Wednesday, October 21, 2020

जीवनानंद दास

 पिछले साल चेन्नै के मिओट अस्पताल के लॉन में उगे हरे घास को देखकर उस पर लोटने की तीव्र इच्छा हुई | अगले ही क्षण महसूस हुआ कि हो न हो मेरे अंदर एक गधा है| इच्छा ऐसी विचित्र थी कि किसी से साझा करने में हिचकिचाहट महसूस हुई |  गधा होकर मनुष्य के शरीर में रहना साल रहा था |


पर जाड़े का अगला मौसम आते ही याद आया  कि बचपन में जाड़े के मौसम में दिन के भोजन के बाद जब घर की स्त्रियाँ घर के पीछे बागान में चटाई बिछाकर धुप सेंकते हुए स्वेटर बुना करती थीं या जूट पर ऊन से कलाकारी कर आसन बनाया करती थीं, मैं वहाँ उगे घास, घास के बीच में उग आये छोटे-छोटे फूल, दूर्वादलों, कालमेघ के पत्तों,  सत्यनाशी के फूल और भी न जाने क्या-क्या निहारा करती थी | संभव है मेरे अंदर के गधे का जन्म उन्हीं दिनों हुआ हो |


फिर जीवनानंद दास की कविताओं से गुजरते हुए उनकी कविता "घास" से साक्षात्कार हुआ | यह कविता से कम और स्वयं से साक्षात्कार अधिक था |  आज जीवनानंद दास के स्मृति दिवस पर उनकी उसी कविता का अनुवाद किया है आप सभी के लिए-


घास 

(अनुवाद : सुलोचना) 


कोमल नींबू के पत्तों की तरह नरम हरी रौशनी से 

               पृथ्वी भर गई है भोर की इस बेला में;

कच्चे चकोतरे के जैसी हरी घास - वैसा ही सुघ्राण -

                       हिरणदल दाँत से उखाड़ रहे हैं!

मेरी भी इच्छा होती है इस घास के इस घ्राण को हरित मद्य की तरह

                       भर-भर गिलास पीता रहूँ,

इस घास के शरीर को छुऊँ - आँखों में मलूँ,

                       घास के डैनों पर हैं मेरे पंख,

घास के भीतर घास होकर जन्मता हूँ किसी एक निविड़ घास-माता के 

                      शरीर के सुस्वादु अंधकार से उतरकर ।


 आकाशलीना 


सुरंजना, वहाँ नहीं जाना तुम,

नहीं करना बात उस युवक से;

लौट आओ सुरंजना:

नक्षत्र की रुपाली आग भरी रात में;


लौट आओ इस मैदान में, लहरों में;

लौट आओ मेरे हृदय में ;

दूर से भी दूर - बहुत दूर

युवक के साथ तुम नहीं जाना अब ।


क्या बात करनी है उससे? - उसके साथ!

आकाश की ओट में आकाश में

हो मृत्तिका की तरह तुम आज:

उसका प्रेम घास बन जाता है।


सुरंजना,

तुम्हारा हृदय आज घास:

बतास के उस पार बतास  -

आकाश के उस पार आकाश।


 सुदर्शना 


एक दिन म्लान हँसी लिए मैं

तुम जैसी एक महिला के पास 

युगों से संचित सम्पदा में लीन होने ही वाला था 

कि अग्निपरिधि के मध्य सहसा रुककर 

सुना किन्नरों की आवाज़ देवदार के पेड़ में,

देखा अमृतसूर्य है।


सबसे अच्छे हैं आकाश, नक्षत्र, घास, गुलदाउदी की रात;

फिर भी समय स्थिर नहीं है,

एक और गभीरतर शेष रूप देखने के लिए  

देखा उसने तुम्हारा वलय ।


इस दुनिया की चिर परिचित धूप की तरह है 

तुम्हारा शरीर; तुमने दान तो नहीं किया?

