Monday, January 22, 2018

कहानी का अंत

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ऐसा पहली बार था कि सुष्मिता किसी के जीवन पर आधारित कहानी लिख रही थी| अनमोल ने खुद ही एकदिन सुष्मिता को अपनी आपबीती सुनाते हुए कहा था "तुम तो लेखिका हो, मेरे जीवन पर एक उपन्यास लिख डालो"

"उपन्यास लिखने के लिए तो न जाने कितना इन्तजार करना पड़ेगा और कौन जाने आने वाले सालों में आपके जीवन में कौन सा मोड़ आ जाए | हाँ, बहरहाल एक कहानी जरूर लिखने की कोशिश रहेगी" सुष्मिता ने अनमने तरीके से कहा था |

डेढ़ बरस बाद एकदिन सुष्मिता को यह वाकया याद आया और उसने अनमोल की कहानी को जस का तस पन्ने पर उकेरना शुरू कर दिया | पिछली कई मुलाकातों  से जो कुछ भी जान पायी थी, कहानी में वो सब कुछ शामिल किया | कई पन्ने लिख लेने के बाद सुष्मिता को लगा कि कहानी के साथ न्याय करने के लिए उसे अनमोल के जीवन की घटनाओं को करीब से जानना होगा| 

अनमोल सुष्मिता को शादी का प्रस्ताव दे चूका था और सुष्मिता के उत्तर की प्रतीक्षा कर रहा था | जब भी सुष्मिता उससे कहती कि उसे कहानी पूरा करने के लिए उससे कई बातें पूछनी हैं तो अनमोल एक ही जवाब देता "जब तक तुम मेरे प्रस्ताव का जवाब नहीं दोगी, कहानी कैसी पूरी होगी| तुम्हारा जवाब ही कहानी को पूरा करेगा"

एक शाम सुष्मिता जब अस्पताल में डॉक्टर दिखाने के क्रम में अपनी बारी का इंतजार कर रही थी, अनमोल उसके ठीक बगल में बैठा था | वह सुष्मिता का साथ देने  के लिए ही वहाँ गया था | सुष्मिता को लगा कि वक़्त का सही उपयोग अनमोल से उन तमाम सवालों के जवाब पा लेने में है, जिन्हें जाने बिना कहानी को दिशा दे पाना मुश्किल था| उसने अनमोल से पहला ही सवाल किया था कि अनमोल के चेहरे के भाव बदल गए और वह कह उठा "रहने दो न | क्या वो घटनाएँ इतनी अच्छी थीं जिनका बारम्बार ज़िक्र करने का मन हो | कई लोगों ने मुझे भला-बुरा सुनाया था और मैं चुप रह गया था| अब मन नहीं करता उन घटनाओं को याद करने का"

सुष्मिता ने आगे कुछ पूछना मुनासिब नहीं समझा | वह खुद जीवन के झंझावातों से होकर गुजर चुकी थी और समझ सकती थी कि आपबीती सुनाने का मतलब हर बार उन पलों  से होकर गुजरना होता है जिन्हें अमूमन कोई याद नहीं करना चाहता | सुष्मिता ने उसी पल अनमोल से कहा "ठीक है| मैं फिर अपनी कल्पना से कहानी को कोई नाटकीय मोड दूँगी और जब आप कहानी पढ़ेंगे तो एकबार आपको भी पता न चलेगा कि कहानी आपके जीवन पर आधारित है|"

अनमोल ने सहमति में सर हिलाया था | इस घटना के कई दिनों बाद सुष्मिता ने कहानी को नाटकीय रूप देते हुए कई काल्पनिक घटनाओं को कहानी में जोड़ा और कहानी समाप्त की | कहानी का अंत लिखते हुए उसने अनमोल की बजाय अपने पाठकों का ख्याल रखा | कहानी समाप्त होते ही उसने सबसे पहले अनमोल को यह जानकारी दी और साथ ही यह भी बताया कि घटनाओं की पूरी जानकारी के अभाव में उसने कहानी का फ़िल्मी अंत दिया है | अनमोल कहानी का कुछ अंश पहले पढ़ चूका था और अब पूरी कहानी पढ़ने के लिए उत्सुक था | अगली सुबह उसने कहानी पढ़ते ही सुष्मिता से पूछा "कहानी का जो अंत तुमने लिखा है, क्या वह सच है?"

"अरे नहीं ! मैंने तो पहले ही कहा था कि फ़िल्मी अंत है| कल्पनाओं की स्याही ने जो उकेरा, लिख डाला" कहते हुए सुष्मिता समझ गयी कि अनमोल को कहानी का अंत पसंद नहीं आया | कहानी के अंत में सुष्मिता ने अपने किरदार को किसी और के साथ दिखाया था |  सुष्मिता ने फोन किया तो अनमोल ने काट दिया |

सुष्मिता कुछ समय से अनमोल के प्रस्ताव पर सकारात्मक प्रतिक्रिया देने का विचार कर रही थी पर कहानी पढ़कर अनमोल ने जैसी प्रतिक्रिया दी, सुष्मिता ने मन ही मन सोचा कि काश ! उसने कहानी को अधूरा ही छोड़ दिया होता | यह भी सोचा कि जो इन्सान एक काल्पनिक कहानी पर ऐसी प्रतिक्रिया दे सकता है, वह जब उसके जीवन की सच्चाईयों से रु-ब-रु होगा, तब कैसी प्रतिक्रिया देगा| 

