Wednesday, May 25, 2016

चापाकल

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मुझे पुकारते हैं बीत गए बचपन के वो दिन 
जब चापाकल के पानी से बुझती थी हमारी प्यास 
दर्ज है उस चापाकल की जगत में दिखते पीलेपन में 
पानी में मौजूद लौह तत्व आज भी बनकर संताप  

मेरे बेहद करीब है पीले रंग का यह पुरातन दुःख 
कि मेरी शिराओं में दौड़ते रक्त में यही पीलापन है मौजूद 
जिससे धड़क रहा है मेरा हृदय और चल रही है मेरी श्वास 
कुछ तकलीफें जिंदा रहती हैं इसी तरह हमेशा, आसपास 

---सुलोचना वर्मा----


Monday, May 23, 2016

गंतव्यहीन

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मैं कोई तैराक नहीं थी 
न ही किसी मछली ने बताया था मुझे अपना प्रिय जल-स्त्रोत 
मेरे पास थी बस तुम्हारी दो आँखें और कुछ नीले सपने 
मैं अनाड़ी सीख रही थी तैरना तुम्हारे खारेपन के साथ 
जाल-बद्ध किया वक्त के मछुआरे ने !

नहीं थी  मैं नदी में बहती हुई लाश ही 
जो हो किसी अनजान यात्रा पर 
बस तुम्हारे होने भर से होती रही आंदोलित मेरी गति 
और मैंने बहकर पार की गंतव्यहीन दूरियाँ 
अब तुम्हारी प्रतीक्षा में बैठी हूँ दिशाहीन!!

अब मेरा "मैं", जो नहीं है कोई कहानीकार 
लिखना चाहता है एक ऐसी कहानी 
जिसमें मछली की तड़प पर तड़प उठे मछुआरा वक़्त का 
और जब बंद होने लगे मेरी थकी हुई प्रतीक्षारत आँखें 
ढूँढने निकल पड़े तुम्हे संसार के समस्त गंतव्यहीन रास्ते!!!

नहीं होता "असंभव" जैसा कोई शब्द प्रेम के शब्दकोष में  !

-----सुलोचना वर्मा------------

Saturday, May 21, 2016

धुआँ

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श्मशान में जलती हुई लाश से उठता धुआँ 
बनकर हाहाकार उठता है आकाश की ओर 
और एक इंसान हो जाता है परिवर्तित शून्य में 
जिससे थोड़ी और बढ़ जाती है आयु ईश्वर की 
थोड़ा और बड़ा हो जाता है व्यास शून्य का 
समय भी इन सभी के साथ हो उठता है कठिन 

इंसान, जो धुआँ बन जाता है; लौटकर नहीं आता 
उसके लौट आने से सुलझ सकता है फेर समय का 
और समय के ठीक हो जाने से विलुप्त हो सकते हैं ईश्वर
इसलिए इंसान, जो धुआँ बन जाता है; लौटकर नहीं आता 

------सुलोचना वर्मा-------

आत्महत्या

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जल रहे थे जंगल, सूख रहीं थीं नदियाँ 
काटे जा रहे थे पहाड़
और इस तरह बीत रही थी सदियाँ 

सहने की सीमा थी, पृथ्वी अवसादग्रस्त हुई 
वह पृथ्वी के अनंत प्रेम में था पागल 
ईश्वर ने आत्महत्या कर ली!

----सुलोचना वर्मा------

आईना

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मैं किसके जैसी दिखती हूँ?
मैं किसी के जैसी नहीं दिखती 
हाँ, एक आईना है मेरे कमरे में 
जो दिखता है कुछ-कुछ मेरे जैसा 

देखती हूँ जब-जब मैं यह आईना 
ढूँढने लगती हूँ दरार इसमें भी 
टटोलती हूँ छूकर इसकी सतहों को 
क्या दिया है खुरदुरापन वक़्त ने इसे भी 

मेरी हरकतों पर हँस देता है ठठाकर 
आईना और कुछ भी नहीं कहता 
समझाता हो जैसे, यह वह जगह है जहाँ 
होती है जिस्म कैद, दिल नहीं रहता 

