Friday, January 31, 2014

आशा

तुम इला की सुलोचना बन
सहस्त्र युगों में कभी कभार
बनकर आती हो नारी सम्मान की आशा
जैसे मिलता है समुद्र सीपियों को, मोतियों को


जब करती हो समुद्र मंथन,
पी लेती हो सांसारिक हलाहल
उजागर करती हो इस संसार के
युगों से पाले अंधविश्वासों को, कुरीतियों को


फिर दहक उठती हो तुम
बनकर पलाश का फूल
जब किसी की प्रथम प्रतिश्रुति पर
जीती हो विषमताओं को, परिस्थितियों को


कभी बन जाती हो शंख ध्वनि
करती हो नाद जीवन के कुरुक्षेत्र में
उकेरती हो शब्दों से चित्रित जब
सत्य घटनाओं को, स्मृतियों को


और जब तुम अपनी पीड़ा के
वट वृक्ष के नीचे योग मुद्रा में बैठ
रचती हो भावनाओं से अनुप्राणित ग्रंथ
लोग पढ़ लेते हैं शब्दों को, प्रतीतियों को


कर डालते हैं तुम्हारे शब्दों की समीक्षा
दे जाते हैं तुम्हे सम्मान का पदक
पर क्या तौल पाते हैं अपनी हृदय-तुला पर
तुम्हारी संवेदनाओं को, अनुभूतियों को


सुलोचना वर्मा

 

Wednesday, January 29, 2014

वो शहीद की विधवा है


पंख नही है उसके पर
परिंदो सा हौसला है
संघर्ष में भी गाती है
वो शहीद की विधवा है

कल चाँद की रजनी थी
आज दिनकर की दिवा है
नही हारती परिस्थितियों से
वो शहीद की विधवा है

अपनी पीड़ा के झंझावात में
दृढ़ निश्चय ही उसकी दवा है
धीरज है, अदम्य साहस है
वो शहीद की विधवा है

जब लेकर आती घर दाना
बनती बच्चों की विजेता है
दुख में भी मुस्कुराती है
वो शहीद की विधवा है

मिला सारा नभ परिंदों को
पर सत्य ये कड़वा है
रहती है छोटे घर में
वो शहीद की विधवा है

पंछी का रंगीन वसन पर
धरती पर विपरीत हवा है
लिपटी है सफेद कफ़न में
वो शहीद की विधवा है

सुलोचना वर्मा
 

Saturday, January 25, 2014

रंग अनुराग का

यामिनी के आँचल में
छिपता है देखो सूरज
लोहित है, जो प्रखर है
दहकता सा गोला आग का
लगता है रंग काला है
प्रीत का, अनुराग का


भोजराज बँधे प्रणय-सूत्र में
पर बन ना पाए कारण
कभी मीरा की प्रीत का
कभी मीरा के वैराग का
लगता है रंग काला है
प्रीत का, अनुराग का


लाल-पीले टेसू और सरसों के फूल
है सुवासित पुष्प परिणाम
मकरन्दि मायाजाल का
भ्रमर के गुनगुन राग का
लगता है रंग काला है
प्रीत का, अनुराग का


जब धरा करती घन का आह्वान
तज कर दिनकर की तपिश
वसुधा को मिलता है अमृत
तब सौदामनि के त्याग का
लगता है रंग काला है
प्रीत का, अनुराग का


सुलोचना वर्मा

 

Thursday, January 23, 2014

मन मयूर

जब विवेक कर रहा था शून्यता की सैर
और रह गया था हृदय में केवल लेश
भर कर पंखों में तब हौसले की उड़ान
मन मयूर जा पहुँचा दूर मेघों के देश


कर परिणत निज उर के घन को
नैनो से की नीर की वृष्टि
जल में भींग धूप की किरणों ने
कर डाली तब इंद्रधनुष की सृष्टि


मन के श्वेत मयूर ने लिया
इंद्रधनुष से सात रंगों का ऋण
दमक उठी फिर उसकी काया
सात रंगो से वो हो गया उत्तीर्ण


जब भी नभ पर बादल है छाता
थिरक उठता है लिए नयी आशा
पीहू पीहू कर कितना कुछ कहता
पर क्या समझे कोई उसकी भाषा


टूट गये पर थिरक थिरक कर
नही पहुँचा कँहि उसका संदेश
मौन हो गया चितवन का पाख़ी
रह गये पंख बन स्मृति अवशेष


सुलोचना वर्मा

 

