Thursday, December 20, 2018

नर्क

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कहो सहेला, आओगे मेरी अंतिम यात्रा में ?
यह तो बताओ सहेला कि चिता की अग्नि 
पहले जलाएगी मेरी पाँच गजी या मेरे बालों को 
जिनमें उँगलियाँ उलझाने की बात करते थे तुम 
और यह कार्य इतना कठिन था कि छोटा पड़ गया 
दिन, महीना, साल, पञ्चांग का कोई भी शुभ मुहूर्त 

चिता की आग मुझे कितना जला सकेगी सहेला ?
उतना, जितना तुम्हारे विषाद में जला है यह मन ?
या उतना, जितना जल जाने पर खत्म हो जाती है अनुभूति ?

जानते हो सहेला, हो चुकी अभ्यस्त तुम्हारे दिए गए नर्क में रहने की ऐसी 
कि किसी प्रकार के स्वर्ग की कल्पना मात्र से ही हो उठती हूँ असहज 
सविनय अवज्ञा कर दूँगी यदि यम देवता ने सुनाया स्वर्ग भेजने का फैसला 
धरना दूँगी उस नर्क के द्वार पर और वहाँ से इस नर्क को करूँगी प्रणिपात !

यह बताओ सहेला, क्या उस नर्क में भी यातना देने वाले को प्रेमी ही कहते हैं? 

Saturday, November 24, 2018

लड़ाई

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हम नहीं लड़ते विलुप्त होते पक्षियों के लिए
जबकि लड़ते हैं हमारे अपने-अपने धर्मों के
अदृश्य देवी - देवताओं के लिए

अहंकार की जद में अब हम नहीं देखते झुक कर नदी को
भर लेते हैं नदी को ही प्लास्टिक की बोतलों में
फिर नदी को झोले में भर कर ढ़ोते हैं बुझाने अपनी प्यास

लड़ते हैं जमीन के किसी टुकड़े के लिए या किसी खदान के लिए
लड़ते हैं अक्सर हम अपराध करते रहने के लिए
कभी-कभी तो बस मन होता है, इसलिए भी लड़ लेते हैं

हम हो गए हैं इतने शातिर कि हम पेड़ नहीं चुराते
चुरा लेते हैं अब एक पूरा का पूरा जंगल ही
या फिर एक पूरा देश चुरा लेते हैं

तकनीक को बना लिया है हमने अब ऐसा अस्त्र
कि आधारपूर्वक चुराने लगे हैं परिचय लोगों का
चुराने लगे हैं मनुष्यता के साथ देवताओं का देवत्व भी 

एक लड़ाई हो अब इंसानियत बचा लेने की खातिर
बजाकर बिगुल या कर धनुष की टंकार
और चोरी हो जाए धरती से धूर्तता और अहंकार 

दुर्घटना

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1.
अपने उस सुनियोजित मृत्यु आयोजन के लिए 
उसने लिखा सुसाइड नोट किसी निमंत्रण पत्र की तरह 
अलग-अलग संबोधन वाले अलग-अलग लिफ़ाफ़े में 
एक को रखा मेज पर कमरे के दबाकर श्रीमद्‍भगवद्‍गीता से 
दूसरे को जिला-दंडनायक कार्यालय भेजा परिवार की सुरक्षा के लिए 
तीसरा छोड़ आया उसके घर जिसे लोग बता रहे हैं मृत्यु का कारण 

हर पत्र में बस इतना ही लिखा कि वह परेशान था बेहद 
नहीं लिखा किसी भी पत्र में उसने सटीक कारण आत्महत्या का 
वह जानता था नहीं करेगा कोई भी सम्मान उसकी भावनाओं का 
कि अलग थे समाज से उसके तय किए हुए रास्ते और मरहले 
और नहीं समझ पाते हैं लोग यह शरीर के नष्ट हो जाने से पहले 

देश में अब नहीं होती हत्याएँ, न जाने क्यूँ बढ़ती ही जा रही हैं दुर्घटनाएँ 
कृष्ण को पूजने वाले देश में इन दिनों गीता से दबाए जा रहे हैं सुसाइड नोट्स !

2.
अपने तमाम दुखों को स्थगित करने के लिए 
कूद गया सिउरी पुल से बूढ़ी गंडक के जल में 
प्रेम में समाज से परास्त अठारह बरस का वह लड़का 
फिर हो उठा आतुर नदी का मटमैला जल 
उसके शरीर में प्रवेश करने के लिए 
मरता रहा पीकर बूढ़ी गंडक का पानी वह गटागट 
बढ़ता घनत्व शरीर का डुबाता रहा उसे मोक्ष के जल में 
जब बंद हुई प्रतिरक्षा प्रणाली शरीर की 
और शुरू हुआ अपघटन, 
क्या देख पायी थी उसकी आत्मा
कि जिस समाज के एक चन्द्र खंड के समक्ष 
वह था नत ज्योत्स्ना के उत्सव में करते हुए प्रतीक्षा
मन ही मन मिलन तिथि के पूर्णिमा की 
उस समाज की विवेचनाओं में सघन थी अमावस्या की कालिख 

सावधान ! प्रेम इस समाज में वह लक्ष्मण रेखा है 
जिसे पार करते ही घट सकती है कोई भी दुर्घटना !

3.
तुम प्रेम में भी मर सकते थे लड़के 
तुमने जल को क्यूँ किया कलंकित !
तुम उठा सकते थे जल से शब्द नदी के वक्ष से 
और रख सकते थे अपनी प्रियतमा की आँखों में 
फिर ले सकते थे ताप उन आँखों के दीए से 
आजीवन अपनी शीतल आँखों में !

देखो तो लड़के ! आज नदी है, जल है, प्रियतमा है 
बस एक तुम ही नहीं हो कहीं भी 
दर्ज होकर रह गए हो तुम प्रियतमा की स्मृति में 
एक अप्रत्याशित दुर्घटना की तरह !

4.
समाज से निराश और कितनी युवा लाशों को ढ़ोने के बाद 
आप लिख सकेंगे अपनी गौरवगाथा हे वीरों !
देखिये कहीं लज्जित न कर दें आप आदिमानवों को 
तोड़कर उनके समस्त पाषाण युगीन कीर्तिमान !

फ़िलहाल आपके काँधे पर जिस युवा का शव है 
आप उसे लेकर आगे बढ़िये राम नाम के साथ 
आगे बढ़ते हुए जब थोड़ा झुकने लगे आपकी पीठ 
तो शायद गलने लगे आपके अहंकार का पहाड़  
और यदि ऐसा हुआ सचमुच ही 
तो देख सकेंगे आप आसपास प्रकृति और इंसान  
माथे के ऊपर तना मिलेगा इन्द्रधनुषी आसमान 

बंद कीजिए ऐसी युवा लाशों को ढ़ोने का कारोबार 
नहीं तो बहुत समय नहीं लगेगा उस दुर्घटना को घटते 
जिसके घटित हो जाने से हम पहुँच जाएँगे पुनः पाषाण युग में !

5.
दृश्यमान आँखों से ज्योत के बुझते ही वह आती है
जब वह आती है तो कभी हिलाती है साँकल घर का
चूड़ी और कलाई-विहीन हाथों से या फिर कभी
बिना बताए ही करती है अनाहूत प्रवेश अचानक

वह आती है स्त्री विहीन उस साड़ी की तरह
जिसके आँचल में बंधा होता है गाढ़ा अंधकार
वह आती है पाँव विहीन भारी जूते की तरह
और बेतरह रौंद कर रख देती है जीवन का सर

फिर करती है चित्कार मुख विहीन, जिह्वा विहीन, स्वर विहीन कंठ से
जिससे हो उठता है गुंजायमान दिक-दिगन्त करुण रुदन स्वर से
समय से जीवन की दूरी घटते ही वह आने लगती है बिलकुल पास
और कर देती है अस्थिर जीवन को स्थिर सुनाकर मृत्यु का काव्य

जीवन के पाठ्यक्रम में समय एक शून्य विषय है जहाँ
भोरे भिनसारे भी हो सकता है अस्त जीवन का सूरज
और हमारे अतीत में जो प्रगाढ़ शुन्यता बची रह गयी थी
एकदिन वही शुन्यता कर लेती है दखल हमारा स्थान

मृत्यु एक अवश्यम्भावी दुर्घटना है !

गवाही

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ईश्वर दे रहे हैं गवाही पंडितों की 
और पंडित अपने-अपने ईश्वर की 
आम आदमी की गवाही देने कोई नहीं आता 
जबकि वह देता है गवाही समय के दरबार में हमेशा 

आम आदमी न ठीक से सीख पाया बुक्का फाड़ रोने का हुनर 
न ही ले पाया कोई अवतार किसी ईश्वर या महापुरुष के रूप में   
उसके अनुभवों में दूर-दूर तक नहीं है ईश्वर का अता - पता  
है अनुभव तो सिर्फ कष्ट और सुख के नाम पर छले जाने का  

टीवी वाले दिखा रहे हैं साक्ष्य पांडवों के स्वर्गारोहण की 
और बता रहे हैं कि उन्होंने ढूँढ ली है स्वर्ग जाने की सीढ़ी 
पर नहीं जुटा पाया अब तक कोई भी साक्ष्य कि मर गयी 
क्यूँ संतोषी नाम की एक बच्ची बिना भात बिना तरकारी 

मनुष्यों के ही आडम्बर से जन्में ईश्वर भला क्यूँ देंगे गवाही उनकी 
जबकि नहीं होती प्रवाहित प्रार्थना मनुष्य की ओर एक मनुष्य की 

गाँव वाले शहर वाले

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शहर वाले नहीं देख पाते हैं तारों भरा आकाश 
गाँव वाले नहीं जानते "नाईट लाइफ़" के बारे में 

शहर वाले जाते हैं चिड़ियाघर देखने कई तरह के पक्षी 
गाँव वाले उठते ही तब हैं जब चिड़िया गाकर उन्हें जगाती 

शहर वाले घर छोड़ जाते हैं "फार्म हाउस" करने आराम 
खेतों में काम के बाद आराम करने घर आते हैं गाँव वाले

पढ़ने जाते हैं शहर गाँव वाले कि लौट आयेंगे पढ़-लिख कर 
सोचते हैं शहर वाले कि खत्म हो जरूरतें तो वे लौट जाएँ गाँव 

कहता है गाँव शहर से कि "तुम्हें आग लगे तो मेरे खेत फिर लहलहायें"
शहर कहता है गाँव से "तुम उजड़ो तो मिले हमे एक नया "फार्म हाउस"

Sunday, September 2, 2018

सुनील गंगोपाध्याय की कविताएँ

1. पहाड़ के शिखर पर 
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बहुत दिनों से ही मुझे एक पहाड़ खरीदने का शौक है |
लेकिन पहाड़ कौन बेचता है, यह मैं नहीं जानता |
यदि उससे मिल पाता,
कीमत के लिए नहीं अटकता मामला |
मेरे पास अपनी एक नदी है,
वही दे देता पहाड़ के बदले |

कौन नहीं जानता, पहाड़ की अपेक्षा नदी की ही कीमत होती है अधिक |
पहाड़ स्थिर रहता है, बहती रहती है नदी  |
फिर भी मैं नदी के बदले पहाड़ ही खरीदता |
क्यूँकि मैं ठगा जाना चाहता हूँ |

