Monday, December 30, 2013

झुनिया


नही कर पाई झुनिया विस्मृत ह्रदय अनुराग
फिर रही है लिए निज उर में विकल वैराग
मुरझा गया फूलों सा सुवासित मन का बाग
नही गूंजती पंचम सुर में कोयल की वहाँ राग


नही करते रुनझुन पाजेब के घुँगरू
उसके धूल धूसरित थके पाँव में अब
महुआ की मादकता लिए लकदक यौवन
अप्रतिम सोंदर्य स्वामिनी बिसार चली सब


पहाड़ियों पर चलते टटोलती क्या है अधिक कठोर
पथरीली ज़मीन की सतह, या उसका हृदय प्रांगण
वितृष्णा कुछ इस प्रकार घर कर गयी उसके मन
त्याग समस्त संसार करे वो अनुसरण बीहड़ वन


सुधि आई उसे अबके मकर संक्रांति
तातलोई के गुनगुने जल में नहा आए
सुना है उष्ण पानी से कम होती है पीड़ा
निज चितवन का बोझ पवित्र जल में बहा आए


सोचती है फिर जख्म नासूर ना हो जाए
फिर कोई भूल उससे दुबारा ना हो जाए
आँखों में इक अरसे से रुके हुए अश्रुधार से
मीठे जल का स्रोत कँहि खारा ना हो जाए


सुलोचना वर्मा

Sunday, December 29, 2013

गुड़िया

हर तरफ से थी आई खुशियों भरी बधाई
पहनाकर अंगूठी साथ रहने की कसमे खाई
पिता ने जब वर के माथे पर तिलक लगाई
कुछ इस प्रकार संपन्न हुई गुड़िया की सगाई


शादी में अब बस कुछ ही समय बचा था
किसे पता था विधि ने कुछ और ही रचा था
पसंद करने लगा था वर राम गुड़िया को
और गुड़िया को भी वह कुछ ज़्यादा ही जँचा था


तय किया राम ने, गुड़िया आगे नही पढ़ेगी
उसके जैसे कामयाबी की सीढ़ियाँ नही चढ़ेगी
उसकी देहरी तक ही रहेगी, आगे नही बढ़ेगी
तिनका तिनका अपना जीवन, उसके अरमानो से गढ़ेगी


मान लिया था गुड़िया ने राम की ये चाह
उसको भी तो राम से करना था जो व्याह
पर टूट गया रिश्ता, अनगिनत माँगों की राह
दिल में दर्द उबल रहा, और लबों पर आह


सोच रही किस विषाक्त जलराशि में
घुल गयी उसके अरमानो की पुड़िया
कभी इस हाथ की, कभी उस हाथ की
बनी रह गयी वो केवल एक गुड़िया


टूटे हुए रिश्ते के व्रण से निजात पाने
गुड़िया आज गंगा में नहा आई है
बचपन से संभाल कर रखी हुई गुड़िया
गंगा के ही जल में बहा आई है


नही समझी कब गुडियों से खेलते हुए
वो सचमुच की गुड़िया थी बन गयी
चल पड़ी है आज एक नयी दिशा में
बीते हुए कल से जैसे उसकी ठन गयी


सुलोचना वर्मा

Friday, December 20, 2013

औरतें


औरतें अन्नपूर्णा सी लगती हैं
देहात के भंसा घरों से लेकर
शहरों के किचन तक


सीता की साक्षात प्रतिमा हैं
तुलसी पर जलाती दीया बाती से लेकर
सत्संग के प्रवचन तक


आती है नज़र पार्वती का स्वरूप
पितृ गृह त्याग से लेकर
विवाह के वचन तक


कहलाती है उन्मादी
चाँद पर जाने की सोच से लेकर
दूरदर्शिता के मंचन तक


करार दी जाती है अहंकारी
अपने पैरों पर खड़ा होने से लेकर
भविष्य के रचन तक


बन जाती है चरित्रहीन
स्वेक्षा से किसी को समर्पित होने से लेकर
सख़ाओं के सचन तक

सुलोचना वर्मा

Thursday, December 19, 2013

ख्वाब


कहती है बिटिया, माँ, चलो ख्वाब ख्वाब खेलें
आसमान की रेड़ी से हम वो माहताब ले लें
सुनहरी परियों से कहानी की किताब ले लें
बर्फ़ीली पहाड़ी के पीछे से, आफताब ठेलें
कहती है बिटिया, माँ, चलो ख्वाब ख्वाब खेलें


अनजानी है वो दुनिया, कौन कैसे वहम पाले
बंद कर आँखों को, पलकों का नक़ाब डालें
अगर चले पैदल तो, पैरों में पड़ जाएँगे छाले
अपने ख़याली घोड़े पर पहले  हम रकाब डालें
कहती है बिटिया, माँ, चलो ख्वाब ख्वाब खेलें


ये ख्वाब है, क्यूँ बंदिशो की इसमे हम अज़ाब डालें
चलो आरज़ू के बीज पर आज  हौसले का आब डालें
उतर कर लोगों के दिल में हम उनका पयाब पा लें
और ज़िंदगी की तिश्नगि पर ख्वाबों का चनाब डालें
कहती है बिटिया माँ, चलो ख्वाब ख्वाब खेलें