---सुलोचना वर्मा -----

Sunday, May 15, 2016

बारूद की गंधस्मृति

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पहले उन्होंने छीन लिए शब्द 
फिर लगाईं लगाम भाषा पर 
जकड़ा कई दफे बेड़ियों में 
बदल दिए जाने की आशा पर  

ये अभिव्यक्ति की आजादी के सैनिक थे 
नहीं सीख पाए भ्रष्ट कौम की बोली 
उन लोगों के पास थी सत्ता और बंदूकें 
और उन बंदूकों में भरी हुई थी गोली 

टक्कर थी कलम और तलवार की 
कहीं खून तो कहीं स्याह मचलता था 
चंद भेड़ियों की हरकतों पर सर झुकाए 
उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड चलता था 

नहीं होता है कभी पराजित इस धरती पर 
बारूद की गंधस्मृति से फूलों का सुवास 
ढह जाता है जबकि विचारों के कपूर मात्र से 
भेड़ियों के महलों के सिंहद्वार पर टंगा विश्वास  

------सुलोचना वर्मा ------

Tuesday, May 10, 2016

चाबी

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फाल्गुन का मैदान दोपहर की धुप में  धू-धू कर जल रहा था। रतन खिड़की के पास बैठकर पेड़ों के अंतराल से आकाश को अपलक निहार रहा था| पर सवालों के जवाब आसमान पर थोड़े ही न टंगे होते हैं! उसने तय किया कि अब वह उहापोह की स्थिति में नहीं रहेगा और अपना फैसला सुना देगा| 

वह कमरे से निकलकर सीधे अपनी माँ के कमरे में गया| उसकी माँ, अम्बा पलंग पर बैठकर सूई-धागे से चादर पर फूल टांक रही थी| वह माँ के पैर के पास बैठकर कहने लगा -"माँ, आजकल अनुराधा की तबियत ठीक नहीं रहती| तुम उसे लेकर डॉक्टर दिखा आओ न |"


इतना सुनना था कि अम्बा का पारा चढ़ गया और वह रतन को घूरते हुए कहने लगी "अच्छा!!! बड़ी फ़िक्र हो रही है तुम्हे उसकी!! मैंने तुम्हें पाल-पोष के इतना बड़ा किया है, कभी मुझसे पूछा कि कैसी हूँ, खाना खाया भी है या नहीं!!"


"माँ!!!" रतन ने झुँझलाते हुए कहा|


"कोई जरुरत नहीं है डॉक्टर के पास जाने की| तू भी इसी कमरे में पैदा हुआ था| ये सब आजकल की लड़कियों के तमाशे हैं| अभी तो सातवाँ महीना ही चल रहा है| उसे बता दे कि माँ बनना कोई आसान बात नहीं है| " 


अभी अम्बा की बात भी पूरी नहीं हुई थी कि रतन बोल पड़ा " जब मैं पैदा हुआ था तब इस गाँव में कोई अस्पताल तक नही था, पर अब तो तीन-तीन..."


अम्बा ने भी बात को बीच में ही काटते हुए कहा "अच्छा...अच्छा, देख लेंगे| तुम्हें चिंता करने की कोई जरुरत नहीं है| माना कि तुमने हमारी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ इस लड़की से ब्याह किया है, पर जैसी भी है, है तो अब हमारी ही बहू| तुम चिंता नहीं करो"


"इस बार चुनाव में मेरी ड्यूटी लगी है और कल सुबह की पहली गाड़ी से मुझे सीमान्तपुर जाना है| चार दिन बाद ही लौट पाऊँगा| बस इसीलिए..." रतन की आवाज में चिंता थी|


"तुम ख़ुशी-ख़ुशी जाओ बेटा| तुम्हारी अम्मा सब संभाल लेगी" अम्बा ने बेटे को आश्वस्त करते हुए कहा|


