Sunday, September 2, 2018

सुनील गंगोपाध्याय की कविताएँ

1. पहाड़ के शिखर पर 
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बहुत दिनों से ही मुझे एक पहाड़ खरीदने का शौक है |
लेकिन पहाड़ कौन बेचता है, यह मैं नहीं जानता |
यदि उससे मिल पाता,
कीमत के लिए नहीं अटकता मामला |
मेरे पास अपनी एक नदी है,
वही दे देता पहाड़ के बदले |

कौन नहीं जानता, पहाड़ की अपेक्षा नदी की ही कीमत होती है अधिक |
पहाड़ स्थिर रहता है, बहती रहती है नदी  |
फिर भी मैं नदी के बदले पहाड़ ही खरीदता |
क्यूँकि मैं ठगा जाना चाहता हूँ |

नदी को भी हालाँकि खरीदा था एक द्वीप के बदले में |
बचपन में मेरा एक छोटा सा,
साफ़-सुथरा द्वीप था |
वहाँ थीं असंख्य तितलियाँ |
बचपन में द्वीप था मुझे बेहद प्रिय ।
मेरी युवावस्था में द्वीप मुझे
आकार में छोटा लगने लगा । प्रवाहमान सुव्यवस्थित तन्वी नदी मुझे खूब पसंद आई ।
दोस्तों ने कहा, इतने छोटे
एक द्वीप के बदले में इतनी बड़ी
एक नदी मिली?
क्या खूब जीता है माँ कसम !
तब मैं विह्वल हो जाता जीतने की खुशी में ।
तब मैं सचमुच ही नदी से प्यार करता था।
नदी मेरे कई सवालों का जवाब देती ।
जैसे , बताओ तो, आज
शाम को बारिश होगी या नहीं ?
वह कहती, आज यहाँ दक्षिणी गर्म हवा है।
केवल एक छोटे से द्वीप पर होगी बारिश,
किसी त्यौहार की तरह प्रबल बारिश !
मैं उस द्वीप पर अब नहीं जा सकता,
उसे मालूम था ! सभी को मालूम है।
फिर से नहीं लौटा जा सकता है बचपन में ।

अब मैं एक पहाड़ खरीदना चाहता हूँ।
उस पहाड़ के पाँव के पास
होगा गहन अरण्य, मैं पार कर लूँगा उस अरण्य को, उसके बाद केवल असहज
कठिन पहाड़ |
बिल्कुल शीर्ष पर, सिर के
बहुत पास आकाश, नीचे विपुला पृथ्वी,
चराचर में तीव्र निर्जनता |
कोई भी नहीं सुन सकेगा मेरा कंठ-स्वर वहाँ ।
मैं भगवान में विश्वास नहीं करता, वह मेरे सिर के पास सर झुकाकर खड़े नहीं होंगे ।
मैं केवल दसो दिशाओं को संबोधित कर कहूंगा,
हर मनुष्य ही अहंकारी है, यहाँ मैं हूँ अकेला-
यहाँ मुझे कोई अहंकार नहीं है।
यहाँ जीतने के बजाय, क्षमा माँगना अच्छा लगता है।
हे दसो दिशाओं, मैंने कोई दोष नहीं किया।
मुझे क्षमा कर दो |

2. जन्म नहीं होता, मृत्यु नहीं होती 
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मेरे प्रेम का कोई जन्म नहीं होता,
मृत्यु नहीं होती -
क्यूँकि मैं अन्य प्रकार के प्रेम के हीरे का गहना
शरीर में लेकर पैदा हुआ था।
नहीं रखा किसी ने मेरा नाम, तीन-चार छद्मनामों से
कर रहा हूँ भ्रमण मर्त्यधाम में,
आग को प्रकाश समझा, प्रकाश से
जलता है मेरा हाथ
यह सोचकर कि अंधकार में मनुष्य देखना होता है सहज भँवर में
अंधकार से लिपटा रहा
कोई मुझे देता है शिरोपा, कोई दोनों आँखों से हजार दुत्कार
फिर भी मेरे जन्म-कवच, प्रेम को प्रेम किया है मैंने
मुझे कोई डर नहीं लगता,
मेरे प्रेम का कोई जन्म नहीं होता,
मृत्यु नहीं होती |