समय तुम्हें सब दान कर विधुर की भाँती कहता है 

सुदर्शना, तुम आज मृत।


 बिल्ली


 पूरे दिन घूम फिरकर एक बिल्ली से केवल मेरी ही मुलाकत हुई:

पेड़ों की छाया में, धूप में, बादामी पत्तों की भीड़ में;

कहीं कुछेक टुकड़े मछली के काँटों की सफलता के बाद

फिर सफेद मिट्टी के कंकाल के भीतर

देखता हूँ कि अपने हृदय के साथ मधुमक्खी की तरह निमग्न है;

लेकिन फिर भी उसके बाद गुलमोहर की देह नाखूनों से खरोंच रही है,

पूरे दिन सूरज के पीछे पीछे चल रही है वह।

एक बार वह दिखती है,

एक बार खो जाती है कहीं।

हेमंत की संध्या जाफरान रंग के सूर्य के कोमल शरीर में

उसे अपने सफेद पंजे से छू - छू कर खेलते देखा है मैंने;

फिर अंधकार को छोटे छोटे गेंदों की तरह पंजों से पकड़ लायी वह

समस्त पृथ्वी पर फैला दिया।



तुम्हें मैं 


तुम्हें मैंने देखा था इसलिए 

तुम मेरे कमल के पत्ते हुए;

शिशिर के कणों की तरह शून्य में घूमते हुए 

मैंने सुना था कि पद्मपत्र बहुत दूर हैं 

 ढूँढ ढूँढ कर पाया अंत में उसे ।


नदी सागर कहाँ जाते हैं बहकर?

कमल के पत्तों पर जल की बूँदें बनकर 

कुछ भी नहीं जानता - नहीं दिखता कुछ भी और 

इतने दिनों बाद मिलन हुआ मेरा तुम्हारा 

कमल के पत्ते के सीने के भीतर आकर।


तुमसे प्रेम किया है मैंने, इसलिए 

डरता हूँ शिशिर होकर रहने में,

तुम्हारी गोद में जल की एक बूंद पाने के लिए 

चाहता हूँ तुममें मिल जाना 

शरीर जैसे मिलता है मन से।


जानता हूँ कि रहोगी तुम - मेरा होगा क्षय 

कमल का पत्ता सिर्फ एक जल की बूँद नहीं।

अभी है, नहीं, अभी है, नहीं- जीवन चंचल;

यह देखते ही खत्म हो जाता है कमल के पत्तों का जल

समझा मैंने तुमसे प्रेम करने के बाद।

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ঘাস


কচি লেবুপাতার মতো নরম সবুজ আলোয়

                পৃথিবী ভরে গিয়েছে এই ভোরের বেলা;

কাঁচা বাতাবির মতো সবুজ ঘাস- তেমনি সুঘ্রাণ –

                       হরিনেরা দাঁত দিয়ে ছিঁড়ে নিচ্ছে !

আমারো ইচ্ছা করে এই ঘাসের এই ঘ্রাণ হরিৎ মদের মতো 

                       গেলাসে গেলাসে পান করি,

এই ঘাসের শরীর ছানি- চোখে ঘসি,

                       ঘাসের পাখনায় আমার পালক,

ঘাসের ভিতর ঘাস হয়ে জন্মাই কোনো এক নিবিড় ঘাস-মাতার

                      শরীরের সুস্বাদু অন্ধকার থেকে নেমে ।


আকাশলীনা


সুরঞ্জনা, ঐখানে যেয়োনাকো তুমি,

বোলোনাকো কথা অই যুবকের সাথে;

ফিরে এসো সুরঞ্জনা:

নক্ষত্রের রুপালি আগুন ভরা রাতে;


ফিরে এসো এই মাঠে, ঢেউয়ে;

ফিরে এসো হৃদয়ে আমার;

দূর থেকে দূরে – আরও দূরে

যুবকের সাথে তুমি যেয়োনাকো আর।


কী কথা তাহার সাথে? – তার সাথে!

