Saturday, June 28, 2014

तुम्हारे होने से

---------------
तुम्हारा होना तय करता है
मेरी आँखों में काजल का होना
और जब तुम नहीं रहोगे
जम जाएगा बादल आँखों के आसमान पर


तुम हो तो हैं मेरे होंठ गीले
कि तुम्हारे नहीं होने से
उग आयेंगे नागफनी होठों की सतह पर


तुम्हारे होने के उत्सव पर
हवा से बतियाती है मेरी जुल्फें
जो तुम चले गए
बना जाएगा हवा जुड़ा ढीले बालों का मेरे कांधे पर


बादल के नहीं बरसने से
हो जायेगी बंजर सतह
हवा सांस नहीं ले पायेगी


बेहद ज़रूरी है तुम्हारा होना मेरे जीवन में !

सुलोचना वर्मा

Friday, June 27, 2014

ढोंगी

------------
इस समाज के कुछ लोग
मानते हैं उसे भगवान्
या फिर कोई अवतार
और वह गढ़ता है कुछ कहानियाँ
जिससे बना रहे यह भ्रम लोगों का


नहीं जानते लोग इस समाज के
कि जब वह बांच रहा होता है ज्ञान
महिला उत्पीड़न के विरुद्ध किसी सभा में
उसकी पत्नी कर रही होती है नाकामयाब कोशिश
अपने बदन के खरोंचो को छुपाने की
डाल रही होती है आँखों में गुलाब जल
कि कम हो रोने के बाद आँखों का सूजन
और वह बनी रहे सफल अभिनेत्री साल दर साल


भले ही चिल्लाता हो वह अपने बच्चे की जिद पर
और नहीं संभाल पाता हो उसकी बचकानी आदतें
या कर देता हो उसकी कुछ मांगे पूरी
गैर जिम्मेदाराना तरीके से, छुड़ाने को पीछा
पर कहाँ मानेंगे ये सब उस बस्ती के लोग
जहाँ वह पिलाता है हर पोलियो रविवार को
गरीब छोटे बच्चों को दो बूँद जिंदगी के
धूप में रहकर खड़ा समाज सेवा के नाम


करती है अचरज उसके घर की कामवाली
कि साहेब धमका आते हैं हर बार उसके पति को
जब भी वह उठाता है हाथ उसपर
और देती है दुआएं मालकिन को सुहागिन बने रहने की
सहम जाते हैं पुलिसकर्मी भी देखकर
उसके खादी के कुरते को
और लगाते हैं जयकारा साहेब के इस महान कृत्य पर


घर के सामने पार्क में खेलते सभी बच्चे हैं उसके दोस्त
और गली के हर कुत्ते ने खाया है उसके हाथ से खाना
मुहल्ले के सभी बुजुर्गों को झुक कर करता है प्रणाम
मदद के लिए सबसे पहले लोग उसे करते हैं याद


डाल आई है आज उसकी पत्नी
तलाक की एक तरफा अर्जी अदालत में
और सोच रही है कौन सी सूचना उसे मिलेगी पहले
एक झूठे रिश्ते से उसके निजात पाने की
या सार्वजनिक सेवा व सामुदायिक नेतृत्व का मैग्सेसे पुरस्कार
उस ढोंगी के नाम होने की !!!


सुलोचना वर्मा

Monday, June 23, 2014

तीस पार की आधुनिका

-----------------------
जब तीस पार की आधुनिका करती है प्रेम
तो तोड़ देती है सारी वर्जनाएं
उम्र, धर्म और समाज की
और लिख देना चाहती है नाम प्रेमी का
शहर की सबसे ऊँची ईमारत पर
बड़े बड़े काले अक्षरों में
उसी प्रेम को उसका प्रेमी 
धर देता है किताब के पन्नो के बीच
मोर पंख की तरह
फिर हो जाता है व्यस्त
हरे, नीले और सुनहरे रंगों के बीच
और ढूँढने लगता है प्रेम का गुलाबी रंग उसमे


तीस पार की आधुनिका को नहीं पसंद गुलाब
कि उसकी उँगलियाँ डूबी होती है काँटों से मिले लहू में
प्रेमी को कहती है चाँद और महक जाना चाहती है
बनकर प्रेम सा झक्क सफ़ेद इवनिंग प्राइमरोज
मना लेना चाहती है वह उत्सव जिंदगी का


जब देखती है प्रेमी को, बुनती है ख्वाब प्रेम के आसमान पर
उसके ख़्वाबों को चिन्हित करता है आसमान में उड़ता हवाई जहाज
प्रेमिका देखती है हवाई जहाज और फिर देखती है प्रेमी को
प्रेमी कर लेता है कैद प्रेमिका को हवाई जहाज के साथ कैमरे में
ढाई सेकण्ड की इस घटना में पुरे पच्चीस साल फिर से जी लेती है
प्रेम में जवान एक नवयुवती, जो है तीस पार की आधुनिका


सुलोचना वर्मा

Thursday, June 19, 2014

इच्छा-मृत्यु

-----------------
वो कर देगा आज़ाद
मुझे मेरी देह से
और बन जाएगा सूरज
दर्द से मेरी मुक्ति के मार्ग का
करता है यकीं वह
जिंदगी में जिंदगी के बचे होने पर
उसे है बेपनाह मोहब्बत
मेरी जिस्म से भी ज्यादा मेरी रूह से  !!!