3. उत्तराधिकार
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नवीन किशोर, तुम्हें दिया मैंने भुवन तट का मेघों भरा आकाश
तुम्हें दी मैंने बटन विहीन फटी हुई कमीज़ और
फुफ्फुस भरी हँसी
दोपहर की धूप में घूमना पैयाँ-पैयाँ, रात के मैदान में सोना होकर चित
यह सब अब तुम्हारे ही हैं, अपने हाथों में भर लो मेरा असमय
मेरे दुःख-विहीन दुःख क्रोध सिहरन
नवीन किशोर, तुम्हें दिया मैंने मेरा जो कुछ भी था आभरण
जलते हुए सीने में कॉफ़ी की चुस्की, सिगरेट चोरी, खिड़की के पास
बालिका के प्रति बारम्बार गलती
पुरुष वाक्य, कविता के पास घुटने मोड कर बैठना, चाकू की झलक
अभिमान में मनुष्य या मनुष्य जैसे किसी और चीज के
सीने को चीर कर देखना
आत्म-हनन, शहर को अस्तव्यस्त करता तेज क़दमों से रौंदता अहंकार
एक नदी, दो-तीन देश, कुछ नारियाँ -
यह सब हैं मेरे पुराने पोशाक, बहुत प्रिय थे, अब शरीर में
तंग हो कसने लगे हैं, नहीं शोभते अब
तुम्हें दिया, नवीन किशोर, मन हो तो अंग लगाओ
या घृणा से फेंक दो दूर, जैसी मर्जी तुम्हारी
मुझे तुम्हें तुम्हारी उम्र का सब कुछ देने की बहुत इच्छा होती है |

4. व्यर्थ प्रेम 
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हर व्यर्थ प्रेम देता है मुझे नया अहंकार
बतौर मनुष्य, मैं हो जाता हूँ तनिक लम्बा
दुःख मेरे सिर के बालों से पैर की उंगलियों तक
फैल जाता है
मैं सभी मनुष्यों से अलग होकर एक
अज्ञात रास्ते में सुस्त कदमों से
चलने लगता हूँ
सार्थक मनुष्यों के अधिकाधिक माँगों वाले चेहरे मुझे सहन नहीं होते
मैं रास्ते के कुत्ते को बिस्कुट खरीद कर देता हूँ
रिक्शेवाले को देता हूँ सिगरेट
अंधे आदमी की सफेद छड़ी मेरे पैरों के पास
आ गिरती है
मेरे दोनों हाथों में भरी है भरपूर दया, मुझे किसी ने
लौटा दिया है इसलिए पूरी दुनिया
लगती है बहुत अपनी
मैं निकलता हूँ घर से नयी धुली हुई
पतलून कमीज पहन कर
मेरे सद्य दाढ़ी बनाये हुए मुलायम चेहरे को
मैं खुद ही सहलाता हूँ
बहुत गोपन में
मैं एक साफ आदमी हूँ
मेरे सर्वांग में कहीं भी
नहीं है जरा सी भी गंदगी
ज्योतिर्वलय बन रहती है अहंकार की प्रतिभा
माथे के पीछे
और कोई देखे या न देखे
मुझे भान हो ही जाता है
ले आता है अभिमान मेरे होठों पर स्मित हास्य
मैं ऐसे रखता हूँ पाँव मिट्टी के सीने पर भी
कि नहीं पहुँचे आघात
मुझे तो किसी को भी दुःख नहीं देना है |