আকাশের আড়ালে আকাশে

মৃত্তিকার মতো তুমি আজ:

তার প্রেম ঘাস হয়ে আসে।


সুরঞ্জনা,

তোমার হৃদয় আজ ঘাস :

বাতাসের ওপারে বাতাস -

আকাশের ওপারে আকাশ।


সুদর্শনা


একদিন ম্লান হেসে আমি

তোমার মতন এক মহিলার কাছে

যুগের সঞ্চিত পণ্যে লীন হতে গিয়ে

অগ্নিপরিধির মাঝে সহসা দাঁড়িয়ে

শুনেছি কিন্নরকন্ঠ দেবদারু গাছে,

দেখেছ অমৃতসূর্য আছে।


সবচেয়ে আকাশ নক্ষত্র ঘাস চন্দ্রমল্লিকার রাত্রি ভালো;

তবুও সময় স্থির নয়,

আরেক গভীরতর শেষ রূপ চেয়ে

দেখেছে সে তোমার বলয়।


এই পৃথিবীর ভালো পরিচিত রোদের মতন

তোমার শরীর; তুমি দান করোনি তো;

সময় তোমাকে সব দান করে মৃতদার বলে

সুদর্শনা, তুমি আজ মৃত।


 বেড়াল


সারাদিন একটা বেড়ালের সঙ্গে ঘুরে ফিরে কেবলি আমার দেখা হয়:

গাছের ছায়ায়, রোদের ভিতরে, বাদামি পাতার ভিড়ে;

কোথাও কয়েক টুকরো মাছের কাঁটার সফলতার পর

তারপর সাদা মাটির কঙ্কালের ভিতর

নিজের হৃদয়কে নিয়ে মৌমাছির মতো নিমগ্ন হয়ে আছে দেখি;

কিন্তু তবুও তারপর কৃষ্ণচূড়ার গায়ে নখ আঁচড়াচ্ছে,

সারাদিন সূর্যের পিছনে পিছনে চলেছে সে।

একবার তাকে দেখা যায়,

একবার হারিয়ে যায় কোথায়।

হেমন্তের সন্ধ্যায় জাফরান-রঙের সূর্যের নরম শরীরে

শাদা থাবা বুলিয়ে বুলিয়ে খেলা করতে দেখলাম তাকে;

তারপর অন্ধকারকে ছোট ছোট বলের মতো থাবা দিয়ে লুফে আনল সে

সমন্ত পৃথিবীর ভিতর ছড়িয়ে দিল।


 তোমায় আমি


তোমায় আমি দেখেছিলাম ব’লে

তুমি আমার পদ্মপাতা হলে;

শিশির কণার মতন শূন্যে ঘুরে

শুনেছিলাম পদ্মপত্র আছে অনেক দূরে

খুঁজে খুঁজে পেলাম তাকে শেষে।


নদী সাগর কোথায় চলে ব’য়ে

পদ্মপাতায় জলের বিন্দু হ’য়ে

জানি না কিছু-দেখি না কিছু আর

এতদিনে মিল হয়েছে তোমার আমার

পদ্মপাতার বুকের ভিতর এসে।


তোমায় ভালোবেসেছি আমি, তাই

শিশির হয়ে থাকতে যে ভয় পাই,

তোমার কোলে জলের বিন্দু পেতে

চাই যে তোমার মধ্যে মিশে যেতে

শরীর যেমন মনের সঙ্গে মেশে।


জানি আমি তুমি রবে-আমার হবে ক্ষয়

পদ্মপাতা একটি শুধু জলের বিন্দু নয়।

এই আছে, নেই-এই আছে নেই-জীবন চঞ্চল;