नदी को भी हालाँकि खरीदा था एक द्वीप के बदले में |
बचपन में मेरा एक छोटा सा,
साफ़-सुथरा द्वीप था |
वहाँ थीं असंख्य तितलियाँ |
बचपन में द्वीप था मुझे बेहद प्रिय ।
मेरी युवावस्था में द्वीप मुझे
आकार में छोटा लगने लगा । प्रवाहमान सुव्यवस्थित तन्वी नदी मुझे खूब पसंद आई ।
दोस्तों ने कहा, इतने छोटे
एक द्वीप के बदले में इतनी बड़ी
एक नदी मिली?
क्या खूब जीता है माँ कसम !
तब मैं विह्वल हो जाता जीतने की खुशी में ।
तब मैं सचमुच ही नदी से प्यार करता था।
नदी मेरे कई सवालों का जवाब देती ।
जैसे , बताओ तो, आज
शाम को बारिश होगी या नहीं ?
वह कहती, आज यहाँ दक्षिणी गर्म हवा है।
केवल एक छोटे से द्वीप पर होगी बारिश,
किसी त्यौहार की तरह प्रबल बारिश !
मैं उस द्वीप पर अब नहीं जा सकता,
उसे मालूम था ! सभी को मालूम है।
फिर से नहीं लौटा जा सकता है बचपन में ।

अब मैं एक पहाड़ खरीदना चाहता हूँ।
उस पहाड़ के पाँव के पास
होगा गहन अरण्य, मैं पार कर लूँगा उस अरण्य को, उसके बाद केवल असहज
कठिन पहाड़ |
बिल्कुल शीर्ष पर, सिर के
बहुत पास आकाश, नीचे विपुला पृथ्वी,
चराचर में तीव्र निर्जनता |
कोई भी नहीं सुन सकेगा मेरा कंठ-स्वर वहाँ ।
मैं भगवान में विश्वास नहीं करता, वह मेरे सिर के पास सर झुकाकर खड़े नहीं होंगे ।
मैं केवल दसो दिशाओं को संबोधित कर कहूंगा,
हर मनुष्य ही अहंकारी है, यहाँ मैं हूँ अकेला-
यहाँ मुझे कोई अहंकार नहीं है।
यहाँ जीतने के बजाय, क्षमा माँगना अच्छा लगता है।
हे दसो दिशाओं, मैंने कोई दोष नहीं किया।
मुझे क्षमा कर दो |

2. जन्म नहीं होता, मृत्यु नहीं होती 
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मेरे प्रेम का कोई जन्म नहीं होता,
मृत्यु नहीं होती -
क्यूँकि मैं अन्य प्रकार के प्रेम के हीरे का गहना
शरीर में लेकर पैदा हुआ था।
नहीं रखा किसी ने मेरा नाम, तीन-चार छद्मनामों से
कर रहा हूँ भ्रमण मर्त्यधाम में,
आग को प्रकाश समझा, प्रकाश से
जलता है मेरा हाथ
यह सोचकर कि अंधकार में मनुष्य देखना होता है सहज भँवर में
अंधकार से लिपटा रहा
कोई मुझे देता है शिरोपा, कोई दोनों आँखों से हजार दुत्कार
फिर भी मेरे जन्म-कवच, प्रेम को प्रेम किया है मैंने
मुझे कोई डर नहीं लगता,
मेरे प्रेम का कोई जन्म नहीं होता,
मृत्यु नहीं होती |

3. उत्तराधिकार
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नवीन किशोर, तुम्हें दिया मैंने भुवन तट का मेघों भरा आकाश
तुम्हें दी मैंने बटन विहीन फटी हुई कमीज़ और
फुफ्फुस भरी हँसी
दोपहर की धूप में घूमना पैयाँ-पैयाँ, रात के मैदान में सोना होकर चित
यह सब अब तुम्हारे ही हैं, अपने हाथों में भर लो मेरा असमय
मेरे दुःख-विहीन दुःख क्रोध सिहरन
नवीन किशोर, तुम्हें दिया मैंने मेरा जो कुछ भी था आभरण
जलते हुए सीने में कॉफ़ी की चुस्की, सिगरेट चोरी, खिड़की के पास
बालिका के प्रति बारम्बार गलती
पुरुष वाक्य, कविता के पास घुटने मोड कर बैठना, चाकू की झलक
अभिमान में मनुष्य या मनुष्य जैसे किसी और चीज के
सीने को चीर कर देखना
आत्म-हनन, शहर को अस्तव्यस्त करता तेज क़दमों से रौंदता अहंकार
एक नदी, दो-तीन देश, कुछ नारियाँ -
यह सब हैं मेरे पुराने पोशाक, बहुत प्रिय थे, अब शरीर में
तंग हो कसने लगे हैं, नहीं शोभते अब
तुम्हें दिया, नवीन किशोर, मन हो तो अंग लगाओ
या घृणा से फेंक दो दूर, जैसी मर्जी तुम्हारी
मुझे तुम्हें तुम्हारी उम्र का सब कुछ देने की बहुत इच्छा होती है |

4. व्यर्थ प्रेम 
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हर व्यर्थ प्रेम देता है मुझे नया अहंकार
बतौर मनुष्य, मैं हो जाता हूँ तनिक लम्बा
दुःख मेरे सिर के बालों से पैर की उंगलियों तक
फैल जाता है
मैं सभी मनुष्यों से अलग होकर एक
अज्ञात रास्ते में सुस्त कदमों से
चलने लगता हूँ
सार्थक मनुष्यों के अधिकाधिक माँगों वाले चेहरे मुझे सहन नहीं होते
मैं रास्ते के कुत्ते को बिस्कुट खरीद कर देता हूँ
रिक्शेवाले को देता हूँ सिगरेट
अंधे आदमी की सफेद छड़ी मेरे पैरों के पास
आ गिरती है
मेरे दोनों हाथों में भरी है भरपूर दया, मुझे किसी ने
लौटा दिया है इसलिए पूरी दुनिया
लगती है बहुत अपनी
मैं निकलता हूँ घर से नयी धुली हुई
पतलून कमीज पहन कर
मेरे सद्य दाढ़ी बनाये हुए मुलायम चेहरे को
मैं खुद ही सहलाता हूँ
बहुत गोपन में
मैं एक साफ आदमी हूँ
मेरे सर्वांग में कहीं भी
नहीं है जरा सी भी गंदगी
ज्योतिर्वलय बन रहती है अहंकार की प्रतिभा
माथे के पीछे
और कोई देखे या न देखे
मुझे भान हो ही जाता है
ले आता है अभिमान मेरे होठों पर स्मित हास्य
मैं ऐसे रखता हूँ पाँव मिट्टी के सीने पर भी
कि नहीं पहुँचे आघात
मुझे तो किसी को भी दुःख नहीं देना है |

5. इच्छा
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काँच की चूड़ी को तोड़ने के समान रह-रहकर इच्छा होती है
कि तोड़ डालूँ  दो चार नियम क़ानून
पाँव के नीचे पटक कर फेंकूँ माथे का मुकुट
जिनके पाँव के नीचे हूँ, उनके सर पर चढ़ बैठूँ
काँच की चूड़ी को तोड़ने के समान ही इच्छा होती है अवहेलना में
कि धर्मतला में भरी दुपहरी बीच रास्ते पर करूँ सुसु |
इच्छा होती है दोपहर की धूप में ब्लैक आउट का हुक्म देने की
इच्छा होती है कि करूँ झाँसा देकर व्याख्या जनसेवा की
इच्छा होती है कि मलूँ कालिख धोखेबाज नेताओं के चेहरों पर
इच्छा होती है कि दफ्तर जाने के नाम पर जाऊँ बेलूर मठ
इच्छा होती है कि करूँ नीलाम धर्माधर्म मुर्गीहाटा में
बलून खरीदूँ बलून फोडूँ, काँच की चूड़ी दिखते ही तोडूँ
इच्छा होती है कि अब पृथ्वी को तहसनहस करूँ
स्मारक के पाँव के पास खड़े होकर कहूँ
मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लगता है |

*धर्मतला, मुर्गीहाटा,बेलूर मठ  =कोलकाता के विभिन्न स्थान

6. वो सारे स्वप्न 
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कारागार के अंदर उतर आयी थी ज्योत्स्ना
बाहर थी हवा, विषम हवा
उस हवा में थी नश्वरता की गंध
फिर भी फाँसी से पहले दिनेश गुप्ता ने लिखी थी चिट्ठी अपनी भाबी को,
"मैं अमर हूँ, मुझे मार पाना किसी के बूते की बात नहीं |"

मध्यरात्रि में अब और देर नहीं है
घंटा बजता है प्रहर का, संतरी भी क्लांत होते हैं
सिरहाने आकर मृत्यु भी विमर्श बोध करती है |
कंडेम्ड सेल में बैठ लिख रहे हैं प्रद्युत भट्टाचार्य,
"माँ, तुम्हारा प्रद्युत क्या कभी मर सकता है ?
आज चारोंओर देखो,
लाखों प्रद्युत तुम्हें देख मुस्कुरा रहे हैं,
मैं जिंदा ही रहा माँ, अक्षय"

कोई नहीं जानता था कि वह था कहाँ,
घर से निकला था लड़का, फिर वापस नहीं आया
पता चला कि देश से प्यार करने के लिए मिला उसे मृत्युदंड
अंतिम क्षण से पहले भवानी भट्टाचार्य ने
पोस्ट कार्ड पर बहुत तेज़ गति से लिखा था अपने छोटे भाई को,
"अमावस्या के श्मसान में डरते हैं डरपोक,
साधक वहाँ सिद्धि लाभ करते हैं,
आज मैं बहुत ज्यादा नहीं लिखूँगा
सिर्फ सोचूँगा कि मौत कितनी सुंदर है। "

लोहे की छड़ पर रख हाथ,
वह देख रहे हैं अंधकार की ओर
दीवार को भेद जाती है दृष्टि, अंधेरा भी हो उठता है वाङ्‌मय
सूर्य सेन ने भेजी अपनी आखिरी वाणी,
"मैं तुम लोगों के लिए क्या छोड़ गया ?
सिर्फ एक ही चीज,
मेरा सपना एक सुनहरा सपना है,
एक शुभ मुहूर्त में मैंने पहली बार इस सपने को देखा था । "

वो सारे स्वप्न अब भी हवा में उड़ते रहते हैं
सुनायी पड़ता है साँसों का शब्द
और सब मर जाता है स्वप्न नहीं मरता
अमरत्व के अन्य नाम होते हैं
कानू, संतोष, असीम लोग  ...
जो जेल के निर्मम अंधेरे में बैठे हुए
अब भी इस तरह के स्वप्न देख रहे हैं

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1. পাহাড় চূড়ায় – সুনীল গঙ্গোপাধ্যায়
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অনেকদিন থেকেই আমার একটা পাহাড় কেনার শখ।
কিন্তু পাহাড় কে বিক্রি করে তা জানি না।
যদি তার দেখা পেতাম,
দামের জন্য আটকাতো না।
আমার নিজস্ব একটা নদী আছে,
সেটা দিয়ে দিতাম পাহাড়টার বদলে।

কে না জানে, পাহাড়ের চেয়ে নদীর দামই বেশী।
পাহাড় স্থানু, নদী বহমান।
তবু আমি নদীর বদলে পাহাড়টাই
কিনতাম।
কারণ, আমি ঠকতে চাই।

