Wednesday, December 31, 2014

गुजरता हुआ साल

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गुजरता हुआ साल इतना साधारण भी न था 
कि मिली ऐसे असाधारण किस्म के लोगों से 
जो टपका सकते हैं अपनी जुबान से शहद 
अंतस में नफरत का काला नमक रखकर 
जबकि मैं मौन भी रहूँ तो बयाँ कर जाती है 
दिल की सच्ची दास्ताँ मेरी पारदर्शी शक्ल 

गुजरता हुआ साल इतना बेरंग भी न था 
कि मैंने देखा बदलते मौसमों के इन्द्रधनुष को 
और लोगों को जुड़ते-बिछड़ते अपनी सुविधानुसार 
जहाँ कुछ मौसम दे गए मीठे-मीठे सुफेद पल 
कभी जिंदगी सुना गयी अपना मुकम्मल काला सच   

गुजरता हुआ साल इतना गया गुजरा भी नहीं 
कि कहूँ कमबख्त आया और आकर चला गया 
जहाँ आया यह साल लेकर कई सुखद पल 
जाते-जाते बहुत कुछ मुझे सिखा दे गया 

गुजरता हुआ साल बस गुजरने ही वाला है 
जहाँ दुनिया कर रही रही है आतिशबाज़ी  
और मना रही है जश्न नए साल के स्वागत में 
कौंध रही हैं यादें बीते हुए बारह महीनों की 
मेरे जेहन के आसमान में बिजली की तरह 
कि तभी जाग जाती है अच्छे दिनों की उम्मीद 
और मैं कह देती हूँ नया साल हो मुबारक़!!

Friday, December 19, 2014

जन्मदिन

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समय बह गया किसी तेज नदी की तरह
और हम जो थे अलग कश्तियों पर सवार 
जा पहुँचे नदी के दो विपरीत किनारों पर
कि अचानक देखती हूँ जोड़ दिया है वक़्त ने 
एक और रंगीन गुब्बारा तुम्हारी उम्र में


इस पार लगा है स्मृतियों का हाट
और मैं खरीददार एकांत के मेले में
उठा लिया दीया शुभकामनाओं का
बहा दिया नदी में कर प्रज्वलित

सुनो, उम्र मत बढ़ाना अबके बरस
बड़े हो जाना सचमुच के 


---सुलोचना वर्मा------

Saturday, December 13, 2014

एक दिन कविता ने नहीं किया कुछ भी

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एक दिन कविता ने नहीं किया कुछ भी 
बस सोती रही देर तक
घण्टों नहाया झरने में
धूप में सुखाये बाल
और गाती रही पुरे दिन कोई पुराना गीत


एक दिन कविता ने नहीं किया कुछ भी 
बिंदी को कहा "ना"
कहा चूड़ियों से "आज नहीं"
काजल से बोली "फिर कभी"
और लगा लिया तन पर आराम का लेप


एक दिन कविता ने नहीं किया कुछ भी 
न तोड़े फूल बगीचे से
न किया कोई पूजा पाठ
न पढ़ा कोई श्लोक ही
और सुनती रही मन का प्रलाप तन्मयता से


एक दिन कविता ने नहीं किया कुछ भी 
तवे को दिखाया पीठ
खूब चिढ़ाया कड़ाही को
फेर लिया मुँह चाकू से
और मिलाकर घी खाया गीला भात


एक दिन कविता ने नहीं किया कुछ भी 
न साफ़ की रसोई
न साफ़ किया घर
नहीं माँजा पड़ा हुआ जूठा बर्तन
और अंजुरी में भरकर पिया पानी


एक दिन कविता ने नहीं किया कुछ भी 
रहने दिया जूतों को बिन पॉलिश के
झाड़न को दूर से घूरा
झाड़ू को भी अनदेखा कर दिया
और हटाती रही धूल सुन्दर स्मृतियों से


एक दिन कविता ने नहीं किया कुछ भी 
न ही उठाया खिड़की से पर्दा
न ही घूमने गयी कहीं बाहर
न मुलाक़ात की किसी से
और बस करती रही बात अपने आप से


एक दिन कविता ने नहीं किया कुछ भी 
जो उसे करना था रखने को खुश औरों को
कि उसे नहीं था मन कुछ भी करने का
जीना था उसे भी एक दिन बेतरतीबी से
और मिटाना था ऊब अभिनय करते रहने का


एक दिन कविता ने नहीं किया कुछ भी 
दरअसल वह गयी थी जान
कि नहीं था अधिक ज़रूरी
कुछ भी जिंदगी में
जिंदगी से अधिक


एक दिन कविता ने नहीं किया कुछ भी 
बस मनाया ज़श्न
अपने जिंदा होने का


------सुलोचना वर्मा -----------

Wednesday, December 10, 2014

बिन पता के लिफ़ाफ़े में

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काश तुम सहेज पाते मेरे प्रेम को
मोती की तरह वक़्त के सीपी में
जो हो गया है लुप्त धीरे-धीरे
मैमथ की ही तरह धरती से 


मैं अक्सर अपने सपनों में
बुनती हूँ एक मफ़लर काले रंग का
जिसे चाहती हूँ लपेटना तुम्हारे गले में
मेरी बाँहों के हार सा


पर जब मैं देखती हूँ खुद को आईने में
तो देखती हूँ केवल एक ठूँठ
जिस पर करती हैं आरोहण
तुम्हारी यादें वनलता की मानिंद


चला देती हूँ रवीन्द्र संगीत उस कमरे में
दिन के भोजन के ठीक बाद
जहाँ अब रहते हो तुम बड़े सुकून से अकेले
क्यूँकि मेरे एकांत में बहुत सक्रिय होते हो तुम


झाँकती हैं एक जोड़ी आँखें आजकल
उस बिना साँकल वाली खिड़की से
जहाँ लगाना था नीले रंग का पर्दा
ओढ़ बैठी हूँ मैं दर्द की नीली चादर


भेजती हूँ खत कुछ दिनों से बिन पता के लिफ़ाफ़े में
जबकि तुम्हारे ठिकाने का सन्देश दे ही जाती है हवा
कि नहीं मयस्सर मुझको तुम्हें परेशाँ देखना
और मेरा कद मुझे पशीमान होने की इज़ाज़त नहीं देता


----सुलोचना वर्मा-------------

Tuesday, December 9, 2014

मुखौटा

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सुकन्या की शादी को अभी १२ दिन बचे थे, पर अभी कुछ दिनों पहले ही उसकी अपने मंगेतर, सुगत से अनबन हो गयी| सुकन्या को अब लगने लगा कि मसले को बिना सुलझाए शादी करना ठीक नहीं होगा| पर सुगत तैयार न था; उसे सुकन्या को हर हाल में पाना था| परेशान होकर सुकन्या राहुल को फोन करती है और उसे सब कुछ बता देती है| राहुल सुकन्या और सुगत, दोनों का करीबी मित्र है|

"तुम्हे उससे शादी नहीं करनी चाहिए" सुकन्या को ध्यान से सुनते हुए राहुल जवाब देता है|
"अब करनी ही पड़ेगी; नहीं तो ...." कहते हुए सुकन्या रुक जाती है|
"नहीं तो क्या........?????" राहुल कौतूहलता से पूछता है|
"नहीं तो वह कह रहा था कि हमारे लिव इन रिश्ते की बात घरवालों और रिश्तेदारों को बता देगा"कहती हुई सुकन्या रो पड़ती है|
"कोई बात नहीं; बताने दो और तुम्हे ऐसे इंसान से शादी कतई नहीं करनी चाहिए जो ऐसी बातों को लेकर तुम्हें ब्लैकमेल करता हो" राहुल की आवाज़ में गुस्सा था|  
"फिर मैं कौन सा मुँह लेकर घर जाऊँगी"
"तुम्हें कहीं जाने की क्या ज़रूरत? तुम तो आत्मनिर्भर हो और फिर अगर ऐसी ज़रूरत हुई तो तुम मेरे पास आकर रह सकती हो| मैं फिर कोई बढ़िया सा लड़का देखकर तुम्हारी शादी करवा दूँगा" ऐसा कहता हुआ राहुल लगभग आश्वस्त था कि सुकन्या अब यह शादी नहीं करेगी|

सुकन्या मन ही मन सोचती है कि काश उसने राहुल को अपने लिए चुना होता तो आज ये दिन नहीं देखना पड़ता| कितना सुलझा हुआ इंसान है!! पर सुकन्या की परेशानी कम नहीं होती है| घर में शादी की सारी तैयारियाँ हो चुकी हैं| मेहमानों का आना शुरू चूका है| ऐसे में वह क्या करे; उसे नहीं सूझ रहा| शादी में जब सात दिन रह गए, सुकन्या की एक सहेली ने आकर सुगत से बात की और दोनों को आमने -सामने बैठाकर परस्पर बातचीत से मसले को सुलझाया| सुगत ने अपनी गलती मान ली| हिंदी सिनेमा की तरह आखिरी दृश्य में सब ठीक हो जाता है|

शादी हुए अभी दस महीने ही गुज़रे थे कि एकदिन राहुल उनके घर आ धमकता है| दफ्तर के किसी काम से आना हुआ है और दो दिनों बाद वह वापस चला जाएगा| तीनों दोस्त बहुत दिनों बाद मिले हैं; बातों का सिलसिला रुकने का नाम ही नहीं ले रहा| रात के खाने के बहुत देर बाद तक तीनों खूब बतियाते हैं| तभी राहुल उनसे कहता है कि उसे अपना ईमेल चेक करना है और उसके लैपटॉप को चार्ज होने में अभी समय लगेगा| सुकन्या अपना लैपटॉप उसकी ओर बढ़ाकर सोने चली जाती है| जाते हुए यह कहकर चुटकी लेती है कि उसे पता है कि उसे अपनी गर्लफ्रेंड से बातें करनी होंगी|

सुबह चाय नाश्ते के बाद तीनों अपने-अपने दफ्तर की ओर रवाना होते हैं| दफ्तर पहुँचकर सुकन्या जैसे ही लैपटॉप ऑन करती है; तो देखती है कि राहुल ने मेल चेक करने के बाद लॉगआउट नहीं किया| वह जैसे ही लॉगआउट करने जाती है; तभी उसकी नज़र सबसे ऊपर वाले ईमेल पर पड़ती है| वह निधि को भेजा गया ईमेल था| सुकन्या ने निधि के बारे में सुना था ; पर उसे यह मालूम नहीं था कि राहुल और निधि के बीच अब भी किसी प्रकार का कोई रिश्ता है| उत्सुकता का कीड़ा बेहद खतरनाक होता है| सुकन्या  से नहीं रहा गया और वह राहुल का निधि को लिखा ईमेल पढ़ती चली गयी जिसमे लिखा था ............