তা তাকাতেই ফুরিয়ে যায় রে পদ্মপাতার জল

বুঝেছি আমি তোমায় ভালোবেসে।

फ़कीर लालन शाह

१. कहते हैं सब लालन फकीर हिंदू हैं या यवन


कहते हैं सब लालन फकीर हिंदू है या यवन,

क्या कहूं अपना मैं नहीं जानता संधान ।।


एक ही घाट पर आना जाना, एक माँझी खे रहा,

कोई नहीं खाता किसी का छुआ, अलग जल का कौन करता है पान।।


वेद पुराणों में सुनते हैं, हिन्दू के हरि हैं यवन के साईं,

फिर भी मैं समझ नहीं पाता, दो रूपों में सृष्टि के क्या हैं प्रमाण।।


नहीं है मुसलमानी, नहीं है जिसके पास जनेऊ वह भी तो है ब्राह्मणी,

समझो रे भाई दिव्य ज्ञानी, है लालन भी वैसा ही जात एक जन।।


*मुसलमानी = खतना 


२. सत्य काम में कोई नहीं राज़ी 


सत्य काम में कोई नहीं राज़ी 

देखता हूँ सब कुछ ही ता ना ना ना ।

जात गया जात गया कहकर 

यह क्या अजब पागलपना 

जात गया जात गया कहकर 

यह क्या अजब पागलपना

जात गया जात गया कहकर 

जब तुम आये थे तो जाति क्या थी तुम्हारी?

आकर तुमने कौन सी जाति अपनाई?

जब तुम आये थे तो जाति क्या थी तुम्हारी?

आकर तुमने कौन सी जाति अपनाई?

जाते समय किस जाति के रहोगे?

जाते समय किस जाति के रहोगे?

वह बात सोचकर कहो ना ।

जात गया जात गया कहकर 

यह क्या अजब पागलपना 

जात गया जात गया कहकर 

ब्राह्मण चंडाल चमार मोची 

एक ही जल से सब होते हैं शुचि 

ब्राह्मण चंडाल चमार मोची 

एक ही जल से सब होते हैं शुचि 

देख-सुनकर नहीं होती रूचि 

देख-सुनकर नहीं होती रूचि 

यम तो किसी को भी नहीं छोड़ेगा।

जात गया जात गया कहकर 

यह क्या अजब पागलपना 

जात गया जात गया कहकर 

चुपके से जो खाता है वेश्या का भात 

उससे धर्म की क्या क्षति होती है

चुपके से जो खाता है वेश्या का भात 

उससे धर्म की क्या क्षति होती है

लालन कहे जात किसे कहते हैं

लालन कहे जात किसे कहते हैं

वह भ्रम तो नहीं गया ...

जात गया जात गया कहकर 

यह क्या अजब पागलपना 

जात गया जात गया कहकर

सत्य काम में कोई नहीं राज़ी 

सत्य काम में कोई नहीं राज़ी 

देखता हूँ सब कुछ ही ता ना ना ना ।

जात गया जात गया कहकर 

यह क्या अजब पागलपना 

जात गया जात गया कहकर 

यह क्या अजब पागलपना

जात गया जात गया कहकर 

पैदा होने का भाव


३. मैंने एकदिन भी नहीं देखा उसे 


घर के पास है आरसी नगर

वहाँ एक पड़ोसी रहता है 

मैंने एकदिन भी नहीं देखा उसे 


गाँव भर अगाध पानी 

न है किनारा, न है तरणी किनारे 

इच्छा होती है कि देखूँ उसे 

कैसे वहाँ जाऊं रे ?


क्या कहूँ पड़ोसी के बारे में

हस्त पद स्कंध माथा नहीं है 

क्षण भर तैरता है शून्य के ऊपर 

क्षण भर बहता है नीर में 

 