अनमोल की प्रतिक्रिया सोचते हुए सुष्मिता सुबह से शाम तक परेशान रही | रात के लगभग दस बज रहे थे| एक अप्रत्याशित प्रश्न ने उसे धक्के देकर कई अन्य अनुत्तरित प्रश्नों के पते पर पहुँचा दिया और फिर उसके मन के पेड़ पर उदासियों के पंछी घर बनाने लगे | इस स्थिति से उबरने के लिए वह बाहर पार्क में गयी| उसने सुना था कि चलते-चलते कहीं पहुँच ही जाते हैं, कुछ ऐसा ही सोचकर पार्क के जॉगिंग ट्रेक पर चली जा रही थी| तभी उसके बेटे ने कहा कि उसे झूला झूलना है| फिर क्या था, माँ-बेटा दोनों झूला झूले| झूला झूलते हुए भी न जाने सुष्मिता क्या सोच रही थी कि तभी उसके बेटे ने ध्यान दिलाया कि झूले में पीछे जाते हुए पाँव भी पीछे की ओर मोड़ना होता है| सच! वह तो भूल ही गई थी!! उसे बचपन के दिन याद आ रहे थे और वह आँखें मूँदकर झूल रही थी| अचानक आँखें खुली तो देखा ऊपर आसमान तारों से भरा था| उसे लगा कभी - कभी सर उठाकर आसमान की ओर भी देख लेना चाहिए| उसने अपने जेहन पर जोर डाला कि उसने आखिरी बार कब फुर्सत से आसमान में तारों को निहारा होगा| बहुत सोचने पर याद आया पाँच बरस पहले रात के समय जिम कॉर्बेट पहुँचने पर सबसे पहले ध्यान तारों पर ही गया था| अभी वह प्राकृतिक नजारों में खोई ही थी कि उसका ध्यान सप्तर्षि मंडल पर गया, जो उसे आसमान पर टंका प्रश्न लगा| झटके में प्रकृति का सारा सौन्दर्य बोध ख़त्म हो गया| वापस सवाल उसका पीछा करने लगे और वह उनसे भागती हुई घर आ गयी| बहुत देर तक सोचने के बाद वह इस नतीजे पर पहुँची कि दरअसल सवाल ही जवाब था और कुछ कहानियाँ अधूरी ही अच्छी लगती हैं, उसकी अपनी कहानी की तरह |

उस रोज उसकी लिखी कहानी के साथ ही उस कहानी का भी अंत हो गया जो वह अपनी जिंदगी के पन्ने पर लिखने चली थी |

Saturday, January 20, 2018

अद्वैत

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अलमारी से लगभग सभी चीजें निकाली जा चुकी थी| अलमारी के ताखों पर अब बस रंगीन कागज़ बिछा था| जैसे ही उसने सबसे ऊपरवाले ताख पर बिछे रंगीन कागज को हटाया, उसे एक लिफ़ाफ़ा नजर आया | उसने लिफ़ाफ़ा खोलकर देखा और उसमें रखे कागज़ के पन्नों को पढते ही वह अवसाद की किसी गहरी खाई में गिर गया | इतने सालों तक जिस माता-पिता पर अभिमान करता रहा, वह तो उसके अपने माता-पिता ही नहीं थे| उसे किसी अनाथालय से गोद लिया गया था| एक साथ न जाने कितने प्रश्न उभर आए उसके जेहन में | थोड़ी देर बाद खुद को संभालता हुआ वह उठ खड़ा हुआ, जेब से माचिस निकालकर पहले सिगरेट सुलगाया और फिर जलती हुई उस तीली को अनाथालय के उस कागज़ पर गिरा दिया| उसने तय किया कि वह इस बाबत अपने किसी रिश्तेदार से कुछ नहीं पूछेगा| पूछता भी तो क्या ! उसे तो यह भी नहीं पता कि यह सच्चाई किसी और को पता भी है या नहीं| यहाँ तक कि उसने यह खबर माधुरी तक से भी साझा करने की जरुरत नहीं समझी| 

माधुरी उस ट्रेनिंग सेंटर की रिसेप्शनिस्ट थी जहाँ अद्वैत पढ़ाता था| उसी ट्रेनिंग सेंटर में सुजाता पढ़ने आती थी जिससे अद्वैत प्रेम कर बैठा था |अभी सुजाता की पढ़ाई ख़त्म होने में वक़्त तो था पर सुजाता के घरवाले उसके लिए वर तलाशने का काम शुरू कर चुके थे| आगे कोई अनहोनी न हो, यही सोचकर एकदिन अद्वैत और सुजाता ने अदालत जाकर विवाह कर लिया| माधुरी के साथ-साथ अद्वैत के घरवाले इस विवाह के साक्षी बने| तय हुआ कि जब सुजाता की पढाई ख़त्म हो जायेगी, तब इस शादी का राज़ सुजाता के घरवालों के सामने खोला जाएगा| अदालत में हुई शादी के बाद सुजाता अपने घर लौट गई और अद्वैत अपने घरवालों के साथ अपने घर| अगले सात-आठ महीनों तक सब ठीकठाक चलता रहा| सुजाता ट्रेनिंग सेंटर आती और शाम में अद्वैत के साथ थोड़ा वक़्त बीताकर अपने घर लौट जाती| फिर एक दिन वही हुआ जिसका डर था| सुजाता के घरवालों ने उसकी शादी तय कर दी| कोई चारा न देख, सुजाता ने घरवालों से अपनी शादी की बात बता दी | उसके घरवालों ने वकील से विमर्श किया, तलाक के कागज़ बनावाकर उस पर जबरन सुजाता से दस्तखत करवाया और फिर कुछ परिजनों के साथ अद्वैत के घर जा पहुँचे| अद्वैत प्यार के लिए मर सकता था और मार भी सकता था ; पर तलाक के कागज़ पर सुजाता के दस्तखत देखने के बाद वह  टूटकर बिखर गया| उसने भी चुपचाप उस कागज़ पर दस्तखत कर दिया और अवसाद के चादर ओढ़कर सो गया| अब वह न किसी से कुछ कहता और न किसी के कुछ पूछने पर जवाब ही देता| उसे इस अवसाद से बाहर निकालने में सबसे ज्यादा मदद की उसके चचेरे भाई  अनुकल्प ने| अनुकल्प हर शाम अद्वैत  को लेने ट्रेनिंग सेंटर आ जाता और फिर उसे लेकर कभी सिनेमा तो कभी थियेटर पहुँच जाता| जब अद्वैत  कहीं जाने से मना कर देता, तो ट्रेनिंग सेंटर के सामने वाले पार्क में बैठकर दोनों देर तक बातें करते| कभी अद्वैत के क्लास ख़त्म होने  में समय लगता, तो अनुकल्प रिसेप्शन पर बैठकर उसका इन्तजार करता| धीरे-धीरे माधुरी से उसकी दोस्ती हो गई और फिर कुछ महीनों में दोस्ती प्यार में तब्दील हो गई| इसी दौरान अद्वैत को पता चला कि नशे की लत ने किस कदर अनुकल्प को अपने गिरफ्त में ले लिया है| उसने कई बार अनुकल्प को समझाया कि सिगरेट तक तो ठीक है पर स्मैक और हेरोइन से उसे दूर रहना चाहिए; पर नशे की लत एकबार लग जाए, तो इतना आसान कहाँ होता है इससे पीछा छुड़ाना| 