Monday, January 20, 2014

मैं तितली नही


मैं तितली नही, तुम्हारा मन हूँ
कभी अभिलाषाओं के पुष्प पर उत्सर्ग
तो कभी कुसुम की संवेदनाओं का समर्पण हूँ
मैं तितली नही, तुम्हारा मन हूँ


मैं तितली नही, बहता धन हूँ
कभी राजकोष की मुद्राओं में अंकित
तो कभी पर्ण कुटीर के अतीत का वर्णन हूँ
मैं तितली नही, बहता धन हूँ


मैं तितली नही, उड़ता क्षण हूँ
कभी सपनो की सुखी फूलवाड़ी में बेसूध
तो कभी वर्तमान की खुशियों का उपवन हूँ
मैं तितली नही, उड़ता क्षण हूँ


मैं तितली नही, रंगीन तन हूँ
कभी युगों से माँगा हुआ वरदान
तो कभी क्षण भर का आकर्षण हूँ
मैं तितली नही, रंगीन तन हूँ


सुलोचना वर्मा

 

Monday, January 6, 2014

पीतल का कुंभ पुराना


कभी खीर पकती थी मुझमे
आज बस पीड़ पकती है
कभी भूख बसती थी मुझमे
अब स्मृति धूल बन बसती है

मेरा मर्म किसी ने ना जाना
मैं पीतल का कुंभ पुराना


कभी दाल गलती थी मुझमे
अब बस मैं गलता हूँ
कभी रसोई की शान था मैं
अब रोज़ आस्ताना बदलता हूँ
मुझे भारी जान, लोग देते ताना
मैं पीतल का कुंभ पुराना


कभी कनक सा मेरा वर्ण था
अब काला पड़ गया हूँ
चूल्‍हे की आग छोड़ चली अब
विधुर सा उजड़ गया हूँ
बदली पीढ़ी बदला ज़माना
मैं पीतल का कुंभ पुराना


रंग भर भर कर तुलिका में
मुझ पर जब चित्र उकेरा
बदल गयी फिर मेरी काया
जीवन ले आया विचित्र सवेरा
नीर भरी आँखो ने मुझको पहचाना
मैं पीतल का कुंभ पुराना


सुलोचना वर्मा

 

आवरण


लगा रखा है मुख पर मिथ्या का आवरण
दिव्य, मनोहारी और मासूमियत दर्शानेवाले
लगाकर मुख मंडल पर देवताओं का मुखौटा
बनना चाहते हैं भगवान, इंसानो की नियत रखनेवाले

क्यूँ आदमी को इंसान बनना रास नही आता
देवता हैं, ये सोचने का एहसास नही जाता
बनते हैं कृष्ण, गोपियों का रास नही भाता
कहते हैं शिव, अशोक सुंदरी का सन्यास नही सुहाता

गोवर्धन कैसे उठेगा, जब चक्रवात डराए
प्रलय कैसे रुकेगा, जब झंझावात हराए
दूसरों को मिली, जिन्हे सौगात सताए
ऐसे लोगों को कोई, उनकी औकात बताए

सर्पदंश की जिन्हे परवाह, वो क्या विषपान करेंगे
हलाहल की किसे फ़िक्र है, बस अमृतपान करेंगे
देवता नही हैं, और जो ना ही इंसान बनेंगे
ऐसे लोगों का भला हम, क्यूँ गुणगान करेंगे

सुलोचना वर्मा

प्रेम विधाता

जब आषाढ़ का मेघ
वाष्प ना रह, तरल हो गया
तब प्रेमी युगल का मिलना
कुछ और भी सरल हो गया

क्रमशः बढ़ चला था
धमनियों में रक्त का संचार
प्राण चकित था देखकर
शिरा और उपशिराओं का तांडव बारंबार

नैनो में थी प्रेम की पाती
और अधरों पर केवल मिथ्या
उस रोज़ ज़ुम्मन बन गया था
शताक्षी का प्रेम विधाता

आज भी वो वातायन से झाँक
हर सजीव व निर्जीव वस्तु में
पा लेना चाहती है ज़ुम्मन को
धरती से अनंत तक- हर सू में

उधर ज़ुम्मन ने लगा लिया है
टाट का बुना हुआ पैबंद अपने दरीचे में
रौशन हो उठता है उसका आँगन
जब करती है दीपदान शताक्षी अपने बगीचे में

ढो रही है वो अब भी अलौकिक प्रतिदीप्त प्रकाश पुंज
और उसका एकाकी मन आज अभिमान करता है
उसके मानस पटल पर एक अजीब सा विरक्ति बोध है
यूँ भी, वेदना का आवेग आभार का सुयश कब गान करता है

सुलोचना वर्मा