए रेल और सड़क दुर्घटनाओं में लिए अपने अन्दर उम्मीदों का उजाला  
मैंने देखा है रंग कुहासे का शल्य शाला में मुझे निश्चेत करती चिकित्सक के पोशाक में 
मेरी नासारंध्रों ने महसूस किया है गंध कुहासे का नेबुलाइजर से फेफड़ों तक जाती दवा में 
सुना है कुहासे का संगीत मैंने होते हुए उत्सारित साइबेरियन पक्षियों के कंठ से कई बार 
चखा है स्वाद कुहासे का देर तक हिमीकृत हुई कुल्फी पर, महसूस किया पहले छू कर 

छब्बीस दिनों बाद, थोड़ी देर के लिए ही सही, मैं भी आ जाऊँगी कुहासे के इस चादर तले
मैं, जो बंद हूँ घर की चहारदीवारी में इन दिनों और हो गयी हूँ बेहद कमजोर 
गाऊँगी मुक्तकंठ से "जन-गण-मन अधिनायक जय हे" सबके साथ मिलकर 
कुछ बच्चे दौड़ रहे होंगे लेकर हाथों में केसरिया, सफ़ेद और हरे रंग के गुब्बारे 
और कुछ दौड़ रहे होंगे उन कपोतों के पीछे जो चुग रहे होंगे जमीन पर गिरी लड्डू की बूंदों को 
इसी दौड़ भाग में छूट जायेंगे कुछ गुब्बारे बच्चों के हाथों से और उड़ने लगेंगे आकाश की ओर 
होकर मायूस बच्चे उलट देंगे अपना निचला होंठ और बेबस हो देखेंगे ऊपर 
उनकी मासूम मायूसी पर होकर उदास मैं लपककर पकड़ लूँगी कोई एक गुब्बारा 
फिर क्या पता, मैं भी उड़ जाऊं गुब्बारे के संग ही उसकी सूत पकड़े !!

हो सकता है कि पहुँच जाऊं कुहासे के ऊपर जहाँ दमक रही होती है सूरज की स्वर्ण आभा 
हो सकता है कुहासे का हिमस्पर्श पढ़ दे मुझ पर अपना वशीकरण मन्त्र और मैं हो जाऊं वशीभूत
पड़ जाऊं कुहासे के हिमेल प्रेम में और भूल जाऊं मुक्ति का गीत कि प्रेम भी नेबुलाइजर होता है 
हो सकता है तब आए गोरैया उड़कर बकुल के पेड़ से और गाकर मुझे याद दिलाये धरती का गीत 
हो सकता है पहुँच जाए मुझ तक कई सारे कपोत सुन बच्चों का आग्रह, समेट ले मुझे अपने पंखों में 
और लाकर वापस धर दे मुझे कुहासे के उसी चादर तले जैसे कि जो कुछ भी घटा एक सपना भर हो 
हो सकता है कि तब मेरे प्रार्थना में जुड़े हुए हाथ करें पंछी बन जाने की कामना कुहासे के ऊपर जाने को
हो सकता है, कुहासा ही है और घने कुहासे में कुछ भी हो सकता है, फिर प्रेम हो या दुर्घटना, बात एक ही है | 


Tuesday, December 27, 2016

चाहतें

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​माँग ली मैंने तुमसे तुम्हारी सबसे उदास शामें
और मेघ ढंके आकाश वाली तमाम काली रातें
बदले में मैंने चाहा तुमसे केवल तुम्हारा सावन 

बाँट लिया मैंने तुमसे अपना खिला हुआ वसंत 
और संजोकर रखे बहार के अपने सपने अनंत 
आस रही कि तुम रंग दोगे मन का घर-आँगन

तुमने हरा किया मेरे पुराने जख्मों को सावन में 
वसंत और बहार अब उतरता ही नहीं आँगन में 
एकांत की नीरवता से लीपा मन के घर का प्रांगण

तुम्हारी निष्ठुरता ने जगाया मुझमें अलख ज्ञान का 
होकर बुद्ध एकाकीपन के बोधिवृक्ष तले गई जान 
कि प्रेम में जिसे चाहते हैं, उससे कुछ नहीँ चाहते

प्रेम में चाहनाओं का तर्पण ही मुक्त हो जाना है !!

इम्तिहान की बारिश के संग
देखें आत्मीय रिश्तों के रंग

Sunday, December 25, 2016

द स्कारलेस पिम्परनल


अस्पताल से विदा करते हुए सर्जन ने कहा "यू विजिट अगेन ओन फ्राइडे, वी विल रिमूव योर स्टिचेज़"| मैंने घबराते हुए कहा "ओह ! आई थॉट यू यूज्ड सेल्फ डिस्सोल्विंग स्टिचेज़ !" उन्होंने कहा "सेल्फ डिस्सोल्विंग स्टिचेज़ लीव्स स्कार्स" | तो उन्होंने भी यह मान लिया था कि मुझे भी शरीर के तीन अलग-अलग जगहों पर दाग अच्छा नहीं लगेगा| स्कारलेस सर्जरी की परिकल्पना किसी स्त्री ने ही की होगी | पर क्यूँ? समाज ने तय किया होगा कि स्त्रियाँ बिना दाग की ही अच्छी होती हैं| कभी किसी ने यह नहीं सोचा जो स्त्रियाँ दाग देखकर घबरा जाती हैं, उन्हें अपने ही शरीर के कई हिस्सों से धातु की तारनुमा चीज बाहर निकली दिखाई देगी, तो उन्हें कितनी घबराहट होगी!!!


मन पर आघात करनेवालों को भी स्कारलेस तकनीक पर शोध करना चाहिए |

Wednesday, December 21, 2016

कमरे की आत्मकथा

कमरे की दायीं ओर पूरब में रौशनदान से मनी प्लांट की बेलें झाँक रही हैं और उसके ठीक नीचे दरवाजे पर लटक रहा है ताम्बई रंग का पर्दा | इसी पर्दे से छनकर सुबह की धूप कमरे में उजाला करती है| इस पर्दे को हटाने पर आँखों को हरियाली नसीब हो सकती है; पर यह भी हो सकता है कि कोई जख्म हरा हो जाए| इसलिए यह पर्दा अमूमन हटाया नहीं जाता है| दरवाजे के पास ही आयताकार दर्पण वाला सिंगार-मेज है जिस पर वक्त की बेरहमी के निशान जगह-जगह परिलक्षित हो रहे हैं| जब यह सिंगार-मेज न होकर एक हरा-भरा पेड़ था, तब इसने भी आनंद लिया था शरद की गुनगुनी धूप का, महसूस किया था बासंती हवा का सरसराकर बहना और नहाने का सावन की पहली बारिश में |  फिर इक रोज उसे काटा गया, चीर डाला गया, उसमें कीलें ठोक दीं गयीं, उसमें जड़ा गया दर्पण और वह बन गया सिंगार-मेज !! उसमें जो दर्पण जड़ा है, वह अक्सर अवाक होकर देखता है उन तमाम चेहरों को जो उसमें झांकते हैं और समझ नहीं पाता कि लोग दिन में कई - कई बार उसमें क्या देखने के लिए झांकते हैं जबकि उसमें चेहरे के सिवाय कुछ भी नहीं दिखता | उसे मलाल होता है कि काश वह लोगों को दिखा पाता उनके अंदर का बढ़ता अभिमान, उनके आँखों से गायब होती लज्जा, उनके अंदर बढ़ती ईर्ष्या, उनके अंदर पैदा होता अवसाद  .... यदि ऐसा होता तो शायद इंसान प्रतिदिन थोड़ा और बेहतर होता जाता ! दर्पण अपने ही ख्यालों में गुम रहता है....

वह बायीं ओर मुड़ती है| उत्तर दिशा की ओर दीवार पर काले रंग की वलयाकार घड़ी टंगी है जो न जाने कब से किसी बुरे वक्त को दर्ज किए बंद पड़ी है| इस घड़ी की स्मृति में बजता है टिकटिक का अनवरत लय स्पंदन | घड़ी के शीशे के ऊपर नीचले भाग में, जहाँ छह का निशान बना है,  डायनासोर का स्टीकर लगा है| वह बचपन से सुनती आयी थी कि वक़्त ने ऐसा सितम किया कि डायनासोर पृथ्वी से लुप्त हो गए; पर जिस जगह उसकी निगाह टिकी हुई है, वहाँ देखने पर ऐसा लगता है जैसे कि डायनासोर ने पिछले कई जन्मों का बदला लेते हुए कमबख्त वक़्त को निगल लिया और घड़ी की सुइयाँ रुक गयीं | दीवार घड़ी से थोड़ी दूरी पर पच्चीस वाट का एलइडी बल्ब न जाने कितनी बिजली बचाता हुआ जल रहा है और दूधिया रौशनी बिखेर रहा है | क्या उसे पता होगा कि कुछ बचाते हुए खुद भी खर्च हो जाना होता है !!