पड़ोसी यदि मुझे छूता 

यम यातना सब दूर हो जाते 

वह और लालन एक साथ रहते हैं 

लाख योजन फाँक रे //


*तरणी = नौका, फाँक = दूरी 


४. मैं अपार होकर बैठा हूँ 


मैं अपार होकर बैठा हूँ 

हे दयामय,

उस पार ले जाओ मुझे ।।

मैं अकेला रह गया घाट पर  

भानु बैठ गया नदी के पाट पर 

(मैं) तुम्हारे बिन हूँ घोर संकट में

नहीं दिख रहा है उपाय ।

नहीं है मेरे पास भजन-साधन 

चिरदिन कुपथ की ओर गमन 

नाम सुना है पतित-पावन  

इसलिए देता हूँ दुहाई ।

अगति को यदि नहीं दी गति

इस नाम की रह जायेगी अख्याति 

लालन कहे, अकुलपति

कौन कहेगा तुम्हें ।।


*अगति=दुर्गति/दुर्दशा, भानु = सूर्य 


५. मिलन होगा कितने दिनों बाद 


मिलन होगा कितने दिनों बाद 

अपने मन के मानुष के साथ ।।

चातक प्रायः अहर्निशी

देखता है काला शशि 

होने को चरण-दासी,

ऐसा होता नहीं है भाग्य गुण से ।।

जैसे मेघ का विद्युत मेघ में ही  

छुप जाने से नहीं हो पाता अन्वेषण,

काले (ईश्वर/कृष्ण) को खोकर वैसे ही 

इस रूप को ढूँढता हूँ दर्पण में ।।

जब उस रूप का स्मरण होता है,

नहीं रहता है लोक-लज्जा का भय 

लालन फकीर सोचकर कहता है हमेशा ही 

(यह) प्रेम जो करता है वह जानता है ।।


६. तुम्हारे घर में रहते हैं 


तुम्हारे घर में वास करते हैं कौन तुम्हें नहीं पता ओ मन

तुम्हारे घर में रहते हैं कितने जन, तुम्हें नहीं पता मन

तुम्हारे घर में रहते हैं कितने जन |


एक जन आँकता है छवि होकर एकाग्र, ओ मन

दूसरा जन बैठकर लगा रहा होता है रंग,

फिर उस छवि को करता है नष्ट 

कौन जन, कौन जन 

तुम्हारे घर में रहते हैं कितने जन |


एक जन छेड़ता है राग इकतारे पर, ओ मन

दूसरा जन झाल पर देता है ताल,

फिर बेसुरे राग में गाता है देखो

कौन जन, कौन जन 

तुम्हारे घर में रहते हैं कितने जन |


रस पीकर होकर माताल, यह देखो

हाथों से फिसल जाती है घोड़े की लगाम,

उस लगाम को पकड़ता है देखो

कौन जन, कौन जन 

तुम्हारे घर में रहते हैं कितने जन |


७. विदेशी के संग कोई प्रेम ना करना


पहले भाव जानकर प्रेम करना  

अन्यथा अंत में मिलेगी यंत्रणा

विदेशी के संग कोई प्रेम ना करना ||


विदेशी के भाव में भाव मिलाने से 

भाव में भाव कभी नहीं मिलेगा

पथ के मध्य में लक्ष्य निर्धारित करने से 

किसी के साथ कोई नहीं जाएगा ||


देश का देशी यदि हुआ वह 

उसे पाया जा सकता है समय-असमय,

विदेशी होता है वह जंगली तोता 

जो कभी पोस नहीं मानता ||


नलिनी और सूर्य का प्रेम है जैसा 

उसी तरह प्रेम करना रसिक सुजान,

लालन कहे पहले धोखा खाकर 

बाद में रोने से कुछ नहीं मिलेगा ||

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 ফকির লালন শাহ


1. সবে বলে লালন ফকির হিন্দু কি যবন

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সবে বলে লালন ফকির হিন্দু কি যবন,

  কি বলিব আমার আমি না জানি সন্ধান।।


একই ঘাটে আসা যাওয়া,এক পাটনী দিচ্ছে খেওয়া,

  কেউ খায়না কারো ছোঁয়া,বিভিন্ন জল কেবা পান।।


বেদ পুরানে শুনিতে পাই,হিন্দুর হরি যবনের সাঁই,

  তাওত আমি বুঝতে নারি,দুই রূপ সৃষ্টি কি প্রমাণ।।বিবিদের


নাই মুসলমানী,পৈতা যার নাই সেওত বাওনী,

  বোঝরে ভাই দিব্য জ্ঞানী,লালন তমনি জাতএক জনা।।


২. সত্য কাজে কেউ নয় রাজি

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সত্য কাজে কেউ নয় রাজি

সবই দেখি তা না না না….