"निधि,
पिछले आठ दिनों से तुमसे बात करने की कोशिश कर रहा हूँ ; पर न तो तुम फोन पर ही आती हो और न ही ईमेल का जवाब देती हो| क्या तुम्हारा मन भर गया इस रिश्ते से? क्या अब तुम्हें मेरे साथ की ज़रूरत नहीं है? अगर नहीं, तो क्यूँ जताया मुझसे इतना अपनापन? क्यूँ आई मेरे इतने करीब? क्या करूँगा उन कपड़ों का जो मैं पिछले छह महीनों से तुम्हारे लिए खरीदकर अपने वार्डरोब में रखता आया हूँ? देखो, ये मेरा आखिरी ईमेल है तुम्हें; अगर दो दिनों में तुम्हारा जवाब नहीं आया तो मैं तुम्हारे पिता को हमारे लिव इन रिलेशन की बात बता दूँगा| बताओ फिर क्या करोगी? मैं ऐसा नहीं करना चाहता; पर तुमने मेरे पास और कोई विकल्प ही नहीं छोड़ा| इन्तजार रहेगा.....तुम्हारा राहुल"

 सुकन्या को अपनी आँखों पर भरोसा नहीं हो रहा था| क्या यह वही राहुल है जिसने उसे सुगत द्वारा ब्लैकमेल किये जाने पर शादी तोड़ने की सलाह दी| फिर वह वार्डरोब वाली बात..... तीन महीने पहले जब राहुल ने नया घर लिया तो सुकन्या और सुगत को विडियो चैट पर अपना पूरा घर दिखाया था और अपने वन रूम फ्लैट का इकलौता वार्डरोब खोलकर दिखलाया था कि कितना स्पेशियस है| उसमे तो सभी कपड़े राहुल के ही थे!!!

आज सुकन्या का मन दफ्तर के किसी काम में नहीं लग रहा है| वह तय नहीं कर पा रही कि राहुल अब खुद ही भटक गया है या तब उसे भटकाने की कोशिश कर रहा था............या फिर प्रेम की ज़मीन इतनी गीली
होती है कि वहाँ सही से गलत की ओर फिसलते देर नहीं लगती??? पीछे छूट गयी पुरानी स्मृतियाँ तेजी से पीछा कर रही थी| इतना तय था कि राहुल ने अपने मुख पर मुखौटा लगा रखा था; पर परेशानी यह थी कि कौन सा चेहरा उसका अपना असली चेहरा था !!!

सुकन्या शाम को देर से घर लौटी और फिर सभी ने मिलकर बाहर खाना खाया| राहुल अगली सुबह के फ्लाइट से मुंबई वापस चला गया| सुकन्या ने इस घटना का ज़िक्र किसी से नहीं किया ....किसी से भी नहीं...इस सच को काले मोती की मानिंद यादों के पारदर्शी जार में सहेज कर रख लिया| धरा रह गया सुकन्या का सवाल जिसका उत्तर अब पश्चिम में है|

Friday, December 5, 2014

झूठा सच

"मैं आपके जैसा साहसी नहीं था कि घरवालों के विरोध के बावजूद अपने पसंद की लड़की से शादी करता | पर रागिनी ने तो पूरा जीवन ही मेरे नाम कर दिया | अब उसके जीवन में मेरे सिवाय कोई नहीं और उसकी देखभाल करना मेरी नैतिक जिम्मेदारी भी बनती है | अगर आप यह सब सौम्या से कह देती हैं तो मेरा घर टूट जायेगा | ज़रा मेरे बच्चों के बारे में तो सोचिये.......और वैसे भी अब सौम्या जायेगी कहाँ...उसके माता-पिता तो रहे नहीं..सो...." प्रदीप बोलता ही चला गया | उसकी आवाज़ काँप रही थी |

"आपको मुझसे डरने की कोई ज़रूरत नहीं है | यह बात मुझ तक ही रहेगी | शायद मेरे चुप रहने ही में सौम्या की ख़ुशी निहित है" मधुरा ने भारी मन से कहा | पुरे दिन ग्रुप वायलिन की विकल तरंगों के बीच मन
बजता रहा | मन में कई तरह के ख्याल उभर रहे थे |

मधुरा कई दिनों तक इस उधेड़बुन में पड़ी रही कि उसे क्या करना चाहिए | अगर सौम्या से उसके साथ हुए धोखे के बारे में नहीं बताती है ; तो सहेली के साथ अन्याय होगा और अगर सब कुछ बता देती है तो उसका घर टूट जायेगा |

"मुझे तो समझ नहीं आता कि आप और सौम्या एक ही शहर के होते हुए एक दुसरे से इतने अलग कैसे हैं | आप इतनी समझदार हैं और आत्मनिर्भर भी | आपको अपना कुछ काम करना चाहिए | मेरी राजनीति में अच्छी पैठ है और आप चाहें तो ..." अब प्रदीप अक्सर मधुरा को फोन करता और उसके तारीफों की पुल बांधता | यह सिलसिला लगभग तीन महीनों तक चला |

फिर एक दिन......

"सुनिए, आज मेरे बचपन की सहेली घर आ रही है | वैसे तो आपको अपने काम के अलावे कुछ सूझता ही नहीं है ; पर आज हो सके तो जरा समय से घर आ जाइएगा" सौम्या का प्रदीप से इतना कहना था की प्रदीप घर से निकलते हुए अचानक से रुक गया |

"अच्छा, कौन सी सहेली आ रही है" ऐसा पूछते हुए प्रदीप को जवाब लगभग पता था |

"मधुरा" कहते हुए सौम्या ने घर का दरवाजा बंद किया |

प्रदीप कुछ सोचता हुआ पार्किंग में आकर अपनी लिमोजिन में बैठ गया | मन की वीणा ने राग विहाग का तान छेड़ दिया |

मधुरा का सामना ऐसे सच से हुआ था जिसे वह चाहकर भी नहीं भुला पा रही थी | सौम्या के घर जाने से पहले मधुरा ने अपनी माँ को सारी बातें बता दी और साथ ही उनसे यह वादा भी लिया कि वह इस सच को किसी और से सांझा नहीं करेगी |

"देखो, पैसेवाला है, तभी तो एक साथ दो परिवारों का निर्वाह कर पा रहा है; वरना इस कमरतोड़ मंहगाई में तो एक परिवार भी संभालना मुश्किल होता है | सौम्या को तो बड़े आराम से रखा है | उसे किसी प्रकार की कोई तकलीफ नहीं | अब उसे सब कुछ पता भी चल जाए, तो वह बेचारी जायेगी कहाँ ? " अपनी माँ के मुँह से ऐसा सुनकर मधुरा चौंक गयी |

माँ ने आगे जो कहा, वो और भी चौंकानेवाली बात थी |

"सौम्या की माँ को शादी के बाद यह पता चल चुका था कि यह शादी प्रदीप की मर्ज़ी के वगैर हुई है | इस बात का किसी को पता ना चलता अगर शादी के आठवें दिन रात्री भोज के समय घर पर पुलिस ना आ धमकती | रागिनी ने आत्महत्या की कोशिश की थी और उसे किसी प्रकार बचाया जा सका था | उसने अपने बयान में पुलिस को सब कुछ बता दिया था | उस रोज़ प्रदीप पुलिस के साथ अस्पताल तक गया था और देर रात गए घर लौटा | घर लौटने पर सौम्या के माता-पिता, जो वहाँ रात्री-भोज में शामिल होने आये थे, उनसे कहा गया कि कोई लड़की थी जो प्रदीप से बहुत प्यार करती थी | प्रदीप ने उससे शादी के लिए इंकार कर दिया, तो आत्महत्या की कोशिश की | प्रदीप का अब उस लड़की से कुछ नहीं लेना देना है और पुलिस ने भी उस लड़की को समझा दिया है | सौम्या के पिता तो मान भी चुके थे कि वह लड़की ही प्रदीप के पैसों पर फ़िदा होकर उसके गले पड़ना चाह रही थी ; पर सौम्या की माँ....उसे सच्चाई का लगभग अनुमान हो चला था | सौम्या की शादी के एक महीने बाद जब वह हमारे घर आई थी , तब इस घटना का ज़िक्र किया था | उन्हें शायद लगा था कि सारा मसला सुलझ गया था | बहरहाल सौम्या अपनी दुनिया में खुश है और वो लड़की, रागिनी भी | काबिल कहना पड़ेगा प्रदीप को ........एक साथ दो-दो घर .............." माँ शायद आगे भी कुछ कहना चाहती थी; पर अब सब कुछ मधुरा के बर्दाश्त के बाहर हो गया था |

"अगर उसके माता-पिता को सब मालूम था, तो उन्होंने कुछ क्यूँ नहीं किया? क्या उन्हें भी इस बात पर लड़के में काबिलियत ही दिखी थी कि एक साथ दो-दो स्त्रियों का भरण पोषण कर सकता है ? क्या सौम्या उनके सर पर एक बोझ थी , जिसके उतर जाने पर वह इतना खुश थे कि उन्हें फर्क नहीं पड़ता इन सारी बातों से ? या फिर प्रदीप का पैसेवाला होना इस सभी चीज़ों के मायने बदल देता है ?" माधुरी अभी  अपने आप से ऐसे ही कुछ चंद सवाल पूछ रही थी कि उसके फोन की घंटी बजी |

"हाँ सौम्या, मैं चार बजे तक तुम्हारे घर पहुँच जाऊँगी" कहते हुए मधुरा ने फ़ोन रखा |

मधुरा तैयार होकर सौम्या के घर के लिए निकल पड़ती है| वह खुद भी नहीं जानती कि वह सौम्या का सामना कैसे करेगी| डेढ़ घंटे की ड्राइव के बाद मधुरा सौम्या के घर पहुँचती है| सौम्या अपनी सोसाइटी के बाहर खड़ी उसका इंतज़ार कर रही थी| दोनों सहेलियां गले मिलती हैं और फिर सौम्या मधुरा को अपने घर ले आती है| घर आते ही सौम्या मधुरा को अपना पूरा घर दिखाती है| उसके लिए डुप्लेक्स घर बहुत मायने रखता था| सौम्या के चेहरे से झलकती ख़ुशी ने मधुरा के बैचैन मन को कुछ हद तक शांत किया|

"जानती हो मधुरा, आज तक का रिकार्ड है कि प्रदीप कभी मेरे किसी परिचित से मिलने दफ्तर का काम छोड़कर नहीं आये; पर तुम स्पेशल हो न ............" सौम्या इठलाते हुए कहती है| 

प्रदीप आधे घंटे से खड़ा है | शायद उसके अन्दर का अपराधबोध उसे बैठने की इज़ाज़त नहीं दे रहा है |  मधुरा उसकी असहजता  समझ सकती है| मधुरा की इल्तिजा पर प्रदीप उसके पास ही कुर्सी पर बैठ जाता है| सबने साथ बैठ चाय नाश्ता किया और फिर मुलाक़ात को अंजाम तक पहुंचाने का वक़्त आया| मुलाक़ात जो थी वीथोवन की आठवीं सिम्फनी की तरह संक्षिप्त!

 मधुरा को छोड़ने सौम्या पार्किंग तक आती है और मधुरा एक बनावटी मुस्कान के साथ गाड़ी में जा बैठती है | मधुरा मन ही मन तय करती है कि अब वह अपनी सहेली के घर नही आयेगी क्यूंकि सौम्या जी रही है एक झूठ, जो उसका खूबसूरत सच है या यूँ कहें उसकी शादी का सफ़ेद झूठ, जो सच है | अपने दिल पर हजारों सवाल का बोझ लिए मधुरा अस्सी की स्पीड से कार ड्राइव कर रही है कि तभी उसका ध्यान खींचता है  कार की स्टीरियो में चल रहा गाना "क्या मिलिए ऐसे लोगो से, जिनकी फितरत छुपी रहे, नकली चेहरा सामने आये, असली सूरत छुपी रहे"|

Monday, December 1, 2014

बेटियाँ

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हो जाती हैं विदा बेटियाँ मायके से
लेकर संदूक में यादों का जखीरा
जैसे करता है विदा पहाड़ नदी को
और लाती है नदी अपने साथ खनिज


बनाती जैसे डेल्टा नदी समुद्र में मिलने के पूर्व
अनेक शाखाओं में कर स्वयं को ही विभाजित
बाँट लेती हैं बेटियाँ खुद को दो अलग घरों में 
कि ऐसा करना ही होता है उनका तयशुदा धर्म


जहाँ खो देती है नदी अपना मीठा स्वाद
विशाल समंदर के खारे फेनिल जल में
लपेटना होता है अक्सर जुबान पर शहद 
नमकीन पसंद करनेवाली इन बेटियों को


सुनो नदियाँ, तुम नर्मदा सी बन जाओ
कि नहीं बाँटना पड़े खुद को बनाने को डेल्टा
बेटियाँ तुम कहना सीख लो
कि तुम्हे नमकीन है पसंद!!!