अगले दिन रतन सीमान्तपुर के लिए रवाना हो गया| 


शादी से पहले तक रतन अम्बा की हर बात मानता था| गाँव के लोग उसे आज का श्रवण कुमार कहते थे| ऐसा नहीं था कि शादी के बाद माँ के लिए उसका प्यार कम गया हो, पर अम्बा अनुराधा को अपनी बहू स्वीकार नहीं कर पायी और उसे दुखी करने का कोई भी मौका हाथ से नहीं जाने देती| रतन अम्बा की इन हरकतों से परेशान रहने लगा था| 


अभी रतन को गए दो दिन ही बीता था कि अनुराधा की तबियत अचानक से बिगड़ गयी| कमरे से उसके कराहने की आवाज आने लगी| 


अम्बा तूफ़ान की तरह उस कमरे में आयी और कहने लगी "इसी तरह दिन-रात बिस्तर पर पड़ी रहोगी तो यही होगा| मैंने रतन के समय पूरे नौ महीने घर में पोछा लगाया था| मुझे कभी कोई तकलीफ नहीं हुई| अब बात सुननी हो तो सुनो वरना मरो!!"


अनुराधा की हालत बिगड़ती ही जा रही थी और अब उसमें कराहने की भी शक्ति नहीं रह गयी थी| 


आँगन में अम्बा का प्रलाप जारी था "बस नाम की ही ब्राह्मण की बेटी है| ब्राह्मणों वाला कोई संस्कार तो दूर -दूर तक दिखाई नहीं देता| इतना समझाया; पर अकड़ तो देखो! बिस्तर से हिली तक नहीं| यही अगर अपनी जाति की लड़की होती, तो क्या मेरी सलाह को इस तरह अनसूना कर पड़ी रह पाती! खैर, मुझसे अब यह नौटंकी और बर्दाश्त नहीं होती| मैं सत्संग जा रही हूँ| तुम्हें तो 


बिस्तर से हिलना ही नहीं है, सो बाहर से ताला लगाकर जा रही हूँ| "


अम्बा ने घर के बाहर ताला लगाया और निकल पड़ी| रात के लगभग आठ बजे जब वह वापस लौटी, तो घर में अँधेरे के साथ-साथ सन्नाटा पसरा था| 


"अरे ओ आलसी लड़की! कम से कम अपने ही कमरे का लालटेन जला लिया होता! पर नहीं, यह काम भी मुझसे ही करवाएगी! लाट्साहेब की नातिन जो ठहरी!!!" बड़बड़ाती हुई अम्बा रसोई की तरफ गयी और लालटेन जलाने लगी|


लालटेन लेकर अम्बा अनुराधा के कमरे में दाखिल हुई| 


"अनुराधा! ओ अनुराधा!" अम्बा दो बार से अधिक न पुकार सकी| अचानक एक भय ने उसे जकड़ लिया|


अम्बा पलंग के पास आकर अनुराधा का हाथ पकड़कर  हिलाना ही चाह रही थी कि उसने बर्फ सी ठंडक महसूस की| अनुराधा की आत्मा सभी प्रकार के कष्ट से मुक्त हो चुकी थी| उसने समय से पहले ही एक मरे बच्चे को जन्म दिया था| उसकी आत्मा को घर के बाहर लगा ताला नहीं रोक पाया|


अम्बा घर के दरवाजे पर आकर छाती पीट-पीटकर प्रलाप करते हुए रोने लगी| उसके घर के बाहर लोगों का ताँता लग गया| अम्बा मन ही मन सोच रही थी कि फाल्गुन के महीने में दो दिनों तक शव को इसी तरह रखना ठीक नहीं होगा और फिर अनुराधा की लाश को देखकर रतन की प्रतिक्रिया की बातें सोचकर उसने रतन के आने से पहले ही शव  के अंतिम संस्कार का निर्णय लिया| आस-पड़ोसवालों की मदद से यह काम हो भी गया| 


अम्बा दो दिनों से रात में जाग रही है| ऐसा नहीं कि उसे नींद नहीं आती; पर वह सोने के लिए जैसे ही आँखें बंद करती है, उसे कभी अनुराधा के कराहने की आवाज सुनाई देती है तो कभी मरे हुए बच्चे की शक्ल आखों में तैरने लगती है| परेशान होकर वह उठती है और अनुराधा के कमरे में ताला लगा देती है| पर इससे उसकी परेशानी का हल नहीं होता| उसकी अंतरात्मा दोनों मौत के लिए खुद को ज़िम्मेदार मा
 चुकी है; पर वह इसे स्वीकार नहीं कर पा रही है|