वह पलटती है| दक्खिन की ओर जो दीवार है, वह बिलकुल उसके जीवन की तरह ही बेरंग और बेनूर है| एक फोटो फ्रेम तक नहीं है उस दीवार पर! अरसा हुआ इस स्मृति-विहीन दीवार के ठीक बीचोंबीच बिजली की एक तार बल्ब लगाये जाने की प्रतीक्षा करती हुई लटक रही है| इसी दीवार पर अपना सर टिकाए एक पलंग पसरा हुआ है| पलंग के सिरहाने पर बीच में फूल और पत्तियों वाली नक्काशी की गयी है जबकि दोनों किनारों पर हंस उकेरा गया है| पलंग के पायताने पर कमल की पंखुड़ियों-सा आकार उकेरा गया है| कमरे की सफेद फर्श पर जब दूधिया रौशनी पड़ती है, तो वह क्षीरसागर सा प्रतीत होता है| न जाने ऐसा कब हुआ होगा कि कमल, हंस और क्षीरसागर ज्ञान का प्रतीक न रहकर ऐश्वर्य का प्रतीक बना दिए गए !!!

कमरे की छत से लटका हुआ पंखा लगातार घूम रहा है| उसकी गति इतनी तेज है कि एकटक देखते रहने पर इसके स्थिर होने का भान होता है | कहा गया है कि जो कुछ भी इंद्रियों के दायरे में आता है, वो कभी स्थिर नहीं हो सकता| पर पंखे के पास तो इंद्रियों का अभाव है और इसीलिए उसकी गति को नियंत्रित किया जा सकता है| पृथ्वी भी तो न जाने कब से अपने केंद्र से गुजरने वाले काल्पनिक अक्ष पर लगातार घूम रही है| क्या किसी को पता है कि पृथ्वी के पास कितनी इन्द्रियां होती हैं?

कमरे का प्रवेश द्वार पश्चिम की ओर है और उसके पास ही खाली जगह है जहाँ शायद किसी अलमारी को होना था| दक्खिन की दीवार पर लटकती बिजली की तार अक्सर इस रिक्त स्थान को देख संतोष कर लेती है| क्या हुआ जो उसकी किस्मत में बल्ब नहीं, उस रिक्त स्थान को भी तो अलमारी नसीब न हो पाई!! कुछ चीजों का बस इन्तजार ही किया जाता है; कुछ रिश्ते नहीं पहुँच पाते मुकाम तक और कुछ स्थान रिक्त ही रह जाते हैं|

Friday, December 9, 2016

आवाज

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तुम्हारी आवाज सुने जब बीत जाते हैं कई - कई दिन 
आँगन के पेड़ पर बैठ रूपक ताल में अहर्निश पुकारते 
कपोत की आवाज ही मुझे लगती है तुम्हारी आवाज 

तुम्हारी आवाज जैसे पतझड़ में झड़े पत्तों की विकलता 
तुम्हारा मौन जैसे झड़कर गिर जाने के बाद मोक्ष की शांति 
द्रुत विलंबित और अतिविलम्बित लय की चंद रागिनियाँ 

तुम्हारी आवाज सुने फिर बीत गए हैं कई दिन 
इसी बीच कई बार हुई बारिश और मैने सोचा 
तुम्हें खूब भाता यदि सुन पाते गीत टपकते बूंदों का 
कटहल के पेड़ से, कमरे की टीन की छत पर 
फिर सोचा कैसा लगता यदि तुम गाते काफी थाट में
कुमार गंधर्व की तरह मियां मल्हार "बोले रे पपीहरा"

नहीं, मैं नहीं पकड़ पा रही तुम्हारी ध्वनि का कम्पन 
ठीक-ठाक किसी भी शय में
जबकि वह हो रहा है संचारित मेरी स्मृतियों में, आभास में 

यदि मैं होती संगीत विशारद या संगीत अलंकार
बाँध देती तुम्हारी आवाज 
किसी ताल में, किसी राग में, किसी लय में

अभ्यास कर सिद्ध कर लेती !!

Wednesday, December 7, 2016

मध्यरात्रि की चाय

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महकती हुई एक इलाइची रात जो है काली 
इलाइची के काले दानों के ही समान 
जगा जाती है मुझे देकर स्वप्निल संकेत डूबने का

मैं बिसार कर नींद का उत्सव 
डालती हूँ इलाइची के कुछ दाने केतली में 
उबालती हूँ रात्रि को चाय की पत्तियों संग 
दूध डाल उजाला करती हूँ 
और छान लेती हूँ उम्मीदों की छन्नी से  
मध्यरात्रि की चाय, पोर्सलिन की प्याली में  

बह जाती है मेरी नींद अँधेरे में 
भूमध्यसागर में आहिस्ता-आहिस्ता 

लोग जो डूब जाने का उत्सव भूल 
चढ़ रहे हैं पहाड़ों पर 
क्या यह नहीं जानते कि ठीक से तैरना आता हो 
तो आप डूब कर ले सकते हैं स्वाद जीवन का 

Monday, December 5, 2016

इन दिनों (चाय बागान)

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नहीं तोड़ती एक कलि दो पत्तियाँ 
कोई लक्ष्मी इन दिनों रतनपुर के बागीचे में 
अपनी नाजुक-नाजुक उँगलियों से 
और देख रहा है कोई जुगनू टेढ़ी आँखों से
बागान बाबू को, लिए जुबान पर अशोभनीय शब्द 

सिंगार-मेज के वलयाकार आईने में 
उतर रही हैं जासूसी कहानियाँ बागान बाबू के घर 
दोपहर की निष्ठुर भाव - भंगिमाओं में 

नित्य रक्त रंजित हो रहा बागान 
दिखता है लोहित नदी के समान 
इन दिनों ब्रह्मपुत्र की लहरों में नहीं है कोई संगीत 

नहीं बजते मादल बागानों में इन दिनों 
और कोई नहीं गाता मर्मपीड़ित मानुष का गीत 
कि अब नहीं रहे भूपेन हजारिका 
रह गए हैं रूखे बेजान शब्द 
और खो गयी है घुंघरुओं की पुलकित झंकार 

श्रमिक कभी तरेरते आँख तो कभी फेंकते पत्थर 
जीवन के बचे-खुचे दिन प्रतिदिन कर रहे हैं नष्ट 
मासूम ज़िंदगियाँ उबल रही है लाल चाय की तरह 
जहाँ जिंदा रहना है कठिन और शेष अहर्निश कष्ट 

बाईपास की तरह ढ़लती है सांझ चाय बागान में  
पंछी गाते हैं बचे रहने का कहरवा मध्यम सुर में 
तेज तपने लगता है किशोरी कोकिला का ज्वर 
है जद्दोजहद बचा लेने की, देखिए बचता क्या है!

Sunday, December 4, 2016

ओलोंग चाय

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चाय की पत्तियों की मानिंद महकती तुम्हारी यादें 
हैं प्रेम की पगडंडी पर उगी मेरी हरित चाहनाएँ 
अक्सर घुल जाता है मेरा चीनी सा अभिमान जिसमें 
और मैं बीनती रह जाती हूँ बीते हुए खूबसूरत लम्हें 

मानो घोषपुकुर बाईपास से दार्जिलिंग तक का सफर 
दौड़ता है स्मृतियों का घोड़ा चुस्की दर चुस्की कुछ ऐसे 
सिर्फ "ओलोंग" सुन लेने से बढ़ जाता है जायका चाय का 
मैं संज्ञा से सर्वनाम बन जाना चाहती हूँ अक्सर ठीक वैसे 

जिंदगी होती है महँगी मकाईबाड़ी के ओलोंग चाय की ही तरह 
काश यहाँ भी मिलती कुछ प्रतिशत छूट देते हैं जैसे बागान वाले 
शायद चढ़ चुका है हमारे मन के यंत्र पर चाय के टेनिन का रंग 
वरना सुन ही लेते पास से आ रही सदा हम निष्ठुर अभिमान वाले 

चाय की खुशबू

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पतीले से भाप बन उठती चाय की खुशबू 
खोल देती है यादों का खजांचीखाना
चाय में हौले - हौले घुलती मिठास 
दे देती है इक आस अनायास 
कि आओगे तुम एकदम अचानक 
बिन मौसम की बारिश की तरह 
और नहीं होगा जाया मेरा तनिक ऊंचाई से 
चाय छानने का संगीतमय लयबद्ध अभ्यास 

चाय की पहली चुस्की देती है जीभ को जुम्बिश मगर 
तुम्हारी अफ़्सुर्दगी का कसैलापन चाय पर तारी रहता है 
हर चुस्की पर हम देते तो हैं खूब तसल्ली दिल को अपने 
पर कमबख्त ये दिल है कि फिर भी भारी-भारी रहता है|

वक्त-2

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हम जी सकते थे जिंदगी  
देखते हुए एक-दूसरे की आँखों में 
पर देखा हमने परस्पर को 
जमानेवालों की नजरों से 
अपनी आँखें होते हुए भी 

