Wednesday, February 25, 2015

नागफनी

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पल्लवी के आते ही मधुपुर के सतीश का मकान घर जैसा दिखने लगा था| घर के आँगन में, जहाँ पहले चापाकल और एक नीम का पेड़ एक दूसरे का आसरा बने खड़े थे, अब वहाँ चारों ओर क्यारियों में सुन्दर-सुन्दर फूलों के इर्द-गिर्द तितलियाँ मंडराती फिरती थीं| घर साफ़ सुथरा रहने लगा था| ठीक जैसे वह सुलगती रहती अन्दर ही अन्दर, आँगन के बीच में तुलसी चौरे पर अब एक दीया जला करता था| शाम में जलते हुए दीये की रौशनी के बीच उसका मन बुझा-बुझा सा रहता|


घर में वैसे तो किसी चीज़ की कमी नहीं थी; पर शादी हुए दो साल बीत गए थे और घर में किलकारियाँ नहीं गूँजी थीं| वैसे तो पिछले एक साल से सतीश और पल्लवी शहर के सात चक्कर लगा आये | हर बार अलग-अलग डॉक्टरों ने सभी कुछ ठीक होने की बात कही, पर जैसा कि होता आया है, दोषी सिर्फ स्त्री ही मानी जाती है| समाज के साथ-साथ पति ने अपनी ज़िम्मेदारियाँ निभायीं|


"मरुभूमि में नागफनी ही उगता है; फूल नहीं खिलता...." कहता हुआ पति स्वयं को दोषमुक्त प्रमाणित करने की कोशिश करता|

पल्लवी सारे जहान का ताना बर्दाश्त कर लेती, परन्तु पति की बात सुनते ही नागफनी के कांटे सा कुछ उसके मन में चुभने लगता| वह सतीश की बातों का कोई जवाब नहीं देती| हर बार घर के अहाते में लगे नागफनी से एक डाल काटती और उसे आसपास रोप देती| इसप्रकार मन में चुभते शब्दों पर धैर्य की मिटटी डाल देती| शादी के पहले साल मनसा पूजा के लिए पड़ोस से नागफनी की एक डाल काटकर ले आई थी| पूजा कने के बाद उसे घर के अहाते में रोप दिया था| पल्लवी बिला वज़ह ताना सुनती रहती और घर के काम काज में दिल लगाती|

गुलाब, पड़ोस के ही गाँव इस्लामपुर का रहनेवाला था और मधुपुर में घर-घर जाकर अंडे बेचता था| वह सप्ताह में मधुपुर के दो चक्कर लगा ही लेता था| वह जब भी सतीश के घर जाता, पल्लवी अंडे लेकर रसोई की ओर जाती और लौटते हुए गुलाब की हाथों में चार बताशे थमाती हुई पानी की गिलास पकड़ाती| फिर रूपये देकर उसे विदा करती थी| गुलाब को पहले पहल यह अटपटा सा लगा था| जब सतीश की शादी के बाद वह पहली बार अंडे लेकर उसके घर पहुंचा, पल्लवी ने उसके हाथ से अंडे लिए और उसे बरामदे में बैठने को कहकर घर के अन्दर चली गयी| जब लौटकर आई तो एक तश्तरी में चार बताशे और एक गिलास पानी गुलाब की ओर बढ़ाया| गुलाब ने अचरज भरी दृष्टि से उसे देखा और उससे कहा कि वह उसे बस रूपये दे दे| तब पल्लवी ने मुस्कुराते हुए कहा था "इतनी तेज धूप में बाहर से आ रहे हो; इन बताशों को खाकर पानी पी लो; फिर रूपये भी ले जाना"

"जी, बताशे तो रहने दें, मैं पानी पी लेता हूँ" गुलाब ने सकुचाते हुए कहा था|

"अरे नहीं, इतनी तेज धूप से आकर भी भला कोई सीधे पानी पीता है!! तबियत बिगड़ जायेगी" पल्लवी ने अधिकारपूर्वक आग्रह किया|

गुलाब ने एक साथ चारो बताशे मुँह में भरकर चबाये और फिर एक ही साँस में पानी का गिलास खाली कर गया| उसके बाद वह रूपये लेकर अगले घर की ओर चल पड़ा|

तब से वह क्रम यूँ ही चलता रहा| अब तो गुलाब को बताशों की आदत पड़ चुकी थी| एकबार उसने पल्लवी से पूछ ही लिया "आप हमेशा पानी से साथ हमेशा बताशे ही क्यूँ खिलाती हैं, कुछ और क्यूँ नहीं?"