5. इच्छा
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काँच की चूड़ी को तोड़ने के समान रह-रहकर इच्छा होती है
कि तोड़ डालूँ  दो चार नियम क़ानून
पाँव के नीचे पटक कर फेंकूँ माथे का मुकुट
जिनके पाँव के नीचे हूँ, उनके सर पर चढ़ बैठूँ
काँच की चूड़ी को तोड़ने के समान ही इच्छा होती है अवहेलना में
कि धर्मतला में भरी दुपहरी बीच रास्ते पर करूँ सुसु |
इच्छा होती है दोपहर की धूप में ब्लैक आउट का हुक्म देने की
इच्छा होती है कि करूँ झाँसा देकर व्याख्या जनसेवा की
इच्छा होती है कि मलूँ कालिख धोखेबाज नेताओं के चेहरों पर
इच्छा होती है कि दफ्तर जाने के नाम पर जाऊँ बेलूर मठ
इच्छा होती है कि करूँ नीलाम धर्माधर्म मुर्गीहाटा में
बलून खरीदूँ बलून फोडूँ, काँच की चूड़ी दिखते ही तोडूँ
इच्छा होती है कि अब पृथ्वी को तहसनहस करूँ
स्मारक के पाँव के पास खड़े होकर कहूँ
मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लगता है |

*धर्मतला, मुर्गीहाटा,बेलूर मठ  =कोलकाता के विभिन्न स्थान

6. वो सारे स्वप्न 
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कारागार के अंदर उतर आयी थी ज्योत्स्ना
बाहर थी हवा, विषम हवा
उस हवा में थी नश्वरता की गंध
फिर भी फाँसी से पहले दिनेश गुप्ता ने लिखी थी चिट्ठी अपनी भाबी को,
"मैं अमर हूँ, मुझे मार पाना किसी के बूते की बात नहीं |"

मध्यरात्रि में अब और देर नहीं है
घंटा बजता है प्रहर का, संतरी भी क्लांत होते हैं
सिरहाने आकर मृत्यु भी विमर्श बोध करती है |
कंडेम्ड सेल में बैठ लिख रहे हैं प्रद्युत भट्टाचार्य,
"माँ, तुम्हारा प्रद्युत क्या कभी मर सकता है ?
आज चारोंओर देखो,
लाखों प्रद्युत तुम्हें देख मुस्कुरा रहे हैं,
मैं जिंदा ही रहा माँ, अक्षय"

कोई नहीं जानता था कि वह था कहाँ,
घर से निकला था लड़का, फिर वापस नहीं आया
पता चला कि देश से प्यार करने के लिए मिला उसे मृत्युदंड
अंतिम क्षण से पहले भवानी भट्टाचार्य ने
पोस्ट कार्ड पर बहुत तेज़ गति से लिखा था अपने छोटे भाई को,
"अमावस्या के श्मसान में डरते हैं डरपोक,
साधक वहाँ सिद्धि लाभ करते हैं,
आज मैं बहुत ज्यादा नहीं लिखूँगा
सिर्फ सोचूँगा कि मौत कितनी सुंदर है। "

लोहे की छड़ पर रख हाथ,
वह देख रहे हैं अंधकार की ओर
दीवार को भेद जाती है दृष्टि, अंधेरा भी हो उठता है वाङ्‌मय
सूर्य सेन ने भेजी अपनी आखिरी वाणी,
"मैं तुम लोगों के लिए क्या छोड़ गया ?
सिर्फ एक ही चीज,
मेरा सपना एक सुनहरा सपना है,
एक शुभ मुहूर्त में मैंने पहली बार इस सपने को देखा था । "

वो सारे स्वप्न अब भी हवा में उड़ते रहते हैं
सुनायी पड़ता है साँसों का शब्द
और सब मर जाता है स्वप्न नहीं मरता
अमरत्व के अन्य नाम होते हैं
कानू, संतोष, असीम लोग  ...
जो जेल के निर्मम अंधेरे में बैठे हुए
अब भी इस तरह के स्वप्न देख रहे हैं

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1. পাহাড় চূড়ায় – সুনীল গঙ্গোপাধ্যায়
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অনেকদিন থেকেই আমার একটা পাহাড় কেনার শখ।
কিন্তু পাহাড় কে বিক্রি করে তা জানি না।
যদি তার দেখা পেতাম,
দামের জন্য আটকাতো না।
আমার নিজস্ব একটা নদী আছে,
সেটা দিয়ে দিতাম পাহাড়টার বদলে।