----सुलोचना वर्मा ---------

Sunday, November 30, 2014

उम्मीदों के बीज

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मैं करती हूँ प्रतीक्षा तुम्हारी ठीक वैसे
जैसे करता है इंतज़ार न्याय की
साल दर साल उम्मीद बाँधे कोई बेक़सूर


मैं करती हूँ सवाल और देखती हूँ तुम्हें
टकटकी लगाये जैसे देखता है आसमान
बीज रोपण के बाद कोई किसान


मैं करती हूँ प्रेम तुमसे कुछ उस तरह
बिन देखे नौ महीने की लम्बी अवधि तक
जैसे करती है प्रेम अपने अजन्मे शिशु को माँ


प्रेम ने उम्मीदों के बीज बचाकर रक्खे हैं !!!

----सुलोचना वर्मा------

Saturday, November 29, 2014

बीता हुआ वक़्त

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क्या बाँधा किसी ने उस इकलौते कुत्ते को 
मरुथल में काटा जिसने ऊँट पर बैठे इंसान को
और जिंदगी की अदालत में मुजरिम बना वक़्त


क्या वक्त इतना था बुरा कि मिले उसे सजा उम्रकैद की 
और दर्ज होकर रह जाए उसका बुरा होना इतिहास में
फिर मान ले मानदण्ड लोग अपने बचाव की खातिर उसे


क्या ज़िक्र हुआ किसी किताब में उन करोड़ों लोगों का
जो चढ़े ऊँटों पर एक नहीं, कई बार
और जिन पर नहीं किया हमला किसी कुत्ते ने 


काश हम सीख पाते कि हादसों से इतर हैं घटती
सुंदर घटनाएं भी जीवन में
कि बीता हुआ वक़्त गुज़र नहीं पाता
ठहर जाता है हमारी स्मृतियों में


---सुलोचना वर्मा-----

Friday, November 28, 2014

चिठ्ठियाँ

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नहीं लिखेगी किसी सांकेतिक भाषा में चिठ्ठी 
मेरी कविता की खूबसूरत नायिका
कि उसे पसंद है स्पष्टवादी बने रहना


नहीं लिखेगी चिठ्ठी में कि सबकुछ है ठीक
जहाँ जीवन ने पकड़ लिया हो खटिया अवसाद का 
और जीवन में बचा हो जीवन बहुत थोड़ा


नहीं लिखेगी कि मना पाएगी ज़श्न जिंदगी का अकेले
कि वह खूबसूरत है क्लियोपैट्रा सी
और दुनिया है पागल उसके प्रेम में


नहीं लिखेगी कि उसे मालूम है वो सारी बातें
जो उसने कभी कहा ही नहीं
और फिर भी करती है प्रेम


नहीं लिखेगी कि नहीं रहती वो अब अपने आप में
कि छोड़ आयी थी खुद को 
पिछली मुलाक़ात के अंतिम स्टेशन पर


नहीं लिखेगी कि जी लेती है तीन रत्ती भर
बीते पलों को हर रोज़ कई बार
कि वह पल था हीरे सा जीवन के शुक्र पर्वत पर


अब वह नहीं लिखेगी!!!

-----सुलोचना वर्मा--------

Wednesday, November 26, 2014

मसाई मारा

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होने वाली है सभ्यता शिकार स्वयं अपनी
खूबसूरत मसाई मारा के बीहड़ जंगलों में
इसी साल दो हज़ार चौदह के अंत तक
और हुआ है जारी फरमान मसाइयों को
उनकी ऐतिहासिक मातृभूमि छोड़ने का
कि चाहिए शिकारगाह शाही परिवार को 
जो करता है वास विश्व के आधुनिक शहर में
जिसे हम जानते है दुबई के नाम से
और सभ्यता के नए पायदान पर
खरीद लिया है दुबई के शाही परिवार ने
ज़मीन का एक टुकड़ा तंज़ानिया में
जहाँ वो करेंगे परिभाषित सभ्यता को
नए शिरे से अपनी सहूलियत के मुताबिक

दिखाकर सभ्यता को अपनी पीठ

पीड़ा से होगा पीला मसाई में उगता सूरज अब 
जिसे देखने जाते थे दुनिया के हर कोने से लोग
रहेगा भयभीत चिड़ियों के कलरव से भरा जंगल
और गूंजेगी आवाज़ दहशत की चारों ओर


जहाँ झेलना होगा दर्द विस्थापन का
मसाई लोगों को अपनी ही माटी से
दुखी हो रहा है सभ्यता का इतिहास
कि उसे करनी होगी पुनरावृति दर्द की


----सुलोचना वर्मा-------

Tuesday, November 25, 2014

सुबह

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उजियाली उतर आई भोर की सीढ़ियाँ
थामकर सूरज का हाथ ,
गा रही है कोयल उनके स्वागत में गीत ,
नहीं करने देता महसूस झर झर बहता झरना
कमी किसी प्रकार के वाद्ययंत्र की ,
बिन घुँघरू बांधे मोर कर रहा है रियाज
अपने चिरपरिचित सूफियाने अंदाज में
और पर्वत ??
कर रहा है अवलोकन
केवल एक अच्छा श्रोता बन 
किसी के रूप का ; तो किसी के हूनर का
निखर रही हैं डाल पर कोपलें
पाकर सुरभित बयार का स्नेहिल स्पर्श,
और पखार रहा है मेघ धरणी का चरण


बेहद खूबसूरत होता है जागना कभी कभार
तन्द्रा का टूटना जिसे कहते हैं


-----सुलोचना वर्मा --------

 

Tuesday, November 18, 2014

अच्छे के लिए

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इक वो रहा जैसे है मौजूद हवा फिजाओं में
इक रही वो जैसे कि बहती है नदी कलकल सी
और पसंद रहा दोनों को करना बातें सब्र तलक  


जो बहती रही बनकर नदी
मोड़ लेना चाहती थी रुख अपना
कि बनी रहे हमसफ़र हवा की
और मुश्किल था जीना बिन हवा के


जो इक रहा हवा सा
न था मयस्सर उसे डूबना पानी में
कि अभी बची थी नदियाँ और भी कई


नदी ने समंदर में कूदकर जान दे दी
उधर गूंज रहा है हवा का गीत फिजाओं में
जो भी होता है ; होता है अच्छे के लिए


-------सुलोचना वर्मा

Monday, November 10, 2014

एक गैर जरुरी कविता

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ज़रूरी नहीं होता कुछ घटनाओं का विशेष होना
जबकि घटते रहना उनका होता है बेहद ज़रूरी
जैसे कि लेते रहना श्वास होता है बेहद ज़रूरी
किसी विशेष दिन जिसमें ज़रूरत से हो अधिक 
कार्बन मोनो-ऑक्साइड की मात्रा हवा में


जैसे होना नाव पर सवार होता है बेहद ज़रूरी
किसी एक विशेष दिन जहाँ पानी में हो उफान
और दिनों से अधिक, और आप पेशे से हों मछुआरे


कहने को तो ज़रूरी यूँ कुछ भी नहीं होता
फिर भी होती हैं कुछ बातें बेहद ही ज़रूरी 
जो समझा जाती हैं आपको मुख़्तसर सी बात  
कि ज़रूरी है हौसला जिंदा रहने के लिए 
और बनाये रखने ले लिए जीवन को
एक मुकम्मल कविता जिंदगी तलक


-------सुलोचना वर्मा

Friday, October 31, 2014

छिपकली

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एक संसार हुआ करता था वह कमरा तब
और कमरे का लाल बल्ब था दहकता सूरज
रहती थी उस संसार में एक जोड़ी छिपकली
जो खेलती थी छुआ-छुई देर शाम तलक
संसार में तब कोई और था ही कहाँ




दूर से दिखता बुरा वक़्त हुआ कमरे में लगा लाल बल्ब
और घड़ी के दो कांटो की मानिंद रही एक जोड़ी छिपकली
जो कर रही थी प्रदक्षिणा कमरे में लगे लाल बल्ब की
जहाँ घड़ी की टिक-टिक बढ़ा जाती थी दिल की धड़कन
हर बुरे अंदेशे पर ठीक-ठीक कह जाती थी छिपकली




किसी बहुत सुन्दर स्त्री के चेहरे सा है एक कमरा
जो है यादों के कैनवास पर गुलाबी और आकर्षक
जिसमे माथे की बिंदी सा है सजा कमरे का लाल बल्ब
जहाँ एक जोड़ी छिपकली देखती है एक-दुसरे को दूर से
जो बनाता है हँसुली सा आकार; हँसुली जो है फंसी गले में


-----सुलोचना वर्मा-----------------------

Wednesday, September 24, 2014

एक आम सी कविता

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जब दिखेंगे आम के मंजर अगले बरस
फागुन बौरा उठेगा
और मैं हो जाउंगी सरसों की तरह
थोड़ी और पीली दर्द से


जब झूमेगा मौसम कोयल की कूक से
एक हुक मेरे अन्दर भी उठेगी


एक दिन वैशाख लगा जाएगा पेड़ पर टिकोला
और हो उठेगा खट्टा मेरे स्वाद का मन  

 
जेठ भारी हो जाएगा मन के मौसम में
ज्यूँ लद जायेगी टहनी पके फलों से


जब दिखेगा बिकता लंगड़ा सावन के बाज़ार में
मन गुज़रे मीठे पलों की बैशाखी ढूँढ लेगा


मुझे तुम पसंद रहे आम की तरह
हमारा साथ भी आम के मौसम जितना रहा


जी रही हूँ मैं अब तुम्हारी आम्रपाली सी यादें !!!

-----सुलोचना वर्मा---------

Saturday, September 13, 2014

इन्द्रधनुष

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मन की इच्छा थी बैंगनी
बहारों के फूलों सी फालसई
और मन का आकाश था आसमानी


दहक उठा मन पलाश सा नारंगी होकर
वसंत के मौसम में लेकर अपनी अनगिनत आशायें


फिर पड़ गई रंगत पीली मन के त्वचा की
दर्द के पतझड़ में


हुआ रंग नीला मन के विषाक्त रक्त का
और लाल मन की आँखे


जीवन के सावन में
मन का जख्म हरा ही रहा 


कमबख्त जिसे कहते रहे मन
इन्द्रधनुष निकला


------सुलोचना वर्मा ...........