पल्लवी ने धीमे से मुस्कुराते हुए कहा था "मैं यह बताशे प्रसाद में चढ़ाती हूँ और फिर पूजा के बाद इन्हें डिब्बे में बंद कर देती हूँ कि कभी कोई धूप से बाहर आये तो इसे खाकर ही पानी पिये"

"तो आप प्रसाद नहीं...."

गुलाब की बात को बीच में ही काटती हुई पल्लवी ने कहा था "नहीं, मैं नहीं खाती| मुझे मीठा पसंद नहीं"

एकबार जब गुलाब अंडे लेकर सतीश के घर पहुँचा, पल्लवी अहाते से नागफनी की डाल काटकर उसे रोप रही थी और उसकी आँखों से दर्द बह रहा था|

"क्या हुआ आपको? आप रो रही हैं?" पूछते हुए गुलाब ने अंडो को बरामदे में रखा

"कुछ नहीं, मैं अभी आयी" कहकर आँचल से आँख पोछती हुई पल्लवी अन्दर चली गयी

थोड़ी ही देर बाद पल्लवी तश्तरी में बताशे और पानी का गिलास लेकर बरामदे में आ गयी| गुलाब ने बिना कुछ पूछे आदत के मुताबिक़ एक साथ चारों बताशे मुँह में डालकर चबाया और फिर गिलास भर पानी पी गया| फिर रूपये लेकर चला गया| अभी अंडे लेकर अगले घर पहुँचा ही था कि उसके कानों तक कुछ शब्द उड़ते-उड़ते आ ही गए| बात उसकी समझ में आ गयी|

लगभग डेढ़ साल बाद एकदिन फिर वही मंज़र गुलाब की आँखों के आगे था| पल्लवी और नागफनी एक-दुसरे पर आँसू  बहा रहे थे| गुलाब चुपचाप आकर बरामदे में बैठ गया| उसने उस मकान को घर बनते देखा था| पल्लवी के आने के बाद जो घर फूलों से सज गया था; अब वहाँ गिनती के फूल रह गए थे| तुलसी मुरझा गयी थी और बगान से लेकर बरामदे तक नागफनी ही नागफनी दिखाई दे रहा था| अचानक पल्लवी बताशे और पानी के साथ बरामदे में आई| अभी रूपये लाने के लिए मुड़ी ही थी कि गुलाब ने उसका हाथ पकड़ लिया| पल्लवी को पल भर ऐसा लगा जैसे किसी ने उसके पाँव के नीचे से जमीन खींच ली| उसने आश्चर्य से गुलाब की ओर देखा| उसके कुछ कहने से पहले ही गुलाब कहने लगा "और कितना सहोगी? पिछले तीन सालों से मैं सब देख रहा हूँ| ये घर क्यूँ नहीं छोड़ देती?"

"कहाँ जाऊँगी? कैसे मरद हो, इतना भी नहीं जानते कि अब इस घर से मेरी अर्थी ही बाहर जा सकती है!! वैसे भी जो नसीब में लिखा है, उसे स्वीकार कर लेने में ही भलाई है"

"काहे का नसीब और काहे की भलाई!! तुम्हारे हिस्से नागफनी नहीं, गुलाब होना चाहिए!! चलोगी मेरे साथ?"

"यह नहीं हो सकता.....यह संभव ही नहीं है...........लोग क्या कहेंगे"

"क्या कहेंगे, अब भी कुल्टा, मनहूस और न जाने क्या-क्या कहते हैं और तब भी वही कहेंगे!!! क्यूँ करती हो उन सबकी परवाह जो तुम्हारे हिस्से का दुःख तक नहीं बाँट सकते? मुझे तुम्हारी आदत सी हो गयी है| इतना प्रेम तो मुझे आज तक किसी से नहीं मिला| चलो, हम दोनों मिलकर एक नई जिंदगी की शुरुआत करते हैं| मैं कल सुबह पोखर के पास तुम्हारा इंतज़ार करूँगा" कहकर गुलाब तेजी से घर के बाहर निकल गया|

पल्लवी के मन में रात भर उधेर बुन चलता रहा; पर हर बार वह एक ही निष्कर्ष पर पँहुचती| अब उसे इंतज़ार था एक नई सुबह का| वह सुबह भी आई और वह गुलाब का हाथ थामे अपरिचित रास्ते पर चलने लगी| उसी रोज़ सतीश के घर में लगा फूल का आखिरी पौधा भी मुरझा गया| शेष रह गया नागफनी|

साढ़े चार किलोमीटर की दूरी तय करने के बाद गुलाब अब अपने गाँव आ पहुँचा था| जिस हिम्मत के साथ वह पल्लवी का हाथ थामे उसे उसके ससुराल से ले आया था, वही हिम्मत अब उसका साथ नहीं दे रही थी|

गुलाब की माँ चिल्लायी "हलक से निकली बात फ़लक तक पहुँच जाती है और फिर पल्लवी तो पास के ही गाँव की बहू है| पूरे गाँव में हमारे नाम की थू-थू होगी!! तुम्हे अपने जात-बिरादरी की कोई कुँआरी लड़की नहीं मिली ?? हाय ! मुझे ज़हर क्यूँ नहीं दे दिया ऐसा करने के पहले...."