सुलोचना वर्मा
-----------------------------------
Euthanasia is the Word

Wednesday, June 18, 2014

नमक

--------------
हो आई मैं तुम्हारे सपनों की चहारदीवारी से
और टांग आई रूह की कमीज़
उस घर की दीवार पर लगे खूंटे में
कमरे में पसरे मौन ने बढाई
तुम्हारे शब्दों से मेरी घनिष्ठता
जिस वक़्त तुम उकेर रहे थे
मेरा तैलचित्र अपने ख़्वाबों के आसमान पर

टपक पड़ी थी एक बूँद पसीने की
मेरे माथे से तुम्हारी जुबान पर
सुनो, जब भर जाए तुम्हारे ख़्वाबों का कैनवास
उतार लेना मेरी रूह की कमीज़ खूंटे से
और ओढा देना मेरी आकृति को
निभाते रहना वचन ताउम्र साथ देने का
कि तुमने खाया है नमक मेरी देह का |


सुलोचना वर्मा

Tuesday, June 10, 2014

गंगा दशहरा

-------------------------
जो फेंका तुमने निर्माल्य को नदी में
मछली दे देगी श्राप तड़पकर
और तुम बन जाओगे मछली अगले जनम में
फिर होगा तुम्हारा जन्म किसी नाले में

 
मत डालो अब गंगा में धुप-लोबान
कि वह जल रही है धरती की चिता पर 
सती की मानिंद, एक लम्बे समय से 


क्यूँ कुरेद रहे हो उसका मन तुम बारहों मास
और बना रहे हो झील निकालकर उसमे से रेत
लील लेगी एक दिन तुम्हे भी उसकी बदली हुई चाल 


जाओ, शंखनाद कर रोक लो नदी पर बनता बाँध
कर आओ प्राण प्रतिष्ठा पहाड़ों पर लगाकर कुछ पेड़
फिर सुनाओ मछलियों को जिंदगी का पवित्र मन्त्र
और मना लो गंगा दशहरा इस सही विधि के साथ


-------सुलोचना वर्मा--------

Sunday, June 8, 2014

सहायिका

----------------------
नहीं कह पायी शुक्रिया मैं उस माली से
लगा गया जो पेड़
गुलाबी चम्पा का हमारी बगिया में

कहाँ दे पायी शाबाशी मैं उस चुनचुन चिड़िया को
दिखा गयी जो नाच
बस कुछ दाने चुगकर बालकनी में

पर कह देती हूँ धन्यवाद हर बार सहायिका से
जो करती है काम पैसे लेकर
बड़े ही अनमने तरीके से घर में

सहायिका का होना तय करता है
चम्पा का गुलाबी होना मेरे लिए
और यह जानना कि नाच सकती है चुनचुन चिड़िया

कितना ज़रूरी है सहायिका का होना जीवन में

-----सुलोचना वर्मा----------

Friday, June 6, 2014

सच्चाई है माँ

---------------------
जब खीझ जाती हूँ किसी पर
तो कहती हूँ "ओह जीसस"
"हे भगवान्" भी कह देती हूँ कभी कभार


जब गर्मी कर देती है पस्त
आवाज़ देती हूँ "अल्लाह" को
और मांगती हूँ पानी जो बरसे बनकर फुहार


पर जब भी गिर पड़ती हूँ खाकर ठोकर
जुबाँ पर होता है जीवन का पहला शब्द
चिल्लाती हूँ "माँ" जब भी होता है अन्धकार


माँ है चट्टानों पर लिखी गई एक दुआ
जिसे पढ़ते हैं सभी धर्मों के लोग
अपनी अपनी भाषा में
ईश्वर अफवाह है; सच्चाई है माँ


सुलोचना वर्मा

Thursday, June 5, 2014

माथे पर शिकन

----------
नहीं हँसते अब हाथी अरण्य में
विचरते हैं लिए माथे पर शिकन
तस्कर ही तस्कर फैले जंगल में
और शेष रह गए हैं  जीव नगण्य


रहता है शेर अब चिड़ियाघर में 
और चिड़ियों के माथे पर शिकन
थक गया विचर कर सूने नभ में
अब हाय ले वो किस धाम शरण


