Wednesday, December 31, 2014

गुजरता हुआ साल

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गुजरता हुआ साल इतना साधारण भी न था 
कि मिली ऐसे असाधारण किस्म के लोगों से 
जो टपका सकते हैं अपनी जुबान से शहद 
अंतस में नफरत का काला नमक रखकर 
जबकि मैं मौन भी रहूँ तो बयाँ कर जाती है 
दिल की सच्ची दास्ताँ मेरी पारदर्शी शक्ल 

गुजरता हुआ साल इतना बेरंग भी न था 
कि मैंने देखा बदलते मौसमों के इन्द्रधनुष को 
और लोगों को जुड़ते-बिछड़ते अपनी सुविधानुसार 
जहाँ कुछ मौसम दे गए मीठे-मीठे सुफेद पल 
कभी जिंदगी सुना गयी अपना मुकम्मल काला सच   

गुजरता हुआ साल इतना गया गुजरा भी नहीं 
कि कहूँ कमबख्त आया और आकर चला गया 
जहाँ आया यह साल लेकर कई सुखद पल 
जाते-जाते बहुत कुछ मुझे सिखा दे गया 

गुजरता हुआ साल बस गुजरने ही वाला है 
जहाँ दुनिया कर रही रही है आतिशबाज़ी  
और मना रही है जश्न नए साल के स्वागत में 
कौंध रही हैं यादें बीते हुए बारह महीनों की 
मेरे जेहन के आसमान में बिजली की तरह 
कि तभी जाग जाती है अच्छे दिनों की उम्मीद 
और मैं कह देती हूँ नया साल हो मुबारक़!!

Friday, December 19, 2014

जन्मदिन

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समय बह गया किसी तेज नदी की तरह
और हम जो थे अलग कश्तियों पर सवार 
जा पहुँचे नदी के दो विपरीत किनारों पर
कि अचानक देखती हूँ जोड़ दिया है वक़्त ने 
एक और रंगीन गुब्बारा तुम्हारी उम्र में


इस पार लगा है स्मृतियों का हाट
और मैं खरीददार एकांत के मेले में
उठा लिया दीया शुभकामनाओं का
बहा दिया नदी में कर प्रज्वलित

सुनो, उम्र मत बढ़ाना अबके बरस
बड़े हो जाना सचमुच के 


---सुलोचना वर्मा------

Saturday, December 13, 2014

एक दिन कविता ने नहीं किया कुछ भी

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एक दिन कविता ने नहीं किया कुछ भी 
बस सोती रही देर तक
घण्टों नहाया झरने में
धूप में सुखाये बाल
और गाती रही पुरे दिन कोई पुराना गीत


एक दिन कविता ने नहीं किया कुछ भी 
बिंदी को कहा "ना"
कहा चूड़ियों से "आज नहीं"
काजल से बोली "फिर कभी"
और लगा लिया तन पर आराम का लेप


एक दिन कविता ने नहीं किया कुछ भी 
न तोड़े फूल बगीचे से
न किया कोई पूजा पाठ
न पढ़ा कोई श्लोक ही
और सुनती रही मन का प्रलाप तन्मयता से


एक दिन कविता ने नहीं किया कुछ भी 
तवे को दिखाया पीठ
खूब चिढ़ाया कड़ाही को
फेर लिया मुँह चाकू से
और मिलाकर घी खाया गीला भात


एक दिन कविता ने नहीं किया कुछ भी 
न साफ़ की रसोई
न साफ़ किया घर
नहीं माँजा पड़ा हुआ जूठा बर्तन
और अंजुरी में भरकर पिया पानी


एक दिन कविता ने नहीं किया कुछ भी 
रहने दिया जूतों को बिन पॉलिश के
झाड़न को दूर से घूरा
झाड़ू को भी अनदेखा कर दिया
और हटाती रही धूल सुन्दर स्मृतियों से


एक दिन कविता ने नहीं किया कुछ भी 
न ही उठाया खिड़की से पर्दा
न ही घूमने गयी कहीं बाहर
न मुलाक़ात की किसी से
और बस करती रही बात अपने आप से