নদীটাও অবশ্য কিনেছিলামি একটা দ্বীপের বদলে।
ছেলেবেলায় আমার বেশ ছোট্টোখাট্টো,
ছিমছাম একটা দ্বীপ ছিল।
সেখানে অসংখ্য প্রজাপতি।
শৈশবে দ্বীপটি ছিল আমার বড় প্রিয়।
আমার যৌবনে দ্বীপটি আমার
কাছে মাপে ছোট লাগলো। প্রবহমান ছিপছিপে তন্বী নদীটি বেশ পছন্দ হল আমার।
বন্ধুরা বললো, ঐটুকু
একটা দ্বীপের বিনিময়ে এতবড়
একটা নদী পেয়েছিস?
খুব জিতেছিস তো মাইরি!
তখন জয়ের আনন্দে আমি বিহ্বল হতাম।
তখন সত্যিই আমি ভালবাসতাম নদীটিকে।
নদী আমার অনেক প্রশ্নের উত্তর দিত।
যেমন, বলো তো, আজ
সন্ধেবেলা বৃষ্টি হবে কিনা?
সে বলতো, আজ এখানে দক্ষিণ গরম হাওয়া।
শুধু একটি ছোট্ট দ্বীপে বৃষ্টি,
সে কী প্রবল বৃষ্টি, যেন একটা উৎসব!
আমি সেই দ্বীপে আর যেতে পারি না,
সে জানতো! সবাই জানে।
শৈশবে আর ফেরা যায় না।

এখন আমি একটা পাহাড় কিনতে চাই।
সেই পাহাড়ের পায়ের
কাছে থাকবে গহন অরণ্য, আমি সেই অরণ্য পার হয়ে যাব, তারপর শুধু রুক্ষ
কঠিন পাহাড়।
একেবারে চূড়ায়, মাথার
খুব কাছে আকাশ, নিচে বিপুলা পৃথিবী,

চরাচরে তীব্র নির্জনতা।
আমার কষ্ঠস্বর সেখানে কেউ শুনতে পাবে না।
আমি ঈশ্বর মানি না, তিনি আমার মাথার কাছে ঝুঁকে দাঁড়াবেন না।
আমি শুধু দশ দিককে উদ্দেশ্য করে বলবো,
প্রত্যেক মানুষই অহঙ্কারী, এখানে আমি একা-
এখানে আমার কোন অহঙ্কার নেই।
এখানে জয়ী হবার বদলে ক্ষমা চাইতে ভালো লাগে।
হে দশ দিক, আমি কোন দোষ করিনি।
আমাকে ক্ষমা করো।

2.জন্ম হয় না, মৃত্যু হয় না – সুনীল গঙ্গোপাধ্যায়
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আমার ভালোবাসার কোনো জন্ম হয় না
মৃত্যু হয় না –
কেননা আমি অন্যরকম ভালোবাসার হীরের গয়না
শরীরে নিয়ে জন্মেছিলাম।
আমার কেউ নাম রাখেনি, তিনটে-চারটে ছদ্মনামে
আমার ভ্রমণ মর্ত্যধামে,
আগুন দেখে আলো ভেবেছি, আলোয় আমার
হাত পুড়ে যায়
অন্ধকারে মানুষ দেখা সহজ ভেবে ঘূর্ণিমায়ায়
অন্ধকারে মিশে থেকেছি
কেউ আমাকে শিরোপা দেয়, কেউ দু’চোখে হাজার ছি ছি
তবুও আমার জন্ম-কবচ, ভালোবাসাকে ভেলোবেসেছি
আমার কোনো ভয় হয় না,
আমার ভালোবাসার কোন জন্ম হয় না, মৃত্যু হয় না।।

3.উত্তরাধিকার – সুনীল গঙ্গোপাধ্যায়
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নবীন কিশোর, তোমায় দিলাম ভূবনডাঙার মেঘলা আকাশ
তোমাকে দিলাম বোতামবিহীন ছেঁড়া শার্ট আর
ফুসফুস-ভরা হাসি
দুপুর রৌদ্রে পায়ে পায়ে ঘোরা, রাত্রির মাঠে চিৎ হ’য়ে শুয়ে থাকা
এসব এখন তোমারই, তোমার হাত ভ’রে নাও আমার অবেলা
আমার দুঃখবিহীন দুঃখ ক্রোধ শিহরণ
নবীন কিশোর, তোমাকে দিলাম আমার যা-কিছু ছুল আভরণ
জ্বলন্ত বুকে কফির চুমুক, সিগারেট চুরি, জানালার পাশে
বালিকার প্রতি বারবার ভুল
পরুষ বাক্য, কবিতার কাছে হাঁটু মুড়ে বসা, ছুরির ঝলক
অভিমানে মানুষ কিংবা মানুষের মত আর যা-কিছুর
বুক চিরে দেখা
আত্মহনন, শহরের পিঠ তোলপাড় করা অহংকারের দ্রুত পদপাত
একখানা নদী, দু’তিনটে দেশ, কয়েকটি নারী —
এ-সবই আমার পুরোনো পোষাক, বড় প্রিয় ছিল, এখন শরীরে
আঁট হয়ে বসে, মানায় না আর
তোমাকে দিলাম, নবীন কিশোর, ইচ্ছে হয় তো অঙ্গে জড়াও
অথবা ঘৃণায় দূরে ফেলে দাও, যা খুশি তোমার
তোমাকে আমার তোমার বয়সী সব কিছু দিতে বড় সাধ হয়।

4. ব্যর্থ প্রেম – সুনীল গঙ্গোপাধ্যায়
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প্রতিটি ব্যর্থ প্রেমই আমাকে নতুন অহঙ্কার দেয়
আমি মানুষ হিসেবে একটু লম্বা হয়ে উঠি
দুঃখ আমার মাথার চুল থেকে পায়ের আঙুল পর্যন্ত
ছড়িয়ে যায়
আমি সমস্ত মানুষের থেকে আলাদা হয়ে এক
অচেনা রাস্তা দিয়ে ধীরে পায়ে
হেঁটে যাই
সার্থক মানুষদের আরো-চাই মুখ আমার সহ্য হয় না
আমি পথের কুকুরকে বিস্কুট কিনে দিই
রিক্সাওয়ালাকে দিই সিগারেট
অন্ধ মানুষের শাদা লাঠি আমার পায়ের কাছে
খসে পড়ে
আমার দু‘হাত ভর্তি অঢেল দয়া, আমাকে কেউ
ফিরিয়ে দিয়েছে বলে গোটা দুনিয়াটাকে
মনে হয় খুব আপন
আমি বাড়ি থেকে বেরুই নতুন কাচা
প্যান্ট শার্ট পরে
আমার সদ্য দাড়ি কামানো নরম মুখখানিকে
আমি নিজেই আদর করি
খুব গোপনে
আমি একজন পরিচ্ছন্ন মানুষ
আমার সর্বাঙ্গে কোথাও
একটুও ময়লা নেই
অহঙ্কারের প্রতিভা জ্যোতির্বলয় হয়ে থাকে আমার
মাথার পেছনে
আর কেউ দেখুক বা না দেখুক
আমি ঠিক টের পাই
অভিমান আমার ওষ্ঠে এনে দেয় স্মিত হাস্য
আমি এমনভাবে পা ফেলি যেন মাটির বুকেও
আঘাত না লাগে
আমার তো কারুকে দুঃখ দেবার কথা নয়।

5.ইচ্ছে – সুনীল গঙ্গোপাধ্যায়
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কাচের চুড়ি ভাঙার মতন মাঝে মাঝেই ইচ্ছে করে
দুটো চারটে নিয়মকানুন ভেঙে ফেলি
পায়ের তলায় আছড়ে ফেলি মাথার মুকুট
যাদের পায়ের তলায় আছি, তাদের মাথায় চড়ে বসি
কাচের চুড়ি ভাঙার মতই ইচ্ছে করে অবহেলায়
ধর্মতলায় দিন দুপুরে পথের মধ্যে হিসি করি।
ইচ্ছে করে দুপুর রোদে ব্ল্যাক আউটের হুকুম দেবার
ইচ্ছে করে বিবৃতি দিই ভাঁওতা মেরে জনসেবার
ইচ্ছে করে ভাঁওতাবাজ নেতার মুখে চুনকালি দিই।
ইচ্ছে করে অফিস যাবার নাম করে যাই বেলুড় মঠে
ইচ্ছে করে ধর্মাধর্ম নিলাম করি মূর্গিহাটায়
বেলুন কিনি বেলুন ফাটাই, কাচের চুড়ি দেখলে ভাঙি
ইচ্ছে করে লন্ডভন্ড করি এবার পৃথিবীটাকে
মনুমেন্টের পায়ের কাছে দাঁড়িয়ে বলি
আমার কিছু ভাল্লাগে না।।

6. সেই সব স্বপ্ন – সুনীল গঙ্গোপাধ্যায়
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কারাগারের ভিতরে পড়েছিল জোছনা
বাইরে হাওয়া, বিষম হাওয়া
সেই হাওয়ায় নশ্বরতার গন্ধ
তবু ফাঁসির আগে দীনেশ গুপ্ত চিঠি লিখেছিল তার বৌদিকে,
“আমি অমর, আমাকে মারিবার সাধ্য কাহারও নাই।”

মধ্যরাত্রির আর বেশি দেরি নেই
প্রহরের ঘণ্টা বাজে, সান্ত্রীও ক্লান্ত হয়
শিয়রের কাছে এসে মৃত্যুও বিমর্ষ বোধ করে।
কনডেমড সেলে বসে প্রদ্যুত ভট্টাচার্য লিখছেন,
“মা, তোমার প্রদ্যুত কি কখনো মরতে পারে ?
আজ চারিদিকে চেয়ে দেখ,
লক্ষ প্রদ্যুত তোমার দিকে চেয়ে হাসছে,
আমি বেঁচেই রইলাম মা, অক্ষয়”

কেউ জানত না সে কোথায়,
বাড়ি থেকে বেরিয়েছিল ছেলেটি আর ফেরেনি
জানা গেল দেশকে ভালোবাসার জন্য সে পেয়েছে মৃত্যুদন্ড
শেষ মুহূর্তের আগে ভবানী ভট্টাচার্য
পোস্ট কার্ডে অতি দ্রুত লিখেছিল তার ছোট ভাইকে,
“অমাবস্যার শ্মশানে ভীরু ভয় পায়,
সাধক সেখানে সিদ্ধি লাভ করে,
আজ আমি বেশি কথা লিখব না
শুধু ভাববো মৃত্যু কত সুন্দর।”

লোহার শিকের ওপর হাত,
তিনি তাকিয়ে আছেন অন্ধকারের দিকে
দৃষ্টি ভেদ করে যায় দেয়াল, অন্ধকারও বাঙময় হয়
সূর্য সেন পাঠালেন তার শেষ বাণী,
“আমি তোমাদের জন্য কি রেখে গেলাম ?
শুধু একটি মাত্র জিনিস,
আমার স্বপ্ন একটি সোনালি স্বপ্ন,
এক শুভ মুহূর্তে আমি প্রথম এই স্বপ্ন দেখেছিলাম ।”