अड़ोस-पड़ोस के लोगों ने भी भला-बुरा कहना शुरू कर दिया था| गुलाब पल्लवी को लेकर श्रीकान्त बाबू के घर गया और वहाँ जाते ही उनकी पत्नी के पैरों पर गिर पड़ा| गुलाब की माँ  कुछ साल पहले तक श्रीकान्त बाबू के घर बर्तन माँजा करती थी| अब उसके बेटे जवान हो गए थे और उसके बेटों ने उसे काम करने की मनाही कर रखी थी|

"हम दोनों को बचा लीजिये गौरी चाची"

"कौन है यह"

"अब यह मेरी पत्नी है| मेरी माँ को आप ही समझा सकती हैं| यह बेचारी उस घर में बड़े कष्ट झेल रही थी| अब मैं ही इसका सहारा हूँ"

इतने में गुलाब की माँ वहाँ पहुँच गई| रोते हुए उसने पूरी बात बतायी| वह रह रहकर अपने बेटे को कोस भी रही थी|
गौरी चाची अत्यधिक धार्मिक होते हुए भी आधुनिक सोच की महिला थीं| उनकी बात पूरा गाँव मानता था| उन्होंने पहले गुलाब और पल्लवी को समझाया कि उनका इस तरह विवाह करना सही नहीं था और पल्लवी को पहले तलाक लेना था| साथ ही गुलाब की माँ को समझाया कि जो होना था वह तो हो ही गया| अब पल्लवी को बहु मान लेने में ही समझदारी है|

अब इस रिश्ते को मान लेने के अलावे गुलाब की माँ के पास कोई विकल्प न था| अंततः वह गुलाब और पल्लवी को अपने साथ घर ले गयी|

अभी घर के द्वार पर पहुंची ही थी कि पल्लवी की नजर द्वार पर लटकती नागफनी की डाल पर पड़ी| उसने अचरज से गुलाब की ओर देखा| गुलाब ने बताया कि उसके गाँव में लोग बुरी नज़र से बचने के लिए ऐसा टोटका करते हैं| फिर बिना किसी रस्म या रिवाज की औपचारिकता निभाये ही पल्लवी को घर के अन्दर ले जाया गया|
कल तक सतीश के घर में जहाँ पल्लवी का वक्त काटे न कटता था; नए घर में सुबह से शाम कब हो जाती थी, उसे पता ही न चलता| गुलाब के घर में उसके माँ-बाप के अतिरिक्त उसके तीन भाई, दो भाभियाँ, चार भतीजे और एक भतीजी थी| घर की नई बहु पर सब अपना रौब दिखाते|  घर में कमाने वाले कम और खानेवाले ज्यादा थे| सुबह से शाम तक घर का सारा काम करती और घर के बाकी सदस्यों के खाने के बाद जो बचता, उसे ही खाकर गुजर बसर करना पड़ता था|

ऐसा एक भी दिन नहीं बीतता जब गुलाब को एक शादीशुदा महिला से शादी करने लिए ताना नहीं दिया जाता हो| गुलाब किसी की बात का कोई जवाब दिए बिना सबकी बात चुपचाप सुन लेता| जैसे जैसे समय बीता, गुलाब में भी बदलाव आने लगा| अब जब कभी गुलाब के घरवाले पल्लवी को भला-बुरा कहते, गुलाब भी उनके साथ हो लेता| शादी के कुछ ही दिनों के बाद पल्लवी को गुलाब में काँटे नजर आने लगे| वह जो प्रेयस था अब वह भी पति के जैसा व्यवहार करने लगा था| एक दिन पल्लवी ने द्वार पर लगे नागफनी के डाल को घर के बाहर रोप दिया|
ग्यारह महीनों में पल्लवी सूखकर काँटा हो गयी थी| बालों में कंघी किए कई दिन गुजर जाते थे और उसके बदनसीब सूखे होठों पर पपड़ियाँ नागफनी की मानिंद उग आई थीं|

सर्दियाँ आ गयी थीं| एक दिन पल्लवी घर बुहारते हुए जैसे ही घर के बाहर बरामदे तक गयी, उसकी नजर नागफनी के पौधे पर पड़ी| उसमे फूल खिला था|  वह देर तक उस फूल को एकटक देखती रही और फिर एकदम से बेहोश हो गयी| होश में आने पर उसे बताया गया कि एक फूल उसकी कोख की मरुभूमि में लगे नागफनी पर भी उग आया था| यह खबर सुनते ही उसकी कानों में सतीश की आवाज़ गूँजने लगी| कमबख्त कहा करता था कि मरुभूमि में फूल नहीं खिलता|