एक दिन कविता ने नहीं किया कुछ भी 
जो उसे करना था रखने को खुश औरों को
कि उसे नहीं था मन कुछ भी करने का
जीना था उसे भी एक दिन बेतरतीबी से
और मिटाना था ऊब अभिनय करते रहने का


एक दिन कविता ने नहीं किया कुछ भी 
दरअसल वह गयी थी जान
कि नहीं था अधिक ज़रूरी
कुछ भी जिंदगी में
जिंदगी से अधिक


एक दिन कविता ने नहीं किया कुछ भी 
बस मनाया ज़श्न
अपने जिंदा होने का


------सुलोचना वर्मा -----------

Wednesday, December 10, 2014

बिन पता के लिफ़ाफ़े में

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काश तुम सहेज पाते मेरे प्रेम को
मोती की तरह वक़्त के सीपी में
जो हो गया है लुप्त धीरे-धीरे
मैमथ की ही तरह धरती से 


मैं अक्सर अपने सपनों में
बुनती हूँ एक मफ़लर काले रंग का
जिसे चाहती हूँ लपेटना तुम्हारे गले में
मेरी बाँहों के हार सा


पर जब मैं देखती हूँ खुद को आईने में
तो देखती हूँ केवल एक ठूँठ
जिस पर करती हैं आरोहण
तुम्हारी यादें वनलता की मानिंद


चला देती हूँ रवीन्द्र संगीत उस कमरे में
दिन के भोजन के ठीक बाद
जहाँ अब रहते हो तुम बड़े सुकून से अकेले
क्यूँकि मेरे एकांत में बहुत सक्रिय होते हो तुम


झाँकती हैं एक जोड़ी आँखें आजकल
उस बिना साँकल वाली खिड़की से
जहाँ लगाना था नीले रंग का पर्दा
ओढ़ बैठी हूँ मैं दर्द की नीली चादर


भेजती हूँ खत कुछ दिनों से बिन पता के लिफ़ाफ़े में
जबकि तुम्हारे ठिकाने का सन्देश दे ही जाती है हवा
कि नहीं मयस्सर मुझको तुम्हें परेशाँ देखना
और मेरा कद मुझे पशीमान होने की इज़ाज़त नहीं देता


----सुलोचना वर्मा-------------

Tuesday, December 9, 2014

मुखौटा

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सुकन्या की शादी को अभी १२ दिन बचे थे, पर अभी कुछ दिनों पहले ही उसकी अपने मंगेतर, सुगत से अनबन हो गयी| सुकन्या को अब लगने लगा कि मसले को बिना सुलझाए शादी करना ठीक नहीं होगा| पर सुगत तैयार न था; उसे सुकन्या को हर हाल में पाना था| परेशान होकर सुकन्या राहुल को फोन करती है और उसे सब कुछ बता देती है| राहुल सुकन्या और सुगत, दोनों का करीबी मित्र है|

"तुम्हे उससे शादी नहीं करनी चाहिए" सुकन्या को ध्यान से सुनते हुए राहुल जवाब देता है|
"अब करनी ही पड़ेगी; नहीं तो ...." कहते हुए सुकन्या रुक जाती है|
"नहीं तो क्या........?????" राहुल कौतूहलता से पूछता है|
"नहीं तो वह कह रहा था कि हमारे लिव इन रिश्ते की बात घरवालों और रिश्तेदारों को बता देगा"कहती हुई सुकन्या रो पड़ती है|
"कोई बात नहीं; बताने दो और तुम्हे ऐसे इंसान से शादी कतई नहीं करनी चाहिए जो ऐसी बातों को लेकर तुम्हें ब्लैकमेल करता हो" राहुल की आवाज़ में गुस्सा था|  
"फिर मैं कौन सा मुँह लेकर घर जाऊँगी"
"तुम्हें कहीं जाने की क्या ज़रूरत? तुम तो आत्मनिर्भर हो और फिर अगर ऐसी ज़रूरत हुई तो तुम मेरे पास आकर रह सकती हो| मैं फिर कोई बढ़िया सा लड़का देखकर तुम्हारी शादी करवा दूँगा" ऐसा कहता हुआ राहुल लगभग आश्वस्त था कि सुकन्या अब यह शादी नहीं करेगी|