 

Friday, August 22, 2014

प्रेम और शिक्षा

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जब होगा प्रेम का विलय उदासीनता में
शिक्षा करेगी तय प्रेम का हश्र
समय की किताब में


इतिहास पढने वाला कर देगा दफ्न
प्रेम को गुज़रे वक़्त में
एक दिलचस्प कहानी बनाकर


किसी भाषा का स्नातक
चुभाता रहेगा शूल शब्दों का
प्रेम में साल दर साल


मनोविज्ञान का डिग्रीधारक
जो पढ़ नहीं पाया मन प्रेयसी का प्रेम में
बस करता रह गया वैज्ञानिक प्रयोग
कर देगा खारिज प्रेम को सिरे से
एक परिस्थिति का परिणाम भर बताकर


"ब्रेकिंग न्यूज़" सा तवज्जो देगा नए प्रेम को  
पत्रकारिता पढनेवाला, दीवानापन दिखलायेगा  
फिर बिसार देगा उसे किसी बासी खबर सा  
धरकर इल्ज़ाम प्रेम और परिस्थिति के माथे 
कि सिखाया है यही दस्तूर इस इल्म ने उसे  

ठीक ऐसे किसी समय में क्या करुँगी मैं?

रख दूँगी प्रेम के फ़र्न को वक़्त की फ़ाइल में
बड़े जतन से हर्बेरियम स्पेसिमेन सा
देखा करुँगी खोलकर फ़ाइल गाहे-बगाहे 
थोड़ा शोक मना लूंगी
फ़र्न में क्लोरोफिल के नहीं रहने का


मैंने वनस्पति विज्ञान पढ़ा है !

-----सुलोचना वर्मा ------

Sunday, August 17, 2014

चरवाहा

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मेरे छोटे से घर में है एक बड़ी सी खिड़की
और है दूर-दूर तक फैला हरा-भरा खलियान
उस बड़ी सी खिड़की के सामने


गुजरती है उस बड़े से खलिहान से होकर 
एक बेहद ही संकड़ी सी पगडण्डी
जिस पर से रोज गुजरता है एक चरवाहा
जो गाता है निर्गुण बांसुरी पर
अपने छरहरे बदन पर अंगोछा लिए


नहीं गा पाता है वह अब राग कम्बोज
कि चढ़ गयी भेंट उसकी आराधिका
संकीर्ण सामजिक मापदंडों की
और उसका शाश्वत प्रेम
दर्ज़ होकर रह गया है
उसकी बाँसुरी की धुनों में


जहाँ उसे गाना था राग आशावरी
निराश हो चली हैं उसकी तमाम छोटी आशाएं
याद दिला जाते हैं उसे उसके बड़े शुभचिन्तक
कि वह रहता है उसी इन्द्रप्रस्थ में
जहाँ शासन था कभी कौरवों का
जहाँ अब भी रहते हैं धृतराष्ट्र और दुःशासन
अपने-अपने आधुनिक व अद्यतन रूप में


उसे अब कृष्ण कोई नहीं मानता !

-----सुलोचना वर्मा-----

Thursday, August 14, 2014

उन दिनों

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नहीं उगे थे मेरे दूध के दांत उन दिनों
फिर भी समझ लेती थी माँ मेरी हर एक मूक कविता
जिसे सुनाती थी मैं लयबद्ध होकर हर बार
जैसे पढ़ा जाता है सफ़ेद पन्ने पर ढूध से लिखी इबारत को
ममता की आंच में स्पष्ट हो उठता था मेरा एक-एक शब्द


माँ ने अपनी कविता में मुझको कहा चाँद
और उस चाँद से की मेरी नज़र उतारने की गुज़ारिश


चाँद ने बदले में लिख डाली कविता
अपनी रौशनी से मुझ पर


उन दिनों चाँद पर एक औरत
दोनों पाँव पसारे
रेशमी धागों से गेंदरा सिला करती थी 
जिसके किनारों पर लगे होते थे
मेरी माँ की साड़ी के ज़री वाले पार


----सुलोचना वर्मा-----

Tuesday, August 12, 2014

पुनर्जन्म

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समझते थे लोग सिद्धांत पुनर्जन्म का
इस देश से लेकर सात समंदर पार तक
कि स्कित्जोफ्रेनिया का आविष्कार नहीं हुआ था तब


तब पेड़ से सेब के नीचे गिरने के लिए 
गुरुत्वाकर्षण के नियम की नहीं
जरुरत होती थी भगवान् की मर्ज़ी की


विश्वास से उत्पन्न हुई सकारात्मकता
देती चली गई साल दर साल 
शुभ और सुखद परिणाम


और भगवान् ??
उसके तो कई टुकड़े किये गए थे
हुआ था जब जन्म मनुष्य में विवेक का
फिर वो रह गया दर्ज़ होकर दंतकथाओं में 
उसे भी लेने पड़े कई जन्म
अपना आस्तित्व बचाए रखने की खातिर 


सबको पड़ी थी जन्मों के फेर की
कि लिखा था गीता में
आत्मा अमर है


जीता रहा इंसान किश्तों में बनकर संतोषी
तय हुआ कि दुःख है परिणाम पिछले जीवन के कर्मों का
और करता रहा अच्छे कर्म अगले जनम के लिए


जन्म लेती रही एक इच्छा मानव शरीर में
हर बार एक नया जन्म लेने की
और हर जन्म के साथ ही
होता रहा जन्म नयी-नयी इच्छाओं का
जन्म और मरण से इतर


पूरी हो जाती है कई इच्छाएं एक ही जीवन में कभी तो
लेना पड़ता है कई जन्म उस एक इच्छा के लिए
जिसके कभी ना पूरा होने की कहानियाँ
हम दंतकथाओं में सुनते आये हैं


-----सुलोचना वर्मा---------
 

Sunday, August 3, 2014

प्रेम स्वप्न

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तुम आते हो मेरे जीवन में एक दिवास्वप्न की तरह
और छोड़ जाते हो कई प्रश्नचिन्ह मेरी आँखों के कोरों पर
स्वप्न टूट जाता है ; प्रश्न चुभने लगते हैं
मैं अपने आंसू की हर बूँद पर डाल देती हूँ एक मुठ्ठी रेत 
थोड़ा और भारी हो उठता है मन पहले से
और तैरने लगते हैं कई सवाल जेहन में 

तुम जीते हो स्वप्न हकीकत की ठोस ज़मीन पर
और जिंदगी जीना होता है किसी प्रयोग सा तुम्हारे लिए
चखा है स्वाद जबसे तुमने उस आम की गुठली का
छोड़ आई थी जिसे मैं खाकर तुम्हारी छोटी सी रसोई में
महसूस करती हूँ कसैलापन तुम्हारे शब्दों की तासीर में

मैंने अपने स्वप्न में भर लेना चाहा केवल प्रेम
जबकि प्रेम को पाना है किसी स्वप्न सा तुम्हारे लिए
जहाँ तुम्हारे कई सपनो में से एक सपना भर हूँ मैं
मेरे हर सपने की दीवार पर कीलबद्ध हो तुम
आज जब तौल बैठे हो तुम मेरे प्रेम को किसी सपने से
सोचती हूँ क्यूँ नहीं पढ़ा प्रेम का प्रतियोगिता दर्पण मैंने
कि नहीं है जवाब तुम्हारे पूछे गए प्रश्नों का मेरे पास
अब कौन तय करेगा कि स्वप्न से ज़रूरी है प्रेम 
या प्रेम से ज़रूरी कोई स्वप्न है जीवन में !

-----सुलोचना वर्मा ------

Saturday, August 2, 2014

चाय

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आलस की सुबह को जगाने के क्रम में
ठीक जिस वक़्त ले रहे हैं कुछ लोग
अपनी अपनी पसंद वाली चाय की चुस्की
उबल रही है कुछ जिंदगियां बिना दूध की चाय की तरह 
जो खौल खौल कर हो चुकी है इतनी कड़वी
जिसे पीना तो दूर, जुबान पर रख पाना भी है नामुमकिन


जहाँ ठन्डे पड़ चुके हैं घरों में चूल्हे  
धधक रही है  पेट की अंतड़ियों में
भूख की अनवरत ज्वाला
जो तब्दील कर रही है राख में इंसानियत आहिस्ता आहिस्ता
जैसे कि त्वचा को शुष्क बनाती है चाय में मौजूद टैनिन चुपके से


पहाड़ों के बीच सुन्दर वादियों में
जहाँ तेजी से चाय की पत्तियाँ तोड़ते थे मजदूर
दम तोड़ रही है इंसानियत झटके में हर पल
चाय के बागानों के बंद होते दरवाजों पर


बस उतनी ही बची है जिंदगी रतिया खरिया की
जितनी बची रहती है चाय पी लेने के बाद प्याले में 
रख आई है गिरवी अपनी चाय सी निखरती रंगत सफीरा
ब्याहे जाने से कुल चार दिन पहले बगान बाबू के घर
उधर बेच आई है झुमुर अपने चार साल के बेटे को
कि बची रहे उसकी जिंदगी में एक प्याली चाय बरसों


बदला कुछ इस कदर माँ, माटी और मानुस का देश
कि बेच आई माँ अपने ही कलेजे का टुकड़ा भूख के हाथों
आती है चाय बगान की माटी से खून की बू खुशबू की जगह 
और मानुस का वहाँ होना रह गया दर्ज इतिहास के पन्नों पर !


-----सुलोचना वर्मा--------

Monday, July 28, 2014

ईद मुबारक

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दुनिया भर की तमाम कहानियों में
एक सुन्दर सी कहानी है शायमा अल-मसरी भी 
और किसी लघुकथा की तरह है उसका बचपन
जो अचानक से खो गया है
इजराइल और फिलिस्तीन के युद्ध के पन्नों में
जबकि सबसे बड़ा मुद्दा होना था
उसके बचपन का छीन लिया जाना
उसका बचपन दब गया है
अंतरराष्ट्रीय राजनैतिक खबरों के मलबे के नीचे 


जहाँ उसे ब्याहना था अपनी गुड़िया को
बिलाल के गुड्डे के साथ
हो गया रुखसत बिलाल इस जहान से अम्मी के साथ
और शायमा पड़ी है खून से लथपथ अस्पताल के किसी कोने में
लिए अपने पास दुल्हन सी सजी गुड़िया


नहीं समझ पा रही कि कुछ भी कर ले अब
नहीं लौटेगी अम्मी कभी
कि अब वह रहेंगी यादों के आसमान में
बनकर सबसे ज्यादा चमकनेवाला सितारा
जिसे चाहकर भी नहीं मिटा पाएगी
यहूदियों और फिलिस्तिनो की आपसी रंजिश
जो बनी रहेगी सुर्खियाँ अखबारों की एक लम्बे अरसे तक


उधर फरमान सुनाया है इजरायल की आएलेत शकेद ने
कि ख़त्म कर देना है फिलिस्तीन की सभी माँओं को
कि नहीं जन्मे छोटे सांप फिर कभी फिलिस्तीन में
जहाँ मुहर्रम सा बनकर आया है अबके बरस ये ईद
अब्बा के गले लग शायमा ईदी में अम्मी को मांगती है
आज दुनिया भर की अखबारों ने "ईद मुबारक" लिखा है
मैंने अपनी दुआ में शायमा के लिए न'ईम पढ़ा
ईद जिनकी मुबारक है, होती रहे !!!!