কে না জানে, পাহাড়ের চেয়ে নদীর দামই বেশী।
পাহাড় স্থানু, নদী বহমান।
তবু আমি নদীর বদলে পাহাড়টাই
কিনতাম।
কারণ, আমি ঠকতে চাই।

নদীটাও অবশ্য কিনেছিলামি একটা দ্বীপের বদলে।
ছেলেবেলায় আমার বেশ ছোট্টোখাট্টো,
ছিমছাম একটা দ্বীপ ছিল।
সেখানে অসংখ্য প্রজাপতি।
শৈশবে দ্বীপটি ছিল আমার বড় প্রিয়।
আমার যৌবনে দ্বীপটি আমার
কাছে মাপে ছোট লাগলো। প্রবহমান ছিপছিপে তন্বী নদীটি বেশ পছন্দ হল আমার।
বন্ধুরা বললো, ঐটুকু
একটা দ্বীপের বিনিময়ে এতবড়
একটা নদী পেয়েছিস?
খুব জিতেছিস তো মাইরি!
তখন জয়ের আনন্দে আমি বিহ্বল হতাম।
তখন সত্যিই আমি ভালবাসতাম নদীটিকে।
নদী আমার অনেক প্রশ্নের উত্তর দিত।
যেমন, বলো তো, আজ
সন্ধেবেলা বৃষ্টি হবে কিনা?
সে বলতো, আজ এখানে দক্ষিণ গরম হাওয়া।
শুধু একটি ছোট্ট দ্বীপে বৃষ্টি,
সে কী প্রবল বৃষ্টি, যেন একটা উৎসব!
আমি সেই দ্বীপে আর যেতে পারি না,
সে জানতো! সবাই জানে।
শৈশবে আর ফেরা যায় না।

এখন আমি একটা পাহাড় কিনতে চাই।
সেই পাহাড়ের পায়ের
কাছে থাকবে গহন অরণ্য, আমি সেই অরণ্য পার হয়ে যাব, তারপর শুধু রুক্ষ
কঠিন পাহাড়।
একেবারে চূড়ায়, মাথার
খুব কাছে আকাশ, নিচে বিপুলা পৃথিবী,

চরাচরে তীব্র নির্জনতা।
আমার কষ্ঠস্বর সেখানে কেউ শুনতে পাবে না।
আমি ঈশ্বর মানি না, তিনি আমার মাথার কাছে ঝুঁকে দাঁড়াবেন না।
আমি শুধু দশ দিককে উদ্দেশ্য করে বলবো,
প্রত্যেক মানুষই অহঙ্কারী, এখানে আমি একা-
এখানে আমার কোন অহঙ্কার নেই।
এখানে জয়ী হবার বদলে ক্ষমা চাইতে ভালো লাগে।
হে দশ দিক, আমি কোন দোষ করিনি।
আমাকে ক্ষমা করো।

2.জন্ম হয় না, মৃত্যু হয় না – সুনীল গঙ্গোপাধ্যায়
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আমার ভালোবাসার কোনো জন্ম হয় না
মৃত্যু হয় না –
কেননা আমি অন্যরকম ভালোবাসার হীরের গয়না
শরীরে নিয়ে জন্মেছিলাম।
আমার কেউ নাম রাখেনি, তিনটে-চারটে ছদ্মনামে
আমার ভ্রমণ মর্ত্যধামে,
আগুন দেখে আলো ভেবেছি, আলোয় আমার
হাত পুড়ে যায়
অন্ধকারে মানুষ দেখা সহজ ভেবে ঘূর্ণিমায়ায়
অন্ধকারে মিশে থেকেছি
কেউ আমাকে শিরোপা দেয়, কেউ দু’চোখে হাজার ছি ছি
তবুও আমার জন্ম-কবচ, ভালোবাসাকে ভেলোবেসেছি
আমার কোনো ভয় হয় না,
আমার ভালোবাসার কোন জন্ম হয় না, মৃত্যু হয় না।।