सुलोचना वर्मा

Wednesday, December 18, 2013

नया रिश्ता

हर एक शख्श आपसे जुड़ा नही होता
फिर भी हर कोई तो बुरा नही होता
मिल लेती हूँ हर किसी से हँस के की
चंद लोगों से ही महफ़िल पूरा नही होता
हर रिश्ता जीवन में कुछ नया लाया है
ना सोचो की समय किया मुफ़्त में जाया है
उधर दामिनी को गुज़रे बरस बीत आया है
आज इसी जहाँ में मैने मानस पिता पाया है

सुलोचना वर्मा

Tuesday, December 17, 2013

कलुआ

सुनो कलुआ, क्यूँ लज्जित हो
क्यूँ हीनता की भावना घेरी है तुम्हे
क्या हुआ जो श्यामल रंगत है तुम्हारी
बन जाओ स्याही, लिखो अपनी किस्मत
धर लो मुरली, बन जाओ कृष्ण
गाकर राग खमाज, चहु ओर प्रेम फैलाओ
या बनके आषाढ़ का मेघ
बिखेर दो अपनी रंगत आसमान में
फिर टूट के बरसो धरती पर
हरित क्रांति तुम लाओ
लेकर रूप धरणीधर का, तुम प्रहरी बन जाओ
हिमाच्छादित करके निज को, शीतल संतोष पाओ
या बनकर कोयला करो साधना सदियों तक
बनो ओजस्वी स्वयं के हीरे में परिवर्तित होने तक
ना सकुचित हो कलुआ कि तुम में ओज है
और  काले रंग में समाहित है विश्व का हर रंग


सुलोचना वर्मा

Monday, December 16, 2013

नारी

नारी- जो अंतरिक्ष हो आई है
और रखती है व्रत सोलह सोमवार का
कभी छोटे बाल लिए जाती है दफ़्तर में
कभी गोबर की थाप से मांडती है गोयठा
कहीं भावनाओं की तुलिका से उकेरती हैं जीवन
कहीं घंटो घर बैठकर बनाती है वो जुड़ा
कभी आती है किसी प्रतियोगिता में अव्वल
कभी घर घर जाकर वो चुनती है कूड़ा
दौड़ती है बच्चे के पीछे खिलाने को आख़िरी निवाला
चिकित्सालय में बैठ कभी मापती है रक्त चाप
नही रोक पाती है खुशी में अपने टेशु
फिर थिरकती है जब पड़ते हैं तबले पर थाप
कहीं आधुनिका, तो कहीं धर्म की आस्था है नारी
कभी ग़रीबी का संकोच, तो कभी अमीरी का जश्न है नारी
आजीविका का कहीं हूनर, तो कहीं बौधिक्ता का स्तर है नारी
अनेक रूप हैं तुम्हारे, और तुम हर रूप में संपूर्ण हो नारी


सुलोचना वर्मा

Sunday, December 15, 2013

सभ्यता

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अहिल्या का शीलहरण सतयुग में हुआ
देवराज इन्द्र की ऐसी क्या लाचारी थी
सीता का अपहरण और फिर अग्नि परीक्षा
उस युग में भी सभ्यता नारी पर भारी थी


सतयुग की अहिल्या, त्रेता की सीता
द्वापर में देवकी पर कंस की पहरेदारी थी
देने को बढ़ावा इन प्रथाओं को कलियुग में
नारी को लगी शोषण की बीमारी थी


क्यूँ करें दोषारोपण पश्चिमी सभ्यता को
उन्हे कहाँ इतनी विविध जानकारी थी
विष कन्या हो, या वैशाली की नगर वधू
इतनी गौरवमयी विरासत तो हमारी थी


खजुराहो के मध्यकालीन मंदिरों में उकेरा
संभोग की विभिन्न कलाओं की चित्रकारी थी
भारतीय वस्तुकला के उस प्राचीन दौर में भी
विश्व की सर्वश्रेष्ठ व मनोरंजक वस्तु नारी थी


सुलोचना वर्मा
 

 

Saturday, December 14, 2013

शिला

कलकल बहती चंचल सरिता
जा मिली समंदर के फेनिल जल में
नही अंगीभूत कर पाई खारे पानी का स्वाद
और उसे विस्मृत हुआ बलखाना
क्यूँ जाते हो उस तट पर पथिक
मुख पर प्रश्नचिन्ह लिए निशिदिन
क्यूँ भ्रमित हो सागर के मौन व्रत पर
और प्रवाहित करते हो आशा लिए
अपनी संवेदनाओं का शिलाखंड
तो करो ! कभी ना समाप्त होनेवाली प्रतीक्षा
और निरंतर अपेक्षा करो उसी तट पर
स्वयं के शिला में परिवर्तित होने तक
तुम्हारी शिला ले लेगी आश्रय
उसी विषाक्त जलराशि में
और रत्नाकर बना लेगा सेतु
उन शिलाखंडों को जोड़कर
जिसकी तुम नीव बनोगे
या फिर पयोधि का  चक्रवात
फेंक देगा तुम्हारी शिला को कँहि दूर
और उठा ले जाएगा कोई तुम्हे देव स्वरूप मान
स्थापित करेगा तुम्हे मंदिर में
होगा नित्य जलाभिषेक तुम्हारा
और तुम पाषान सा मूक होकर
मान लोगे इसे नियति की दशा