देखते -देखते दो साल बीत गए| अद्वैत ने तय कर लिया था कि वह फिर दूसरी शादी कभी नहीं करेगा| वह सुजाता को भुला ही नहीं पाया था| अब अनुकल्प ट्रेनिंग सेंटर आता और सिगरेट पीने के बहाने थोड़ी देर अद्वैत के साथ सामने वाले पार्क में बिताने के बाद माधुरी के साथ घूमने निकल जाता| सावन का महीना रिमझिम के तराने लेकर आ चूका था| माधुरी और अनुकल्प घर लौटते हुए कई दिनों से बारिश में भींग रहे थे| फिर अनुकल्प एकदिन बीमार पड़ा| बुखार के साथ पेट दर्द की शिकायत थी| मोबाईल फोन उन दिनों भारत नहीं पहुंचा था| अद्वैत ने जब माधुरी को अनुकल्प की तबियत खराब होने की खबर दी, तो माधुरी ने बताया कि उसे भी हल्का बुखार रह रहा है और उल्टियाँ हो रही हैं | शायद बारिश में भींगने की वज़ह से ऐसा कुछ हुआ हो, ऐसा ही अंदेशा था दोनों का |

पहले अनुकल्प के घर के लोगों को यह मौसमी बुखार लगा जो अमूमन पेट दर्द के साथ ही आता है, पर जब उसे साँस लेने में तकलीफ होने लगी और स्थिति बद से बदतर होती चली गई, उसे शहर के सबसे बड़े अस्पताल में भर्ती करवाया गया|  डॉक्टर ने रक्त जाँच की रिपोर्ट के बाद ही बता दिया कि नशे की लत उसे अपना ग्रास बना चुकी है| तेरह दिनों तक चली जिंदगी और मौत के बीच छिड़ी जंग में जिंदगी हार गई | 

अद्वैत फिर से अवसाद में चला गया| एक अनुकल्प ही तो था जो उसके इतने करीब था| वह भाई कम, दोस्त ज्यादा था| अनुकल्प की मौत के बाद वह पंद्रह दिनों तक ट्रेनिंग सेंटर नहीं गया| फिर एक दिन घरवालों ने उसे समझाकर भेजा| 

ट्रेनिंग सेंटर पहुँचते ही उसका सामना माधुरी से हुआ| वह माधुरी से आँखें चुराकर सीधे क्लास रूम में प्रवेश कर जाना चाहता था पर माधुरी ने आवाज देकर पहले उसे रोका और फिर एक कठिन सवाल अद्वैत की ओर उछाला "अनुकल्प अब कैसा है"

पहले तो अद्वैत किंकर्तव्यविमूढ़ हो मूक खड़ा रहा, फिर खुद को संभालता हुआ माधुरी को क्लास के बाद पार्क में मिलने के लिए कहा| अगले दो घंटों तक तरह-तरह के कयास लगाकर माधुरी का दिमाग सुन्न पड़ चुका था कि तभी अद्वैत को क्लास से बाहर आता देख वह पार्क के लिए निकल पड़ी| 

"अनुकल्प कैसा है और आपने मुझे पार्क में क्यूँ बुलाया" माधुरी का धैर्य जवाब दे चूका था|

"अनुकल्प को सभी परेशानियों से मुक्ति मिल गयी | वह अब इस दुनिया में नहीं रहा" अद्वैत ने माधुरी के सर पर हाथ फेरते हुए कहा|

माधुरी पिछले दो घंटों से वैसे ही कशमकश में थी और अचानक से जो कुछ भी उसने सुना, उसे सह पाने की शक्ति शायद उसमें नहीं बची थी| वह बेहोश हो गयी| अद्वैत घबराकर पार्क में लगे फव्वारे से पानी लाकर माधुरी के चेहरे पर छिड़कने लगा|  थोड़ी देर बाद जब माधुरी को होश आया तो वह बुदबुदा रही थी "मुझे भी अब मर जाना होगा...और कोई चारा नहीं.."

"संभालो खुद को माधुरी| मुझे पता है तुम पर क्या गुजर रही है, पर इस सच को स्वीकार करना ही होगा" अद्वैत ने समझाते हुए कहा |

"आपको कुछ नहीं पता....कुछ भी नहीं " माधुरी विलाप किए जा रही थी|

"क्या बात है...क्या नहीं पता.. " अद्वैत ने पुछा |

"मैं माँ बनने वाली हूँ, अनुकल्प को बता भी नहीं पायी..." माधुरी बेतहाशा रो रही थी| 

यह सुनते ही पहले तो अद्वैत के पैरों तले की जमीन खिसक गयी, फिर उसके मुँह से अचानक निकला "अब"?