सुकन्या मन ही मन सोचती है कि काश उसने राहुल को अपने लिए चुना होता तो आज ये दिन नहीं देखना पड़ता| कितना सुलझा हुआ इंसान है!! पर सुकन्या की परेशानी कम नहीं होती है| घर में शादी की सारी तैयारियाँ हो चुकी हैं| मेहमानों का आना शुरू चूका है| ऐसे में वह क्या करे; उसे नहीं सूझ रहा| शादी में जब सात दिन रह गए, सुकन्या की एक सहेली ने आकर सुगत से बात की और दोनों को आमने -सामने बैठाकर परस्पर बातचीत से मसले को सुलझाया| सुगत ने अपनी गलती मान ली| हिंदी सिनेमा की तरह आखिरी दृश्य में सब ठीक हो जाता है|

शादी हुए अभी दस महीने ही गुज़रे थे कि एकदिन राहुल उनके घर आ धमकता है| दफ्तर के किसी काम से आना हुआ है और दो दिनों बाद वह वापस चला जाएगा| तीनों दोस्त बहुत दिनों बाद मिले हैं; बातों का सिलसिला रुकने का नाम ही नहीं ले रहा| रात के खाने के बहुत देर बाद तक तीनों खूब बतियाते हैं| तभी राहुल उनसे कहता है कि उसे अपना ईमेल चेक करना है और उसके लैपटॉप को चार्ज होने में अभी समय लगेगा| सुकन्या अपना लैपटॉप उसकी ओर बढ़ाकर सोने चली जाती है| जाते हुए यह कहकर चुटकी लेती है कि उसे पता है कि उसे अपनी गर्लफ्रेंड से बातें करनी होंगी|

सुबह चाय नाश्ते के बाद तीनों अपने-अपने दफ्तर की ओर रवाना होते हैं| दफ्तर पहुँचकर सुकन्या जैसे ही लैपटॉप ऑन करती है; तो देखती है कि राहुल ने मेल चेक करने के बाद लॉगआउट नहीं किया| वह जैसे ही लॉगआउट करने जाती है; तभी उसकी नज़र सबसे ऊपर वाले ईमेल पर पड़ती है| वह निधि को भेजा गया ईमेल था| सुकन्या ने निधि के बारे में सुना था ; पर उसे यह मालूम नहीं था कि राहुल और निधि के बीच अब भी किसी प्रकार का कोई रिश्ता है| उत्सुकता का कीड़ा बेहद खतरनाक होता है| सुकन्या  से नहीं रहा गया और वह राहुल का निधि को लिखा ईमेल पढ़ती चली गयी जिसमे लिखा था ............

"निधि,
पिछले आठ दिनों से तुमसे बात करने की कोशिश कर रहा हूँ ; पर न तो तुम फोन पर ही आती हो और न ही ईमेल का जवाब देती हो| क्या तुम्हारा मन भर गया इस रिश्ते से? क्या अब तुम्हें मेरे साथ की ज़रूरत नहीं है? अगर नहीं, तो क्यूँ जताया मुझसे इतना अपनापन? क्यूँ आई मेरे इतने करीब? क्या करूँगा उन कपड़ों का जो मैं पिछले छह महीनों से तुम्हारे लिए खरीदकर अपने वार्डरोब में रखता आया हूँ? देखो, ये मेरा आखिरी ईमेल है तुम्हें; अगर दो दिनों में तुम्हारा जवाब नहीं आया तो मैं तुम्हारे पिता को हमारे लिव इन रिलेशन की बात बता दूँगा| बताओ फिर क्या करोगी? मैं ऐसा नहीं करना चाहता; पर तुमने मेरे पास और कोई विकल्प ही नहीं छोड़ा| इन्तजार रहेगा.....तुम्हारा राहुल"