सीमान्तपुर एक्सप्रेस निर्धारित समय से दो घंटे बाद, रात के नौ बजे पहुँची और रतन अभी स्टेशन के बाहर ही आया था कि जान-पहचानवालों ने सांत्वना के शब्दों की बौछार कर दी| रतन बेहद थका हुआ था| किसी से कुछ पूछे बिना ही ज़ेहन में तमाम सवाल लिए वह तेज कदमों से घर की ओर चल पड़ा|


"अपनी अम्मा को माफ़ कर दो बेटा... बहुत बड़ी गलती हो गयी..हम नहीं सोच पाए थे कि निर्मोही ऐसे ही चली जायेगी" घर का दरवाजा खोलते ही अम्बा रतन से लिपटकर रोने लगी| माँ-बेटे के दुःख में शामिल होने के लिए आस-पड़ोस के लोग भी आ गए| लोगों की बातों से रतन को धीरे-धीरे पूरा वाकया समझ आया और वह दौड़कर अपने कमरे की तरफ गया| उसने अभी-अभी जो कुछ सुना, उसपर भरोसा नहो हो रहा था| कमरे के बाहर ताला लगा था| 


"किसने लगाया ताला इस कमरे में" रतन पागलों की तरह चीख रहा था|


अम्बा पीछे से दौड़ती हुई आयी और रतन को अपने सीने से लगाकर कहने लगी "नहीं बेटा, तुम्हारा इस कमरे में रहना इस वक्त मुनासिब नहीं| तुम मेरे साथ मेरे कमरे में रहो"


आस-पड़ोस वालों ने भी रतन को खूब समझाया| उन्होंने ही रतन और उसकी माँ के लिए रात के खाने का प्रबंध भी किया| सभी ने मिन्नतें की, पर रतन ने खाने को हाथ भी नहीं लगाया| 


आधी से अधिक रात बीत चुकी थी| अम्बा उठकर कमरे से बाहर गयी| फिर पास के कमरे से अम्बा की आवाज आने लगी जो स्पष्ट नहीं सुनाई दे रही थी| रतन इतने गुस्से में था कि उसे किसी चीज की कोई परवाह नहीं रह गयी थी| 


इसी तरह अगले ग्यारह दिन भी गुजरे और हर रात अम्बा आधी रात के बाद बाहर जाती और फिर पास के कमरे से उसकी आवाज आती| रतन ने अम्बा से बात करना बंद कर दिया था| खाना भी वह बाहर ही खा रहा था| अम्बा ने रतन को समझाते हुए कहा "अरे बेटा! इसीलिए कहते हैं कि जिस काम में बड़े -बूढ़ों का आशीर्वाद न हो, वह ठीक नहीं होता| उसके किस्मत में बस इतना ही दिन लिखा था| फिर बहू का क्या है, दूसरी आ जाएगी| मुझसे रूठकर क्या मिलेगा तुझे| मैं तेरी माँ हूँ, मर गयी न, तो किसी धन के विनिमय में न लौटा पायेगा मुझे"


अम्बा के असंगतपूर्ण कारणों को सुनना रतन के लिए कम पीड़ादायी न था|


तेरहवें दिन अम्बा ने घर में पूजा-पाठ का इंतजाम करवाया था| रतन भी पूजा में शामिल हुआ| रतन के लिए अब इस घर में रहना मुश्किल हो रहा था| उसे अम्बा से घृणा हो चली थी और अनुराधा की यादें घर के हर कोने में दर्ज थीं| उसने अम्बा के नाम एक चिठ्ठी लिखकर अगली सुबह घर छोड़कर चले जाने की बात कही और चिठ्ठी को अम्बा के सिरहाने रख दिया|