कुछ प्रश्नों के कोई जवाब नहीं होते | यह प्रश्न भी ऐसा ही था | माधुरी निरुत्तर बैठी रही | 

थोड़ा ठहर कर अद्वैत ने कहा "चलो"

"कहाँ" माधुरी दिशाहारा थी|

"वहाँ, जहाँ तुम और अनुकल्प की अमानत सुरक्षित रह सको"  कहता हुआ अद्वैत आगे बढ़ने लगा |

"पर ऐसी कौन सी जगह होगी" माधुरी को कुछ भी समझ नहीं आ रहा था |

"मेरा घर" कहता हुआ अद्वैत रुक गया |

"ऐसा कैसे हो सकता है? लोग क्या कहेंगे? आप क्या जवाब देंगे?" माधुरी ने सवालों की लड़ी लगा दी थी|

"परेशान होने की जरुरत नहीं| हम आज ही शादी करेंगे और फिर तुम मेरे घर रहने आ जाओगी" अद्वैत के चेहरे पर आत्मविश्वास था|

"पर..."

माधुरी वाक्य पूरा कर पाती, उसके पहले ही अद्वैत ने कहा "चिंता मत करो | यह सिर्फ दुनिया को दिखाने के लिए होगा | तुम हमेशा अनुकल्प की अमानत ही रहोगी और बच्चे के आ जाने के बाद मुझे भी अनुकल्प नए दोस्त के रूप में मिल जाएगा "

माधुरी अद्वैत के साथ चल पड़ी और फिर उसके साथ रहने लगी | अद्वैत को रिश्तेदारों के ताने सुनने पड़े, पर वह चुप रहा | कुछ समय बाद वह माधुरी और बच्चे को लेकर दुसरे शहर चला गया | नए शहर में माधुरी ने भी अपने लिए एक नौकरी का इंतजाम कर लिया | बच्चे के स्कूल में पिता के नाम की जगह अद्वैत ने अपना नाम लिखा | माधुरी नौकरी और बच्चे में व्यस्त हो गयी और अद्वैत ने भी उन दोनों की देखभाल में कोई कमी नहीं छोड़ी |  महीने दर महीने और साल दर साल बीतते रहे | अद्वैत ने खूब तरक्की की, गाड़ी और घर के अतिरिक्त भी सुख -सुविधा के तमाम साधनों का इंतजाम किया | नहीं खरीद पाया, तो अपने लिए प्यार | खरीदता भी कैसे ! प्यार को भी भला रुपया-पैसों से खरीदा जा सकता है !! वह घर में सामान भरता रहा और उसके मन का महल खाली ही रहा | उसने खुद को दफ्तर के कामों में बेतरह व्यस्त कर लिया था |

वह जून की एक दोपहर थी जब कई सालों बाद अद्वैत की मुलाक़ात उसके पिछले दफ्तर में काम करने वाली शालिनी कौशल से हुई | 

"अरे! कैसी हो शालिनी? पूरे नौ साल हो गए, अब भी वैसी ही दिखती हो" अद्वैत का चेहरा खिल उठा था 

शालिनी ने आदतन मुस्कुरा कर नजरें झुका लीं थी | 

"चलो, किसी कॉफ़ी शॉप पर बैठते हैं" अद्वैत ने कहा और कॉफ़ी शॉप की ओर मुड़ गया |

दोनों कॉफ़ी शॉप गए, दो कैपेचीनो आर्डर किया और एक-दुसरे का हाल समाचार पूछा | बातों ही बातों में शालिनी ने बताया कि दिल की बायपास सर्जरी के वक्त उसने यह सोचकर इस्तीफ़ा दे दिया था कि उसका पति कौशल उसको और घर को, दोनों को संभाल लेगा , पर अब घर की स्थिति बद से बदतर होती देख उसने नौकरी का निर्णय लिया और अब वह नौकरी की तलाश कर रही थी| अद्वैत ने शालिनी से कहा कि उसे आराम करना चाहिए और वह कौशल के लायक कुछ काम का बन्दोवस्त कर सकता है| शालिनी ने एक अन्तराल के बाद बताया कि उसने गलत इन्सान को अपना जीवन साथी बना लिया था जिसका खामियाजा वह आज तक भुगत रही है| वह नशे की लत का शिकार है, घर पर ही रहता है और आए दिन उससे मारपीट करता रहता है| 

"ओह ! पुलिस की सहायता क्यूँ नहीं लेती" अद्वैत ने जल्दबाजी में कहा |

"कोशिश की थी, कुछ नहीं हुआ | हर ओर से मुझे ही ज्ञान मिला | खैर, छोड़िये इन बातों को | आपके दफ्तर में मेरे लायक कोई नौकरी हो तो ..." शालिनी ने कातर होकर कहा |

"जरूर | जो कुछ मुझसे बन पड़ेगा, करूँगा | " अद्वैत ने उसे आश्वस्त करते हुए कहा |

थोड़ी देर तक दोनों चुपचाप कॉफ़ी पीते रहे और फिर अद्वैत ने मौन तोड़ते हुए दार्शनिक अंदाज में कहा "कितनी अजीब बात है न कि इतने सालों से परिचित हैं हम और एक-दुसरे के बारे में कुछ भी नहीं जानते | एक ही दफ्तर में आजू-बाजु बैठकर सुबह से शाम न जाने कितनी बातें की होंगी हमने, पर एक-दुसरे के जीवन का यह रंग हम देख ही न पाए | एक बात है जो मुझे पिछले कुछ महीनों से भीतर ही भीतर खाए जा रही है| किसी से बता सकूँ, ऐसा कोई इन्सान जिंदगी में नहीं है| आज तुम्हारे जीवन के एक नए पहलू से वाकिफ़ हुआ, तो लग रहा है कि अपने जीवन का काला सच तुम्हें बताकर इस बोझ से मुक्ति पा लूँ | 