 सुकन्या को अपनी आँखों पर भरोसा नहीं हो रहा था| क्या यह वही राहुल है जिसने उसे सुगत द्वारा ब्लैकमेल किये जाने पर शादी तोड़ने की सलाह दी| फिर वह वार्डरोब वाली बात..... तीन महीने पहले जब राहुल ने नया घर लिया तो सुकन्या और सुगत को विडियो चैट पर अपना पूरा घर दिखाया था और अपने वन रूम फ्लैट का इकलौता वार्डरोब खोलकर दिखलाया था कि कितना स्पेशियस है| उसमे तो सभी कपड़े राहुल के ही थे!!!

आज सुकन्या का मन दफ्तर के किसी काम में नहीं लग रहा है| वह तय नहीं कर पा रही कि राहुल अब खुद ही भटक गया है या तब उसे भटकाने की कोशिश कर रहा था............या फिर प्रेम की ज़मीन इतनी गीली
होती है कि वहाँ सही से गलत की ओर फिसलते देर नहीं लगती??? पीछे छूट गयी पुरानी स्मृतियाँ तेजी से पीछा कर रही थी| इतना तय था कि राहुल ने अपने मुख पर मुखौटा लगा रखा था; पर परेशानी यह थी कि कौन सा चेहरा उसका अपना असली चेहरा था !!!

सुकन्या शाम को देर से घर लौटी और फिर सभी ने मिलकर बाहर खाना खाया| राहुल अगली सुबह के फ्लाइट से मुंबई वापस चला गया| सुकन्या ने इस घटना का ज़िक्र किसी से नहीं किया ....किसी से भी नहीं...इस सच को काले मोती की मानिंद यादों के पारदर्शी जार में सहेज कर रख लिया| धरा रह गया सुकन्या का सवाल जिसका उत्तर अब पश्चिम में है|

Friday, December 5, 2014

झूठा सच

"मैं आपके जैसा साहसी नहीं था कि घरवालों के विरोध के बावजूद अपने पसंद की लड़की से शादी करता | पर रागिनी ने तो पूरा जीवन ही मेरे नाम कर दिया | अब उसके जीवन में मेरे सिवाय कोई नहीं और उसकी देखभाल करना मेरी नैतिक जिम्मेदारी भी बनती है | अगर आप यह सब सौम्या से कह देती हैं तो मेरा घर टूट जायेगा | ज़रा मेरे बच्चों के बारे में तो सोचिये.......और वैसे भी अब सौम्या जायेगी कहाँ...उसके माता-पिता तो रहे नहीं..सो...." प्रदीप बोलता ही चला गया | उसकी आवाज़ काँप रही थी |

"आपको मुझसे डरने की कोई ज़रूरत नहीं है | यह बात मुझ तक ही रहेगी | शायद मेरे चुप रहने ही में सौम्या की ख़ुशी निहित है" मधुरा ने भारी मन से कहा | पुरे दिन ग्रुप वायलिन की विकल तरंगों के बीच मन
बजता रहा | मन में कई तरह के ख्याल उभर रहे थे |

मधुरा कई दिनों तक इस उधेड़बुन में पड़ी रही कि उसे क्या करना चाहिए | अगर सौम्या से उसके साथ हुए धोखे के बारे में नहीं बताती है ; तो सहेली के साथ अन्याय होगा और अगर सब कुछ बता देती है तो उसका घर टूट जायेगा |

"मुझे तो समझ नहीं आता कि आप और सौम्या एक ही शहर के होते हुए एक दुसरे से इतने अलग कैसे हैं | आप इतनी समझदार हैं और आत्मनिर्भर भी | आपको अपना कुछ काम करना चाहिए | मेरी राजनीति में अच्छी पैठ है और आप चाहें तो ..." अब प्रदीप अक्सर मधुरा को फोन करता और उसके तारीफों की पुल बांधता | यह सिलसिला लगभग तीन महीनों तक चला |

फिर एक दिन......