सुलोचना वर्मा

Thursday, December 12, 2013

दरबान

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घुमाने पालतू कुत्ते को मैडम जी बाहर आई
गले में घंटी कुत्ते के, पीठ पर ऊनी रज़ाई
गली में घूमते आवारा कुत्तों पर आपत्ति जतलाई
देख ना पाई उनको लावारिश, पीठ उनकी सहलाई

दरबान से पुछा, क्या आज इन कुत्तों ने कुछ है खाया
मिला उत्तर "ड्यूटी मेरी रात की है, सो देख नही मैं पाया"
चिल्लाया, सोसायटी के सभी लोगों को क्या कुछ नही सुनाया
बूढ़े उस दरबान के सामने मानवता का गीत गुनगुनाया

दरबान की बूढ़ी हड्डियाँ ठंड में काँप रही थी
किसी आती हुई विपत्ति को दूर से ही भाँप रही थी
उधर दरबान के सूपरवाइज़र की आँखें परिस्थिति को माप रही थी
एक मैडम थी कि कुत्तों के ही नाम की माला जाप रही थी

देखकर कुत्तों को ज़मीन पर लोटता मैडम जी बौखलाई
कहा दरबान से ज़रा इधर ही  खड़े रहना  तुम भाई
खुश हुआ जो देखा मैडम कंबल लेकर आई
सोचा आख़िर इस बुढ्ढे पर मैडम को दया है आई

देकर लाख दुआएं दिल से कहा धन्य हो माई
कहा मैडम ने देखो मैं ये कुत्तों के लिए हूँ लाई
इतना कहकर मैडम ने वो कंबल वहीं बिछायी 
ये देखते ही बूढ़े दरबान की आँखें डबडबायी

कहा मैडम ने देखो तुम ये कंबल बिछाना रोज़
सुबह शाम मैं खुद ही आकर दूँगी इनको भोज
देखकर दरबान कुत्तों को मिलता इतना सुंदर डोज़
सोच रहा था बेचारा क्या ले दूसरी नौकरी खोज

कहा हम जैसों से इन अमीरों का कोई वास्ता नही
मेहनत के अलावे और कोई शायद रास्ता नही
खाने में सैंडविच, बर्गर, नूडल और पास्ता नही
सुखी रोटी रात में और सुबह को नाश्ता नही

बूढ़े दरबान ने खुद को निहारा
ज़िस्म पर कंपनी की वर्दी और
पाँव में फटा हुआ काला जूता है
देखा आसमान की तरफ उसने
कहा, क्यूँ बनाया मुझे इंसान
मुझसे भाग्यवान तो ये कुत्ता है

Saturday, December 7, 2013

दिनकर

मेरी निशि की दीपशिखा
कुछ इस प्रकार प्रतीक्षारत है
दिनकर की एक दृष्टि की
ज्यूँ बाँस पर टँगे हुए दीपक
तकते हैं आकाश को
पंचगंगा की घाट पर


जानती हूँ भस्म कर देगी
वो प्रथम दृष्टि भास्कर की
जब होगा प्रभात का आगमन

स्निग्ध सोंदर्य  के साथ
शंखनाद होगा और घंटियाँ बज उठेंगी
मन मंदिर के कपाट पर


मद्धिम सी स्वर-लहरियां करेंगी आह्लादित प्राण
कर विसर्जित निज उर को प्रेम-धारा में
पंचतत्व में विलीन हो जाएगी बाती
और मेरा अस्ताचलगामी सूरज
क्रमशः अस्त होगा
यामिनी के ललाट पर


 सुलोचना वर्मा

Friday, December 6, 2013

निशि आभा

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मैं निशि की चंचल
सरिता का प्रवाह
मेरे अघोड़ तप की माया
यदि प्रतीत होती है
किसी रुदाली को शशि की आभा
तो स्वीकार है मुझे ये संपर्क
जाओ पथिक, मार्ग प्रशस्त तुम्हारा
और तजकर राग विहाग
राग खमाज तुम गाओ
मैं मार्गदर्शक तुम्हारी
तुम्हारे जीवन
की भोर होने तक


----------सुलोचना वर्मा-------------

Thursday, December 5, 2013

चन्द्र

ये सर्व वीदित है चन्द्र
किस प्रकार लील लिया है
तुम्हारी अपरिमित आभा ने
भूतल के अंधकार को
क्यूँ प्रतीक्षारत हो
रात्रि के यायावर के प्रतिपुष्टि की
वो उनका सत्य है
यामिनी का आत्मसमर्पण
करता है तुम्हारे विजय की घोषणा
पाषाण-पथिक की ज्योत्सना अमर रहे
 युगों से  इंगित कर रही है
इला की सुकुमार सुलोचना
नही अधिकार चंद्रकिरण को
करे शशांक की आलोचना


सुलोचना वर्मा