"कैसा सच !" शालिनी अवाक् थी |

अद्वैत ने उसे बताया कि किस तरह पिता की मृत्यु के बाद उसे अपने अनाथ होने का पता चला था और वह टूट गया था | उसने अपने और माधुरी के बीच का सच भी बताया| 

"मैं काफी हल्का महसूस कर रहा हूँ अब" अद्वैत ने दीर्घ निश्वास लेते हुए कहा |

कुछ देर बाद दोनों अपने-अपने घर लौट गए |

अब अद्वैत फोन के मार्फत शालिनी का हाल समाचार लेता रहता था | कई जगह शालिनी की नौकरी के लिए उसने बात भी की | फिर एक दिन उसने शालिनी से फोन पर ही कहा "हमारे दुःख एक जैसे हैं| तुम अपने संसार में अकेली हो और मैं अपने संसार में | इतने सालों के बाद इस तरह अचानक मिलना, ऊपरवाले की साजिश भी तो हो सकती है! "

"मैं कुछ समझी नहीं" शालिनी शायद समझ ही गयी थी |

"मैं तुम्हें तब से पसंद करता हूँ जबसे तुम हमारे पिछले दफ्तर नौकरी के लिए पहले दिन आयी थी| संयोग था कि हम आस-पास ही बैठे और खूब बातें भी की| तुम शादीशुदा थी, तो इसलिए कभी मन की बात तुमसे कह नहीं पाया | अब जब जान गया हूँ कि तुम किसी शादी में नहीं, बल्कि धोखे में जी रही हो, क्या ऐसा नहीं हो सकता कि हम एक हो जाएँ और हम दोनों की समस्या ही खत्म हो जाए| तुम्हें आराम चाहिए और मुझे तुम्हारा साथ | क्या कहती हो?" अद्वैत की आवाज में आत्मविश्वास था |

"तो माधुरी !!" शालिनी को न जाने क्यूँ अद्वैत का ऐसा पूछना अटपटा लगा |

"वो मुझे तलाक दे देगी | अब उसका बच्चा बड़ा हो गया है| नौकरी भी पहले से बेहतर है| उसे मेरी जरुरत नहीं| तुम बताओ" अद्वैत जैसे सब सोचकर ही बैठा था |

"मैं एक विचित्र सी मनोदशा से होकर गुजर रही हूँ और ऐसी मनोदशा में कुछ भी कहना ठीक न होगा" कहते हुए शालिनी ने फोन काट दिया |

शालिनी ने अद्वैत से बात करना बंद कर दिया | शालिनी की परिस्थितियों से जो भी अवगत होता, वह अपनी कोई दुखभरी कहानी सुनाकर उसके करीब आने की कोशिश करता और अब अद्वैत की बातें भी शालिनी को ठीक उन्हीं की तरह लग रही थी | जब भी वह फोन करता, बस काम की बात कर वह फोन रख देती | अद्वैत भी उससे आगे कुछ नहीं कहता | फिर एकदिन अद्वैत की मेहनत ने रंग दिखाया और शालिनी को नौकरी का बुलावा आया | दो इंटरव्यू और नौकरी पक्की | 
शालिनी ने खुश होकर अपनी ख़ास सहेली और राजदार सोनाली को फोन लगाया तो उसने कहा "अद्वैत सही इन्सान है तुम्हारे लिए |"

शालिनी अब नौकरी में व्यस्त हो गयी थी, पर अद्वैत के प्रति वो सम्मान जगा था उसके मन में, वह अद्वैत को अक्सर फोन कर लेती और उसका हाल-समाचार पूछ लेती | इसी बीच बातों ही बातों में अद्वैत ने शालिनी से कहा था कि वह समझ गया है कि वह उसके दोस्त से ज्यादा कुछ नहीं है|  शालिनी को जब भी जरूरत पड़ती, अद्वैत हाज़िर हो जाता | महीने में एक -दो बार मिलना भी हो जाता | शालिनी उस पर भरोसा करने लगी थी | अद्वैत शालिनी के बदले हुए व्यवहार देखकर कभी - कभार पुराना सवाल दाग दिया करता था | शालिनी के असमंजस को देख कहता कि उसे कोई जल्दी नहीं है, वह आजन्म इन्तजार कर सकता है|

मार्च की एक दोपहर शालिनी ने अद्वैत को बताया कि कौशल उसे तलाक देने को राजी हो गया है| अद्वैत खुश हुआ | अगले एक साल तक दोनों दोस्त की तरह ही मिलते रहे | एक दिन शालिनी ने उसे बताया कि तलाक की प्रक्रिया पूरी हो चुकी है और वह अब आज़ाद है| सुनते ही अद्वैत ने पूछा " तो अब शादी ?"

"हम्म..."मुस्कुराते हुए शालिनी ने कहा |

"तो मैं भी तलाक की अर्जी डाल दूँ अब" अद्वैत ने आत्मविश्वास से कहा |

"अरे नहीं | मैं तुम्हें कबसे बताना चाहती थी, पर तुमने मेरे लिए इतना कुछ किया कि जब भी बताना चाहा तुम्हारे प्यार को देखकर चुप हो गयी | मैं तुम्हें दुखी नहीं करना चाहती थी | दो साल पहले एक कार्यक्रम में मेरी मुलाक़ात नवोदित से हुई थी | वो तलाकशुदा है और हम काफी हद तक एक जैसे हैं| दो-चार मुलाकातों के बाद ही हम दोनों को लगा था कि हमें एक-दुसरे का हाथ थाम लेना चाहिए | कौशल तलाक के लिए नहीं मान रहा था | अब जाकर सब खत्म हुआ | नवोदित ने अगले महीने की तीन तारीख का दिन तय किया है| समझ सकती हूँ तुम्हें बहुत बुरा लग रहा होगा, पर दिल का मामला दिल ही निपट लेता है| कमबख्त नाम का ही हमारा होता है| वहाँ कौन है, हम यह तब जान पाते हैं जब अगला वहाँ सेंध लगाकर फ़ैल चूका होता है| तुम समझ रहे हो न ... आई एम् सॉरी" शालिनी सफाई देती रही |