জাত গেল জাত গেল বলে

একি আজব কারখানা

জাত গেল জাত গেল বলে

একি আজব কারখানা

জাত গেল জাত গেল বলে

আসবার কালে কি জাত ছিলে

এসে তুমি কি জাত নিলে

আসবার কালে কি জাত ছিলে

এসে তুমি কি জাত নিলে

কি জাত হবে যাবার কালে

কি জাত হবে যাবার কালে

সে কথা ভেবে বলো না…

জাত গেল জাত গেল বলে

একি আজব কারখানা

জাত গেল জাত গেল বলে

ব্রাহ্মণ চন্ডাল চামার মুচি

এক জলে সব হয় গো সুচি

ব্রাহ্মণ চন্ডাল চামার মুচি

এক জলে সব হয় গো সুচি

দেখে শুনে হয় না রুচি

দেখে শুনে হয় না রুচি

যমে তো কাউকে ছাড়বে না…

জাত গেল জাত গেল বলে

একি আজব কারখানা

জাত গেল জাত গেল বলে

গোপনে যে বেশ্যার ভাত খায়

তাতে ধর্মের কি ক্ষতি হয়

গোপনে যে বেশ্যার ভাত খায়

তাতে ধর্মের কি ক্ষতি হয়

লালন বলে জাত কারে কয়

লালন বলে জাত কারে কয়

সে ভ্রম তো গেল না…

জাত গেল জাত গেল বলে

একি আজব কারখানা

জাত গেল জাত গেল বলে

সত্য কাজে কেউ নয় রাজি

সত্য কাজে কেউ নয় রাজি

সবই দেখি তা না না না….

জাত গেল জাত গেল বলে

একি আজব কারখানা

জাত গেল জাত গেল বলে

একি আজব কারখানা

জাত গেল জাত গেল বলে


৩. আমি একদিনও না দেখিলাম তারে


বাড়ির পাশে আড়শি নগর

সেথায় এক পড়শি বসত করে

আমি একদিন ও না দেখিলাম তারে


গেরাম বেড়ে অগাধ পানি

নাই কিনারা নাই তরণী পারে

বান্ছা করি দেখব তারে

কেমনে সেথায় যাইরে


কি বলব পড়শির ও কথা

হস্থ পদ স্কন্ধ মাথা নাইরে

ক্ষনিক ভাসে শূন্যের উপর

ক্ষনিক ভাসে নীরে

 