गुलाब उसके सिरहाने बैठ उसके बालों को सहला रहा था| एक अरसे बाद पल्लवी को गुलाब की आँखों में प्रेम नजर आ रहा था| हालाँकि अपने अन्दर पल रहे उस नागफनी को सींचने की शक्ति अब उसमे बाँकी नहीं थी; पर एक लम्बे अंतराल के बाद उसे पति में फिर से प्रेयस दिख रहा था| आज तक वह इसी उम्मीद के सहारे ही तो जी रही थी कि किसी रोज़ पति की जगह अपने खोये हुए प्रेयस को पा लेगी; फिर ऐसे में उम्मीद से होने के अलावे उसके पास कोई और विकल्प भी नही था|

नौ खूबसूरत प्रेम महीने देखते ही देखते बीत गए| उस रोज़ गौरी चाची घर के सामने अपने बगीचे में पौधों को पानी दे रही थी कि तभी सामने सड़क की ओर से किसी के जोर जोर से रोने की आवाज उनके कानों में पड़ी| आवाज जानी पहचानी लग रही थी| घर के बाहर लगे लोहे की जालीवाले दरवाजे से झाँककर देखा, तो गुलाब की माँ थी|

"फूल सा सुन्दर बच्चा पैदा हुआ था, चुड़ैल खुद भी मरी और साथ उसे भी...."गुलाब की माँ दहारें मार-मारकर रो रही थी| गुलाब मुरझाया सा अपनी माँ के पीछे चल रहा था|  घर पहुँचते ही गुलाब अपने कमरे में गया जहाँ उसकी नजर दीवार पर टंगे अपने और पल्लवी की तस्वीर पर पड़ी| यह उसकी और पल्लवी की इकलौती तस्वीर थी जो पाँच महीने पहले हुजूर साहेब के मेले में खींचवायी थी| उसके शरीर में सिहरन-सी दौड़ रही थी और कांटे से खड़े होने लगे थे| उसे घबराहट महसूस हुई और वह तेजी से भागता हुआ घर के बरामदे पर रखी कुर्सी पर आ बैठा| अब उसकी आँखों के सामने नागफनी का वही पेड़ था जिसे पल्लवी ने ही रोपा था| उसका मन अवसाद से भर आया था| गुलाब खुद को संभालता हुआ उठ खड़ा हुआ और नागफनी की दो डालें काटकर उसे पास ही में रोप डाला| उस रोज़ के बाद गुलाब को किसी ने नहीं देखा|

चित्र :साभार गूगल

Tuesday, February 17, 2015

दादी

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जैसे पिरोकार फूल माली बनाता है माला
दादी ने पिरोकार हमें बनाया था परिवार
चिपकता है जैसे डाक टिकट लिफाफे से
जुड़ा था वैसे ही लोगों से दादी का सम्बन्ध


जब हुई तैयार माला और जुड़ गए धागे के दोनो सिरे
दादी ने छोड़ी माला और खुद चली गयी देव-देवियों के पास
कि कितना भी मँहगा लगा हो डाक टिकट, वहाँ चिठ्ठी नहीं पहुँचती
और ज़रूरी भी था देवताओं तक पहुँचाना संदेश
दादी हम सब की प्रार्थना थी , सो खुद ही चली गयी


उस दिन से एक तारा चमकता है अधिक औरों से
बढ़ी है मिठास आँगन मे लगे चापाकल के पानी मे
सुरभित है द्वार पे लगी माधवी लता पहले से भी ज़्यादा
और भी हैं ऐसी कई बातें, जहाँ दादी दिखती हैं ज़िंदा



---सुलोचना वर्मा------------

Sunday, February 8, 2015

माँ

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पूरे जग की आधी आबादी में है एक वह भी
करती हूँ जिसके नाम का उच्चारण हर रोज
ऐसा नहीं कि मेरे जीवन में नहीं है कोई और 
पर एक उसके होने से बना रहता है भरोसा
कि होती रहेगी हल हर समस्या जीवन की


लब से निकलती हर दुआ पुकारती है उसे ही
जबकि ऐसा नहीं कि निकलता हो दिव्य प्रकाश
उसके माथे के पीछे से वृत्त सा आकार लिए
पर जब कभी होती हूँ अँधेरे में मैं उसके साथ
जरुरत ही महसूस नहीं होती कभी रौशनी की


----सुलोचना वर्मा---------