बड़ा ही बेदर्द और जालिम निकला वक़्त 
वक्त न दिया कमबख्त ने, हमे लील गया 


Thursday, November 24, 2016

गंधस्मृति

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अप्रैल महीने की तेज धुप और रह-रहकर छू जाती ठण्डी बयार झरना में आलस भर रही थी| शाम के साढ़े चार बज रहे होंगे| बालकनी में बैठी वह तय कर चुकी थी कि अब सीधे उठकर कमरे में जायेगी और सो जायेगी| अभी वह कमरे में पहुँची ही थी कि बगल की मेज पर रखे नियुक्ति पत्र ने उसे याद दिलाया कि दो दिनों के बाद उसे अपने नये दफ्तर जाना है| छह महीनों की लम्बी अवधि के बाद वह फिर घर की दहलीज से बाहर कदम रखेगी; इसलिए वह अच्छे से तैयार होकर दफ्तर जाना चाहती थी| पर पिछले छह महीनों में उसने घर पर रहते हुए गाउन और बाहर जीन्स टीशर्ट ही पहना था| छह महीने पहले अचानक उसकी तबियत बिगड़ने लगी और डॉक्टर ने कैंसर होने का शक जताते हुए कई प्रकार के जाँच की सलाह दी थी| कैंसर का नाम सुनते ही उसने नौकरी छोड़ घर में रहने का फैसला लिया था| पर कई प्रकार के रक्त परीक्षण, अल्ट्रासाउंड, एमआरआई और सिटी स्कैन के बाद यह तय हुआ कि उसे कैंसर नहीं बल्कि अंडाशय का सुजन है जिसे दवा खाकर ठीक किया जा सकता है| तीन महीनों में वह ठीक भी हो गयी| अगले कुछ महीनों मे नौकरी की तलाश भी पूरी हो गयी|  

झरना ने सोने का कार्यक्रम स्थगित कर दफ्तर पहनकर जाने के लिए कपड़े का चयन करना उचित समझा और अगले ही पल साड़ियों से भरा सूटकेस खोलकर बैठ गयी | सूटकेस मे सबसे ऊपर बायीं ओर लाल रंग की शिफॉन की साड़ी थी और उसके नीचे बैंगनी रंग की रेशमी साड़ी| उसके नीचे नीले रंग की रेशमी साड़ी और उसके ठीक नीचे  मलमल के कपड़े में लपेटकर रखी हुई मेहरूनी रंग की बनारसी साड़ी थी जिसे पहनकर उसने अम्लान के साथ सात फेरे लिए थे| दायीं ओर भी लगभग रेशमी साड़ियां ही रखीं थी| झरना समझ गयी थी कि उसे अब दूसरे सूटकेस और आलमारी में झाँकना होगा| पर कुछ सोचते हुए झरना ने सूटकेस से बनारसी साड़ी निकाली थी और उस साड़ी को पास खींचकर सूंघा था| अब भी रजनीगंधा की महक बची थी उस साड़ी में| रजनीगंधा उसका और अम्लान का सबसे पसंदीदा फूल था| अम्लान हर मौके पर और कई बार तो बिना किसी मौके के ही झरना को रजनीगंधा के फूलों का गुलदस्ता देकर अपने प्रेम का इजहार करता था| इसलिए उसने शादी के दिन रजनीगंधा की खुशबु वाला इत्र छिड़का था| यह शादी नहीं, क्रांति थी; परिवार और समाज से लड़कर जातिवाद को धता बताती हुई क्रांति| रजनीगंधा की खुशबू झरना को कई साल पीछे ले गयी|

झरना की जिंदगी में कोई बहुत बड़ा सपना नहीं था| वह छोटी-छोटी खुशियों में जिंदगी ढूँढ लेती थी| अम्लान के साथ सात फेरे लेते हुए उसे लगा था कि जिंदगी अब उसकी मुठ्ठी में कैद हो जायेगी और रजनीगंधा सी महक उठेगी| आत्मनिर्भर थी, इसलिए अम्लान से प्रेम और इज्जत के सिवाय झरना किसी और चीज की उम्मीद भी नहीं रखती थी| पर प्रेम? प्रेम तो परवाह की चाह रखता ही है| सुहागरात के दिन कमरे में झरना के प्रवेश करते ही अम्लान ने अपनी ओर से सफाई दी "जानता हूँ, तुमने उम्मीद की होगी कि सेज रजनीगंधा के फूलों से सजी होगी| पर वो पाँच हजार माँग रहे थे और मुझे लगा हमने अभी तो जिंदगी शुरू की ...अभी न जाने कितनी ज़िम्मेदारियाँ आयेंगी..."

"मैंने तो कोई शिकायत नहीं की तुमसे" कहते हुए झरना ने बीच में ही अम्लान को टोका था| पर यह बात उसे अंदर तक चुभ गयी थी| यह दिन ख़ास था जो फिर कभी नहीं आनेवाला था | अपने घर-परिवार और सामाजिक रस्मों का निर्वाह करते हुए शादी के ज्यादातर खर्चे झरना ने ही उठाये थे| अम्लान से इतनी उम्मीद तो की ही जा सकती थी? वैवाहिक जीवन के पहले ही दिन रजनीगंधा उसके जीवन से गायब था| झरना व्यावहारिक थी, सो उसने खुद को समझा लिया था| 

हाथों से मेंहदी का रंग छूटने से पहले ही अम्लान ने अपना असली रंग दिखाना शुरू कर दिया था| घर की सभी आर्थिक ज़िम्मेदारी झरना के काँधे पर डाल दी गयी थी| अभिमानी होने के कारण झरना ने कभी इस बात का प्रतिकार भी नहीं किया| फिर अम्लान ने छोटी-छोटी बातों पर झरना पर हाथ उठाने में भी देर नहीं की| झरना खुद को ठगा हुआ महसूस कर रही थी पर वह हर हाल में चीजों को बेहतर करना चाहती थी| परिवारवालों से लेकर रिश्तेदारों तक और दोस्तों से लेकर परिचितों तक सभी ने झरना को अम्लान से शादी न करने की हिदायत दी थी| झरना ने किसी की बात का परवाह न करते हुए सिर्फ अपने प्रेम के भरोसे खुद को अम्लान को सौंप दिया था| अब उसे खुद को सही साबित करना था हर हाल में| झरना नहीं चाहती थी कि लोगों का प्रेम से विश्वास उठ जाए| 

लड़ते-झगड़ते कई साल बीत गए| दोस्तों और परिवारवालों ने अम्लान को कई बार समझाने की नाकामयाब कोशिशें भी की| इसी बीच झरना ने टिया को जन्म दिया| कहाँ तो झरना सोच रही थी बेटी के जन्म से अम्लान ज़िम्मेदार हो उठेगा, पर हुआ ठीक इसके विपरीत| टिया के जन्म से लेकर उसकी पढाई की ज़िम्मेदारी भी अब झरना के हिस्से आ गयी| अम्लान के व्यवहार में कोई परिवर्तन न हुआ| फिर हालात इतने खराब हुए कि झरना ने अम्लान से दूरियाँ बना लीं| वह तलाक लेकर अलग हो जाना चाहती थी, पर अम्लान बच्ची को वजह बनाकर उसी घर में रह गया| झरना अब मशीन बनकर रह गयी थी; शायद पैसा कमाने की मशीन|

झरना अभी अतीत की ही सैर कर रही थी कि अचानक टिया आ धमकी और आते ही उस साड़ी पर हाथ फेरते हुए कहा "अरे! कितनी सुन्दर साड़ी है! आप यह साड़ी क्यूँ नहीं पहनती?"

"पहना था न अपनी शादी में" कहते हुए झरना ने सहज होने का अभिनय किया और झटपट से वह साड़ी वापस मलमल में लपेटकर सूटकेस में रख सूटकेस बंद कर दिया| फिर वह टिया के साथ बैठकर उसके होमवर्क करवाने लगी| 




2

झरना अँधेरे कमरे में आँखें खोल सारी रात जागती रही और न जाने क्या-क्या सोचती रही| टिया ने अपने मां-बाप को बचपन से लड़ते -झगड़ते देखा है। उसके जीवन पर इसकी कैसी भयंकर छाया आकर पड़ी होगी? अगर जाँच में डॉक्टर के अनुमान के मुताबिक कैंसर की ही पुष्टि हुई होती तो? अम्लान अंतिम समय में उसका क्या हश्र करता? टिया की जरूरतों को कौन पूरा करता? आज भी तो वह घर में ही रहकर टिया की देखभाल करना चाहती है पर भाग्य को अपनी ही रुद्र लीला दिखाने से फुर्सत हो, तब न?