পড়শি যদি আমায় ছুতো

যম যাতনা সকল যেত দূরে

সে আর লালন একখানে রয়

লক্ষ যোজন ফাক রে//


4. আমি অপার হয়ে বসে আছি


আমি অপার হয়ে বসে আছি

ও হে দয়াময়,

পারে লয়ে যাও আমায়।।

আমি একা রইলাম ঘাটে

ভানু সে বসিল পাটে-

(আমি) তোমা বিনে ঘোর সংকটে

না দেখি উপায়।।

নাই আমার ভজন-সাধন

চিরদিন কুপথে গমন-

নাম শুনেছি পতিত-পাবন

তাইতে দিই দোহাই।।

অগতির না দিলে গতি

ঐ নামে রবে অখ্যাতি-

লালন কয়, অকুলের পতি

কে বলবে তোমায়।।


5. মিলন হবে কত দিনে


মিলন হবে কত দিনে

আমার মনের মানুষের সনে।।

চাতক প্রায় অহর্নিশি

চেয়ে আছি কালো শশী

হব বলে চরণ-দাসী,

ও তা হয় না কপাল-গুণে।।

মেঘের বিদ্যুৎ মেঘেই যেমন

লুকালে না পাই অন্বেষণ,

কালারে হারায়ে তেমন

ঐ রূপ হেরি এ দর্পণে।।

যখন ও-রূপ স্মরণ হয়,

থাকে না লোক-লজ্জার ভয়-

লালন ফকির ভেবে বলে সদাই

(ঐ) প্রেম যে করে সে জানে।।


6.  তোমার ঘরে বসত করে


তোমার ঘরে বাস করে কারা ও মন জান না,

তোমার ঘরে বসত করে কয় জনা, মন জান না

তোমার ঘরে বসত করে কয় জনা।


এক জনায় ছবি আঁকে এক মনে, ও রে মন

আরেক জনায় বসে বসে রঙ মাখে,

ও আবার সেই ছবিখান নষ্ট করে

কোন জনা,কোন জনা

তোমার ঘরে বসত করে কয় জনা।


এক জনে সুর তোলে এক তারে, ও মন

আরেক জন মন্দিরাতে তাল তোলে,

ও আবার বেসুরা সুর ধরে দেখো

কোন জনা, কোন জনা

তোমর ঘরে বসত করে কয় জনা।


রস খাইয়া হইয়া মাতাল, ঐ দেখো

হাত ফসকে যায় ঘোড়ার লাগাম,

সেই লাগাম খানা ধরে দেখো

কোন জনা, কোন জনা

তোমার ঘরে বসত করে কয় জনা।


7.  বিদেশীর সঙ্গে কেউ প্রেম করো না।


বিদেশীর সঙ্গে কেউ প্রেম করো না।

আগে ভাব জেনে প্রেম করো

যাতে ঘুচবে মনের বেদনা।।

ভাব দিলে বিদেশীর ভাবে

ভাবে ভাব কভু না মিশিবে।

পথের মাঝে গোল বাঁধিলে

কারো সাথে কেউ যাবে না।।

দেশের দেশী যদি সে হয়

মনে করে তারে পাওয়া যায়।

বিদেশী ঐ জংলা টিয়ে

কখনো পোষ মানে না।।

নলিনী আর সূর্যের প্রেম যেমন

সেই প্রেমের ভাব লও রসিক সুজন।

অধীন লালন বলে, ঠকলে আগে

কাঁদলে শেষে সারবে না।।

Sunday, October 18, 2020

दुर्गा

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1. 

खोल दिए आश्विन ने अपने उदार कपाट 

तन गया माथे के उपर शरद का आकाश, 

पाँव के नीचे शिशिर से चमकती है घास

शिउली की सुगंध लिए तैर रही बतास 

शुभ्र मेघों के नीचे खिल उठा धवल कास 


अनामंत्रित ही आ धमकी है महामारी 

पृथ्वीवासियों की चिंता में घुल रहा है चाँद 

मद्धिम हो चला रात्रि का अंधकार 

कि तभी दूरदर्शन पर आता है समाचार 

जगने ही वाली हैं देवी योगनिद्रा से 

लोगों के मध्य उमग उठता है उल्लास |




2.


कुमारटुली में जमा कर ली गई है मिट्टी 

जो कुछ रोज़ पहले तक थी पाँव के नीचे 

और फिर रौंदी गई कई - कई बार 

ढाली जा रही है अब एक अलौकिक देह में 

जब होगा चक्षु दान और प्रतिष्ठित प्राण 

देवी कहकर पुकारेंगे उसे मृत्तिका संतान 



उत्सव के बाद क्या होगा देवी का 

वो मिलेगी जल में, नदी के तल में 

समुद्र उसे कर देगा नेस्तानाबूद 

क्या पूछा - "तो फिर कहाँ मिलेगी देवी?"

ज़रा गौर से देखिये अपने पाँव के नीचे की ज़मीं 

वहीं दबी पड़ी मिलेगी कोई मृत्तिका देवी !





3. 


वह आ रही है मंगलध्वनि के साथ 

होकर घोड़े पर सवार लोकालय में 

दुर्गा की आगमनी वार्ता के लिए 

चल रही है तैयारी अंतिम समय की 

कहीं रह न जाए कमी किसी चीज की

व्यस्त है मंडप का प्रत्येक मानुष इस वास्ते 

निद्रित है दक्षिणायन देवी अकाल बोधन के मध्य

की जाएगी संधि पूजा देर शाम के बाद 

कि खुल जाए देवी की तन्द्रा से चूर स्निग्ध आँखें 

पधारेंगी शक्ति की देवी षष्ठी के शुभ मुहूर्त में 

करने महिषासुर का वध, विराजेंगी मंडप में 

तीर-धनुष, गदा-चक्र, खड्ग-कृपाण, पद्म -त्रिशूल

घंटा और वज्र धारण कर त्रिनयनी दशभुजा 

करेगी जागरण, उत्सव के समाप्त होने तक |



4.