3.উত্তরাধিকার – সুনীল গঙ্গোপাধ্যায়
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নবীন কিশোর, তোমায় দিলাম ভূবনডাঙার মেঘলা আকাশ
তোমাকে দিলাম বোতামবিহীন ছেঁড়া শার্ট আর
ফুসফুস-ভরা হাসি
দুপুর রৌদ্রে পায়ে পায়ে ঘোরা, রাত্রির মাঠে চিৎ হ’য়ে শুয়ে থাকা
এসব এখন তোমারই, তোমার হাত ভ’রে নাও আমার অবেলা
আমার দুঃখবিহীন দুঃখ ক্রোধ শিহরণ
নবীন কিশোর, তোমাকে দিলাম আমার যা-কিছু ছুল আভরণ
জ্বলন্ত বুকে কফির চুমুক, সিগারেট চুরি, জানালার পাশে
বালিকার প্রতি বারবার ভুল
পরুষ বাক্য, কবিতার কাছে হাঁটু মুড়ে বসা, ছুরির ঝলক
অভিমানে মানুষ কিংবা মানুষের মত আর যা-কিছুর
বুক চিরে দেখা
আত্মহনন, শহরের পিঠ তোলপাড় করা অহংকারের দ্রুত পদপাত
একখানা নদী, দু’তিনটে দেশ, কয়েকটি নারী —
এ-সবই আমার পুরোনো পোষাক, বড় প্রিয় ছিল, এখন শরীরে
আঁট হয়ে বসে, মানায় না আর
তোমাকে দিলাম, নবীন কিশোর, ইচ্ছে হয় তো অঙ্গে জড়াও
অথবা ঘৃণায় দূরে ফেলে দাও, যা খুশি তোমার
তোমাকে আমার তোমার বয়সী সব কিছু দিতে বড় সাধ হয়।

4. ব্যর্থ প্রেম – সুনীল গঙ্গোপাধ্যায়
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প্রতিটি ব্যর্থ প্রেমই আমাকে নতুন অহঙ্কার দেয়
আমি মানুষ হিসেবে একটু লম্বা হয়ে উঠি
দুঃখ আমার মাথার চুল থেকে পায়ের আঙুল পর্যন্ত
ছড়িয়ে যায়
আমি সমস্ত মানুষের থেকে আলাদা হয়ে এক
অচেনা রাস্তা দিয়ে ধীরে পায়ে
হেঁটে যাই
সার্থক মানুষদের আরো-চাই মুখ আমার সহ্য হয় না
আমি পথের কুকুরকে বিস্কুট কিনে দিই
রিক্সাওয়ালাকে দিই সিগারেট
অন্ধ মানুষের শাদা লাঠি আমার পায়ের কাছে
খসে পড়ে
আমার দু‘হাত ভর্তি অঢেল দয়া, আমাকে কেউ
ফিরিয়ে দিয়েছে বলে গোটা দুনিয়াটাকে
মনে হয় খুব আপন
আমি বাড়ি থেকে বেরুই নতুন কাচা
প্যান্ট শার্ট পরে
আমার সদ্য দাড়ি কামানো নরম মুখখানিকে
আমি নিজেই আদর করি
খুব গোপনে
আমি একজন পরিচ্ছন্ন মানুষ
আমার সর্বাঙ্গে কোথাও
একটুও ময়লা নেই
অহঙ্কারের প্রতিভা জ্যোতির্বলয় হয়ে থাকে আমার
মাথার পেছনে
আর কেউ দেখুক বা না দেখুক
আমি ঠিক টের পাই
অভিমান আমার ওষ্ঠে এনে দেয় স্মিত হাস্য
আমি এমনভাবে পা ফেলি যেন মাটির বুকেও
আঘাত না লাগে
আমার তো কারুকে দুঃখ দেবার কথা নয়।