झरना अभी तक सोच में पड़ी थी कि भोर की लाली में सूर्य की प्रथम किरण झरना के चेहरे पर पड़ी| यह शनिवार का दिन था| टिया को स्कूल नहीं जाना| नाश्ता बनाने की कोई जल्दबाजी नहीं| सोमवार को नए दफ्तर का पहला दिन है और उसने अभी तक यह तय नहीं किया कि वह क्या पहनकर जायेगी| कुछ ऐसी ही मनोदशा लिए वह बिस्तर से उठकर पश्चिम दिशा की ओर वाले कमरे में गयी और आलमारी का दरवाजा खोला| आलमारी में सभी कपडे तह करके बड़े करीने से रखे हुए थे| हैंगर में स्लेटी रंग की साड़ी टंगी थी, जिस पर हरे रंग के बूटे और नारंगी रंग के फूल कढ़े हुए थे| इस साड़ी में उसे देख सुलभ ने कहा था "मुझसे शादी कर लो"| इस साड़ी में केल्विन क्लेन के सीकेइनटूयू परफ्यूम की खुशबु अब तक जिंदा थी|  झरना हैंगर से साड़ी उतारकर उस पर हाथ फेरने लगी और उन सुकून भरे पलों को याद करने लगी जो उसने सुलभ के साथ बिताए थे| 

एकबार किसी पत्रिका को पढ़ते हुए झरना का ध्यान खींचा एक आलेख ने| स्त्री के प्रति समाज के मनोविज्ञान की पड़ताल करता हुआ आलेख झरना को भीतर तक छू गया| उसने आलेख ने नीचे नाम पढ़ा -"सुलभ शांडिल्य"| अब वह सुलभ के लिखे आलेख ढूँढकर पढने लगी| सुलभ के जादुई शब्दों का जादू झरना के सर चढ़ कर बोल रहा था| फिर एक दिन झरना ने आलेख के नीचे लिखे फोन नंबर पर फोन लगाया और सुलभ को उसके आलेख के लिए बधाई दी| सुलभ से बात करते हुए झरना को वह भी अपनी ही तरह बेहद व्यवहारिक लगा| फिर फोन करने का सिलसिला शुरू हुआ| अब उन दोनों की बातें आलेख के इतर निजी जिंदगी के विषय में होने लगी| सुलभ ने अपने छूटे हुए प्रेम के बारे में उसे बताया और झरना ने अपने टूटकर बिखरे हुए प्रेम की कहानी सुलभ को सुनायी| सुलभ समय देकर धैर्य के साथ घंटों झरना की बातें सुनता| झरना, जो इतने सालों से मौन व्रत लिए हिम के समान कठोर बन चुकी थी, सुलभ से बातें करते हुए झर-झर बह जाती थी और अपने मन का बोझ उतार कर हल्का महसूस करती थी| सुलभ नाम जैसा ही सुलभ था| बातों ही बातों में प्रेम हो गया| फिर मुलाकातों का सिलसिला भी शुरू हो गया था| पहली मुलाकत में ही सुलभ ने झरना से कहा था "तुमसे कोई पुराना रिश्ता सा लगता है...शायद प्रारब्ध...वरना हम ऐसे नहीं मिलते..यह महज संयोग नहीं हो सकता कि मेरी छूटी हुई प्रेमिका भी यही परफ्यूम लगाती थी| मुझे तुमसे उसकी गंध आ रही है"  उसके पास जाते ही झरना का सारा दर्द हवा हो  जाता|  झरना अपनी तकलीफों से आज़िज आकर कभी उसके पास जाती, तो सुलभ उसे सुनते हुए कभी अपने रुमाल से उसके माथे के पसीने को पोंछता, तो कभी उसे अपने हाथों से पानी पिलाता|  फिर दोनों टूटकर प्रेम करते| बात करते हुए झरना सब्जी काटती और सुलभ खाना बनाता था| एकबार जब झरना सब्जी काट रही थी, उस दौरान सुलभ ने तीन बार दोहराया था "नया चाकू है तेज धार वाला, ध्यान से काटना"| झरना को माँ की याद आ गयी थी| मायके के बाद कभी किसी ने इतनी परवाह नहीं की थी| सुलभ तो उम्र में भी उससे कई साल छोटा था, फिर भी उसके साथ रहते हुए झरना किशोरी बन जाती थी| खाने का पहला निवाला सुलभ हर बार झरना को अपने हाथों से खिलाता था|  झरना खुद को नीलवसना और उसे नीलकंठ पुकारती थी| झरना ने एकदिन सुलभ से पूछा भी था "तुम्हें इस गंध से प्रेम है इसलिए मेरी परवाह करते हो या मुझे प्रेम करते हुए इस गंध से अपने खोये हुए प्रेम को जगाने की कोशिश करते हो?" 

"क्या तुमने मुझे बताया था कि जब मिलने आओगी तो ठीक यही परफ्यूम लगाकर आओगी?" सुलभ के इस उत्तर ने झरना को निरुत्तर कर दिया था| वह फिर से जिंदगी जीने लगी थी| पर वक्त ने ऐसा सितम किया कि सुलभ हमेशा के लिए खूबसूरत याद बनकर रह गया| उस रोज सुलभ ने एक बड़े से आलू पर पहले चाकू से सुलभ लिखा, फिर उसके नीचे चाबी का चिन्ह बनाया और फिर उसके पास झरना लिखा| "सुलभ की झरना" ऐसा लिखकर उसने झरना को देते हुए कहा था "अ गिफ्ट फॉर समवन यू लव"| झरना को उसकी यह हरकत बचकानी भी लगी थी और प्यारी भी| सो उसने उस आलू को अपने बैग में रख लिया था| 

घर लौटकर झरना घर के कामों में व्यस्त हो गयी थी| टिया की आदत थी कि जब भी झरना बाहर से घर आती, वह उसकी बैग में चॉकलेट या चिप्स नुमा चीजें ढूँढती| अपने इस प्रयास में कभी -कभार वह सफल भी हो जाती थी; इसलिए उसकी कोशिश जारी रहती थी| इसबार उसे आलू मिला और उसे आश्चर्य हुआ| फिर वह आलू पर उभरे नामों को हिज्जे लगाकर पढने लगी| चाबी के चिन्ह का मतलब नही समझ पायी थी; इसलिए आलू लेकर सीधे अम्लान के पास पहुँच गयी थी| उसके बाद अम्लान ने सुलभ के घर जाकर ऐसा तमाशा खड़ा किया था कि उसे वह मुहल्ला ही छोड़ना पड़ा था| उसे उस मुहल्ले में कोई घर देने को तैयार न था, बमुश्किल पास के मोहल्ले में एक घर किराए पर मिल सका था| झरना को भी कई दिनों तक प्रताड़ित करता रहा था अम्लान और बारबार यही पूछता "तुम उसे बहुत प्यार करती हो?" झरना कुछ भी नहीं कहती; बस आखों से झरना बहा देती|

"थोड़ा साहस कर लेते सुलभ! अब कोई भी मेरे आस्तित्व के पेड़ से अमरबेल सा लिपटकर तुम्हारी तरह प्यार नहीं करता| आईने में शक्ल देखती तो हूँ हर रोज, पर जान ही नहीं पाती कि मैं ठीक भी हूँ या नहीं| अब मुझसे मेरे दुःख कोई नहीं सुनता| अथाह धैर्य था तुम्हारे पास| काश! थोड़ा साहस भी होता| घर के सामने बिजली की तार पर अब कोई नीलकंठ नजर नहीं आता| मेरे अभिमानी अधरों को अब कोई प्रेम की परिभाषा नहीं बताता| अब मेरी आँखों में काजल देख किसी की बाहों की मछलियाँ नहीं तड़पती| तुम से अलग क्या हुई, लगता है जैसे अपने वजूद से ही जुदा हो गयी| बस गाहे -बगाहे कानों में गूँजता रहता है तुम्हारा अंतिम वाक्य "याद रखना कि हम परिस्थितिवश अलग हो गए| प्रेम हमसे अलग नहीं हुआ| इस प्रेम को मैं भी सहेज कर रख लूँगा और तुम भी सहेज कर रखना| यह प्रेम एक-दुसरे में हमें जिंदा रखेगा| मुझे भुलाना हो तो बारबार खुद को याद दिलाना कि मुझमे साहस की कितनी कमी थी कि जिस वक़्त मुझे तुम्हारा साथ देना चाहिए, मैं पूरी दुनिया से अपनी शक्ल छुपा रहा हूँ| मैं तुम्हें कभी नहीं भूलूँगा और हमेशा प्यार करता रहूँगा"| हाँ, जब भी अम्लान मन को कष्ट पहुंचाता है या श्रीकांत की बेपरवाही मुझे बेचैन करती है, मुझे याद आता है तुम्हारा टूटकर प्रेम करना और मैं टूटकर बिखरने लगती हूँ| ऐसे ही पलों में इस  साड़ी पर हाथ फेरकर कहती हूँ कि देखो मैंने सहेज कर रख लिया है प्रेम| साड़ी को सूँघकर उसके गंध से तुम्हारी स्मृतियों तक का सफर करती हूँ| काश तुम देख पाते कि खोया हुआ प्रेम जोड़ता नहीं, अन्दर ही अंदर तोड़ता है|" मन ही मन बुदबुदाते हुए झरना की आँखों से खारे जल का झरना फूट पड़ा था| 

बीते दिनों की स्मृतियाँ झरना को इस कदर बेचैन कर गयीं कि वह एकदम से उस कमरे से बाहर निकलकर मेहमानों के कमरे में आ गयी और कमरे में रखे कुर्सी पर उल्टा बैठ कुर्सी से लिपट गयी|