সেই সব স্বপ্ন এখনও বাতাসে উড়ে বেড়ায়
শোনা যায় নিঃশ্বাসের শব্দ
আর সব মরে স্বপ্ন মরে না
অমরত্বের অন্য নাম হয়
কানু, সন্তোষ, অসীম রা…
জেলখানার নির্মম অন্ধকারে বসে
এখনও সেরকম স্বপ্ন দেখছে

Friday, July 27, 2018

दुःस्वप्न

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उसने देखा बैठक कक्ष में दीवान पर उसके पति के पास उसका देवर बैठा है जो उसकी बेटी के साथ खेल रहा है| पास सोफे पर उसके कॉलेज का दोस्त कुंदन बैठा है| वो सभी धीमे-धीमे आपस में बात कर रहे हैं जो वह नहीं सुन पा रही है क्यूँकि वह कुछ दूरी पर खड़ी है| कोई आकर कुंदन के लिए खाना पड़ोस गया और वह खाने में मशगुल हो गया | माहौल में एक किस्म की उदासी पसरी हुई दिख रही है| वह कुछ देर उन्हें निर्विकार देखती रही | फिर उसने देखा कि कुंदन खाना समाप्त कर हाथ धोने के लिए उठकर सीधा उस ओर आ रहा है जहाँ वह खड़ी है| कुंदन ने वाश बेसिन का नल खोला, हाथ धोया और नल बंद करते हुए जैसे ही उसकी नजर बाथरूम की बायीं ओर गयी, वह पहले चौंका और फिर बुरी तरह डर गया | वह इतनी बुरी तरह डर गया कि हड़बड़ी में बाथरूम से निकलकर किसी से बिना कुछ कहे घर से निकल गया | वह कुछ देर सोचती रही कि कुंदन उसे देख क्यूँ डर गया और फिर उसे याद आया कि उसकी मौत को अभी कुछ ही दिन बीते हैं| वह कुंदन से कुछ कहना चाह रही थी, इसलिए उसके पीछे दौड़ पड़ी | कुंदन अपनी गाड़ी में बैठ चुका था | वह पसीने से तर हो रहा था | उसने कार स्टार्ट किया तो अचानक से हर ओर धुँआ -धुँआ  हो गया | वह उस धुएँ की ओर बढ़ ही रही थी कि तभी कामवाली ने घर का बेल बजा दिया और वह नींद से जाग गयी | जागते ही सबसे पहले पास सोई बेटी को छूकर देखना चाहा कि तभी उसे याद आया कि उसकी तो कोई संतान ही नहीं है |  दो मिनट हथेलियों पर अपना माथा टिका कर बैठी रही और फिर वह दरवाजा खोलने चली गयी | दरवाजा खोलकर वहाँ तब तक खड़ी रही जब तक कि कामवाली ने उससे यह नहीं कहा "लगता है आपकी नींद पूरी नहीं हुई"

"ओह ! तो वो एक दुःस्वप्न था और मैं जिंदा हूँ" उसने दीर्घ निश्वास लेते हुए खुद से कहा और मेज पर रखे बोतल का पानी एक साँस में पी गयी |

नींद से जाग जाने के बावजूद सपने में देखा हर दृश्य रील दर रील उसकी स्मृति में ताज़ा था | वह बैठक कक्ष के दीवान पर जा बैठी | उसने देखा कि मेहमानों के लिए बने बाथरूम से दीवान पर बैठे शख्स को नहीं देखा जा सकता था और यह भी कि सपने में देखे गए घर से वह घर अलग था | उसने यूरोप के किसी देश में पढ़ाई कर रहे अपने इकलौते देवर से फोन पर कुशलक्षेम पूछा | फिर उस दुःस्वप्न से अपना ध्यान हटाने के लिए उसने टीवी पर थोड़ी देर समाचार देखा और फिर नहा-धो कर तैयार हो नाश्ते के बाद दफ्तर के लिए निकल गयी |

दोपहर में उसने थोड़ा असहज महसूस किया | भीषण उमस में भी उसे ठंड लग रही थी | जब ठंड लगने और तबियत खराब रहने का सिलसिला कई रोज़ चला तो डॉक्टर के पास हो आई | कई प्रकार के रक्त जाँच के बाद उसके गर्भवती होने की पुष्टि हुई | नौ कठिन महीनों के बाद उसने एक लड़की को जन्म दिया | बीते नौ महीनों में उसने कई बार कई अच्छे-बुरे स्वप्न देखे पर वह दुःस्वप्न उसे रह-रह कर याद आता | वह अपना दुःस्वप्न पति से जब भी साझा करती, वह इसे दुःस्वप्न बता उसे भूल जाने की सलाह देता |

घर-गृहस्थी, नौकरी और बेटी के बीच जिंदगी ऐसी उलझी कि समय कब पानी की तरह बह गया, उसे पता ही न चला | उसकी बेटी अब तीन साल की हो चुकी थी और घर की दीवारों पर रंगीन पेन्सिल  से कई प्रकार की आकृतियाँ बना चुकी थी | इसी क्रम में एक रोज़ मकान मालिक आ धमका और घर की दीवारों का हुलिया देख उसे दूसरा घर तलाश लेने को कहा | अगले दो महीनों के बाद अब वह  पड़ोस के नए घर में थी | किराये के इस नए घर को देखने जब वह पहली बार गयी थी, उसी दिन उसने उस घर का दुःस्वप्न में देखे गए घर से मिलान किया था और दोनों में कई अंतर देखने के बाद ही उस घर में जाने का निर्णय लिया था | नया घर बड़ा था | बेटी अब स्कूल जाने लगी थी | धीरे-धीरे जरूरतों के बढ़ते ही घर का सामान भी बढ़ने लगा | उसने तय किया कि उसका भी अपना एक स्थायी घर होना चाहिए | पति और पत्नी ने मिलकर घर ढूँढने का अभियान चलाया और कुछ महीनों के बाद शहर के दूसरी छोर पर उन्हें अपने नए घर का पता मिल चुका था | कागज पर बने नक़्शे को देख फ्लैट बुक कर लिया था | निर्माण कार्य पूरा होने में अभी दो साल बाकी था | 

इन दो सालों में पति-पत्नी ने घर की कई पुरानी चीजों को औने-पौने दामों पर बेच दिया और नए घर के लिए नया सामान खरीदा | जिंदगी मुस्कुरा रही थी, पर दुःस्वप्न था कि स्मृति से मिट ही नहीं रहा था |अंततः वह दिन भी आया जब नया घर बन कर तैयार हुआ | यूँ तो घर के बनने के दौरान वह कई बार वहाँ गयी थी, पर रंग-रोगन होकर दरवाजे और खिडकियों के शीशे लगाये जाने के बाद पहली बार घर में प्रवेश करते ही उसे लगा जैसे वह इस घर में पहले रह चुकी है| उसने सोचा शायद निर्माणाधीन भवन को पहले कई बार देखने की वज़ह से उसे ऐसा लग रहा है| अपने नए घर में सामान व्यवस्थित  करने में उसे काफी वक़्त लगा | एक दिन जब वह बैठक कक्ष में बैठी हुई थी और टीवी में समाचार देख रही थी, उसने ध्यान दिया कि वह वहाँ से मेहमानों के लिए बना बाथरूम दृष्टिगोचर है| फिर वह उस बाथरूम में गयी और पाया कि उस बाथरूम की बनावट ठीक वैसी है जैसा उसने सपने में देखा था | बाथरूम से निकलते हुए उसने देखा कि दक्षिण दिशा में खुलता घर का मुख्य द्वार ठीक वैसा ही है जैसा सपने में था | वह अवाक् भी थी और परेशान भी|  उसने घबराते हुए पति से कहा "सुनो, जानते हो ..."

"यही न कि यह घर बिलकुल वैसा है जैसा तुमने सपने में देखा था ! अच्छा, यह बताओ कि किस दिन मरने वाली हो" पति ने मजाकिया लहजे में कहा | 

"पता है... छोड़ो तुम नहीं समझोगे" कहकर वह चुप हो गयी और खिड़की से बाहर देखने लगी |

दिन, महीने और साल बीतने लगे |  जब दुःस्वप्न ने उसका पीछा न छोड़ा, तो उसने कभी घर का इंटीरियर बदला तो कभी घर के अलग-अलग हिस्सों को पेड़-पौधों से सजाकर उसे एक अलग लुक देने की कोशिश की | कई नौकरियाँ भी बदली | उसका देवर भी विदेश से पढ़ाई पूरी कर वापस लौट आया था और अपना व्यापार कर रहा था |

वह एक उमस भरा दिन था | वह एक गहरी नींद से उठी थी | बेडरूम से बाहर निकलते ही उसने देखा बैठक कक्ष में कुंदन बैठा था | दीवान पर उसके पति के पास उसका देवर बैठा है जो उसकी बेटी के साथ खेल रहा है| कुंदन को देख उसने हाथ हिलाकर अभिवादन किया पर न जाने कुंदन किन ख्यालों में गुम था | वह सर झुकाए बैठा था | वह कुछ देर निर्विकार खड़ी स्थिति को समझने का प्रयास करती रही | उसे न तो कुछ समझ आ रहा था न ही वह कुछ सुन पा रही थी |  उसे लगा यह गहरी नींद का असर है| चेहरा धोने के लिए वह बाथरूम गयी और वहाँ उसने देखा कि शावर से हल्का पानी गिर रहा था | वह शावर को बंद करने की कोशिश कर रही थी पर पानी फिर भी टपक रहा था | थोड़ी देर बाद कुंदन हाथ धोने आया | उसने वाश बेसिन का नल खोला, हाथ धोया और नल बंद करते हुए जैसे ही उसकी नजर बाथरूम की बायीं ओर गयी, वह पहले चौंका और फिर बुरी तरह डर गया | वह इतनी बुरी तरह डर गया कि हड़बड़ी में बाथरूम से निकलकर किसी से बिना कुछ कहे घर से निकल गया | वह कुछ देर सोचती रही कि कुंदन उसे देख क्यूँ डर गया और फिर उसे याद आया कि उसकी मौत को अभी कुछ ही दिन बीते हैं| वह कुंदन से कुछ कहना चाह रही थी, इसलिए उसके पीछे दौड़ पड़ी | कुंदन अपनी गाड़ी में बैठ चुका था | वह पसीने से तर हो रहा था | उसने कार स्टार्ट किया तो अचानक से हर ओर धुँआ -धुँआ हो गया | वह कार की पिछली सीट पर बैठ गयी और कार के रियर व्यू मिरर में देख कुंदन से पूछने लगी "क्या हुआ"

थोड़ी देर बाद उसने महसूस किया कि उसकी आवाज कुंदन तक पहुँच ही नहीं रही थी | कुंदन उसे सिर्फ देख पा रहा था | उसे लगा शायद उसकी नींद पूरी नहीं हुई | वह कार से उतर कर सीढियाँ चढ़ती हुई घर आ गयी |  घर का दरवाजा  हल्का सा खुला रह गया था | उसने महसूस किया कि वह उस छोटी सी जगह से बिना किसी परेशानी के अंदर आ गयी थी | अब उसकी नजर बैठक कक्ष के एक कोने में रखे छोटे से मेज पर गयी जहाँ उसकी तस्वीर पर माल्यार्पण किया गया था | उसने उस तस्वीर को देखा और मुस्कुराते हुए कहा "उफ़्फ़ ! फिर वही दुःस्वप्न"