"अरे वाह ! चलो पार्टी करते हैं| यह बात बता सकती थी तुम पहले भी | उसको भी बुलाओ | यह तो बहुत खुशी की बात है" अद्वैत ने मुस्कुराते हुए कहा |

"तुम्हें सचमुच बुरा नहीं लगा ?"शालिनी अद्वैत के लिए चिंतित थी |

"क्यों लगेगा बुरा भला ? इसलिये कि तुम मेरी न हो सकी ? इतना ही तो चाहता हूँ तुम्हारे लिए कि तुम खुश रहो | क्या फर्क पड़ता है कि खुशी का जरिया मैं बनूँ या नवोदित ? जिंदगी ने मुझे समझा दिया है कि प्रेम में जिसे चाहते हैं, उससे कुछ नहीं चाहते | यु सी, नियति ने मेरे हिस्से महान बनना लिखा है| पर एक बात कान खोलकर सुन लो | अब अगर नवोदित ने तुम्हें किसी प्रकार का दुःख दिया, तो मैं उसे तुम्हारे घर आकर मारूँगा " अद्वैत ने हँसते हुए कहा |

शालिनी की आँख भर आयी | उसने अद्वैत का हाथ अपने हाथों में लेकर कहा " तुम नाम से ही नहीं, काम से भी अद्वैत हो| अपने लिए कभी सोचते ही नहीं| हमेशा दूसरों के लिए ही.."

"एक जरूरी काम आ गया है| मुझे जाना होगा " अद्वैत ने शालिनी की हाथों से अपना हाथ खींचते हुए कहा और पलट कर जाने लगा  |

"कभी कोई जरुरत पड़ी या मैंने मिलने बुलाया तो आओगे" शालिनी इतना अच्छा दोस्त नहीं खोना चाहती थी |

"मैं मनुष्यों में गधा हूँ और गधों में गर्धवराज | जब मनभर बोझ तैयार हो जाए, आवाज देना " अद्वैत ने बिना पलटे ही जवाब दिया और आगे बढ़ गया | आँखों के आँसुओं को छुपा लेना बेहद जरूरी था उस वक़्त | 

Wednesday, January 17, 2018

कर्तव्य

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अगर डाक विभाग अब भी बंद नहीं हुआ, तो  शायद उन पिछड़े गाँवों की वज़ह से जहाँ आज भी कोरियर सर्विस उपलब्ध नहीं है| 

मधुरा की तबियत ठीक नहीं चल रही थी| डायबिटिक न्यूरोपैथी आपको अंदर ही अंदर इतना हिलाती-डोलाती रहती है कि अगर आपके पाँव के नीचे की धरती डोल भी जाए, तो भी आपको कुछ पता नहीं चलता| आप समाज के साथ मिलकर हिलने-डोलने के सुख से वंचित रह जाते हैं|

पोस्टमैन ने फोन करके कहा "आपका पार्सल आया है| गाड़ी भिजवाइये या आकर ले जाइए"| 

मधुरा ने  पूछा "ये नियम कब लागू हुआ कि जिसका पार्सल है वो गाड़ी भिजवाएगा या आकर ले जाएगा"| 

पोस्टमैन: "मदद माँग रहा हूँ"| 

मधुरा : "मैं बीमार हूँ और घर पर कोई नहीं है| मेरी मदद कीजिये"| 

पोस्टमैन: "ठीक है फिर"

मधुरा : "तो अब आप कब आएँगे"

पोस्टमैन: "देखेंगे| दो-तीन दिनों में जब फुर्सत होगी| हमारे पास बहुत काम है" 

ऐसा कहकर पोस्टमैन ने फोन रख दिया| कुछ दिनों तक पार्सल रखकर गाड़ी भिजवाने या खुद आकर ले जाने का आग्रह करता रहा | मधुरा के कई बार यह बताने पर कि वह बीमार है और नहीं आ सकती, एक ही वाक्य दोहराता रहा कि वह व्यस्त है और जब समय होगा, पार्सल दे जाएगा इसी बीच मधुरा ने ट्विटर पर केंद्रीय दूरसंचार मंत्री, इंडिया पोस्ट और प्रधानमंत्री कार्यालय को संबोधित करते हुए कई ट्वीट किया जिसका कोई नतीजा नहीं निकला| 

कई दिन बीत जाने के बाद एक संध्या जब मधुरा ने इंडिया पोस्ट की ट्रैकिंग साईट पर चेक किया, तो स्टेटस देखकर हैरान थी| लिखा था "डिलीवरी अट्टेम्पटेड, डोर क्लोज्ड" जबकि वह घर पर ही थी| मधुरा ने डाक बाबू को फोन कर पूछा कि स्टेटस में ऐसा क्यूँ लिखा है| उन्होंने इतना कहकर फोन रख दिया "मेरी तबियत खराब थी, इसलिए नहीं आया| अब कुछ तो स्टेटस डालना पड़ता, इसलिए ये डाल दिया"|  

मधुरा के गुस्से का ठिकाना न रहा और इसबार उसने फिर से फोन मिलाकर कहा "जानकर दुःख हुआ कि आपकी तबियत खराब है| कल तक ठीक हों जाएँ, तो मेरा मेरा पार्सल अवश्य डिलीवर कर दें वरना गणतंत्र दिवस  के दिन हमारी अब तक की बातचीत की रिकार्डिंग मैं मेरे प्यारे देशवासियों को सुनाउंगी और उनसे आग्रह करूँगी कि आपकी तीमारदारी करे| आखिर एक सरकारी कर्मचारी की अस्वस्थता का सवाल है जिसकी सैलरी हमारे टैक्स के पैसों  से आती है|" 