आज उसकी पीठ को कुर्सी का सहारा नहीं चाहिए, उसे बस किसी के सीने में सर छुपाने का मन है| कुर्सी पर नीले रंग का तौलिया लटक रहा था|  वह अपने चेहरे को उस तौलिये पर आहिस्ता-आहिस्ता रगड़ रही थी कि अचानक उसके जेहन में  श्रीकांत उभर आया| उसे अचानक याद आया कि वह कैसे श्रीकांत के बाल भरे सीने पर अपना चेहरा ऐसे ही रगड़ा करती थी| यक-ब-यक उसे मेहरूनी और सुनहरे रंग की वह सलवार कमीज़ याद आयी जिसे पहन वह आखिरी बार श्रीकांत से मिलने गयी थी| दफ्तर में पहले दिन पहनने के लिए शायद यही ठीक रहेगा| झरना अपने कमरे में गयी और लाल रंग के ट्राली बैग को खींचकर मेहमानों वाले कमरे में ले आयी| बैग में सबसे उपर रखी थी वह सलवार कमीज़| झरना ने उसे बैग से निकाला| उसमे से क्रिस्चियन डिओर की खुशबू आ रही थी| जब वह पहली बार श्रीकांत से मिलने गयी थी, तो श्रीकांत ने गाड़ी में बैठते ही पूछा था "यह तुम्हारी खुशबू है या कार परफ्यूम की? मैं मदहोश हुआ जा रहा हूँ"| उसके बाद झरना जब भी श्रीकांत से मिलने गयी हर बार क्रिस्चियन डिओर का परफ्यूम ही लगाया| 

"क्यूँ आए तुम मेरी जिंदगी में श्रीकांत!! मैं तो तुम्हारे जीवन की सूखी धरती पर बारिश की  बूँदे बन बरस रही थी और तुम मेरी जिंदगी में ठीक ऐसे ही आए थे जैसे आती है गुनगुनी धुप बारिश के बाद| मैंने तुम्हारा हाथ उस वक़्त थामा, जब तुम टूटकर बिखर रहे थे| मैं कुछ समय पहले ही सुलभ के चले जाने के अवसाद से बाहर आ पायी थी| अवसाद क्या होता है, अच्छी तरह समझती हूँ और यही वजह थी कि तुम्हें अवसाद से बचा लेना चाहती थी| मैंने तो तुमसे हमारे मिलने के कुछ ही दिनों बाद बता दिया था कि मैं एक टूटा हुआ खिलौना हूँ| फिर भी तुमने मेरे साथ ऐसा किया!!! अपनी जरुरत भर मुझे प्रेम के भ्रम रखा और अब ऐसे अंतर्ध्यान हो गए हो, जैसे कि वह सब एक सपना था| इतना ही कह दिया होता कि अब प्रेम नहीं रहा और तुम आगे बढ़ चुके हो| काश तुम देख पाते कि मैंने तो तुम्हारे घर से लौटने के बाद इस सलवार कमीज को बिना धोये ही सहेज कर रख लिया| इस खुशबु में कैद हो तुम| तुम्हारे हिस्से का दुःख भी मेरा था| पर तुमने अपने दुःख में अकेले रहने का निर्णय लिया| जब भी पूछती हूँ, कहते हो "मैं हूँ तुम्हारे पास ही, बस अपनी तकलीफों से घिरा हूँ" पर मैं महसूस ही नहीं कर पाती| जब मुझे तुम्हारी जरुरत होती है, तुम नहीं होते हो| तुम्हारे शब्दों का तुम्हारे व्यवहार में परिलक्षित न होना मुझे अनगिनत आशंकाओं से भर देता है|  तुम्हारे होने का भ्रम तुम्हारे नही होने के आभास से कहीं ज्यादा प्रबल है|" मन ही मन कहती हुई झरना ने सलवार कमीज को भारी मन से वापस उसी बैग में रख दिया था| 

बैग कमरे में वापस रख झरना सोसाइटी के बाहर खुले मैदान में चली गयी| जब भी उसका मन भारी होता, वह साँसों में ताज़ी हवा भरने के लिए यहाँ आकर खड़ी हो जाती थी| मैदान के चारों ओर महोगनी के पेड़ लगे थे| उन दिनों उस मैदान को एक सुंदर पार्क में तब्दील करने की कोशिश की जा रही थी| पेड़ों के नीचे भूरे रंग की अलग-अलग तख्तियों पर सफेद रंग से महान लोगों के विचार लिखे गए थे| पेड़ों पर फूल लगने शुरू हो चुके थे| झरना सोच रही थी कि कैसी विडम्बना थी कि उसके घर के कोने- कोने में प्रेम तरह-तरह की सुगंधों में क़ैद था पर उसके जीवन में दूर-दूर तक प्रेम का लेशमात्र न था| कुछ ही देर में फूलों की मादक गंध-शक्ति ने झरना को चहुंओर से घेर लिया था| यह एक स्मृति विहीन गंध थी| इस गंध में सिर्फ खुशबू और मादकता थी, किसी प्रकार का कोई दुःख या अवसाद का चिन्ह नहीं जड़ा था| टहलते हुए वह एक पेड़ के नीचे जा खड़ी हुई और पास की तख्ती पर लिखे हुए विचार पढ़ने लगी| उस पर लिखा था -

फूलों की खुशबू से उबर जाना हार का एक मनोरम रूप है। (बेवरली निकोल्स)

"और प्रेम की खुशबू ? उसके लिए भी तो ठीक यही बात सही होती होगी न? पर कौन कमबख्त उबर पाया है प्रेम की खुशबू से!!! फूलों की खुशबू से उबर भी जाए कोई, पर प्यार की खुशबू......." झरना मन ही मन बुदबुदाती हुई अगले पेड़ के नीचे लगी तख्ती पर लिखे हुए विचार पढ़ने लगी| उस पर लिखा था -

अपने दिल में एक हरा पेड़ रखें और शायद किसी दिन एक गाती हुई चिड़ियाँ आ जाए| (चीनी कहावत)

"और क्या पता कि उस पेड़ पर भी एक दिन ऐसे ही मादक गंध वाले फूल खिले" झरना ने महोगनी के फूलों की ओर देखते हुआ कहा था|

कुछ समय इस पार्क में बिताने के बाद झरना अब हल्का महसूस कर रही थी| वह वापस घर की ओर चल पड़ी| चौथी मंजिल पर जाने के लिए झरना अमूमन लिफ्ट का ही प्रयोग करती थी, पर उस दिन उसने सीढियाँ चढ़ते हुए कई बार मन ही मन दोहराया था "नहीं, मैं हार नहीं मानूँगी| मुझे प्रेम की खुशबू से नहीं उबरना| मैंने आज अपना गंध पा लिया है| जब कभी बीते दिनों की गंध स्मृति मुझे अवसाद की ओर ले जायेगी, मैं इस गंध में खुद को ढूँढ लिया करूँगी| प्रेम के इस पेड़ को हरा रखूँगी अपने लिए हर हाल में कि एक दिन मेरे मन का पाखी फिर से गा पाए कोई गीत|"

घर पहुँचते ही उसने आलमारी की तह से निकाली थी खाकी रंग की पतलून और सफेद रंग की कमीज जिसे पहन सोमवार को वह नए दफ्तर गयी थी| उस शाम पास के मॉल से वाल फ्लावर्स का महोगनी टीकवुड परफ्यूम भी खरीद लायी थी जिसे पहले हल्का सा अपने कपड़ों पर लगाया था और फिर आलमारी में रखे कपड़ों पर बेतरतीबी से छिड़का था| कुछ ही समय में झरना एकबार फिर से घर और नौकरी में व्यस्त हो गयी थी| उसके बाद जब कभी रजनीगंधा की महक उसके नासारंध्रों तक पहुँची, जब भी उसने लाल ट्राली बैग खोला या जब कभी कहीं किसी को कैल्विन क्लेन की खुशबू से सना पाया, उसने याद किया केवल प्रेम, जो उसमें अब भी हरा था| उसका आत्मविश्वास उसे अवसाद में जाने से रोक पाने में सफल हो रहा था|

वह जून महीने की एक धधकती हुई दोपहर थी जब झरना के फोन स्क्रीन पर एक जाना-पहचाना नाम उभर आया था| श्रीकांत ने पहले उसका हाल -समाचार पूछा था और फिर इधर -उधर की बातें करते हुए उसके नए दफ्तर का पता पूछ लिया था| उस शाम जब झरना दफ्तर से निकल पार्किंग एरिया में लगी अपनी कार के पास आयी, तो वहाँ श्रीकांत खड़ा था| श्रीकांत के हाथों में था रजनीगंधा का गुलदस्ता और उस गुलदस्ते पर लगा था एक कार्ड जिसे श्रीकांत ने ही बनाया था| उस पर लिखा था "जिन दिनों जिंदगी में तकलीफों की बारिश हो रही थी, तुम उग आई थी रजनीगंधा की इन फूलों की तरह जो बारिश के मौसम में उगती हैं और उमस को खुशबू में बदल देती है| कुछ दिनों से सुबह सैर करने जा रहा हूँ और फूलवाले के पास से गुजरते हुए यह खुशबू मुझे तुम्हारी याद दिलाती है| मैं तुम्हें इस खुशबू में याद करता हूँ| जानता हूँ अजीब ही है कि फूल हमें खुशबू देते हैं और मैं खुशबू को फूल दे रहा हूँ|" -खुशबू का श्रीकांत    

झरना उस समय कुछ नहीं कह पायी थी; बस श्रीकांत से लिपटकर देर तक रोती रही थी| 

अगले दिन जब झरना श्रीकांत से मिलने के लिए तैयार हो रही थी, उसने क्रिस्चियन डिओर का परफ्यूम हाथ में उठाया और कुछ सोचकर वापस रख दिया | महोगनी टीकवुड परफ्यूम खुद पर छिड़कते हुए वह मन ही मन कह रही थी "मैं अपनी गंध पहचान गयी हूँ;  इस खुशबू को बिखरने न दूँगी"|