Thursday, July 26, 2018

जीवन का स्वाद

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उन्होंने अपने बचपन में किसी बुजुर्ग को कहते हुए सुना था कि जीवन को स्वाद लेकर जीना चाहिए | चाय की प्याली में डुबोकर खाए गए बिस्कुट की तरह नहीं बल्कि पान की गिलौरी की तरह देर तक चबाकर | बस उसी रोज़ से वह जिंदगी के तमाम एहसासों को स्वाद से समझने लगीं | जब भी किसी ने उनसे लाड़ जताया, उन्होंने "चाशनी" सा महसूस किया | जब माता या पिता ने डपटा, तो उन्होंने "दालचीनी" महसूस किया | अपने माता-पिता के अतिरिक्त उन्हें सगे-संबंधी और पड़ोस के लोगों का भी भरपूर प्यार मिला था | एक लम्बे अरसे तक उनका व्यक्तित्व आकर्षक और सहानुभूतिपूर्ण ही रहा | किसी किस्म की क्रूरता से वह कोसों दूर रहीं |

रात के अंधेरे में या दिन के समय जब वह अकेली होतीं थीं, तो "बर्फ" जैसा महसूस करती थीं | ऐसे क्षणों में भयभीत होने के बावजूद किसी से मदद मांगने की बजाय वह इतिहास के साहसिक घटनाओं का स्मरण कर लेतीं या खुद को समझातीं कि अपने ऊपर भय को हावी होते देना स्वयं को कमजोर बना देना होता है | कभी आँखें बंद कर अतीत की चाशनी में डूब जातीं और इस पर भी अगर भय हावी रहता तो उसी अतीत से उधार लेकर दालचीनी चबाने लगतीं |

उनका असली नाम क्या था, यह तो किसी को पता ही न चलता यदि उस गाँव के पहले डॉक्टर की विधवा, जिसे लोग डॉक्टरनी कहते थे, से उनका लगाव न होता | वह बतौर नर्स सरकारी डिस्पेंसरी में कार्यरत थीं और उनके हिंदी उच्चारण से लोगों ने अनुमान लगाया था कि शायद वह पश्चिम बंगाल की रहने वालीं थीं | उम्रदराज स्त्री थीं, तो किसी ने उनके बारे में ज्यादा कुछ जानने की कोशिश नहीं की | जब वह उस गाँव में पहली बार आईं थीं, तब भी नहीं | वह हर किसी के लिए नर्स ही रहीं | शायद उस गाँव की पहली और इकलौती नर्स | उम्रदराज होने के बावजूद उनके नैन-नख्स इतने तीखे थे कि इस बात का अनुमान आसानी से लगाया जा सकता था कि अपनी युवावस्था में वह बेहद खूबसूरत रही होंगी | उन दिनों नर्स सफेद रंग की साड़ी ही पहना करतीं थीं | कुछ लोग उन्हें विधवा समझते रहे तो कुछ अविवाहित | उनकी आवाज़ में एक किस्म का कड़कपन था जिसकी वज़ह से लोग उनसे थोड़ी दूरी बरतना ही श्रेयस्कर समझते थे |

नर्स का जन्म एक सुखी परिवार में हुआ था और उन्होंने बचपन से ही अपने माता-पिता के बीच ऐसा सुंदर सामंजस्य देखा था कि उन्हें लगता जब उनका ब्याह होगा तो उनका भी उनके जीवन साथी से वैसा ही सामंजस्य होगा | उस गाँव के लोगों को भले ही न मालूम हो, आपकी जानकारी के लिए यह बताना बेहद जरूरी है कि हमारी नर्स का नाम कनक प्रभा था, वह विधवा थीं और उनकी एक बेटी थी, जो शिक्षित तो थी , पर जिसने ब्याह करने के बाद घर बसा लेने को ही अपने जीवन का अंतिम लक्ष्य समझा | घर बसाने में वह इतना रम गयी कि यह भी भूल गयी कि भारत भू-खंड के किसी कोने में उसकी माँ भी रहती थी | नर्स, जो कि एक सम्पन्न परिवार की थीं, उनका ब्याह हुआ तो एक डॉक्टर से ही था, पर उन दोनों के बीच उस सामंजस्य का अभाव हमेशा रहा जो उसके माता-पिता के बीच था | फिर विवाह के चंद सालों के बाद ही उनके पति का कैंसर से निधन हो गया था | डॉक्टर पति ने कैंसर का पता चलते ही सबसे पहले कनक को नर्स ट्रेनिंग के लिए भेजा था और फिर वह जिस अस्पताल में कार्यरत थे, वहाँ सिफारिश कर कनक की नौकरी लगवा दी थी | नर्स कनक ने पति के इस उपकार को आजीवन याद रखा |

नर्स कनक लज़ीज़ मांसाहारी व्यंजनों की बेहद शौक़ीन थीं और बिना कलफ़ लगी साड़ियाँ नहीं पहनती थीं | गाँव में रहते हुए उन्होंने बेटी को शहर के हॉस्टल में रख पढ़ाया और फिर ग्रेजुएशन के बाद  उसके आगे न पढ़ने के फैसले को मंजूरी देते हुए उसका ब्याह एक संभ्रांत परिवार के लड़के से कर दिया | बावन वर्ष की आयु में अब वह एकबार फिर से अकेली हो गयी थी | अकेली तो वह पति की मृत्यु के बाद से ही हो गयी थी पर बेटी नामक ज़िम्मेदारी से मुक्ति क्या मिली, उन्होंने पहली बार अकेले हो जाने का "सुपाड़ी सा कसैलापन" महसूस किया | सप्ताह के अन्य दिनों में वक़्त की जिह्वा पर यह कसैलापन इतना नहीं चढ़ता जितना कि छुट्टी वाले दिन | इस कसैलेपन से कुछ देर बचने के लिए वह डॉक्टरनी के घर जाती और घंटो बिताकर शाम में लौट आती |

विवाह के दो वर्षों के बाद जब उनकी बेटी झिनुक माँ बनी, तो बहुत समय बाद उन्होंने मन में मिश्री घुलता हुआ सा अनुभव किया था | टेलीग्राम मिलते ही वह दो दिनों का सफर पूरा कर बेटी के ससुराल पहुँच गईं थीं | न सिर्फ माँ और नानी होने के नाते उन्होंने बेटी के घर की सभी ज़िम्मेदारियाँ संभाली, बल्कि एक नर्स होने की ज़िम्मेदारी भी बखूबी निभाई | अपना सारा समय बेटी और उसके बच्चे की देखभाल में लगाया करती थीं |

डेढ़ महीने बेटी के ससुराल में रहने के बाद एक दिन नर्स ने "चिरायता" सा महसूस किया | उनकी आँखों में सूजन आ गया था और उन्होंने साड़ी में कलफ़ लगाना छोड़ दिया था | वह अचानक से एकसाथ बीमार भी हो गयी थीं और बूढ़ी भी | तन अधिक बीमार था या मन, यह तो नर्स ही बता सकतीं थीं | बेटी के स्वभाव में यदि रूखापन न था, तो वह लगाव भी न था जो उन्हें वहाँ उसके पास रोक लेता |  बेटी व उसके परिवार की सेवा करने की बनिस्बत नर्स को अनजान मरीजों की सेवा करना बेहतर विकल्प लगा और वह फिर से दो दिनों के सफर के बाद अस्पताल आ गई थीं | उन पर एक किस्म की थकान हावी हो रही थी | कुछ ही महीनों में दायीं आँख में गुलाबी उभार नजर आने लगा | शुरुआत में किसी किस्म का दर्द नहीं था, तो नर्स को किसी उपचार की भी जरूरत नहीं महसूस हुई | फिर आँखों का डॉक्टर उस गाँव में तो क्या, आसपास के शहरों में भी न था | कई बार कई प्रकार के घरेलू उपचार करने के बाद जब कोई लाभ न हुआ, तो फिर उन्होंने उपचार के विषय में सोचना ही छोड़ दिया |

१९८८ की गर्मियों में अस्पताल में एक नए डॉक्टर का आगमन हुआ जो किसी बड़े शहर से स्थानान्तरण के फलस्वरूप इस गाँव में आए थे | कुछ दिनों के बीतते ही नए डॉक्टर ने नर्स से उनकी आँख के विषय में जानना चाहा था जिसे नर्स ने "कुछ नहीं....बस जरा सा उभार.." कहते हुए टालने की कोशिश की थी | डॉक्टर ने जब उन्हें कैंसर का अंदेशा जताते हुए दिल्ली जाकर अपने परिचित आँखों के डॉक्टर से दिखाने का सुझाव दिया था, तो मुस्कुराहट के साथ हाथ जोड़ कर आभार प्रकट करने के अलावे उन्होंने कुछ भी नहीं कहा |

नर्स उन दिनों दार्शनिक हो चलीं थीं या बेटी की उनके प्रति उदासीनता ने जीवन के लिए उनमें निरसता का संचार कर दिया था; जीवन में उनकी रूचि कम होने लगी | पहले उन्होंने डॉक्टरनी के घर जाना छोड़ा, जो उस गाँव में उनके जाने का एकमात्र ठौर था | फिर कुछ दिनों बाद अस्पताल भी छूटा | अब उनकी आँखों में उभार और सूजन के अतिरिक्त खुजली भी एक समस्या का रूप ले चुकी थी | वह आस-पड़ोस के बच्चों से अनुरोध कर और उन्हें पाँच -दस पैसों का लालच देकर अपनी दायीं आँख की बरौनी निकालने को कहतीं | बच्चे पैसों के लालच में अपने अभिभावकों से छुपा कर ऐसा करते भी |  अपने प्रति इस क्रूरता के बाद नर्स कुछ समय के लिए नमकीन महसूस करती | अगले दिन फिर आस-पड़ोस के बच्चों से वही मनुहार |

एक दिन जब वह सुबह उठीं और बच्चों को बुलाने आँगन के बाहर गयीं, बच्चे उन्हें देख छूप गए | उन्हें खट्टा महसूस करना चाहिए था, पर उन्होंने गौर किया कि ऐसा कुछ महसूस ही नहीं  हुआ | दिन में पड़ोस से कोई खाना दे गया | यह तो चाशनी महसूस करने वाली बात थी, पर आश्चर्य ! ऐसा कुछ भी महसूस न हुआ | घर बिखड़ा पड़ा था, रसोई में जूठे बर्तनों का अम्बार लगा था और उन्हें कुछ भी महसूस नहीं हो रहा था | कुछ महसूस होने के अभाव में वह रात में घर का दरवाजा बंद नहीं कर पायीं |

अलसुबह उनके घर का दरवाजा खुला देख जब उनका हाल-समाचार लेने लोग उनके कमरे में गए, तो पाया कि उनकी इकलौती नर्स बेस्वाद हो चुके जीवन का त्याग कर चुकीं थी | आलमारी के शीशे से कलफ़ लगी साड़ियाँ झाँक रहीं थीं | पास के टेबल पर झिनुक के बचपन की तस्वीर रखी हुई थी, जिसमें वह माँ की साड़ी लपेट मुस्कुरा रही थी |

नर्स की मौत की खबर आग की तरह फैल चुकी थी | डॉक्टरनी, जो खबर सुनते ही नर्स के अंतिम दर्शन के लिए वहाँ गयीं थीं, नर्स का शव देख रोते हुए कह रहीं थीं “अभागी जीवन का स्वाद लेना चाहती थी और जिंदगी ने इसे ही पान की गिलौरी की तरह चबा डाला” |

अगर तुम होते

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यदि तुम संगीत होते
तो रागों में होते खमाज
प्रेम ढूँढ लेता हमें रोज़
रात्रि के द्वितीय प्रहर में

यदि तुम मौसम होते
ऋतुओं में होते बसंत
माघ-सा होते महीनों में
जहाँ प्रेम करता कल्पवास

यदि तुम वृक्ष होते
तो होते आम का पेड़
जिस पर प्रेम डालता झूला
और सावन गाता कजरी

यदि तुम रंग होते
अवश्य ही होते आसमानी
प्रेम के माथे पर
एक आकाश-सा तन जाते

और भी बहुत कुछ
हो सकते थे मेरे तुम
अगर तुम होते
सचमुच होते |

Wednesday, July 18, 2018

बाउजी ने कहा

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ट्रेन की सीटी बजी
और वह चल पड़ी |
छोड़ते हुए बेटी का हाथ 
कट्टर माने जानेवाले बाउजी ने कहा -
"जा सिमरन जी ले अपनी जिंदगी"
और वह दौड़ पड़ी नायक की ओर 

फिल्म का अंतिम दृश्य देख सोचती रही 
वह असाधारण खूबसूरत युवती 
कि क्यूँ नहीं ऐसा उसके बाउजी ने कहा 
उसे उसकी मर्जी के खिलाफ ब्याहे जाने से पहले 
क्या उसकी जिंदगी अपनी नहीं थी !!!