उस रात भी अम्बा आधी रात के बाद उठकर कमरे से बाहर गयी| आज रतन से नहीं रहा गया और वह भी दबे पाँव पीछे-पीछे गया| अम्बा ने आँचल में लगी चाबी से रतन का कमरा खोला और अन्दर जाकर पलंग के पाये से सर सटाकर बैठ गयी| अम्बा की ऑंखें बंद थीं और वह सुबक-सुबककर कह रही थी "भगवान् के लिए चुप हो जाओ! नहीं सहा जा रहा तुम्हारा इस तरह कराहना| तुम अपनी तकलीफों से आज़ाद हो चुकी हो, मुझे भी माफ़ कर दो| मैं नहीं सो पा रही| वह मुझसे बात नहीं कर रहा| उसे भी तुम्हारी आवाज सुनाई दे रही होगी| मेरे लिए नहीं, तो उसके लिए सही..."


रतन दबे पाँव कमरे में गया और आलमारी के पीछे जा खड़ा हुआ| 


अम्बा कुछ देर बाद उस कमरे से निकल आयी और वापस ताला लगा दिया| रतन कमरे के अन्दर ही रह गया| अम्बा के बाहर निकलते ही रतन पलंग पर लेट गया और पास पसरी हुई रिक्तता को हाथ से टटोलकर महसूस करने लगा|


अम्बा वापस अपने कमरे में आयी और उनींदी आखों को पता भी न चला कि रतन कमरे में नहीं है| 


सुबह आँख खुलते ही अम्बा ने देखा कि रतन कमरे में नहीं है| अभी वह उठकर बैठी ही थी कि सिरहाने रखी चिठ्ठी पर नजर गयी| चिठ्ठी पढ़ते ही वह जीवन से नाउम्मीद हो गयी| उसे लगा कि रतन घर छोड़कर जा चूका है| उसे लगा कि अब उसके जीवन में कुछ भी शेष न बचा| इसलिए उसने मन की शांति के लिए हरिद्वार और बनारस जाने का मन बना लिया| उसने जाने से पहले आस-पड़ोस के लोगों को रतन के घर छोड़कर चले जाने की बात बतायी और यह भी बताया कि वह मन की शांति के लिए तीर्थ पर जा रही है|  


अम्बा उस रोज़ घर से निकल कर सबसे पहले अपने भतीजे के पास अनपरा पहुंची| फिर भतीजे को साथ लेकर वह बनारस गयी| 


एक महीने से ज्यादा समय हो गया अम्बा को बनारस में रहते हुए; पर यहाँ  शांति दूर-दूर तक नहीं थी| उसने तय किया कि अब वह हरिद्वार जायेगी| 


हरिद्वार में रहते हुए दो महीने गुज़र गए | शांति तो यहाँ भी न थी, पर यहाँ एक सन्यासी थे जो शांति का मार्ग बता रहे थे| उनके आस-पास लोगों का बड़ा हुजूम जमा था| अम्बा की भी बारी आयी| उन्होंने अम्बा से कहा  "शांति तुम्हारे अन्दर है और तुम उसे काशी और हरिद्वार में ढूँढ रही हो!! शांति जीवन की चुनौतियों का सामना करने से प्राप्त होगी न कि परेशानियों से मुख मोड़ने से...जीवन का सामना करो...आंतरिक शक्ति को बढ़ाओ..देखना इसके एवज में तुम्हें  मन की शांति मिलेगी .... सत्य को स्वीकारो... उसी में शान्ति है| जाओ! अपने घर जाओ...तुम जिसकी खोज में भटक रही हो, वह तुम्हे वहीँ मिलेगा"


तीन महीने बाद अम्बा अपने गाँव लौट आयी| उसके घर का दरवाजा खुला था| अभी वह अचरज से दरवाजे की ओर देख ही रही थी कि आस-पड़ोस के लोग उसे सांत्वना देने पहुँच गए| 


"क्या हुआ??? चोरी??" अम्बा ने परेशान होकर पूछा 


"नहीं रे! तेरे घर तो डाका पड़ा है अम्बा"कहते हुए अम्बा की सहेली और पड़ोसन, निर्मला रोने लगी|