Sunday, September 18, 2016

होने और नहीं होने के बीच

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तुम्हारे होने से - सुनती हूँ प्रेम की इतिकथा अन्धकार के नक्षत्र सभा में
तुम्हारे होने से - रात महकती है बन पारिजात, सुबह जैसे रेशमी कपास
तुम्हारे होने से - तन्द्रा से चूर आँखें काटती हैं निंद्राहीन रात प्रेम के ज्वार में
तुम्हारे होने से - तनिक देर से डूबता है भोर का तारा शुक्र आसमान में
तुम्हारे होने से - स्निग्ध सोंधे सुगंध से भर जाती है आसपास की चौहद्दी
तुम्हारे होने से - करता है विनिमय मांस का आदिम अजगर - सा प्रेम
तुम्हारे होने से - प्रेम कहाँ रह पाता है केवल प्रेम सप्ताह के किसी भी एक दिन

और जब नहीं हो तुम

तुम नहीं हो - तो भावनाएँ करती हैं अजश्र विलाप यातनाओं के धिक्कार सभा में
तुम नहीं हो - तो जलता है जुगनू लग रात्रि के हृदय, जैसे मैं तुम्हारी स्मृतियों से 
तुम नहीं हो - तो स्थिर हुआ है मेरा लावण्य मरी हुई मछली की आँखों के समान
तुम नहीं हो - तो मेरा जीवन बोध भटक रहा है किसी विवेकहीन अनजाने देश में
तुम नहीं हो - तो नहीं झरता मौलसिरी अश्रुपात पर, मुंह से अब लावा नहीं फूटता
तुम नहीं हो - तो आछन्न रखती है एक प्रकार की विध्वंशकारी नीरवता गहरे तक
तुम नहीं हो - तो तुम ही हो मौजूद पहले से भी ज्यादा जीवन में बन प्रबल माया

यह विडम्बना ही तो है कि मौन का अनुवाद करना नहीं सीख पायी मैं अब तक
और मुझे बेतरह भयाक्रांत करती रहती है प्रतिपल संकेतों की भाषा गणित की तरह
किसी गल्प, छंदबद्ध कविता या भाषापाठ के किसी नवीन शब्द में बता दो तुम 
जो छेड़ जाते हो मन की वीणा के सातों सुर सप्ताह के सातों दिन हो कि नहीं हो?

---सुलोचना वर्मा -----

Monday, September 12, 2016

यात्रा संस्मरण-हिमाचल प्रदेश-२०१६

यात्रा पहले तो आपको निःशब्द कर देती है और फिर आपको कथाकार बना देती है - इब्न बतूता (अरब यात्री, विद्वान तथा लेखक)

अब जब मैं अपनी हिमाचल यात्रा का संस्मरण लिखने बैठी हूँ, सोच रही हूँ कितना सही कह गए बतूता साहब| पत्थर और फर्न - दो ऐसी चीजें हैं जिनसे मुझे अगाद प्रेम है| शायद यही वजह है कि पहाड़ों पर जाने भर के ख्याल से मैं रोमांचित हो उठती हूँ|

वह जून महीने की एक खूबसूरत सुबह थी जब हम शोघी पहुँचे| मौसम अपेक्षा के अनुरूप खुश गंवार था| हर तरफ सैलानियों की उपस्थिती के बावजूद एक अजीब सी शांति पसरी हुई थी| ऐसा लग रहा था कि जैसे पेड़-पहाड़ और पूरी वादी आपसे कुछ कहना चाह रही हो| होटल के कमरे में सामान व्यवस्थित किया और फिर जलपान करने के बाद रात की यात्रा की थकान को मिटाने के लिए हम तीन-चार घंटों के लिए नींद की आगोश में चले गए

नींद से उठकर नहाया और फिर टैक्सी लेकर चल पड़े| जब यह निर्णय लेने की बारी आई कि सबसे पहले कहाँ जाना है, तो मैंने बिना एक पल भी गँवाए "तारादेवी मंदिर" जाने का अपना निर्णय सुना दिया| मेरे श्रीमुख से किसी मंदिर जाने की बात सुनकर कोई चुप कैसे रहता! कारण बताओ नोटिस जारी किया गया| फिर मैंने बताया कि जबसे निर्मल वर्मा का उपन्यास "अंतिम अरण्य" पढ़ा है, तो उस कहानी के किरदार जेहन में इस कदर घर कर गए कि मुझे लगता रहा कि जिस दिन शोघी जाऊँगी, तो वह किरदार ठीक वैसे ही उस मंदिर में मिलेगी| हमारे बचपन में टीवी नहीं होने के कारण हमारी कल्पनाशक्ति का कुछ अधिक ही विकास हो गया|

लगभग ४५ मिनटों के बाद हम तारादेवी के प्रांगण  में थे| आसमान में काले -काले बादल घिर आये थे| तारादेवी की सीढ़ियों पर चढ़ते हुए महसूस किया कि थकान अभी पूरी तरह गयी नहीं थी; पर उस समय वहाँ मौजूद होने भर के ख्याल से रोमांचित हो रही थी| तारा देवी मंदिर, शोघी में शिमला-कालका रोड पर समुद्र तट से 6070 फीट की ऊँचाई पर स्थित है।  देवी तारा को समर्पित यह मंदिर, तारा पर्वत पर बना हुआ है। अगर इसके इतिहास की बात करें तो यह मंदिर लगभग 250 वर्ष पुराना है, जिसकी स्‍थापना पश्चिम बंगाल के सेन वंश के एक राजा, भूपेंद्र सेन ने करवाई थी। देवी तारा सेन वंशीय राजाओं की कुलदेवी हैं। मूल मंदिर कभी जुग्गर गाँव में था और कालान्तर में नव मंदिर का निर्माण कार्य जयशिव सिंह चंदेल तथा अन्य श्रद्धालुओं ने मिलकर करवाया|


मंदिर के अंदर देवी तारा के अतिरिक्त देवी लक्ष्मी और देवी सरस्वती की मूर्तियाँ विद्यमान थीं| अगर धार्मिक अनुष्ठानों में आपकी अभिरुचि नहीं है, तो वहाँ करने लायक कुछ विशेष नहीं है| मन्दिर से शोघी का ख़ूबसूरत नजारा देखने लायक था। कुछ देर मंदिर के प्रांगण  में बैठकर हमने सुन्दर नजारों का लुत्फ़ उठाया और फिर माल रोड की तरफ निकल पड़े| लौटते हुए थोड़ी निराश थी| निर्मल वर्मा के वो किरदार जो नहीं दिखे!!!

जब हम अपनी यात्रा की तैयारी कर रहे थे, तो हमें किसी परिचित ने बताया था कि दिल्ली और शिमला के तापमान में कुछ ज्यादा फर्क नहीं है और हम उसी हिसाब से सूटकेस का बोझ ऊनी कपड़ों से बिना बढ़ाये निकल पड़े| पर प्रकृति किसी की गुलाम नहीं| अपनी मर्जी से चलती हैमाल रोड पर पहुँचते ही बारिश की बूँदों ने हमारा स्वागत किया| वहाँ पहुँचकर सबसे पहले एक रेस्त्रां में दिन का खाना खाया और फिर माल रोड पर खरीदारी की| मौसम का तकाज़ा था कि सबसे पहले छाते के साथ पश्मीना शाल की खरीदारी की गयी| फिर उसी छाते को तान आगे की खरीदारी की और सैर -सपाटा भी किया| बलूत, देवदार और रोडोडेंड्रन के वृक्षों से आच्छादित तथा ठण्डी हवा और मनमोहक प्राकृतिक दृश्यों का शहर शिमला समुद्रतल से 2,130 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। वर्ष 1846 से 1857 के बीच बने क्राइस्ट चर्च को माल रोड पर सबसे प्रमुख भवन माना जाता है। रिज से देखने पर चर्च बेहद सुन्दर नजर आता है और कई किलोमीटर दूर से एक ताज की तरह दिखाई देता है। रिज शिमला के बीचोबीच एक बड़ा और खुला स्थान है जहाँ से पर्वत श्रृंखलाओं का भव्य नजारा दिखता है। जब हम चर्च के अंदर गए तो थोड़ा आश्चर्य हुआ| बाहर का तापमान बारिश की वज़ह से काफी कम हो चूका था| इसलिए मैं थोड़ी सी गर्माहट पाने के लिए ठीक वहाँ जाकर खड़ी हो गयी जहाँ मोमबत्तियां जल रहीं थीं| पीछे के कमरे से तेज आवाज में एक पंजाबी गाने की आवाज आ रही थी| सैलानियों में सेल्फी लेने की होड़ लगी थी| कुल मिलाकर वह सुकून और शांति नदारद थी जो आमतौर पर किसी चर्च में पायी जाती है| ऐसे में २० मिनट से अधिक वहाँ रहना मुमकिन न हो सका और वहाँ से निकलकर हम "स्कैण्डल प्वाइन्ट" गए|