तुम्हारे दर्शन को, हे मानवता

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तुम्हारे दर्शन को, हे मानवता 
सिर्फ तुम्हारे दर्शन को
हमें देखना होगा और कितना नरसंहार ?
और कितने नर पिशाच और कितने बलात्कार ?

तुम्हारे दर्शन का करते हुए इंतजार 
मारा गया जुनैद हिन्दुओं के हाथों 
ईद की ख़रीदारी के बाद लौटते हुए घर 
दिल्ली के अंकित को मारा मुसलमानों ने दिन -दहाड़े 
जब वह कर रहा था प्रेम उनके कौम की लड़की से 
करता हुआ इंतज़ार तुम्हारे दर्शन का, हे मानवता !
सिर्फ तुम्हारे दर्शन की खातिर 
भात भात कहते मर गई एक गरीब बच्ची संतोषी 
लोग हो गए निःशब्द 
बस करता रहा आर्तनाद देर तलक उसकी गली का कुत्ता 
सिर्फ तुम्हारे दर्शन की खातिर
खेलता रहा दो साल का वह बच्चा आंगन में 
जिसकी माँ को जला दिया गया दहेज की खातिर उसी के कमरे में |

तुम्हारे दर्शन को, हे मानवता 
सिर्फ तुम्हारे दर्शन को
हमें देखना होगा और कितना नरसंहार ?
और कितने नर पिशाच और कितने बलात्कार ?
सिर्फ तुम्हारे दर्शन की खातिर
जिंदा है मेरी सहेली जनते हुए सातवीं लड़की 
उसके बिखरे बालों में फँसी हैं आँसू की कुछ बूँदें |
मानवता, तुम्हारे आने की आस लिए 
ढूँढ रही है गायब हुए बेटे नजीब को उसकी माँ 
उसके गायब होने के महीनों बाद भी |

मानवता, तुम्हारे आने की आस लिए 
आजीवन अस्पताल में ही रह गयी वह नर्स 
जिसका हुआ था निर्मम बलात्कार अस्पताल में |
जयदेव पायेंग, जिसने उगा डाला एक पूरा जंगल 
भूमि क्षरण को रोकने की कोशिश में,
करणबीर सिंह, अमृतसर का वह साहसी बालक,
बचाया जिसने बच्चों को डूबने से,
बच्चे, जिनका कुछ रोज़ पहले हो गया है अपहरण,
लोग, जिनके परिजन मारे गए भीड़ के हाथों,
लोग, जो निकल पड़े हैं सड़कों पर लेकर मशाल 
वो सभी तुम्हारा कर रहें हैं बेसब्री से इंतजार, हे मानवता !

सुनकर सहस्र लोगों की पुकार 
बनकर बवंडर, बजाकर घंटे घड़ियाल 
इस भूमि के कोने-कोने तक 
तुम्हें आना ही होगा, हे मानवता !

एक छटाक सुख के लिए

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हुगली किनारे टहलते हुए नदी से मैंने पूछा 
पवित्र नदी क्या तुम मुझे दे सकती हो एक छटाक सुख ?
नदी ने कहा यदि घूम सको मेरी लहरों का जनपद 
और पढ़ सको उन लहरों पर लिखा जल काव्य 
तो शायद महसूस कर सको एक किस्म का सुख !

फिर वहीं उड़ते राम चिरैया से मैंने पूछा 
प्रिय पक्षी क्या तुम दे सकते हो मुझे एक छटाक सुख ?
राम चिरैया ने गाते हुए कहा कि बता सको अगर 
कौन सा राग गा रहा हूँ इस वक्त मैं 
तो शायद महसूस कर सको एक किस्म का सुख !

अंततः पास छवि आँकते एक चित्रकार से  मैंने पूछा 
हे चित्रकार ! क्या तुम दे सकते हो मुझे एक छटाक सुख ?
उसने मुझे थोड़ी देर देखा और फिर कहा 
तुम्हारे अधरों के हर कोण पर है अग्नि स्रोत  
अगर मुझे छूने दो अपने अधर पल्लव 
बाहर से निस्तेज होकर जल उठोगी अंदर से 
तो शायद महसूस कर सको एक किस्म का सुख !

अपने दुखों से हो भयाक्रांत मैं भटकती रही ताउम्र 
बस एक छटाक सुख के लिए 
जबकि मेरे आसपास ही था मौज़ूद किस्म-किस्म का अदृश्य सुख !

Saturday, July 7, 2018

सौमित्र के छह अध्याय

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1. प्रथम अध्याय - "हीरा"

सौमित्र चट्टोपाध्याय कोलकाता से कला संकाय में स्नातक करने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए लंदन गए | काले बालों को छोड़, वह दिखते भी अंग्रेज थे | वहाँ उन्हें एक अंग्रेज लड़की, लूसी से प्रेम हो गया | दोनों साथ रहने लगे | जब पढाई पूरी हुई, तो भारत लौटने की बजाय उन्होंने लंदन के ही एक स्कूल में नौकरी कर ली | लूसी अंग्रेजी साहित्य से स्नातकोत्तर करने के बाद लंदन के एक कॉलेज में पढ़ा रही थी | वह असाधारण कविताएँ लिखती थी | सौमित्र लूसी से अधिक प्रेम करते थे या उसकी कविताओं से, यह कहना मुश्किल था | दोनों साथ-साथ एक सुंदर जीवन (शायद सुंदर समय कहना ठीक होगा ) जी रहे थे  | सौमित्र पहले कैनवास पर चित्र उकेरते और लूसी उस चित्र को देख कविता लिखती | दोनों  कला के दीवाने थे | फिर एक दिन सौमित्र के पिता का तार आया कि उनकी तबियत ठीक नहीं और वह चाहते हैं कि सौमित्र भारत लौट आए | सौमित्र अपने माता-पिता की इकलौती संतान थे | पिता की तबियत खराब सुन फ़ौरन लौट आए|

 घर लौटकर पाया कि उनके माता-पिता उनके विवाह की तैयारियां कर रहे थे | उन्होंने बहुत साहस के साथ अपने माता-पिता को लूसी और अपनी नौकरी के विषय में बताया | सुनते ही उनके जमींदार पिता ने उनसे कहा "हमने तुम्हें पढ़ने के लिए लंदन भेजा कि समाज में तुम्हारा रुतबा बढ़े और तुम उस अंग्रेज लड़की के चक्कर में पड़ स्कूल मास्टरी करने लगे ! छी ! छी ! कान खोलकर सुन लो, अब तुम लंदन वापस नहीं जा रहे हो"

"हम दोनों एक - दूसरे से बहुत प्रेम करते हैं और मैंने उससे वायदा भी किया है कि मैं उसे अपनी जीवन संगिनी बनाऊंगा" सौमित्र ने नजरें झुकाकर धीमे स्वर में कहा |

"किसने कहा था वायदा करने को? तुम्हारा विवाह हमारे समाज की ही किसी लड़की से होगा; उस विदेशी से नहीं| इसके आगे कुछ कहा तो मैं तुम्हें अपना वारिस मानने से इंकार कर दूँगा | मरते समय तुम्हारे हाथ का जल भी नहीं ग्रहण करूँगा | कुपुत्रः  बाघाय नमः" कहते हुए सौमित्र के पिता ज़ोर-ज़ोर से हाँफने लगे |

पिता को बेतरह हाँफते देख सौमित्र की माँ रोते हुए उसके पिता की पीठ सहलाते हुए कहने लगी "अगर इनको कुछ हो गया, तो मैं तुम्हें कभी माफ़ नहीं करूँगी"

सौमित्र से आगे कुछ नहीं कहा गया | अगले पाँच दिनों तक घर की स्थिति तनावपूर्ण ही रही | तीनों प्राणी खाने की मेज पर मिलते और आपस में बिना कुछ कहे सुने ही खाना खाकर चले जाते | छठे दिन खाने के साथ करौंदे का अचार खाते हुए सौमित्र ने सोचा कि यदि इतने वर्षों तक विदेश में रहकर विदेशी खाना खाने के बाद भी उन्हें करौंदे का अचार खाते हुए अलौकिक स्वाद की अनुभूति हो सकती है, फिर प्रेम तो शाश्वत है, अमर है| प्रेम को बचाने के लिए विवाह आवश्यक क्यूँ  होने लगा | उन्होंने उसी दिन गोधूली बेला में लूसी को पत्र लिखा जिसमें उन्होंने लंदन से लौटने से लेकर अब तक हुई घटनाक्रमों का विवरण देने के बाद लूसी से विवाह न कर पाने के लिए माफ़ी माँगते हुए एक कविता भी लिखी जिसका हिंदी रूपान्तरण इस प्रकार है -

"पड़ी हैं कुछ बेशकीमती स्मृतियाँ स्मरण अरण्य की किसी उपेक्षित गुफा में 
जिनका है अपना ही कोई अदृश्य तिलस्मी अंतर्द्वार 
गुफा, जहाँ नहीं है मौजूद कोई भी खिड़की या कोई रौशनदान ही 
खुलता है उसका द्वार अकस्मात कुछ ऐसे  
जैसे दिया हो दस्तक जंग लगे हुए फाल्गुन के सांकल ने 
और किया हो उच्चारण शून्य में दबी जुबान 
अरबी उपन्यास के जादुई शब्द "खुल जा सिमसिम" का 
द्वार के खुलते ही दिखता है करीने से सजाकर रखा हुआ 
खजाना स्मृतियों का, दमकता है अंधेरे में  

निरूद्देश नौका पर हैं सवार निरुपाय स्मृतियाँ 
भाषा भूल चुकी स्मृतियाँ पोषित हो रही हैं हमारी करोटी में 
किसी परजीवी की तरह और चला रहीं हैं काम शब्दों का 
होकर निःशब्द, कर रही हैं संक्रमित हमारे मन को बार-बार 