"डाका!!!" अम्बा को कुछ समझ न आया|


फिर लोगों ने अम्बा को बताया कि उसके तीर्थ पर जाने के कुछ दिनों बाद से उसके घर से अजीबोगरीब आवाजें आने लगी थीं| गाँव के लोगों ने इसे अनुराधा की आत्मा समझ , उस आत्मा की शांति के लिए गाँव के काली मंदिर में पूजा -पाठ कराया| लगभग डेढ़ महीने के बाद लोगों ने ध्यान दिया कि आवाज आना बंद हो गया; पर आस-पड़ोसवाले उस घर से दुर्गन्ध आने की शिकायत करने लगे| फिर कुछ लोगों की शिकायत पर एकदिन पुलिसवालों का एक दल वहाँ आया और उन लोगों ने घर के दरवाजे पर लगे ताले को तोड़कर घर में प्रवेश किया| 


"पुरे घर की छानबीन पर उन्हें एक कमरे में ताला लगा दिखा और उन्होंने उस ताले को भी तोड़ा| उस कमरे में रतन की लाश सड़ी-गली अवस्था में..."कहते हुए निर्मला का गला भर आया|


"रतन की लाश!!! पर वह तो घर छोड़कर...." कहते हुए अम्बा बेहोश हो गयी| 


इकलौते बेटे की मौत का सदमा अम्बा नहीं सह पायी और उसने अपना मानसिक संतुलन खो दिया| शायद वह स्वीकार कर चुकी थी कि तीनों मौतों की ज़िम्मेदार वह खुद है और उसने ऐसा पाप किया है जो किसी प्रकार के तीर्थ से नहीं धुलेगा; जो ऊपरवाले के समक्ष अक्षम्य है|


समय बीत रहा था| अम्बा दिन-प्रतिदिन बूढ़ी हो रही थी और उसको खाली घर काटने को दौड़ता था और बेहद भयावना दिखाई पड़ता था। अन्त में ऐसी नौबत आ पहुंची कि वह चैन से घर में रह भी न पाती। दोपहर के बाद जब गांव के सब लोग अपने-अपने घरों में सोए होते तो अम्बा चाबी हाथ में लिये गलियों में घूमती दिखाई देती। किसी घर के बाहर ताला लगा हो, तो उसे अपनी चाबी से खोलने का प्रयत्न करती। उस गाँव के लोग भय के मारे उसका नाम तक अपनी जबान पर न लाते कि कहीं कोई अपशकुन न हो। लोगों ने उसे अलग-अलग विशेषणों से नवाजा था | कोई उसे पगली कहता, तो कोई डायन; कुछ चुडैल कहते| उसकी आँखें अन्दर की ओर धँस गयी थीं और उसकी त्वचा शुष्क व झुर्रीदार दिखाई देती थी| सम्भव है इन्हीं कारणों से वह प्रेतात्माओं और चुड़ैल के समान समझी जाने लगी थी।


इस घटना के लगभग आठ वर्ष बाद अम्बा मृत्यु-शैया पर पड़ी थी । उसके चारों ओर अँधेरा छा रहा था और साँसें भी उससे नाता तोड़ने लगी थी। वह थोड़े-थोड़े अंतराल पर विक्षिप्त अवस्था में उठकर बैठ जाती और बिस्तर पर हर ओर टटोलते हुए कहती -''मेरी चाबी कहाँ गई? कौन ले गया मेरी चाबी?''


आस-पड़ोस वाले कहते "ऐसा लगता है कि बुढ़िया इसी चाबी से उस जहान के प्रवेश-द्वार का फाटक खोलेगी"!!!


वह एक ऐसी काल कोठरी मे प्रवेश कर रही थी, जहां दूर-दूर तक रौशनी का नामो निशान तक न था और न ही सांस लेने के लिए हवा का कोई इंतजाम| उस कोठरी से बाहर निकलने की चाबी  न पाकर वह मौत के आगोश में समा गई| आत्मा को शरीर की कोठरी से बाहर निकलने के लिए किसी चाबी की ज़रूरत नहीं पड़ती !