कहा जाता है कि स्कैण्डल प्वाइन्ट से पटियाला के महाराजा भूपिन्दर सिंह ने अंग्रेज वायसरॉय की बेटी को उठाया था और बदले में वायसरॉय ने उनके शिमला आने पर प्रतिबन्ध लगा दिया था। महाराजा ने भी अपनी आन-बान और शान का प्रदर्शन करते हुए चैल बसा डाला जो शिमला से भी ऊँचा नगर है| इस घटना के कारण माल रोड पर स्थित इस जगह का नाम स्कैण्डल प्वाइन्ट पड़ा। कुछ समय हम यहाँ के मनोरम दृश्यों में खोये रहे और फिर लक्कड़ बाज़ार की ओर चल पड़े|
लक्कड़ बाजार के दोनों ओर दुकानें हैं जिनमें हिमांचल प्रदेश के विभिन्न क्षेत्रों में बनने वाली चीजें बिक रही थीं। लक्कड़ बाज़ार अपने लकड़ी के सामान और सुविनियर के लिए प्रसिद्ध है। बिक रही चीजों में पश्मीना शाल, लकड़ी की बनी हुई छोटी-बड़ी चीजें और हिमाचली टोपी प्रमुख थे| ऐसे जगहों की खासियत यह होती है कि आपको अपने दोनों आँखों से दिखनेवाली हर वस्तु प्रिय लगती है और आप तब तक खरीदारी करते रहते हैं जब तक आपको महसूस न हो कि आपके दोनों हाथ सामानों से लद गए हैं|



खरीदारी खत्म करते शाम के साढ़े आठ बज चुके थे और हमें शोघी लौटना था। हम थक चुके थे और भूख-प्यास ने अचानक हमपर हमला बोल दिया| माल रोड के एक रेस्त्रां में हल्का नाश्ता करने के बाद हम शोघी की ओर निकल पड़े| किसी अन्य पहाड़ी शहर की ही तरह रात में शिमला का नजारा देखने लायक होता है| रात के लगभग दस बजे हम शोघी पहुच गए| अगले दिन के लिए हमनें हिमाचल प्रदेश पर्यटन विकास निगम का पैकेज  बुक किया था जिसके तहत हमें मसोबरा, चैल, कूफरी, नालदेहरा और तत्तापानी जाना थाइसलिए बिना देर किए रात का खाना खाया और सो गए|
अभी आधी रात ही बीती थी कि बिजली के कौंधने से हमारी नींद खुल गयी| बादलों की गरज के साथ मूसलाधार बारिश हो रही थी| हमारा अनुमान था कि सुबह होने तक बारिश रुक जायेगी और हम तयशुदा कार्यक्रम के अनुरूप अपने दिन की शुरुआत कर सकेंगे| पर सोचा हुआ हरबार हो कहाँ पाता है!!! बारिश थी कि रुकने का नाम ही नहीं ले रही थीहिमाचल प्रदेश पर्यटन विकास निगम से १२ बजे के करीब फोन आया| फोनकर्ता ने बताया कि बारिश की वजह से कार्यक्रम में विलंभ है और सुबह की बजाय साढ़े बारह बजे हमें शिमला पहुँच जाना होगा| उन्होंने यह भी बताया कि बुकिंग न तो कैंसिल हो सकती है और न ही उसे दुसरे दिन के लिए री-स्केद्युल ही किया जा सकता है| उस मूसलाधार बारिश में आधे घंटे में शिमला पहुँचना मुमकिन न था| रास्ते में गाड़ियों की लम्बी कतार खड़ी थी| हमनें बारिश रुकने तक होटल में ही रहने का निर्णय लिया | बारिश दिन के 2 बजे के करीब रुकी| हमने होटल में ही दिन का खाना खाया और शिमला की ओर निकल पड़े|

सबसे पहले हम वायसरीगल लॉज गए जिसे अब इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस स्टडीज़ के नाम से जाना जाता है| मुख्य द्वार से लगभग एक - डेढ़ किलोमीटर चलने के बाद आपको टिकट काउंटर से टिकट लेकर मुख्य भवन में प्रवेश करने के लिए टिकट में टंकित समय का इन्तजार करना पड़ता है| एकबार में १५-२० लोगों को ही मुख्य इमारत में प्रवेश करने दिया जाता है| अभी हमारे पास लगभग 40 मिनट का समय था| पहला २० मिनट टिकट काउंटर के पास ही स्थित कॉफ़ी हाउस में कॉफ़ी की चुस्कियों के साथ गुजर गया| अगले २० मिनट में हमने उस विशाल प्रांगण से सुरम्य पहाड़ी दृश्यों का आनंद लिया| इस भव्य इमारत का निर्माण वायसराय लॉर्ड डफरिन के आवास हेतु किया गया था| ब्रिटिश हुकूमत ने इसी भवन से सम्पूर्ण भारत पर अपनी सत्ता चलाई और शिमला को भारत की ग्रीष्मकालीन राजधानी भी बनाया। वायसरीगल लॉज को आजादी के बाद राष्ट्रपति निवास में तब्दील किया गया। वर्ष 1964 तक यही राष्ट्रपति का ग्रीष्मकालीन निवास था। भवन के चारों ओर तरह-तरह के फूलों के बेलें लदी हैं और देवदार के घने पेड़ों के बीच विशाल समतल, हरा - भरा लॉन इसकी सुन्दरता को कई गुना बढ़ा देता है| पेड़ों के चारों ओर वृत्त बनाते खूबसूरत पत्थर और प्रांगण की दीवारों में बेतरह उग आये फर्न और शैवाल मेरा ध्यान आकर्षित करते हैं| भारत की पूर्व प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गान्धी व पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमन्त्री जुल्फीकार अली भुट्टो के बीच यहीं हुआ था 1972 का "शिमला समझौता", जिसके साक्ष्य आज भी इस भवन में मौजूद हैं। इस भवन में वह मेज अब भी मौजूद है जिस पर समझौते के कागज़ को रखकर दस्तख़त किया गया था। भवन की लगभग हर दीवार पर भवन से जुड़ी घटनाओं और उनसे जुड़े राजनीतिज्ञों की तस्वीरें हैं| मुख्य भवन तीन मंजिला है जिसमे सागौन या टीकवुड का भरपूर इस्तेमाल हुआ है| हमें बताया गया कि भवन में इस्तेमाल हुई लकड़ियों को उस समय बर्मा से मँगवाया गया था| सीलिंग में कश्मीर से मँगवायी गयी अखरोट की लकड़ियों पर की गयी नक्काशी देखने लायक थी| यहां का पुस्तकालय देश के बेहतरीन पुस्तकालयों में से एक है।  हमें बताया गया कि इस पुस्तकालय में 1 लाख 80 हजार से अधिक पुस्तकें हैं। भवन के अन्दर अंग्रेजों के जमाने का फर्नीचर, टेलीफोन  और गुलदान उस भवन की भव्यता को और बढ़ा रहे थे| कुल मिलाकर इस भवन को देखना एक शानदार अनुभव रहा| चार-साढ़े चार घंटे कब निकल गए, पता ही न चला| यहाँ से निकलकर हम "हिमालयन बर्ड पार्क" गए|
हिमालयन बर्ड पार्क  इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस स्टडीज़ के ठीक सामने स्थित है| सर्दियों में बर्फ़बारी के कारण यह पार्क/ एवियरी केवल गर्मियों के मौसम में ही दर्शकों के लिए खुला होता है। यहाँ मोर, मोनल और हंस सहित अन्य दुर्लभ पक्षियों की कई प्रजातियाँ देखने को मिलीं|
अँधेरा होने ही वाला था| लौटते हुए हम पास ही "वर्मा टी स्टाल" पर चाय के लिए रुके| इसी बहाने थोड़ी देर और उस सुन्दर वातावरण में रहने का मौका मिला | पास ही के देवदार पर लाल रंग की एक चिड़िया कुछ समय तक हमारा मनोरंजन करती रही| चाय पीने के बाद हम सीधे अपने होटल की ओर कूच कर गए| रास्ते में एक नर्सरी थी, जहाँ रुककर कुछ सकुलेंट पौधे खरीदे|



अगली सुबह नाश्ते के बाद कड़ी धूप साथ लिए हम कुफरी की ओर चल पड़े| रास्ते में ग्रीन वैली पड़ती है। हर ओर हरियाली से भरपूर यह एक बहुत ही खूबसूरत जगह है| ऊँचे-नीचे पहाड़ चारों तरफ से देवदार व अन्य जंगली पेड़-पौधों से ढंके हुए हैं। कुछ देर रूककर अपने अन्दर उस हरेपन को समेटे हम कूफरी की ओर चल पड़े|