"सुनिए, आज मेरे बचपन की सहेली घर आ रही है | वैसे तो आपको अपने काम के अलावे कुछ सूझता ही नहीं है ; पर आज हो सके तो जरा समय से घर आ जाइएगा" सौम्या का प्रदीप से इतना कहना था की प्रदीप घर से निकलते हुए अचानक से रुक गया |

"अच्छा, कौन सी सहेली आ रही है" ऐसा पूछते हुए प्रदीप को जवाब लगभग पता था |

"मधुरा" कहते हुए सौम्या ने घर का दरवाजा बंद किया |

प्रदीप कुछ सोचता हुआ पार्किंग में आकर अपनी लिमोजिन में बैठ गया | मन की वीणा ने राग विहाग का तान छेड़ दिया |

मधुरा का सामना ऐसे सच से हुआ था जिसे वह चाहकर भी नहीं भुला पा रही थी | सौम्या के घर जाने से पहले मधुरा ने अपनी माँ को सारी बातें बता दी और साथ ही उनसे यह वादा भी लिया कि वह इस सच को किसी और से सांझा नहीं करेगी |

"देखो, पैसेवाला है, तभी तो एक साथ दो परिवारों का निर्वाह कर पा रहा है; वरना इस कमरतोड़ मंहगाई में तो एक परिवार भी संभालना मुश्किल होता है | सौम्या को तो बड़े आराम से रखा है | उसे किसी प्रकार की कोई तकलीफ नहीं | अब उसे सब कुछ पता भी चल जाए, तो वह बेचारी जायेगी कहाँ ? " अपनी माँ के मुँह से ऐसा सुनकर मधुरा चौंक गयी |

माँ ने आगे जो कहा, वो और भी चौंकानेवाली बात थी |

"सौम्या की माँ को शादी के बाद यह पता चल चुका था कि यह शादी प्रदीप की मर्ज़ी के वगैर हुई है | इस बात का किसी को पता ना चलता अगर शादी के आठवें दिन रात्री भोज के समय घर पर पुलिस ना आ धमकती | रागिनी ने आत्महत्या की कोशिश की थी और उसे किसी प्रकार बचाया जा सका था | उसने अपने बयान में पुलिस को सब कुछ बता दिया था | उस रोज़ प्रदीप पुलिस के साथ अस्पताल तक गया था और देर रात गए घर लौटा | घर लौटने पर सौम्या के माता-पिता, जो वहाँ रात्री-भोज में शामिल होने आये थे, उनसे कहा गया कि कोई लड़की थी जो प्रदीप से बहुत प्यार करती थी | प्रदीप ने उससे शादी के लिए इंकार कर दिया, तो आत्महत्या की कोशिश की | प्रदीप का अब उस लड़की से कुछ नहीं लेना देना है और पुलिस ने भी उस लड़की को समझा दिया है | सौम्या के पिता तो मान भी चुके थे कि वह लड़की ही प्रदीप के पैसों पर फ़िदा होकर उसके गले पड़ना चाह रही थी ; पर सौम्या की माँ....उसे सच्चाई का लगभग अनुमान हो चला था | सौम्या की शादी के एक महीने बाद जब वह हमारे घर आई थी , तब इस घटना का ज़िक्र किया था | उन्हें शायद लगा था कि सारा मसला सुलझ गया था | बहरहाल सौम्या अपनी दुनिया में खुश है और वो लड़की, रागिनी भी | काबिल कहना पड़ेगा प्रदीप को ........एक साथ दो-दो घर .............." माँ शायद आगे भी कुछ कहना चाहती थी; पर अब सब कुछ मधुरा के बर्दाश्त के बाहर हो गया था |

"अगर उसके माता-पिता को सब मालूम था, तो उन्होंने कुछ क्यूँ नहीं किया? क्या उन्हें भी इस बात पर लड़के में काबिलियत ही दिखी थी कि एक साथ दो-दो स्त्रियों का भरण पोषण कर सकता है ? क्या सौम्या उनके सर पर एक बोझ थी , जिसके उतर जाने पर वह इतना खुश थे कि उन्हें फर्क नहीं पड़ता इन सारी बातों से ? या फिर प्रदीप का पैसेवाला होना इस सभी चीज़ों के मायने बदल देता है ?" माधुरी अभी  अपने आप से ऐसे ही कुछ चंद सवाल पूछ रही थी कि उसके फोन की घंटी बजी |