------सुलोचना वर्मा-------

 

Thursday, July 17, 2014

घड़ी

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सुबह के लगभग दस बज रहे थे और चारुकेशी बहुत परेशान थी  | उसे अपनी घड़ी नहीं मिल रही थी | बहुत ढूँढा ; पर कहीं नहीं मिली |


बहुत प्यारी थी चारुकेशी को अपनी इकलौती घड़ी | चार बहनों में सबसे छोटी और दसवीं की परीक्षा द्वीतीय श्रेणी में उत्तीर्ण करने वाली अपने घर की पहली लड़की | वह घड़ी उसके लिए दसवीं पास होने पर मिली मैडल जैसी थी | होती भी क्यूँ ना; अब ऐसा मैडल उसे फिर थोड़े ही न मिलना था | उसे दिल की बिमारी थी और उसका पढ़ना लिखना बंद हो चुका था | शहर के बड़े डॉक्टर ने जवाब दे दिया था और अब घर के लोग भी मान चुके थे की वह अगले दस- बारह साल किसी तरह जी पायेगी |

"हे भगवान ! जिसने भी मेरी घड़ी चुराई है, उसका हश्र मेरे जैसा करना | उसे भी दिल की बिमारी हो जाए........... और उसके मुँह से भी खुन आये .......और ............................." कहते हुए चारुकेशी का दर्द उसके चेहरे पर छा गया |

आठ साल की नन्ही माधुरी चारुकेशी के मुँह से ऐसे शब्द सुन सहम गयी | उसका डर लाजिमी था | उसने सुना था की घड़ी में बैटरी होता है और बैटरी के नाम पर उसने टॉर्च में लगनेवाली बैटरी को ही देखा था | उसे जानना था की घड़ी में लगी हुई बैटरी कैसी होती है | यही सोचकर उसने बीती रात उस घड़ी को उठाया था | उसे खोलने में कामयाब भी हो गयी थी ; बैटरी भी देख लिया ; पर कोशिशों के वाबजूद बंद ना कर पायी |  खुली घड़ी को उसने चारुकेशी के कमरे में ही छुपा रखा था |

"जो कोई भी मेरी घड़ी ढूँढ देगा, उसे मिठाई खिलाऊँगी" परेशान हो चारुकेशी ऐलान करती है  |

"यह ठीक रहेगा...मैं घड़ी ढूँढने के नाम पर खुली हुई घड़ी वापस कर सकूँगी......अभिशाप भी नहीं लगेगा फिर तो ......और मिठाई भी....." मन ही मन माधुरी बुदबुदाती है |

थोड़ी देर बाद माधुरी घड़ी ढूंढ़कर चारूकेशी को देती है और चारुकेशी अपने ऐलान के मुताबिक़ खुश होकर माधुरी को मिठाई खिलाती है | साथ  ही माधुरी को देती है दुआएं |

माधुरी मिठाई खा रही है... पर पहली बार मिठाई का स्वाद इतना कड़वा लग रहा है |

-----सुलोचना वर्मा------

असली मुद्दा रह गया

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दो घंटे मेट्रो में खड़े -खड़े सफर करने और फिर एक घंटे गाड़ी चलाने के बाद समर बेहद थक गया था| घर पहुँचा, तो रात का खाना बनाने की ऊर्जा नहीं बची थी और भूखे पेट नींद भी नहीं आ रही थी | आँखें बंद करते ही उसे मेट्रो में सफर करते लोगों का चेहरा याद आ रहा था| वह उस रोज़ मेट्रो से सफर करते हुए न जाने कितनी कहानियाँ एक साथ जी गया । 

उसे उस लड़की का चेहरा याद आया जो अपनी सहेली को सिगमंड फ्रायड के बारे में बता रही थी। सहेली को  फ्रायड के बारे में सुनने में मजा नहीं आ रहा था, वह बारबार फ्रायड के बीच में भिन्डी की सब्जी का ज़िक्र ला रही थी। वह सोचने लगा कि उन दोनों के मुद्दे कितने अलग थे फिर भी वो सहेलियाँ थीं| 

दरवाजे के पास शायद वो कानून पढ़नेवाली दो छात्राएँ थीं जो 'हलफ़नामा" और "इकरारनामा" के बदले प्रयुक्त हो सकने वाला हिंदी शब्द ढूँढ रही थी। उनसे किसी ने ढूंढ़कर लाने को कहा था। साथ यह भी कि  प्रमाण पत्र के कई मायने हो सकते हैं। वह सोच रहा था कि ऐसी जरुरत कैसे आ गयी!! जिसने उन लड़कियों से ऐसा कहा होगा, उसका मुद्दा क्या रहा होगा!!  

उसके ठीक पास बैठी एक माँ अपने बच्चे को फीडिंग बोतल से दूध पिला रही थी और बच्चा अभी नींद के आगोश में आने ही वाला था कि उनका स्टेशन आ गया। माँ ने बोतल बच्चे के मुँह से हटाकर बैकपैक में रख लिया। बच्चा रोने लगा। माँ ने  एक काँधे पर बैकपैक और दुसरे पर बच्चे को उठाया और उतर गयी। वह सोचने लगा कि बच्चे की भूख किस्तों में मिटी होगी। रिश्ते और ज़िम्मेदारियों के बीच बँट माँ ने किस्तों में खुद  को जीया होगा। क्या बच्चे की भूख से ज्यादा जरूरी मुद्दा था सही स्टेशन पर उतरना!!  

सामने के सीट पर बैठी एक माँ अपने 4 साल के लड़के को मेट्रो में दौड़कर दूसरोँ की सीट पर जाने से रोका था। बच्चे के नहीं मानने पर उसने कहा था अगर वह ऐसा करेगा तो उसे कोई बोरियों में बंद कर ले जाएगा और हाथ काट देगा। समर याद कर मुस्कुराया था कि ठीक ऐसा ही बचपन में उसके भी माता-पिता डराने के लिए  कहते थे।  वह सोचने लगा बैलगाड़ी से बुलेट ट्रेन के जमाने में आ गए, पर बच्चों को डराने का तरीका नहीं बदला ! माँ का असली मुद्दा शायद अपने डर को बच्चे तक स्थानांतरित करना था ?

बिस्तर पर लेटा वह अभी करवटें ही बदल रहा था कि उसे आँगन में किसी के गिरने की आवाज़ सुनाई दी | वह सरपट आँगन की तरफ दौड़ पड़ा और वहां जाकर उसने देखा कि उसके पड़ोस में रहने वाले शम्भूनाथ पंडित जी का बड़ा बेटा, तथागत ,औंधे मुँह गिरा पड़ा है | समर उसे उठाने के लिए हाथ बढ़ाता है और जैसे ही तथागत उठता है, समर की नज़र पड़ती है आँगन में बिखरे पड़े कुछ बेशकीमती सामानों पर | समर गुस्से से लाल होकर तथागत के गाल पर दो तमाचे जड़ देता है और उसे अपने घर के एक कमरे में बंद कर शम्भुनाथ पंडित और उनकी स्त्री को बुला लाता है | 

"देखिये पंडित जी, माना कि तथागत बेरोजगार है और गरीबी से जूझ रहा है, पर इसका मतलब यह तो कतई नहीं कि वह चोरी करे" समर की ऊँची आवाज़ पर मुहल्ले के कुछ और लोग उसके घर आते हैं |

" एक तो तुमने इसे मारा, इसकी बेरोज़गारी का मज़ाक बनाया और अब लोगों को इकठ्ठा कर तमाशा बना डाला.....किस मिटटी के बने हो" शम्भूनाथ पंडित की पत्नी सावित्री का इतना कहना था कि पंडित जी भी सुर में सुर मिलाकर कहने लगे "भला इस तरह दी जाती है किसी को उसकी गरीबी की सज़ा ... और तुम मुहल्लेवाले, क्यों आ जाते हो बेरोज़गारी का तमाशा देखने  " 

पंडित जी की बात सुनकर लोग अपने अपने घरों में लौटने लगे | लौटते हुए लोग आपस में बात कर रहे थे, समर को भला बुरा कह रहे थे और उनकी बातचीत का मुद्दा था तथागत की बेरोज़गारी, उसकी गरीबी और उसकी दयनीय स्थिति !!!! तथागत के माता-पिता भी उसे संग लेकर अपने घर चले गए |

समर बुत बना घर के आँगन में खड़ा रह गया | उसने न्याय करने के लिए तथागत के माता -पिता को बुलाया था ; परन्तु उन लोगों ने चोरी के मुद्दे को बदल कर उन मुद्दों को उछाला जिस पर उन्हें समाज से सहानुभूति मिल सकती थी और मिली भी | असली मुद्दा रह गया !

Saturday, July 12, 2014

कवि की कविता

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कवि को लिखना है काजल, उमस भरे एक दिन को 
कविता समेट लेती है बादल अपनी आँखों में  
दमक उठता है प्रेम का सूरज आसमान पर
कवि बारिश की चाह करता है


कवि दर्ज करता है चुम्बन प्रेयसी की गर्दन पर
और खोल देता है क्लचर बालों से
कविता महसूस करती है फिसलते हुए बालों को काँधे पर
फिर चखती है कवि की जुबान का स्वाद देर तक


कवि छेड़ देता है साज निर्वसना की देह का
कविता गुनगुनाने लगती है अवरोह से आरोह तक
किल्लोल भरती हैं प्रेयसी के पैरों की उंगलियाँ
रिसने लगता है प्रेम रसायन बन देह से  
कवि साधता है सांप्रयोगिक तंत्र प्रेयसी पर 
कविता झूमने लगती है चरमोत्कर्ष की सीमा पर
प्रेयसी के पंख फहराने लगते हैं
मंत्रमुग्ध कर जाता है कवि को
कविता का अनवरत लयबद्ध स्पंदन
कवि लिखता है पूर्णविराम
प्रेयसी की पीठ के बाएँ हिस्से में


कवि अब कविता नहीं लिखता
लिखता है प्रेम !


----सुलोचना वर्मा-------

Tuesday, July 8, 2014

विदाई

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दिवाली के बाद
जब आयी सहालग की बारी
हो गई डोली विदा घर से
और चले गए बाराती


खड़ा रहा पिता
दुआरे पर बहुत देर
मन सा भारी कुछ लिए


देखती रही माँ एकटक
गुलाबी कुलिया चुकिया
जो भरा था अब भी
खाली-खाली से घर में


----सुलोचना वर्मा----

Thursday, July 3, 2014

कुआं

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मुझे परेशान करते हैं रंग 
जब वे करते हैं भेदभाव जीवन में
जैसे कि मेरी नानी की सफ़ेद साड़ी
और उनके घर का लाल कुआं
जबकि नहीं फर्क पड़ना था
कुएं के बाहरी रंग का पानी पर
और तनिक संवर सकती थी
मेरी नानी की जिंदगी साड़ी के लाल होने से


मैं अक्सर झाँक आती थी कुएं में
जिसमे उग आये थे घने शैवाल भीतर की दीवार पर
और ढूँढने लगती थी थोड़ा सा हरापन नानी के जीवन में
जिसे रंग दिया गया था काला अच्छी तरह से
पत्थर के थाली -कटोरे से लेकर, पानी के गिलास तक में


नाम की ही तरह जो देह था कनक सा
दमक उठता था सूरज की रौशनी में
ज्यूँ चमक जाता था पानी कुएं का
धूप की सुनहरी किरणों में नहाकर


रस्सी से लटका रखा है एक हुक आज भी मैंने
जिन्हें उठाना है मेरी बाल्टी भर सवालों के जवाब
अतीत के कुएं से
कि नहीं बुझी है नानी के स्नेह की मेरी प्यास अब तक
उधर ढूँढ लिया गया है कुएं का विकल्प नल में
कि पानी का कोई विकल्प नहीं होता
और नानी अब रहती है यादों के अंधकूप में !


----सुलोचना वर्मा------

Saturday, June 28, 2014

तुम्हारे होने से

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तुम्हारा होना तय करता है
मेरी आँखों में काजल का होना
और जब तुम नहीं रहोगे
जम जाएगा बादल आँखों के आसमान पर


तुम हो तो हैं मेरे होंठ गीले
कि तुम्हारे नहीं होने से
उग आयेंगे नागफनी होठों की सतह पर


तुम्हारे होने के उत्सव पर
हवा से बतियाती है मेरी जुल्फें
जो तुम चले गए
बना जाएगा हवा जुड़ा ढीले बालों का मेरे कांधे पर


बादल के नहीं बरसने से
हो जायेगी बंजर सतह
हवा सांस नहीं ले पायेगी


बेहद ज़रूरी है तुम्हारा होना मेरे जीवन में !