इतना सुनते ही घबराकर उन्होंने कहा "मुझे मेरा कर्तव्य समझाने के लिए धन्यवाद" और फोन रख दिया|  

अंततः गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर डाक बाबू को उनका मूल कर्तव्य समझ में आ गया और मधुरा को उसका पार्सल मिल गया | 

Monday, January 1, 2018

सपने में नींद

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महानगरों में समय से दफ़्तर पहुँच जाना भी बड़ी बात है| दफ़्तर में समय से पहुँचने में समय प्रबंधन तब तक ही काम आता है जब तक आप घर से निकल नहीं जाते | अमूमन इस समय प्रबंधन में नींद की कटौती शामिल होती है| एकबार घर से निकल गए तो फिर मौसम, धार्मिक जुलूस, धरना प्रदर्शन, खराब ट्रैफिक सिग्नल जैसी कई चीजें समय प्रबंधन के आड़े आ जाती हैं| ऐसे ही किसी दिन घर से दफ़्तर को निकली और लगभग बारह किलोमीटर चलने के बाद जाम में फँसकर याद आया कि उस रोज शिवरात्रि का उत्सव था | साढ़े तीन घन्टे जाम में फँसकर और जगह -जगह पर कानफाडू बोलबम डीजे सुनने के बाद सोचती रही कि क्या भोले के भक्त इतने भोले होते हैं कि जिसके गले में पहले से ही ज़हर है, उसके कानों में भी ज़हर घोलकर पुण्य कमाने का भ्रम पालते हैं!!


२००८ में शिवरात्रि के समय मदुरै में थी| कहा जाता है वहाँ के मीनाक्षी मंदिर में हुई थी शिव और पार्वती की शादी| आज भी लोग शिवरात्रि के दिन शिव जी की बारात लेकर जाते हैं और वैगई नदी किनारे इस पर्व को गाजे -बाजे के साथ मनाते हैं| एक तो उनके द्वारा बजाए जानेवाले वाद्ययंत्र यंत्र पारंपरिक थे और सबसे सुन्दर बात यह थी कि यह बारात रास्ते के किनारे शांतिपूर्ण तरीके से चल रही थी; बिना किसी को असुविधा पहुँचाये| धर्म के नाम पर पागलपन नहीं बल्कि एकप्रकार की उत्सवधर्मिता दिखी| शिव की सहिष्णुता को आत्मसात करते लोग दिखे थे|


गाज़ियाबाद के दूधेश्वरनाथ महादेव मठ मंदिर में पिछले कुछ सालों से औसतन चार से पाँच लाख कांवड़ियों के जलाभिषेक करने की खबर आती रही है। भोले के इन भोलों को सम्भालने के लिए तीन हजार स्वयंसेवक भी परिश्रम करते आ रहें हैं| शिव ठहरे परम ज्ञानी | ऐसे में शिव जी न तो एक्सप्रेसवे के कंक्रीट में फंसने आते हैं और न ही एन एच २४ के नरक में धंसने | नौकरीपेशा लोगों को अपना ख्याल खुद ही रखना पड़ता है|


देर से दफ़्तर पहुँचने पर आधे दिन की तनख्वाह कटने और देर तक काम करने के अतिरिक्त जो खामियाजा भुगतना पड़ता है, उनमें कार पार्किंग की जगह का उपलब्ध न होना प्रमुख है| हम एक ऐसे समय के गवाह बने जब गौ भक्ति अपने चरम पर थी| इस भक्ति में परवाह कतई नहीं थी | गौ भक्तों ने अपनी तथाकथित माताओं को प्लास्टिक और कूड़ा खाने के लिए सड़कों पर छोड़ दिया और पिता सांड की कभी खबर तक नहीं ली। सरकार के एजेंडे में भी ऐसा कुछ शामिल नहीं किया गया जिससे इन जानवरों को सड़कों से हटाया जा सके। तमाम परेशानियाँ आम जनता के हिस्से आती है। नॉएडा सेक्टर 2 में कई जगह एक साथ दस-बारह की झुण्ड में गाय और सांड दिखेंगे। उस रोज दफ्तर के बाहर पार्किंग में दो सांड आपस में लड़ते रहे और उनकी धींगामुश्ती में एक सांड का सिंग मेरी कार के टेल लैंप में घुस गया और टेल लैंप उसकी सिंग के साथ ही बाहर आया। फिर उनकी धक्का मुक्की में कार का एक हिस्सा भी क्षतिग्रस्त हो गया | दिल दुखी था और दिमाग सोच रहा था कि पहले तो कार एक्सेसरीज पर सर्विस टैक्स या वैट भी नहीं लगता था, अब तो जीएसटी नामक संकट इन पर भी लागू हो चुका था। पर उस समय माहौल को देखते हुए यह नहीं कह सकती थी कि मंहगाई बढ़ी है, तो बस इतना ही कह पायी थी कि चीजों के दाम बढे हैं। अगले कई घंटे इसी गम में बीत गए और घर लौटने की बारी आई|