मशोबरा और संजौली को निहारते हुए हम कुफरी पहुँचे| कुफरी पहुँचते हुए लगभग डेढ़ बज गएभूख  लगी थी और ठीक कार पार्किंग के पास एक स्टाल में एक ओर पराठा और दुसरी ओर मैगी बन रहा था| हमने पराठा और मैगी मिल-बांटकर खाया| इसके पहले हम सर्दियों के मौसम में यहाँ आये थे जब पूरी वादी बर्फ के सफ़ेद चादर से ढँकी थी| बर्फ में फिसलते हुए ट्रैकिंग का लुत्फ़ भी लिया था| पर इस बार धुप तेज थी और खाने के बाद ट्रैकिंग के बारे में सोचना भी दुष्कर लग रहा था| इसलिए हम २२२ एकड़ में फैले ग्रेट हिमालयन नेचर पार्क गए| वर्ष 2014 में यूनेस्को द्वारा इसे विश्व विरासत स्थल के रूप में घोषित किया गया है।यहाँ बंदर, याक, नील गाय, हिरण, शेर और चीता के अतिरिक्त काले और भूरे रंग के भालू दिखे| पहाड़ी बकरियों की प्रजातियों (भारल, गोरल और सीरो) को भी देखने का मौका मिला| पक्षियों में मोर, मोनल, गिद्ध और तीतर की कई खूबसूरत प्रजातियाँ को देखा| हिमालयन नेचर पार्क कई प्रकार की वनस्पतियों और जीवों से समृद्ध है। यह पार्क कई प्रकार के दुर्लभ पक्षियों और लुप्तप्राय जीवों का डेरा हैपार्क से निकलकर आसपास के बाज़ार घूमने के बाद हम नालदेहरा के लिए चल पड़े|



अभी हम नालदेहरा पहुँचे ही थे कि मुझे मालूम हुआ यहाँ बिना घोड़े पर सवार हुए आप पहाड़ के उत्तुंग शिखर पर नहीं जा सकते जो कि लगभग 6 किलोमीटर की चढ़ाई है| मुझे यह भी बताया गया कि यहाँ जो कुछ भी है , वो सभी कुछ उस उत्तुंग शिखर पर ही है| मैं कोई महान जीव प्रेमी तो नहीं हूँ, पर अत्यधिक संवेदनशील होना भी परेशानी का सबब हो सकता है| कई बार सोचती हूँ संवेदना को टोपी जैसा कुछ होना चाहिए था; मतलब कि हम संवेदना को सुविधा के अनुसार इस्तेमाल कर पाते| अपने मनोरंजन के लिए किसी दुसरे जीव को कष्ट पहुँचाने भर के ख्याल से दिल बैठ गया| अचानक एक वाकया याद आ गयाइसी साल किसी परिचित ने मुझे मछली खाकर बांग्ला नववर्ष मनाने का सुझाव दिया| मेरे यह बताने पर कि मेरे घर पर एक्वेरियम है और मैं मछली नहीं खाती; उसने चिढ़ाते हुए कहा था "बंगाली भद्रलोक समाज से तुम्हें बाहर कर दिया जाना चाहिए"| उस वक़्त जेहन में आ रहा था भद्रलोक समाज तो क्या, इतनी अधिक संवेदना के साथ इस धरती पर रहना भी मुश्किल ही है| इस यात्रा में अगर मैं अकेली होती, तो शायद बिना एक भी पल सोचे लौट आती| मन में अपराध बोध घर करने लगा कि मेरे उसूलों की वज़ह से सबका मन मलीन हो जाएगा| इतना तय था मेरे "ना" कहने पर बेटी भी "ना" ही कहती| क्या करती !!! दिल को मजबूत करते हुए और उसूलों को सामाजिकता की खाई में डालकर घोड़े पर सवार हो गयी| गाइड ओमर ने मेरा चेहरा पढ़ लिया था और मेरी असहजता को महसूस करते हुए मुझसे कहने लगा "आपलोग नहीं आयेंगे, तो घास खाकर कब तक जिंदा रहेगा| आपलोग आते हैं तो इसे चना नसीब होता है| इसे भी अपने लिए कमाना पड़ता है|" मैं रह-रहकर ओमर से घोड़ों के रख-रखाव और खान-पान की जानकारी लेती रही| जब हम घोड़े किराये पर ले रहे थे, तो वहाँ एक बुज़ुर्ग थे जो सभी गाइड और घोड़ों का किराया जमा कर रहे थे| बातों ही बातों में ओमर ने बताया कि जो भी दिन भर की आमदनी होती है, उसे दिन के शेष में सभी में बराबर हिस्सों में बाँट दिया जाता है| बेहद ख़ुशी हुई जानकार कि इस मशीनी युग में भी सामाजिकता का जीता - जागता मिशाल बना यह समूह आपस में इसप्रकार मिलजुल कर रहता है|
नालदेहरा समुद्र स्तर से 2044 मीटर की ऊंचाई पर स्थित एक खूबसूरत पहाड़ी शहर है। नालदेहरा का नाम दो शब्दों 'नाग' और 'डेहरा' से मिलकर बना है, जिसका अर्थ है- "सांपों के राजा का डेरा"। 'महूनाग मंदिर', नाग भगवान को समर्पित है जो यहाँ का एक महत्त्वपूर्ण धार्मिक स्थल है। मंदिर का कपाट बंद था, तो बाहर से ही जायजा लिया| ऐतिहासिक रिकॉर्ड के अनुसार अंग्रेज़ वायसराय लॉर्ड कर्जन ने इस ख़ूबसूरत पहाड़ी स्थान की खोज की थी। यह पहाड़ी स्थान अपने गोल्फ़ के मैदान के लिए सारे भारत में प्रसिद्ध है। लॉर्ड कर्जन यहाँ के ख़ूबसूरत परिवेश से इतना चकित था कि उसने इस क्षेत्र में सन १९२० में एक गोल्फ़ कोर्स बनाने का फैसला किया। नालदेहरा गोल्फ कोर्स, दुनिया में सबसे पुराने गोल्फ क्लब में से एक है| हर ओर हरियाली ही हरियाली थी| ओमर ने एक कॉटेज की तरफ इशारा करते हुए बताया कि वहाँ "माचिस" फिल्म के प्रसिद्ध गाने "चप्पा-चप्पा चरखा चले" की शूटिंग हुई थी| फिर गोल्फ कोर्स के दूसरी तरफ दिखाते हुए बताया कि देवदार के उन पेड़ों के बीच फिल्म "प्यार झुकता नहीं" की शूटिंग हुई थी| अंततः हम पहाड़ के उस उत्तुंग शिखर पर पहुँच ही गए जिसका नाम है लवर्स पॉइंट| उस जगह का नाम लवर्स पॉइंट क्यूँ पड़ा, इस बाबत कोई जानकारी नहीं मिल पायीवहाँ से दूर उत्तर की ओर एक पहाड़ी की ओर इशारा करते हुए हमें बताया गया कि वह चीन का बॉर्डर हैपूरब की ओर किसी पहाड़ी पर देवी के मंदिर होने की बात बतायी गयी| अब शिखर से नीचे लौटने की बारी थी| लौटते हुए ओमर ने बताया कि वह पास के ही एक गाँव में रहता है और उस गाँव के बच्चे इन्ही दुर्गम पहाड़ियों को पैदल चढ़कर हर रोज स्कूल जाते हैं| उस गाँव के लोग अपनी रोज़मर्रा की जरूरतों का सामान लेने के लिए भी इन्ही दुर्गम पहाड़ियों को पार करते हैं| ओमर से बात करते हुए पता ही नहीं चला कब हम वापस पार्किंग के सामने आ गए थे| घोड़े से उतरकर कुछ देर तक शुक्रिया के अंदाज़ में उसका पीठ सहलाती रही और फिर ओमर से विदा लेकर कार में आ बैठी|

थोड़ी दूरी पर एक छोटा सा रेस्त्रां दिखा, तो वहाँ रूककर कॉफ़ी और पकौड़ों का आनंद लिया| उस वक़्त रेस्त्रां में हमारे अतिरिक्त और कोई सैलानी नहीं था, तो कॉफ़ी और पकौड़ों के साथ-साथ हम उस रेस्त्रां के मैनेजर से बात करने लगे| बातों ही बातों में पता चला कि वह रेस्त्रां किसी स्थानीय व्यक्ति का नहीं बल्कि बाहर के एक व्यापारी का है| मिस्टर बीन जैसे दिखने वाले उस मैनेजर ने बताया कि वह उस रेस्त्रां में पिछले २५ साल से काम कर रहे हैं और अब उनकी तनख्वाह पाँच हज़ार रूपये है| चेहरे पर सौम्य मुस्कान लिए बड़े गर्व से बता रहे थे कि इसी जगह पर काम करते हुए उन्होंने अपनी दो बेटियों का ब्याह किया और दो लड़कों को पढ़ाया| अब इस जगह को अलविदा कहने की बारी थी|



अब जबकि उन दिलकश नजारों को अपनी आखों में भरकर हम लौट आये, सोच रही हूँ कि अगर पहाड़ों पर रहनेवाले लोगों की जिंदगी पहाड़ जैसी होती है तो उनका हौसला भी पहाड़ों जैसा ही होता है| कुछ समय के लिए पलकों को बंद कर नालदेहरा की वादियों को याद करती हूँ तो उस दुर्गम पहाड़ी पर पैदल चढ़ते स्कूल जाते बच्चे और ग्रामीण भी दिखते हैं जिनसे मैं कभी नहीं मिली| पकौड़ियां खाते हुए मुझे मिस्टर बीन से दिखनेवाले रेस्त्रां के मैनेजर याद आयेंगे और फिर मैं मन ही मन उनकी तनख्वाह के हिसाब से उनके घर के खर्चे का अनुमान लगाऊँगी|

सच ही तो है- बीता हुआ वक़्त गुज़रता नहीं, ठहर जाता है स्मृतियों में|