धूसर स्मृतियों के तन पर लगे हैं मोरपंख 
जब छा जाता है मन के आकाश पर भावनाओं का मेघ 
और गिरने लगती हैं रिमझिम बूँदें गगनचारिणी आँखों से 
नाचता है स्मृतियों का अबाध्य मयूर "

पत्र के अंत में लिखा कि इकलौती संतान होने के कारण माता-पिता की देखभाल करना उनका कर्तव्य है और वह हालात के आगे मजबूर हैं| यह भी लिखा कि लूसी को वह मरते दम तक नहीं भूल पाएँगे और लूसी के लिए उनका प्रेम भी कभी खत्म नहीं होगा | 

पत्र लिखने के बाद वह कुछ हल्का महसूस कर रहे थे | अलबत्ता अगले रोज़ की पहली डाक से वह पत्र लूसी के पते पर भेज दिया गया | घर आते ही ऐलान कर दिया कि वह लूसी को विवाह के लिए मना कर चुके हैं| घर में ख़ुशी की लहर दौड़ गयी | सौमित्र बाबु के लिए नए सिरे से वधु की तलाश शुरू की गयी | 

"हम जानते थे सोमू कि तुम हमारा मान रखोगे | तुम हीरा हो , हीरा " कहते हुए सोमू की माँ ने उसका माथा चूमा था | 


2. द्वितीय अध्याय - "प्रेम का हत्यारा "

गाँव लौटते ही सौमित्र वही पुराने सोमू हो गए | एक निर्णय लेकर चिठ्ठी लिख देने से मन हल्का जरूर हो गया था पर समय-समय पर लूसी की यादें सोमू का मन मलीन कर जातीं | रात को सोने से पहले लूसी की बनाई हुई कॉफ़ी बेहद याद आती | हर सुबह आँखें खोल बिस्तर पर लूसी का न होना मन ही नहीं दिन भी खराब कर रहा था | वह याद करता किस तरह रात में टूट कर प्रेम करने के बाद लूसी उसकी कमीज पहनकर सो जाती | खाने की मेज पर सोमू की सूजी हुई आँखों को देख उसके पिता कहते "पुरुष नहीं रोते बेटे | तुम जमींदार खानदान के हो, अपने व्यक्तित्व में वैसा रौब भी लाओ"

सोमू केवल सुनते; कुछ नहीं कहते |  कुछ कहने की कोई गुंजाईश ही कहाँ थी |  उन्होंने स्वयं को व्यस्त रखने के लिए जमशेदपुर की एक बड़ी कम्पनी में एक छोटी नौकरी का बंदोबस्त कर लिया |  हालात के मद्देनजर घरवालों को भी लगा कि व्यस्त रहने और जगह परिवर्तन से सोमू लूसी को भूल जाएगा | सोमू के जमशेदपुर जाने से एक दिन पहले लूसी का पत्र आया | लूसी ने पत्र में जवाब स्वरुप सिर्फ एक कविता लिख भेजा था, जिसका हिंदी रूपांतरण इस प्रकार है -

"उचित है विदा लेना मनुष्य का अपने भ्रम से  
प्रेम की रात ढलने से भी पहले ही जीवन में 
कि चला जाता है विद्युत् आँधी के पूर्वाभास में 

उचित है उठा लेना काँधे भर ज़िम्मेदारी 
जीवन में बने खूबसूरत रिश्तों का 
कि बना रहे फर्क प्रेम और सुविधा में 

स्वार्थ के दौर का का गुजर जाना उचित है|"

कहने को कविता की महज कुछ पंक्तियाँ थीं, पर हर पंक्ति सोमू के हृदय में शूल की तरह चुभ कर रह गयी | वह अपने पहले प्रेम का हत्यारा साबित हो चूका था | वह गुनाहगार अधिक था या मजबूर ज्यादा, इसकी गणना करते हुए सुबह हो गयी और वह जमशेदपुर के लिए रवाना हो गया |

3.तृतीय अध्याय - "रुक्मिणी का रियाज "

जमशेदपुर में जहाँ सोमू के ठहरने की व्यवस्था की गयी थी, वहाँ हर शाम पड़ोस के घर से किसी लड़की के गाने की आवाज आती थी | वह हर संध्या गाने का रियाज़ करती और सोमू अपने आँगन में चाय पीते हुए उस आवाज़ में खो जाते | कई बार उत्सुकता बस छत की ओर जाती सीढ़ियों पर चढ़ पड़ोस के घर के उस कमरे की खिड़की की ओर झाँकते, जहाँ वह रियाज़ कर रही होती थी | लड़की की नजर सोमू से मिलती तो वह गाना छोड़ अपलक उसे निहारती | सोमू आकर्षक व्यक्तित्व का स्वामी था | लगभग डेढ़ महीने तक यह सिलसिला चला | एक शाम जब चाय पीते हुए वह आवाज़ सोमू तक नहीं पहुँची, उसे बेचैनी महसूस हुई| पहले तो उसने सीढ़ियों पर चढ़ उस कमरे में झाँका और लड़की को वहाँ न देख उसने पड़ोस के घर जाकर दरवाजे पर दस्तक दिया | 

"जी, आप ?" दरवाजा खोलते ही सामने खड़ी स्त्री ने पूछा |

"जी, मैं........वो...आपके घर से रोज़ इस समय गाने की आवाज़ आती थी, आज नहीं आई, तो सोचा पूछ लूँ कि सब ठीक तो है न"

"अच्छा | रुक्मिणी हमारी भांजी है| कोलकाता के एक स्कूल में संगीत सिखाती है| गर्मी की छुट्टियाँ बीताने यहाँ आई थी | छुट्टियाँ खत्म होने को हैं, इसलिए वापस चली गयी| आप अंदर आइये न" कहते हुए उस स्त्री ने सोमू को घर के बैठक में आने का न्योता दिया | 

"नहीं, फिर कभी| कोलकाता के किस स्कूल में हैं"सोमू  ने अधीर होकर पूछा |

इस प्रश्न पर उस स्त्री ने चुप रहना वाजिब समझा | अंततः सोमू ने अपना व अपने पिता का परिचय देते हुए बताया कि वह भी कोलकाता का रहवासी है और वह कोलकाता में ही रहकर किसी शैक्षणिक संस्थान में नौकरी करना चाहता है और इसीलिए उस स्कूल का नाम जानना चाहता है| उसके पिता के परिचय से रू-ब-रू हो उस स्त्री ने स्कूल का नाम बता दिया | सोमू उन्हें धन्यवाद ज्ञापित कर लौट आया | 

अगले दो दिनों तक वह बेचैन रहा | रुक्मिणी का चेहरा जेहन से हटने का नाम नहीं ले रहा था | शुक्रवार शाम दफ्तर से लौटते ही वह शाम की ट्रेन से कोलकाता रवाना हुआ | सोमवार को वह उस स्कूल के मुख्य द्वार पर खड़ा रुक्मिणी का इंतजार करने लगा | लगभग साढ़े नौ बजे सोमू के सामने एक रिक्शा रुका और उसका इंतजार खत्म हुआ | रुक्मिणी सामने सोमू को देख हैरान थी | वह एकटक सोमू को देखती रही |

"तुम्हारी आवाज कब मेरी जिंदगी का हिस्सा बन गई, पता ही न चला | जब एक रोज़ तुम्हारी आवाज मुझ तक नहीं आई, मैं तुम्हारी मामी से तुम्हारे विषय में प्रश्न करने का दुस्साहस कर बैठा | आज तुम्हारे पास हूँ जबकि मुझे तो यह भी नहीं पता कि तुम्हारी जिंदगी में कोई पुरुष है भी या.."कहते हुए सोमू रुक्मिणी की आँखों में देखने लगा |

रुक्मिणी ने धीमे स्वर में कहा था "नहीं है" और फिर शरमाते हुए स्कूल परिसर में दाखिल हो गयी थी | सोमू शाम के साढ़े चार बजे तक स्कूल के आसपास मंडराता रहा | 

"आप अभी तक यहाँ हैं" रुक्मिणी सोमू को देख आश्चर्यचकित थी |

"क्या करता| तुमसे बात करने ही आया था | बात बिना पूरी किए कैसे चला जाता" सोमू स्नेहसिक्त आँखों से रुक्मिणी को देखता रहा | 

"अरे !" रुक्मिणी को समझ नहीं आ रहा था कि उसे कैसी प्रतिक्रिया देनी चाहिए |

"देखो, अब या तो तुम ज़मशेद्पुर आओगी या मुझे कोलकाता आना पड़ेगा| तुम्हारी आवाज के बिना मेरी शाम बड़ी तकलीफदेह होती है" सोमू जवाब का इंतजार कर रहा था |  

"आपका तो घर भी है इस शहर में "रुक्मिणी ने इससे ज्यादा कुछ कहना ठीक न समझा |

"हम्म..करता हूँ कोई बंदोवस्त.. करना ही पड़ेगा" कहते हुए सोमू उसे कुछ देर एकटक देखता रहा और फिर दोनों कालीघाट की ओर निकल पड़े |

अब सोमू हर शनिवार की रात कोलकाता आ जाते और रविवार का दिन रुक्मिणी के साथ बिताकर वापस जमशेदपुर चले जाते | सोमू का समय फिर सुंदर हो चला था | सुंदर समय को साढ़े चार माह ही बीता था कि एक रविवार रुक्मिणी के किसी परिचित ने उन्हें कालीघाट पर देख लिया और फिर बात रुक्मिणी के पिता तक जा पहुँची | 

"स्वावलंबी बेटी किसी पुरुष का हाथ थामे कालीघाट में ...."रुक्मिणी के पिता तरह-तरह की अटकलें लगा रहे थे | शाम में रुक्मिणी के घर आते ही उससे अप्रत्याशित प्रश्न किया गया जिसका उसने सही जवाब दिया | सोमू के पिता का परिचय पा कर रुक्मिणी के पिता ने उसे सोमू को घर बुलाने के लिए कहा  | रुक्मिणी ने उन्हें बताया कि सोमू जमशेदपुर में कार्यरत है और अगले रविवार को ही मिलना संभव हो सकेगा | अगले रविवार जब सोमू रुक्मिणी से मिलने पहुँचा, वहाँ रुक्मिणी के साथ उसके पिता भी थे | वह सोमू को आग्रह कर घर ले गए और दिन के खाने के बाद रुक्मिणी से विवाह का प्रस्ताव भी दिया | सोमू उन्हें विवाह का आश्वासन देकर घर आया, तो सोचा बिना देर किए उसे अपने माता-पिता से बात करनी चाहिए | किसी और से पता लगे, उससे बेहतर होगा कि वह  स्वयं ही बात करे | वह लगभग आश्वस्त था | इस बार लड़की उनके समाज की थी, सो सोमू को आपत्ति की कोई गुंजाईश नहीं दिखी |

"क्या नाम बताया? नकुल डे ?" सोमू के पिता ने लाल जिल्द चढ़ी कानून की किसी किताब को पलटते हुए पूछा |

"जी" 

"विवाह कोई बच्चों का खेल नहीं | यह विवाह संभव नहीं और आप अपने विवाह की चिंता छोड़ काम में मन लगाईये | हम आपके लिए उपयुक्त कन्या तलाश रहे हैं| मिलते ही आपका ब्याह कर देंगे" उसके पिता ने बिना उत्तेजित हुए कहा | 