5.ইচ্ছে – সুনীল গঙ্গোপাধ্যায়
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কাচের চুড়ি ভাঙার মতন মাঝে মাঝেই ইচ্ছে করে
দুটো চারটে নিয়মকানুন ভেঙে ফেলি
পায়ের তলায় আছড়ে ফেলি মাথার মুকুট
যাদের পায়ের তলায় আছি, তাদের মাথায় চড়ে বসি
কাচের চুড়ি ভাঙার মতই ইচ্ছে করে অবহেলায়
ধর্মতলায় দিন দুপুরে পথের মধ্যে হিসি করি।
ইচ্ছে করে দুপুর রোদে ব্ল্যাক আউটের হুকুম দেবার
ইচ্ছে করে বিবৃতি দিই ভাঁওতা মেরে জনসেবার
ইচ্ছে করে ভাঁওতাবাজ নেতার মুখে চুনকালি দিই।
ইচ্ছে করে অফিস যাবার নাম করে যাই বেলুড় মঠে
ইচ্ছে করে ধর্মাধর্ম নিলাম করি মূর্গিহাটায়
বেলুন কিনি বেলুন ফাটাই, কাচের চুড়ি দেখলে ভাঙি
ইচ্ছে করে লন্ডভন্ড করি এবার পৃথিবীটাকে
মনুমেন্টের পায়ের কাছে দাঁড়িয়ে বলি
আমার কিছু ভাল্লাগে না।।

6. সেই সব স্বপ্ন – সুনীল গঙ্গোপাধ্যায়
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কারাগারের ভিতরে পড়েছিল জোছনা
বাইরে হাওয়া, বিষম হাওয়া
সেই হাওয়ায় নশ্বরতার গন্ধ
তবু ফাঁসির আগে দীনেশ গুপ্ত চিঠি লিখেছিল তার বৌদিকে,
“আমি অমর, আমাকে মারিবার সাধ্য কাহারও নাই।”

মধ্যরাত্রির আর বেশি দেরি নেই
প্রহরের ঘণ্টা বাজে, সান্ত্রীও ক্লান্ত হয়
শিয়রের কাছে এসে মৃত্যুও বিমর্ষ বোধ করে।
কনডেমড সেলে বসে প্রদ্যুত ভট্টাচার্য লিখছেন,
“মা, তোমার প্রদ্যুত কি কখনো মরতে পারে ?
আজ চারিদিকে চেয়ে দেখ,
লক্ষ প্রদ্যুত তোমার দিকে চেয়ে হাসছে,
আমি বেঁচেই রইলাম মা, অক্ষয়”

কেউ জানত না সে কোথায়,
বাড়ি থেকে বেরিয়েছিল ছেলেটি আর ফেরেনি
জানা গেল দেশকে ভালোবাসার জন্য সে পেয়েছে মৃত্যুদন্ড
শেষ মুহূর্তের আগে ভবানী ভট্টাচার্য
পোস্ট কার্ডে অতি দ্রুত লিখেছিল তার ছোট ভাইকে,
“অমাবস্যার শ্মশানে ভীরু ভয় পায়,
সাধক সেখানে সিদ্ধি লাভ করে,
আজ আমি বেশি কথা লিখব না
শুধু ভাববো মৃত্যু কত সুন্দর।”

লোহার শিকের ওপর হাত,
তিনি তাকিয়ে আছেন অন্ধকারের দিকে
দৃষ্টি ভেদ করে যায় দেয়াল, অন্ধকারও বাঙময় হয়
সূর্য সেন পাঠালেন তার শেষ বাণী,
“আমি তোমাদের জন্য কি রেখে গেলাম ?
শুধু একটি মাত্র জিনিস,
আমার স্বপ্ন একটি সোনালি স্বপ্ন,
এক শুভ মুহূর্তে আমি প্রথম এই স্বপ্ন দেখেছিলাম ।”

সেই সব স্বপ্ন এখনও বাতাসে উড়ে বেড়ায়
শোনা যায় নিঃশ্বাসের শব্দ
আর সব মরে স্বপ্ন মরে না
অমরত্বের অন্য নাম হয়
কানু, সন্তোষ, অসীম রা…
জেলখানার নির্মম অন্ধকারে বসে
এখনও সেরকম স্বপ্ন দেখছে