कक्षा आठ में अल्फ्रेड जॉर्ज गार्डिनर का लिखा आलेख "ओन सेयिंग प्लीज" पढ़ा था| इस आलेख में उन्होंने कई उदाहरण देकर यह बताने की कोशिश की है कि आदतें (अच्छी और बुरी, दोनों) संक्रामक होती हैं| 'कृपया' और 'धन्यवाद' जैसे शिष्टाचार के शब्द जीवन को सुगम बनाने में मदद करते हैं। सेक्टर दो, नॉएडा में जाम लगा था| वह रास्ता टू वे तो है पर उस रास्ते पर डिवाइडर नहीं है| मैं ऑफिस के बाहर खड़ी अपनी कार बैक कर ही रही थी कि कुछ गाड़ियाँ जिन्हें दायीं ओर की कतार में चलना था, वह लाइन तोड़कर बायीं ओर आने लगी| जब तक मैं गाड़ी सीधा करती, पीछे से पुलिस की गाड़ी भी गलत कतार में आ खड़ी हुई| झल्लाती हुई पुलिस वाली गाड़ी की ओर देखते हुए मैंने कहा "कुछ नहीं हो सकता इस देश की ट्रैफिक समस्या का| जब पुलिसवाले ही नियम नहीं मानेंगे तो और किसी से क्या उम्मीद"| मेरी कार का शीशा नीचे था| यह तो नहीं मालूम कि उस गाड़ी में बैठे लोगों को मेरी बात सुनाई दे गयी या उसमे बैठे सीनियर पुलिस ऑफिसर ने मेरा चेहरा पढ़ लिया, वह गाड़ी से नीचे उतरे| फिर उन्होंने आसपास लगी गाड़ियों को वापस दायीं ओर भेजा| फिर अपने ड्राईवर से भी साइड होने को कहा और मेरी कार निकलवाकर ही अपनी गाड़ी में बैठे| मैं बेहद खुश हुई और उन्हें धन्यवाद ज्ञापित करते हुए आगे बढ़ी ही थी कि फिर से कुछ लोग दायीं ओर की कतार छोड़ बायीं ओर आ गए| मुझे फिर गाड़ी रोकना पड़ा| मैं लोगों को कतार में चलने की नसीहत दे रही थी | इसबार एक ऑटो में चालक के पास बैठे भद्रलोक उतरे और उन्होंने ठीक वही किया जो उनसे चार गाड़ी आगे खड़े पुलिस ऑफिसर ने किया था| मैंने उनसे भी धन्यवाद कहा और आगे बढ़ गयी| सौ लोगों की भीड़ में ऐसे दो लोग भी जब तक मौजूद हैं, उम्मीद बंध ही जाती है कि एक दिन हमारा समाज अच्छी आदतों से भी संक्रमित होना सीख लेगा| दफ़्तर जाते हुए मन खिन्न हो गया था पर लौटते हुए उम्मीदों का उजाला दिखा और मन शांत हुआ| शांत मन आत्ममंथन करता है; तो मैंने भी किया- आत्ममंथन | तय किया कि अगले दिन से मैं अपनी कार लेकर दफ़्तर नहीं जाऊँगी और सार्वजनिक परिवहन का इस्तेमाल करुँगी| फिर सार्वजनिक परिवहन इस्तेमाल करने के कई फायदे भी खुद को गिनाए और एक वाकया भी याद आया|


एक दिन दफ्तर के कुछ लोग दो अलग गाड़ियों में घूमने गए। हम भी गए थे । जाते हुए अपनी कार दफ्तर में ही छोड़ गए थे। चूँकि सभी साथ गए और साथ ही लौटना भी था, तो जिसे जो पार्किंग मिली, वहीं गाड़ी लगा दी। हमें लौटते हुए बड़ी देर हो गयी और हम पहले आ गए। बाकी जनता हमसे बहुत दूर जाम में फँसी रही। रात के दस बज चुके थे। दफ्तर तो पहुँच चुकी थी, पर मेरी कार के पीछे जिनकी कार लगी थी, वो तो जाम में फँसे हुए थे। पता था कैब बुक करने का कोई फायदा नहीं, फिर भी किया। वही हुआ, जो होना था। कैब नहीं आई। ग्रेटर नॉएडा से नॉएडा आने के लिए कैब मिल जाती है पर वापस जाना हो तो बमुश्किल ही कोई राज़ी होगा। याद आया आखिरी मेट्रो के आसपास बोटैनिकल गार्डन से परी चौक तक के लिए एक बस चलती है। एक मेनेजर से आग्रह किया तो वह हमें वहाँ छोड़ आए। हम बस में बैठ झपकी लेते हुए परी चौक पहुँचे और फिर ऑटो लेकर घर पहुँचे। पता चला नींद महँगी शय है। घर से दफ्तर तक की ज़िम्मेदारी पूरी करते हुए जो चीज अधूरी रह जाती है, वह है नींद।


अब अगले रोज़ दफ्तर आने के लिए पहले ऑटो लिया। झपकी लेते हुए परी चौक पहुँचे। फिर बस पर खिड़की वाली सीट पर बैठकर सो गए। बोटैनिकल गार्डन पर उतरकर फिर ऑटो में बैठ आँखें मूँद ली। ऑफिस की सीढियाँ चढ़ते हुए मन ही मन योजना बन चुकी थी कि अब हर रोज़ ऐसे ही सोते हुए दफ्तर पहुँचा जाएगा। कार का इस्तेमाल सिर्फ बारिश के मौसम में किया जाएगा। दफ्तर में प्रवेश करते ही घड़ी पर नजर पड़ी और मेरे सोने का सपना टूट गया। जिस दूरी को अमूमन ४५ मिनट के समय में तय करती थी, तीन गाड़ियाँ बदलकर दफ्तर पहुँचने में मुझे उस रोज डेढ़ घंटे लगे !!


उस रोज़ के बाद दफ्तर जाते हुए पूरे रास्ते अपने टूटे सपने के बारे में सोचती हूँ। सोचती हूँ कि किसी रोज़ मेरे घर के पीछे एक मेट्रो स्टेशन होगा और मैं नींद पूरी करते हुए दफ्तर पहुँच जाऊँगी। लोग नींद में सपना देखते हैं और मैं सपने में नींद देखती हूँ!