सुलोचना वर्मा

Friday, June 27, 2014

ढोंगी

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इस समाज के कुछ लोग
मानते हैं उसे भगवान्
या फिर कोई अवतार
और वह गढ़ता है कुछ कहानियाँ
जिससे बना रहे यह भ्रम लोगों का


नहीं जानते लोग इस समाज के
कि जब वह बांच रहा होता है ज्ञान
महिला उत्पीड़न के विरुद्ध किसी सभा में
उसकी पत्नी कर रही होती है नाकामयाब कोशिश
अपने बदन के खरोंचो को छुपाने की
डाल रही होती है आँखों में गुलाब जल
कि कम हो रोने के बाद आँखों का सूजन
और वह बनी रहे सफल अभिनेत्री साल दर साल


भले ही चिल्लाता हो वह अपने बच्चे की जिद पर
और नहीं संभाल पाता हो उसकी बचकानी आदतें
या कर देता हो उसकी कुछ मांगे पूरी
गैर जिम्मेदाराना तरीके से, छुड़ाने को पीछा
पर कहाँ मानेंगे ये सब उस बस्ती के लोग
जहाँ वह पिलाता है हर पोलियो रविवार को
गरीब छोटे बच्चों को दो बूँद जिंदगी के
धूप में रहकर खड़ा समाज सेवा के नाम


करती है अचरज उसके घर की कामवाली
कि साहेब धमका आते हैं हर बार उसके पति को
जब भी वह उठाता है हाथ उसपर
और देती है दुआएं मालकिन को सुहागिन बने रहने की
सहम जाते हैं पुलिसकर्मी भी देखकर
उसके खादी के कुरते को
और लगाते हैं जयकारा साहेब के इस महान कृत्य पर


घर के सामने पार्क में खेलते सभी बच्चे हैं उसके दोस्त
और गली के हर कुत्ते ने खाया है उसके हाथ से खाना
मुहल्ले के सभी बुजुर्गों को झुक कर करता है प्रणाम
मदद के लिए सबसे पहले लोग उसे करते हैं याद


डाल आई है आज उसकी पत्नी
तलाक की एक तरफा अर्जी अदालत में
और सोच रही है कौन सी सूचना उसे मिलेगी पहले
एक झूठे रिश्ते से उसके निजात पाने की
या सार्वजनिक सेवा व सामुदायिक नेतृत्व का मैग्सेसे पुरस्कार
उस ढोंगी के नाम होने की !!!


सुलोचना वर्मा

Monday, June 23, 2014

तीस पार की आधुनिका

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जब तीस पार की आधुनिका करती है प्रेम
तो तोड़ देती है सारी वर्जनाएं
उम्र, धर्म और समाज की
और लिख देना चाहती है नाम प्रेमी का
शहर की सबसे ऊँची ईमारत पर
बड़े बड़े काले अक्षरों में
उसी प्रेम को उसका प्रेमी 
धर देता है किताब के पन्नो के बीच
मोर पंख की तरह
फिर हो जाता है व्यस्त
हरे, नीले और सुनहरे रंगों के बीच
और ढूँढने लगता है प्रेम का गुलाबी रंग उसमे


तीस पार की आधुनिका को नहीं पसंद गुलाब
कि उसकी उँगलियाँ डूबी होती है काँटों से मिले लहू में
प्रेमी को कहती है चाँद और महक जाना चाहती है
बनकर प्रेम सा झक्क सफ़ेद इवनिंग प्राइमरोज
मना लेना चाहती है वह उत्सव जिंदगी का


जब देखती है प्रेमी को, बुनती है ख्वाब प्रेम के आसमान पर
उसके ख़्वाबों को चिन्हित करता है आसमान में उड़ता हवाई जहाज
प्रेमिका देखती है हवाई जहाज और फिर देखती है प्रेमी को
प्रेमी कर लेता है कैद प्रेमिका को हवाई जहाज के साथ कैमरे में
ढाई सेकण्ड की इस घटना में पुरे पच्चीस साल फिर से जी लेती है
प्रेम में जवान एक नवयुवती, जो है तीस पार की आधुनिका


सुलोचना वर्मा

Thursday, June 19, 2014

इच्छा-मृत्यु

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वो कर देगा आज़ाद
मुझे मेरी देह से
और बन जाएगा सूरज
दर्द से मेरी मुक्ति के मार्ग का
करता है यकीं वह
जिंदगी में जिंदगी के बचे होने पर
उसे है बेपनाह मोहब्बत
मेरी जिस्म से भी ज्यादा मेरी रूह से  !!!


सुलोचना वर्मा
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Euthanasia is the Word

Wednesday, June 18, 2014

नमक

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हो आई मैं तुम्हारे सपनों की चहारदीवारी से
और टांग आई रूह की कमीज़
उस घर की दीवार पर लगे खूंटे में
कमरे में पसरे मौन ने बढाई
तुम्हारे शब्दों से मेरी घनिष्ठता
जिस वक़्त तुम उकेर रहे थे
मेरा तैलचित्र अपने ख़्वाबों के आसमान पर

टपक पड़ी थी एक बूँद पसीने की
मेरे माथे से तुम्हारी जुबान पर
सुनो, जब भर जाए तुम्हारे ख़्वाबों का कैनवास
उतार लेना मेरी रूह की कमीज़ खूंटे से
और ओढा देना मेरी आकृति को
निभाते रहना वचन ताउम्र साथ देने का
कि तुमने खाया है नमक मेरी देह का |


सुलोचना वर्मा

Tuesday, June 10, 2014

गंगा दशहरा

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जो फेंका तुमने निर्माल्य को नदी में
मछली दे देगी श्राप तड़पकर
और तुम बन जाओगे मछली अगले जनम में
फिर होगा तुम्हारा जन्म किसी नाले में

 
मत डालो अब गंगा में धुप-लोबान
कि वह जल रही है धरती की चिता पर 
सती की मानिंद, एक लम्बे समय से 


क्यूँ कुरेद रहे हो उसका मन तुम बारहों मास
और बना रहे हो झील निकालकर उसमे से रेत
लील लेगी एक दिन तुम्हे भी उसकी बदली हुई चाल 


जाओ, शंखनाद कर रोक लो नदी पर बनता बाँध
कर आओ प्राण प्रतिष्ठा पहाड़ों पर लगाकर कुछ पेड़
फिर सुनाओ मछलियों को जिंदगी का पवित्र मन्त्र
और मना लो गंगा दशहरा इस सही विधि के साथ


-------सुलोचना वर्मा--------

Sunday, June 8, 2014

सहायिका

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नहीं कह पायी शुक्रिया मैं उस माली से
लगा गया जो पेड़
गुलाबी चम्पा का हमारी बगिया में

कहाँ दे पायी शाबाशी मैं उस चुनचुन चिड़िया को
दिखा गयी जो नाच
बस कुछ दाने चुगकर बालकनी में

पर कह देती हूँ धन्यवाद हर बार सहायिका से
जो करती है काम पैसे लेकर
बड़े ही अनमने तरीके से घर में

सहायिका का होना तय करता है
चम्पा का गुलाबी होना मेरे लिए
और यह जानना कि नाच सकती है चुनचुन चिड़िया

कितना ज़रूरी है सहायिका का होना जीवन में

-----सुलोचना वर्मा----------

Friday, June 6, 2014

सच्चाई है माँ

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जब खीझ जाती हूँ किसी पर
तो कहती हूँ "ओह जीसस"
"हे भगवान्" भी कह देती हूँ कभी कभार


जब गर्मी कर देती है पस्त
आवाज़ देती हूँ "अल्लाह" को
और मांगती हूँ पानी जो बरसे बनकर फुहार


पर जब भी गिर पड़ती हूँ खाकर ठोकर
जुबाँ पर होता है जीवन का पहला शब्द
चिल्लाती हूँ "माँ" जब भी होता है अन्धकार


माँ है चट्टानों पर लिखी गई एक दुआ
जिसे पढ़ते हैं सभी धर्मों के लोग
अपनी अपनी भाषा में
ईश्वर अफवाह है; सच्चाई है माँ


सुलोचना वर्मा

Thursday, June 5, 2014

माथे पर शिकन

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नहीं हँसते अब हाथी अरण्य में
विचरते हैं लिए माथे पर शिकन
तस्कर ही तस्कर फैले जंगल में
और शेष रह गए हैं  जीव नगण्य


रहता है शेर अब चिड़ियाघर में 
और चिड़ियों के माथे पर शिकन
थक गया विचर कर सूने नभ में
अब हाय ले वो किस धाम शरण


दिन रात कट रहे वृक्ष चन्दन के
है भुजंग के माथे पर शिकन
हो गया परिणत क्यूँ रणभूमि में
देता था कभी आश्रय जो अभ्यारण


चिंतित वसुधा के संग पुष्प लता
उभरा प्रकृति के माथे पर शिकन
छुप ना जाएँ किताबों की स्याही में
रह जाएँ न बन मात्र उदाहरण


नित हो रहा क्षीण ओजोन परत
इस ब्रह्माण्ड के माथे पर शिकन
साँसों में घुल रहा विषैला धुआँ
और धरती का हो रहा चीर हरण 


बनाकर पेड़ों के शव पर महल
अब मानव के भी माथे पर शिकन
जो करता रहा इस कदर विकास
क्या हो पायेगा संतुलित पर्यावरण


मृतप्राय प्रकृति और मानव है मौन
लिए अपने-अपने माथे पर शिकन
पिघल रहा हिमालय, प्रदूषित गंगा
भौतिकता में है तन्द्रामय अंतःकरण


(c)सुलोचना वर्मा
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Wednesday, June 4, 2014

कविता

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जब कविता छपती है अखबारों में
कुछ शब्द जोड़ती है हौंसलों के
अनुभवों के खाते से निकाल कर 


जब कविता गाती है किसी गीत समारोह में
तो उम्मीदों को देती है स्वर
अपने अधूरे सपनो से लेकर उधार 


पर जब खूबसूरत कविता लौट आती है घर
साहस नहीं रह जाता शेष अनुभवों के खाते में
उम्मीदें दब जाती हैं कर्जदारों के स्वप्निल स्वर में


खत्म हो जाती है इसप्रकार एक बेहतरीन कविता
जिसका छपते रहना और गाते रहना था बेहद ज़रूरी


सुलोचना वर्मा

Sunday, June 1, 2014

कहो ना प्रेयस

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कहो ना प्रेयस, क्या करोगे
पढ़कर 
मेरी जिन्दगी की किताब 
जबकि नहीं पढ़ पाये हो वह ख़त
रखा है जो मेरी पलकों की दहलीज़ पर
बड़े ही सलीके से मैंने एक अरसे से


कहते हो कि गंध है मुझमे मेरे गाँव की मिट्टी की
पर नहीं सूंघ पाते हो मेरी देह के मर्तबान को
रखा है जिसमे किसी की यादों का अचार
जो महक उठता है तुम्हारे लफ्फाजी की धूप पाकर
और कर जाता है खट्टा मेरे बेबस मन का स्वाद


कहो ना प्रेयस, क्या ले पाओगे
मुझसे मेरे असन्तुष्ट शब्दों को 
छिड़क पाओगे उनमे संतुष्टि का गुलाब जल
खा पाओगे मर्तबान में पड़े अचार को स्वाद लेकर
भर पाओगे खाली मर्तबान में स्नेह का रूह अफज़ा ?