दिन रात कट रहे वृक्ष चन्दन के
है भुजंग के माथे पर शिकन
हो गया परिणत क्यूँ रणभूमि में
देता था कभी आश्रय जो अभ्यारण


चिंतित वसुधा के संग पुष्प लता
उभरा प्रकृति के माथे पर शिकन
छुप ना जाएँ किताबों की स्याही में
रह जाएँ न बन मात्र उदाहरण


नित हो रहा क्षीण ओजोन परत
इस ब्रह्माण्ड के माथे पर शिकन
साँसों में घुल रहा विषैला धुआँ
और धरती का हो रहा चीर हरण 


बनाकर पेड़ों के शव पर महल
अब मानव के भी माथे पर शिकन
जो करता रहा इस कदर विकास
क्या हो पायेगा संतुलित पर्यावरण


मृतप्राय प्रकृति और मानव है मौन
लिए अपने-अपने माथे पर शिकन
पिघल रहा हिमालय, प्रदूषित गंगा
भौतिकता में है तन्द्रामय अंतःकरण


(c)सुलोचना वर्मा
-------------------

 

Wednesday, June 4, 2014

कविता

------------------------
जब कविता छपती है अखबारों में
कुछ शब्द जोड़ती है हौंसलों के
अनुभवों के खाते से निकाल कर 


जब कविता गाती है किसी गीत समारोह में
तो उम्मीदों को देती है स्वर
अपने अधूरे सपनो से लेकर उधार 


पर जब खूबसूरत कविता लौट आती है घर
साहस नहीं रह जाता शेष अनुभवों के खाते में
उम्मीदें दब जाती हैं कर्जदारों के स्वप्निल स्वर में


खत्म हो जाती है इसप्रकार एक बेहतरीन कविता
जिसका छपते रहना और गाते रहना था बेहद ज़रूरी


सुलोचना वर्मा

Sunday, June 1, 2014

कहो ना प्रेयस

----------------------
कहो ना प्रेयस, क्या करोगे
पढ़कर 
मेरी जिन्दगी की किताब 
जबकि नहीं पढ़ पाये हो वह ख़त
रखा है जो मेरी पलकों की दहलीज़ पर
बड़े ही सलीके से मैंने एक अरसे से


कहते हो कि गंध है मुझमे मेरे गाँव की मिट्टी की
पर नहीं सूंघ पाते हो मेरी देह के मर्तबान को
रखा है जिसमे किसी की यादों का अचार
जो महक उठता है तुम्हारे लफ्फाजी की धूप पाकर
और कर जाता है खट्टा मेरे बेबस मन का स्वाद


कहो ना प्रेयस, क्या ले पाओगे
मुझसे मेरे असन्तुष्ट शब्दों को 
छिड़क पाओगे उनमे संतुष्टि का गुलाब जल
खा पाओगे मर्तबान में पड़े अचार को स्वाद लेकर
भर पाओगे खाली मर्तबान में स्नेह का रूह अफज़ा ?


कहते हो कि बन जाओगे रांझा तुम मेरे प्रेम में
लिख जाओगे अपनी उम्र मेरे नाम खाकर ज़हर
जबकि मेरी जिंदगी को घेर रखा है मुसीबतों के पहाड़ ने
और दरकार है इसे किसी दशरथ मांझी जैसे की
जो करे हौसले से घनिष्टता, ढाए मुसीबतों पर कहर 


कहो ना प्रेयस,  बन पाओगे वटवृक्ष
जिस पर रेंगे मेरे प्रेम की तरुवल्लरी
मान पाओगे कि फिर भी मेरा अपना है आस्तित्व
क्या जानते हो नहीं रखूंगी व्रत वट-सावित्री का मैं 
क्या समझ पाओगे इस रूप में तुम मेरा स्त्रीत्व


कहते हो कि नहीं समझ आती है मुझे प्रेम की भाषा 
दिखलाना चाहते हो प्रेम का सुन्दर प्रतीक ताजमहल
जबकि सुलग रही हूँ कब से मैं जीवन की अंगीठी पर
रूह का तवा जहाँ हो चुका है जलते जलते लाल
और कसैला हो चुका है जुबान के ताम्रपात्र में रखा जल


कहो ना प्रेयस, सावन बन पाओगे
बरस पाओगे मेरे अंतस की सूखी धरती पर
मांज पाओगे जतन से मेरे रूह का लाल तवा
बदल पाओगे मेरी जुबान की तासीर
मेरी परवाह के साथ समय के नीम्बू सत्व से


कहो ना प्रेयस, प्रेयस बने रहोगे
यह जानकार कि नहीं आसान होता
प्रेयसी के मन की किताब को पढना
पढते रहना और प्रेयस बने रहना
जीवन के अनंत वसंत के उस पार


--सुलोचना वर्मा------