"हाँ सौम्या, मैं चार बजे तक तुम्हारे घर पहुँच जाऊँगी" कहते हुए मधुरा ने फ़ोन रखा |

मधुरा तैयार होकर सौम्या के घर के लिए निकल पड़ती है| वह खुद भी नहीं जानती कि वह सौम्या का सामना कैसे करेगी| डेढ़ घंटे की ड्राइव के बाद मधुरा सौम्या के घर पहुँचती है| सौम्या अपनी सोसाइटी के बाहर खड़ी उसका इंतज़ार कर रही थी| दोनों सहेलियां गले मिलती हैं और फिर सौम्या मधुरा को अपने घर ले आती है| घर आते ही सौम्या मधुरा को अपना पूरा घर दिखाती है| उसके लिए डुप्लेक्स घर बहुत मायने रखता था| सौम्या के चेहरे से झलकती ख़ुशी ने मधुरा के बैचैन मन को कुछ हद तक शांत किया|

"जानती हो मधुरा, आज तक का रिकार्ड है कि प्रदीप कभी मेरे किसी परिचित से मिलने दफ्तर का काम छोड़कर नहीं आये; पर तुम स्पेशल हो न ............" सौम्या इठलाते हुए कहती है| 

प्रदीप आधे घंटे से खड़ा है | शायद उसके अन्दर का अपराधबोध उसे बैठने की इज़ाज़त नहीं दे रहा है |  मधुरा उसकी असहजता  समझ सकती है| मधुरा की इल्तिजा पर प्रदीप उसके पास ही कुर्सी पर बैठ जाता है| सबने साथ बैठ चाय नाश्ता किया और फिर मुलाक़ात को अंजाम तक पहुंचाने का वक़्त आया| मुलाक़ात जो थी वीथोवन की आठवीं सिम्फनी की तरह संक्षिप्त!

 मधुरा को छोड़ने सौम्या पार्किंग तक आती है और मधुरा एक बनावटी मुस्कान के साथ गाड़ी में जा बैठती है | मधुरा मन ही मन तय करती है कि अब वह अपनी सहेली के घर नही आयेगी क्यूंकि सौम्या जी रही है एक झूठ, जो उसका खूबसूरत सच है या यूँ कहें उसकी शादी का सफ़ेद झूठ, जो सच है | अपने दिल पर हजारों सवाल का बोझ लिए मधुरा अस्सी की स्पीड से कार ड्राइव कर रही है कि तभी उसका ध्यान खींचता है  कार की स्टीरियो में चल रहा गाना "क्या मिलिए ऐसे लोगो से, जिनकी फितरत छुपी रहे, नकली चेहरा सामने आये, असली सूरत छुपी रहे"|

Monday, December 1, 2014

बेटियाँ

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हो जाती हैं विदा बेटियाँ मायके से
लेकर संदूक में यादों का जखीरा
जैसे करता है विदा पहाड़ नदी को
और लाती है नदी अपने साथ खनिज


बनाती जैसे डेल्टा नदी समुद्र में मिलने के पूर्व
अनेक शाखाओं में कर स्वयं को ही विभाजित
बाँट लेती हैं बेटियाँ खुद को दो अलग घरों में 
कि ऐसा करना ही होता है उनका तयशुदा धर्म


जहाँ खो देती है नदी अपना मीठा स्वाद
विशाल समंदर के खारे फेनिल जल में
लपेटना होता है अक्सर जुबान पर शहद 
नमकीन पसंद करनेवाली इन बेटियों को


सुनो नदियाँ, तुम नर्मदा सी बन जाओ
कि नहीं बाँटना पड़े खुद को बनाने को डेल्टा
बेटियाँ तुम कहना सीख लो
कि तुम्हे नमकीन है पसंद!!!


----सुलोचना वर्मा ---------