कहते हो कि बन जाओगे रांझा तुम मेरे प्रेम में
लिख जाओगे अपनी उम्र मेरे नाम खाकर ज़हर
जबकि मेरी जिंदगी को घेर रखा है मुसीबतों के पहाड़ ने
और दरकार है इसे किसी दशरथ मांझी जैसे की
जो करे हौसले से घनिष्टता, ढाए मुसीबतों पर कहर 


कहो ना प्रेयस,  बन पाओगे वटवृक्ष
जिस पर रेंगे मेरे प्रेम की तरुवल्लरी
मान पाओगे कि फिर भी मेरा अपना है आस्तित्व
क्या जानते हो नहीं रखूंगी व्रत वट-सावित्री का मैं 
क्या समझ पाओगे इस रूप में तुम मेरा स्त्रीत्व


कहते हो कि नहीं समझ आती है मुझे प्रेम की भाषा 
दिखलाना चाहते हो प्रेम का सुन्दर प्रतीक ताजमहल
जबकि सुलग रही हूँ कब से मैं जीवन की अंगीठी पर
रूह का तवा जहाँ हो चुका है जलते जलते लाल
और कसैला हो चुका है जुबान के ताम्रपात्र में रखा जल


कहो ना प्रेयस, सावन बन पाओगे
बरस पाओगे मेरे अंतस की सूखी धरती पर
मांज पाओगे जतन से मेरे रूह का लाल तवा
बदल पाओगे मेरी जुबान की तासीर
मेरी परवाह के साथ समय के नीम्बू सत्व से


कहो ना प्रेयस, प्रेयस बने रहोगे
यह जानकार कि नहीं आसान होता
प्रेयसी के मन की किताब को पढना
पढते रहना और प्रेयस बने रहना
जीवन के अनंत वसंत के उस पार


--सुलोचना वर्मा------

Friday, May 30, 2014

सोने की चिड़ियाँ

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विश्व के मानचित्र पर
आज भी चिन्हित है वह देश
कहलाता था जो कभी विश्व गुरु
और था समृद्ध हर दृष्टि से  
हर लड़का होता था कान्हा उस देश का
और राधा कही जाती थी लडकियां

जब वहाँ हर डाल पर होता था बसेरा
सोने की चिड़ियाँ का
अक्सर बन जाया करती थी कुछ नारी
गणिका, नगरवधू या देवदासी
और ठीक उसी समय
पुरुष रहा करता था केवल पुरुष

जहाँ नारी स्त्री से बन जाती थी सती
पुरुष बना रहता था पति
मृत्यु शैया तक
जहाँ रानियों को मान लेना होता था जौहर
पुरुष बना रहता था शौहर
बहुपत्नीवाले सभ्य समाज में
नहीं थी शिकायत किसी को भी
समाज की इस दोहरी बनावट से
ना ही स्त्री को , ना ही पुरुष को
और असर था यह ज्ञान का
जो दिया जाता रहा लिंग के आधार पर

आधुनिकता के इस दौर में 
सचमुच की जीवित चिड़ियों के साथ
गायब है सोने की चिड़ियाँ डाल पर से
नहीं रोते लोग यहाँ अब लड़की के जन्म पर
उसे तो जन्म लेने ही नहीं देते
और जो ले चुकी है जन्म
करते हैं उनका शोषण; हर प्रकार से
फिर लहराते हैं किसी पेड़ पर परचम
अपने पुरुषत्व का डंके की चोट पर

तरक्की कर ली है हमने हर मायने में
और जारी है हमारा सभ्य होते रहना
इतना सभ्य हो जाएगा
इस समाज का पुरुष  निकट भविष्य में
बाँट लेगा पत्नी को भाई -बंधुओं में
बता देगा इस कृत्य को माँ का परम आदेश
और माँ ? क्या करेगी माँ ?
खींच देगी बहु का घूंघट कुछ ज्यादा ही लम्बा
कि नहीं करना पड़े सामना
उसकी आँखों में तैरते सवालों का
दर्द का, नफरत का
या समझा लेगी खुद को यह कहकर
कि गलती कर जाया करते हैं लड़के
या फिर जश्न मना रही होगी
अपनी अजन्मी बेटियों को जन्म नहीं देने का

ये सिलसिला चलता रहेगा तब तक
जब रह जायेगी धरती पर
एक अकेली औरत
ठीक उसी समय आएगा
किसी धर्म का कोई गुरु
जो बांचेगा ज्ञान यह कहकर
कि बनाया है औरत को उसने अपनी पसली से
और उस औरत का धर्म होगा तय
सभ्यता को आगे बढ़ाना !!!!

इस प्रकार पार कर
असभ्यताओं की सारी सीमाएं
करेगा मानव प्रवेश पुनः
किसी सभ्यता वाले युग में
जहाँ हर डाल पर फिर होगा बसेरा
सोने की चिड़ियाँ का |


सुलोचना वर्मा

Tuesday, May 27, 2014

मेरे जैसा कुछ

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नहीं हो पायी विदा
मैं उस घर से
और रह गया शेष वहाँ
मेरे जैसा कुछ


पेल्मेट के ऊपर रखे मनीप्लांट में
मौजूद रही मैं
साल दर साल


छिपी रही मैं
लकड़ी की अलगनी में
पीछे की कतार में


पड़ी रही मैं
शीशे के शो-केस में सजे
गुड्डे - गुड़ियों के बीच


महकती रही मैं
आँगन में लगे
माधवीलता की बेलों में


दबी रही मैं
माँ के संदूक में संभाल कर रखी गयी
बचपन की छोटी बड़ी चीजों में 


ढूँढ ली गयी हर रोज़
पिता द्वारा
ताखे पर सजाकर रखी उपलब्धियों में


रह गयी मैं
पूजा घर में
सिंहासन के सामने बनी अल्पना में


हाँ, बदल गया है
अब मेरे रहने का सलीका
जो मैं थी, वो नहीं रही मैं |


---------सुलोचना वर्मा -------

Monday, May 26, 2014

उम्र

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मेरे तुम्हारे बीच
आकर ठहर गया है
एक लम्बा मौन
छुपी हैं जिसमे
उम्र भर की शिकायतें
हर एक शिकायत की
है अपनी अपनी उम्र

उम्र लम्बी है शिकायतों की
और उम्र से लम्बा है मौन

-----सुलोचना वर्मा------

Saturday, May 24, 2014

मोती

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मैं मरुथल की रेत-सी
गाती हूँ राग मियाँ की मल्हार
जिसमे करती हूँ ज़िक्र तुम्हारा
बड़े ही जतन से
गांधार स्वर की मानिंद


तुम हवा से बन जाते हो बवंडर,
भींच लेते हो मुझे अपने दामन में
उकेरता है एक बहुआयामी अमूर्त रेखा चित्र
रेगिस्तान की ज़मीं पर
हमारा यह सूफी कत्थक वैले


जल उठता है रात का अँधेरा
लिखता है मेरे दामन पर प्यार-पानी से
फिसलने लगते हैं गीत के बोल मेरे होठों से
और हो जाते हैं बंद किसी सीपी में 


सुनो हवा ,
सावन के बाद जो आओ मुझसे मिलने
लगा लेना कान अपना सीपी में
और सुन लेना कजरी धीरे से
ढूँढ लेना मेरा वजूद उस सीपी में बंद
मेरे शब्दों के मोती में 


सुलोचना वर्मा

Saturday, May 17, 2014

सादगी

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रूठ गयी चूड़ियाँ कलाई से
आईना देखता रहा 
बिंदी जा लिपटी मेरी परछाई से
और देखती रही एकटक मुझे |


मुझे मुझमे विलीन होता देख
जाते-जाते  बिछिया ने पाँव में काटी
एक ज़ोरदार चिकोटी  !


भारी हो उठा पाजेब द्वन्द में
घूँघरू मोती बरसाते रहे
बिलख उठा बाजू पर बँधा ताबीज़
पिघलता चला गया उसमे भरा मोम
और उड़ गयी दुआ पंख लगाकर दूर वीरानो में |


आँखों ने सोख लिया सारा का सारा काजल
और भरती ही चली गई अंतस की सुरमेदानी में |


घूर रही हैं पेशानी पर तैरते सवालों को
मेरी बेनाम सी अधूरी ख्वाहिशें
कुछ और उलझ गयी हैं
मेरे माथे की मुलायम लटें
शूल सा चुभ रहा है ह्रदय में
गले की हार से लगा लॉकेट
लहुलुहान कर गया मुझे बेतरतीब होकर
सादगी का ये प्रौढ़ आलिंगन !!!


(c)सुलोचना वर्मा

Friday, May 16, 2014

स्वीकृति

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प्रेम की पराकाष्ठा कहें
या केवल एक विडंबना
आत्मा दे देती है स्वीकृति
प्रेम में पराधीनता की
मौनव्रत धारण किये


कदाचित सुन पाते अन्तर्नाद
मर्यादाओं की दहलीज़ पर खड़े मूक प्राण की
स्वीकारोक्ति के आचरण की
सुन लेते हैं जैसे लोग विरोधाभास
अक्सर किसी शीतयुद्ध में |


(c)सुलोचना वर्मा

वटवृक्ष

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क्यूँ व्यथित हो वटवृक्ष
जो रेंग रही हैं तुम्हारे तन पर अमरबेलें
और जकड़ रही है निशिदिन
तुम्हे निज बाहुपाश में


नहीं, तुम असहाय नहीं
ये  है सामर्थ्य तुम्हारा
कि धरा है तुमने धरणी को अपनी बहुभुजाओं से
देना औरो को आश्रय, रचा है विधाता ने तुम्हारी नियति में


सनद रहे ! तुम्हारी कोटरों में
रहते है विषयुक्त काले सर्प
फैलाकर चलते फन, जब भी जाते भ्रमण को
और अपने गरल पर व्यर्थ ही करते दर्प


तुम्हारी क्षमता का परिचायक हैं
तुम्हारी असंख्य शाखाओं पर पत्तों की भरमार
तुम्हें होना है परिणत कल्पतरु में
और करना है पोषित ये समस्त संसार


ना हो व्यथित, कि तुम हो वटवृक्ष
सह लो थोड़ा संताप, धरे रहो तुम धीर
और करो अभिमान निज पर कि तुम्हारी छाया में रहकर
सिद्धार्थ "गौतम" कहलाये


पढ़ा होगा हर एक पत्ते को तप के तमाम वर्षों में 
और तथागत ने सीखा होगा धैर्य का पाठ तुम्ही से
सीखा होगा तृष्णा का त्याग, प्रज्ञा की वृद्धि तुम्हारे आचरणरुपी धर्म से
धर्म, जो यह बताए कि करुणा से भी अधिक मैत्री है आवश्यक |
 

सुलोचना वर्मा

Monday, May 12, 2014

पागल चित्रकार

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मेरे सपनों के कैनवास पर
जल से ही सही
पर उकेरुंगा तुम्हारी तस्वीर
और तुम्हें वृष्टि की सूरत देकर
रंग लेगा मल्हार अपनी तकदीर


पर नहीं चाहूँगा सोख ले तुम्हे मिटटी
तो इस चित्र में तुम्हे बरसना होगा पथरीली सतह पर
बह जाना होगा लेकर रूप सरिता का
नहीं चाहूंगा बंधों तुम कभी तटबंधों में
समर्पण तुमसे नहीं मांगूगा मैं वनिता का