जल दर्पण ही चुना अपने विसर्जन के लिए सुलोचना ने

कि महामाया स्वयं भी भर-भर जाती है माया से हर बार 

जल में घुलकर पुनः मृत्तिका बन जाने से पहले 

देखती है अपना अलौकिक सौन्दर्य जल की आरसी में 

और करती है अचरज कि माया से भरे इस संसार में 

माया नहीं जकड़ती किसी को उसकी सुंदर प्रतिमा को 

जल में विसर्जित करने के पहले? अवसाद नहीं घेरता?

क्या उसके साथ ही बहा देते हैं लोग अपना शोक भी जल में?

देखते हैं वे किसका प्रतिबिम्ब जल दर्पण में प्रतिमा विसर्जित करते हुए?


शांत रहता है दशमी का चाँद कि वह है गवाह कई युगों से 

मनुष्य को अपने समस्त भय विसर्जित करते देखने का 

सदियों से शक्ति के ही मार्ग से, जीतते भय को उल्लास से|




5.


चला जा रहा है मनुष्यों का दल 

ढाक की थाप पर नाचते हुए 

"बोलो दुर्गा माय की जय " के उद्घोघ के साथ 


हो उठी है कातर देवी पित्रालय से जाते हुए 

धुप-दीप संग जल रहा है देवी का ह्रदय भी 

चेहरा ज़र्द है खोयछे में दिए गए हल्दी की भाँती  


है कौन सी शक्ति जो रोक लेती है शक्ति की अभिलाषा 

यही सोचते हुए डूबती चली जाती त्रिपुरसुन्दरी जल में 

पहले घुलता है जल में काजल, फिर लावण्य

घुल सके दुःख ऐसा जल कहाँ पाया जाता है पृथ्वी में !


होती है प्रतीति विसर्जित होकर 

कि विसर्जन के मूल में है पूजा 

और दुःख अकाल बोधन के  


पर अनुत्तरित ही रह जाता है वह प्रश्न 

कि त्यागता है कौन किसे 

देवी को मनुष्य या मनुष्य को देवी 

किसका प्रतिबिम्ब देखता है मनुष्य 

विसर्जित करते हुए उस प्रतिमा में !



6. 

जब जागी थी देवी योगनिद्रा से 

कर नदी में स्नान, पाँव में लगाया था आलता 

कर रहे थे श्रृंगार मुक्त केशों का नदी के जलबिंदु 

बतास में घुली थी एक नूतन गंध 

आँखों में डाल अंजन, माथे पर लगाकर कुमकुम

चढने लगी थीं सीढियां मंदिर की 


कुल पाँच सीढ़ी चढ़ उतर आई थीं उलटे पाँव 

लिए मंद मुस्कान अधरों पर 

लिखा था प्रवेश द्वार पर मंदिर के 

"रजस्वला स्त्रियों का प्रवेश वर्जित है"


जिसे तुम खड्ग कहते हो 

वह प्रश्न चिन्ह है देवी का 

कि है वह कौन जो रहती है 

मंदिर के अंतरमहल में 

फिर भी रह जाती है अपरिचित ही 

करते हो किसे तुम समर्पित फिर 

यह क्षुद्र देह्कोष और रक्तबिंदु 

देवी क्या केवल पाषाण की एक मूरत भर है ??



7.

सबसे अच्छी पत्नियाँ किसी बात का बुरा नहीं मानती थीं

सबसे अच्छी प्रेमिकाएँ नहीं करती थीं कोई भी गिला शिकवा 

सबसे अच्छी माएँ अपने हिस्से का खाना भी खिला देती थीं बच्चों को

सबसे अच्छी बहनें नहीं बताती थीं भाई से दुखती रग की व्यथा

"कैसी हो" पूछने पर मुस्कुरा देती थीं सबसे अच्छी सखियाँ


भाव का अभाव गढ़ता रहता था देवियों की नित्य नयी प्रतिमा!


8.

जो सामने थी 

औरत थी, कुलटा थी, रंडी थी 

जिसको देखा ही नहीं 

देवी थी, दयामयी थी, चंडी थी |