तुम्हें अल्हड़पन देने को बलखा जायेगी मेरी तूलिका
फिर आँखें मूंदकर सुनूँगा तुम्हारा कल कल
ले जाना चाहता हूँ तुम्हे ऊँचे पहाड़ों तक
जहाँ निहारूंगा तुम्हे झरना बनते देख
अपने रोमानी जीवन के समस्त बहारों तक


साथ निभाऊंगा तुम्हारा मैं, दूर दूर रहकर
और करता रहूँगा प्रवाहित अपनी संवेदनाओं का शिलाखंड
जब जब करेगा नीरस मुझे तुम्हारा मौन
जबकि जानता हूँ यह मेरी भक्ति मात्र होगी
तुम्हारा प्रसाद पानेवाला होता हूँ मैं कौन


करूंगा वेदोच्चारण, गाऊंगा मंगल गान
जब होगा तुम्हारा मिलन अपने सागर के संग
वो बन जाएगा मांझी, थाम लेगा पतवार
और इस घटना के पश्चात सर्वस्व तुम्हारा होगा
बस रह जायेगी नम मेरे घर की दीवार


जानता हूँ जब वृष्टि बन जायेगी नदी,
वो गुजरेगी मेरे पथरीले अंतस से 
मैं हो जाऊँगा उसके जैसा पावन, निर्विकार
प्रेम में नदी को ही जीता रहूँगा कई साल 
आखिर मैं ठहरा एक पागल चित्रकार |


सुलोचना वर्मा

Friday, May 9, 2014

दो चोटी वाली लड़की

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ना इतराना दो चोटी वाली लड़की
जो कह दे तुम्हें कोई गुलाब का फूल
कि जो ऐसा हुआ
ताक पर रख दी जायेगी तुम्हारी बौद्धिकता
फिर तुम्हें दिखना होगा सुन्दर
तुम्हें महकना भी होगा
फिर .........
चर्म इन्द्रि से देखना चाहेंगे लोग तुम्हारा सौन्दर्य
और लगभग भूल जायेंगे विलोचन की उपस्थिति
उमड़ पड़ेंगे लोग लेने तुम्हारा सुवास
कुछ लोग महानता का ढोंग भी रचेंगे
और तुम्हारा कर देंगे उत्सर्ग किसी देवता के चरणों में
इन सभी परिस्थितियों में
बिखर जायेंगी तुम्हारी पंखुडियाँ
और तुम्हे मुरझा जाना होगा


क्या जानती हो दो चोटी वाली लड़की
नहीं ख़त्म होगी बात तुम्हारे मुरझा जाने पर
और समाज सोचेगा भी नहीं
कि वह कर देगा व्यक्त अपनी मानसिक अस्‍वस्‍थता को 
जब जब करेगा प्रश्न तुम्हारे यौन शुचिता की
और तुम बनी रह जाओगी केवल और केवल
एक शर्मनाक विषय,
एक नीरस चर्चा,
जिसे समाज स्त्री कहता है 


सुनो दो चोटी वाली लड़की
तुम्हें बनना है बछेंद्री पाल
और नाप लेना है माउंट एवरेस्ट
गाड़ देना है झंडा अपने वजूद का
और अपने नाम का परचम लहराना है
विश्व के सबसे ऊँचे पर्वत शिखर पर .......


तुम्हे मैरीकॉम भी बनना है दो चोटी वाली लड़की
कि तुम जड़ सको जोरदार घूँसा
हर उस मनहूस चेहरे पर
जिसकी भंगिमाएँ बदलती हों
तुम्हारे शरीर की बदलती ज्यामिति पर ......


दो चोटी वाली लड़की, बन सकती हो तुम मैरी अंडरसन
जो करे इजाद एक ऐसा विंडशील्ड वाइपर
जिसे लोग करे इस्तेमाल
अपने दिमाग पर पड़े धुल को धोने के लिए
और फिर एक हो जाए उनका रवैया लड़का और लड़की के लिए .....


बन सकती हो तुम ग्रेस हूपर दो चोटी वाली लड़की
और लिख सकती है कोबोल जैसी कोई नयी भाषा
जिसे पढ़ें उभय लिंग के प्राणी बिना भेदभाव के
और डिस्प्ले लिखकर कहे "हेल्लो वर्ल्ड "
बड़े ही जिंदादिली और बेबाकी के साथ .......


जो ऐसा कुछ नहीं बन पायी दो चोटी वाली लड़की
तो कर लेना अनुसरण अपने पिता का...खेतों... खलिहानों  तक
लगा लेना झूला आम के किसी पेड़ पर और बौरा जाना
जैसे बौराती है अमिया की डाली फागुन में
खूब गाना कजरी सखियों के संग मिलकर
ऐसे में कहीं जो कोई धर दे तुम्हारी जुबां पर हाथ
मंथर होने लगे तुम्हारी आवाज़
उठा लेना हाथ में हंसुआ
और काट देना गन्दी फसल को......... जड़ से....
फिर खोल लेना अपनी चोटियाँ मुक्तिबोध में
बना लेना गजरा खेत के मेड़ पर उग आये वनफूलों से
खोंस लेना बालों में आत्मविश्वास के साथ
चल पड़ना हवा के बहाव की दिशा में
कि तुम हो प्रकृति
तुम्हे रहना है हरा भरा...हर हाल में |


बताओ न, दो चोटी वाली लड़की,
तुम्हें क्या बनना है ?


-----(c)सुलोचना वर्मा--------------

Monday, May 5, 2014

एक रही अनीता

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एक रही अनीता
और उसका होना रहा आशीर्वाद
जैसे ऋचाओं की गूँज पर ईश्वर से संवाद


उसकी छवि ऐसी धवल
जैसे हरश्रृंगार का फूल
और रश्मि प्रात नवल


जो एक रही अनीता
जा बसी नभ के उस पार 
हमारी यादों के झील में 
अनीता फिर भी रही


-----सुलोचना वर्मा ------

Friday, May 2, 2014

एक नदी

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मेरे और तुम्हारे देश के बीच
बहती है एक नदी
जो तय करती है हम दोनों की
अपनी- अपनी पहचान
जिसे मैं गंगा कहती हूँ और तुम पद्मा
नदी, जो एक है
बँटकर भी नहीं बदल पाती है अपना स्वाद
और झेलती रहती है असंख्य पीड़ा
उसकी असंतुष्टि भर देती है उसमे अवसाद का उन्माद
बहा ले जाती है दूर दूर तक अपने दोनों किनारों को
निज के विभाजन का उत्तरदायी जान
करती है चित्कार, जो गूँजता है शुन्य में
जिसे नहीं सुन पाते किसी भी एक देश के बासिन्दे
फिर हमारी निर्ममता पर होकर विवश
समेट लेती है अपने दोनों किनारों को
और ढूँढने लगती है अपने आस्तित्व का अर्थ |

नदी का आत्ममंथन, कहीं मंद ना कर दे उसकी धार
और उसके निज के होने के अभिप्राय का अनुसंधान
कहीं ना कर दे उसे किसी अनजान पथ पर विचलित
आखिर वो नदी है; और उसे पालन करते रहना है 
निर्दिष्ट दिशा में अविरल चलते रहने का क्रम......

जब बाँटा गया नदी को
तो तय कर दी गयी उसकी भाषा
हमारी सीमा-रेखा में वो करेगी छल-छल
और तुम्हारे देश में कल-कल बहेगी
हमारी सोच कितनी भी संकीर्ण हो
नदी का विशाल ह्रदय है
लम्बी कर देती है हर उस वस्तु की छाया
जो उसमे जाकर गिरती है !
बता देती है हर एक को उसकी औकात
या यूँ कहें कि व्यक्त करती है
अपने उदार व्यक्तित्व को नए प्रकाश में |

नदी की बात छोड़ो, हम अपनी बात करते हैं
चलो अपने सपनो को हम आज पंख देते हैं
और प्रेम को देते हैं एक नया आयाम
सुनो, मैं इस पार से झांकती हूँ अपने गंगा में
तुम उस पार अपने पद्मा में झाँको
और नदी, जो है हम दोनों की अपनी
कर देगी विस्तृत हमारी छाया
और नदी के लगभग बीचोबीच
हमारे मिलन का साक्षी होगा अनंत आकाश !!!!

सुलोचना वर्मा

Friday, April 25, 2014

वृंदा की अद्भुत छवि

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एक दिन मेरी कविता उकेर रही थी
वृंदा की अद्भुत छवि
जिसमें रंग उभर रहे थे तरह तरह के
उसके अभिशाप और उसकी पवित्रता से जुड़े
प्रत्येक रंग का था अपना-अपना प्रश्न
जिनका उत्तर देने हेतु प्रकट होते हैं श्री कृष्ण
और उनके तन पर होती है -गुलाबी रंग की धोती
विदित है उन्हें - नहीं भाता है मुझको पीला रंग
यहाँ उनका वर्ण भी श्याम नहीं होता है
होता है गेहुआं- मेरी पसंद की मानिंद 


फिर होता है कुछ ऐसा  कि
भनक पड़ जाती है राधा को उनके आने की
सरपट दौड़ आती है लिए अपने खुले काले केश
जिसे गूंथने लगते हैं बड़े ही जतन से राधारमण
राधा छेड़ देती है तान राग कम्बोज की
धरकर माधव की बांसुरी अपने अधरों पर


झूमने लगता है मेरे मन का श्वेत मयूर
मैं लीन हो जाती हूँ वंशी की उस धुन पर
कि तभी शोर मचाता है धर्म का एक ठेकेदार
लगाया जाता है आरोप मुझपर -तथ्यों से छेड़खानी का
पूछे जाते हैं कई प्रश्न धर्म के कटघरे में
माँगे जाते हैं कई प्रमाण मुझसे
गुलाबी धोती से लेकर, राधा के वंशीवादन तक
कृष्ण के वर्ण से लेकर, मन के श्वेत मयूर तक


मैं लेकर दीर्घ-निश्वास, रह जाती हूँ मौन 
और मेरे मौन पर मुखड़ हो उठती है मेरी कविता 
पूछती है धर्म के उस ठेकेदार से
कि जब पढ़ा था उसने सारा धर्मग्रन्थ
तो क्यूँ बस पढ़ा था उसने केवल शब्दों को
क्यूँ नहीं समझ पाया वह उनका अभिप्राय
प्रेम में कृष्ण भी कहाँ रह पाए थे केवल कृष्ण
उनके वस्त्र का गुलाबी होना प्रेम की सार्थकता थी
राधा ने माधव की वंशी से गाया- वही राग कम्बोज
कृष्ण प्रतीक हैं प्रेम का, और प्रेम का कोई वर्ण नहीं होता
जो कभी अपने अधूरे ज्ञान से झांककर देखोगे बाहर
जान पाओगे कि मयूर श्वेत भी होता है !!!

लौट जाता है कुंठा लिए धर्म का ठेकेदार
और  ढूँढने लगता है व्यस्त होकर
राग कम्बोज का उल्लेख -उन्ही धर्मग्रंथों में
अंतर्ध्यान हो जाते हैं राधा संग कृष्ण
रो देती है वृंदा इस पूरे घटनाक्रम पर
बह जाते हैं रंग उसकी अश्रुधार से 
अनुत्तरित रह जाते हैं मेरी कविता में
रंगों के तमाम प्रश्न
रंग- जिन्हें भरना था वृंदा की अद्भुत छवि को |


(C) सुलोचना वर्मा