"क्यूँ  संभव नहीं  यह विवाह ? रुक्मिणी तो आपके ही समाज की लड़की है" सोमू क्रोधित था |

"लगता है लन्दन रहकर आप सब भूल गए | हम ब्राह्मण हैं और वो कायस्थ | छोटे कुल की वधु नहीं आ सकती इस घर में" कह कर  सोमू के पिता अपने काम में मगन हो गए |

"कुछ फर्क नहीं पड़ता इन सभी बातों से | ये आदिम युग की बातें हैं | रुक्मिणी एक पढ़ी - लिखी लड़की है और कोलकाता के एक  स्कूल में संगीत पढ़ाती है" सोमू पिता के दरबार में दलीलें दे रहा था |

"बहुत फर्क पड़ता है| चार अक्षर पढ़ कर आजकल की लडकियाँ हमारे सामाजिक रीति-रिवाजों को चूल्हे में डाल रही है और उस पर स्वाबलंबी हो, तो क्या कहने | हमारा तो आदर ही नहीं करेगी | इस घर में कोई ब्राह्मण की लड़की ही आएगी | मुझे आगे कुछ नहीं सुनना" कहते हुए सोमू के पिता ने उसके दूसरे प्रेम का अतिम अध्याय लिख दिया |

सोमू गुस्से से लाल तो था ही, गोरा होने के कारण उसके गुस्से का रंग चेहरे पर भी दिख रहा था और उसकी लाल आँखों में आँसू थे | 

जब सोमू पिता के कमरे से निकल रहा था तो पिता ने कहा था "पुरुष नहीं रोते| कम से कम लडकियों के लिए तो कभी नहीं"

सोमू अगले दिन जमशेदपुर लौट गया | उसने रुक्मिणी को चिठ्ठी लिख कर सब बताया और विवाह न कर पाने के लिए क्षमा याचना की |

4.चतुर्थ अध्याय - "वनदेवी परिचय"

शामें अब सोमू को उदास कर जातीं थीं और इसी उदासी से उबरने के लिए उसने बचत के रुपयों से ग्रामोफोन खरीद लिया था | पर स्मृतियाँ अदृश्य सुरंगों से होते हुए सोमू तक पहुँच जाती | ग्रामोफोन पर किशोरी अमोनकर राग हंसध्वनि गातीं " आज सजन संग मिलन बनिलवा" और वह रुक्मिणी के लिए तड़प उठता | उसे अहसास हुआ कि संगीत के प्रति उसकी आसक्ति  ही उसे रुक्मिणी तक ले गयी थी | ऐसे में विरह के सफर में संगीत उसका साथी नहीं हो सकता | लूसी की संगति में रहकर वह चित्रकारी भी करने लगा था | लूसी ने उसे चित्रकारी की कई बारीकियाँ सिखाई थीं | सोमू ने अपने अकेलेपन के सफर में रंगों का साथ चुना | अब उसके कमरे में हर आकर के कैनवास थे और कई प्रकार के रंगों की शीशियाँ थीं | जिंदगी अक्सर विस्मृत करती है| होना तो यह था कि कूची और रंग उसे लूसी की स्मृतियों के करीब ले जाते, पर कैनवास पर जो वह उकेर रहा था, वहाँ एक वनदेवी थी, जो अज्ञात कुलशील थी | उसके माथे पर फूलों का ताज था | उसके केश घुटनों तक लम्बे थे और उसकी दोनों भवें  आपस में जुड़ी हुईं थी | कैनवास पर कई बार वन देवी खीर बना रही होतीं तो कभी मछलियों के मध्य जल में तैर रही होती | ऐसा नहीं था कि रंगों से खेलते हुए उसे लूसी की याद नहीं आती, पर वह अपने अतीत को किसी अदृश्य चेहरे में गुम कर देना चाहता था | एक ऐसे चेहरे में, जो उस तथाकथित समाज का हिस्सा न हो, जो मनुष्य को वर्ण और हैसियत के आधार पर बाँटता है | एक ऐसे चेहरे में, जहाँ वह चरित्र अपने में इतना पूर्ण है कि उसे किसी की आज्ञा की कोई जरुरत नहीं | सोमू के तस्वीरों की तारीफ़ करते हुए भले ही लोग उसे चित्र प्रदर्शनी में शामिल होने की सलाह देते, पर सोमू के लिए वह चित्र पूजा के निर्माल्य के बराबर थे, किसी को कैसे बेचता | उसके कई परिचित उससे चित्र माँगकर निराश हो चुके थे | 

नौकरी और रंगों के बीच सात महीने कट गए और शारदीय महापर्व दुर्गा पूजा का समय आ गया | बीते सात महीनों में सोमू को उसके पिता ने कई बार घर बुलाया पर हर बार सोमू कोई बहाना बना देता |  पिता समझ रहे थे कि बेटा नाराज है, सो दुर्गा पूजा पर उसे घर ले जाने वह स्वयं जमशेदपुर आ गए थे | अब सोमू के पास घर जाने के अतिरिक्त कोई चारा न था |

सोमू घर तो पहुँच गए थे या यूँ कहे कि ले जाए गए थे, पर उत्सवधर्मिता के लिए मन में जिस उल्लास की जरूरत होती है, वह तो दूर-दूर तक न था | वह सुबह देर तक सोया रहता, दिन में कहानी की किताबें पढता और शाम दोस्तों को शतरंज खेलने के लिए घर पर ही बुला लेता |  घर के अहाते में पूजा  का बड़ा सा पंडाल लगा था पर सोमू झाँकने तक न गया | षष्ठी की पूजा के दिन सोमू की माँ ने उसे सुबह - सुबह जगाया और उसे नहाकर पंडाल तक आने की जिद की | वह उनके हुक्म की तामील करे इसलिए अपना कसम देना भी नहीं भूलीं | थोड़ी उधेर बुन के बाद सोमू तैयार होकर जब पंडाल पहुँचा, पुष्पांजलि का समय था |  वह भीड़ को चीरता हुआ पुष्पांजलि के लिए फूल लेने हेतु जब बेदी के करीब पहुँचा, वहाँ उसके अंजुरी में फूल भरने के बाद एक लड़की करबद्ध कर आँखें मूँद पुजारी के साथ-साथ मन्त्र बुदबुदाने लगी | पूरा पंडाल या तो देवी की प्रतिमा की ओर देख रहा था या ऑंखें मूँद प्रार्थना में लीन था | सोमू हैरान हो लाल पार की सफेद साड़ी पहनी उस लड़की को एकटक देखता रहा | धवल त्वक, कमर से लम्बे केश, जुड़ी हुई भवें; वह साक्षात वनदेवी के दर्शन कर रहा था | सोमू ने मंत्रोच्चार के बाद अन्य लोगों की तरह फूलों को बेदी पर अर्पण करने की बजाय अपनी वनदेवी पर अर्पित किया | वनदेवी ने एकबार पलटकर देखा और फिर पुष्प -पात्र लिए लोगों में फूल वितरण करने लगी | सोमू ने हर बार फूल वनदेवी को ही अर्पित किया | वनदेवी पूजा समाप्त होते ही घर के अंदर चली गयी | सोमू ने अपनी माँ से वनदेवी का परिचय पूछा तो पता चला वनदेवी और कोई नहीं उनके महाराज (रसोईया) की बेटी थी जो कुछ दिनों पहले अपने पिता की अस्वस्थता का समाचार पाकर आई थी | अब रसोई उसके ही जिम्मे था | 

"अच्छा ! क्या नाम है उसका?" सोमू ने माँ से पूछा |

"अन्नपूर्णा" कहती हुई माँ प्रसाद वितरण में मगन हो गयीं थी |

उस दोपहर किताब पढ़ते हुए सोमू को रह-रह कर किताब के पन्नों पर अन्नपूर्णा का चेहरा उभरता दिख रहा था | पढ़ने में उसका मन नहीं लग रहा था | रात में भी उसे ठीक से नींद नहीं आई | वह अचंभित था कि कैसे उसके तैलचित्र की वनदेवी से उसका साक्षात्कार हुआ था | कैसे संभव था यह जबकि वह कभी पहले उससे मिला तक न था | 

वह अगले रोज़ सुबह सूर्योदय होते ही उठकर नदी किनारे टहलने चला गया | थोड़ी देर टहलने और कसरत करने के बाद भानु सिंह की पदावली गुनगुनाता हुआ वह मुँह धोने के लिए घाट की सीढ़ियों से जैसे ही नीचे उतरा, सामने का दृश्य देख अवाक् हो गया | अन्नपूर्णा जल में स्नान करती हुई तैर रही थी और उसके आसपास रह-रहकर मछलियाँ उछलती हुई नदी की विपरीत धारा की ओर बढ़ रहीं थी | सोमू को एकबार लगा था कि उसकी नींद पूरी न होने की वज़ह से उसे यह सब दिख रहा था| उसने आगे बढ़कर नदी का जल अपने चेहरे पर छिडका था और पुनः वही दृश्य देख स्वयं को अस्वस्थ मान भागता हुआ घर आकर चादर ओढ़ सो गया था | पुरे दिन कमरे में ही रहा |

महाष्टमी के दिन माँ के मनुहार पर भी वह पूजा मंडप तक नहीं गया, तो माँ ही भोग का प्रसाद लेकर उसके कमरे में आ गयी और उसे अपने हाथ से खिलाने लगी |  भोग चखते ही जैसे उसकी जन्मों की भूख तृप्त हुई थी | 

"किसने बनाया यह भोग?" पूछते हुए वह शायद उत्तर जानता था |

"और कौन ? अन्नपूर्णा" माँ ने उसके मुँह में निवाला डालते हुए कहा | 

वह माँ की हाथ से चुपचाप भोग की खिचड़ी खाता रहा जबकि उसके मन में एक अलग ही खिचड़ी पक रही थी | उसे अन्नपूर्णा से एकांत में मिलना था | उससे मिलकर बताना था कि वह उसकी वनदेवी है| 

नवमी के दिन सुबह उठकर सोमू वनदेवी से मिलकर बात करने की लालसा लिए नदी किनारे गया | वहाँ वनदेवी अपने रुग्ण पिता को स्नान करा रही थी | वह दृश्य देख सोमू करुणा से भर गया | वह अन्नपूर्णा से चाहे तो बात कर सकता था; महाराज कुछ नहीं कहते | पर उसने बिना कुछ कहे लौट जाना ही उचित समझा |

विजयादशमी के दिन सिंदूर खेला के बाद जब देवी की प्रतिमा को विसर्जन के लिए ले जाया गया, सोमू सीधे रसोई में जा हाजिर हुए | 

"जी, आपको कुछ चाहिए ? आज बाकी सभी लोग विसर्जन में गए हैं| मैं अकेली हूँ" अन्नपूर्णा ने सहमते हुए पूछा | 

"तुमसे ही बात करने आया हूँ" सोमू ने धीमे स्वर में कहा |

"जी...."अन्नपूर्णा बस इतना ही पूछ सकी |

"तुम कहाँ से आई हो ? क्या तुम विश्वास करोगी यदि मैं कहूँ कि मैंने तुम्हें देखने से पहले ही तुम्हारा चित्र बनाया ? क्या तुम जानती हो तुम मेरी वनदेवी हो? मुझे लगता है तुम मेरी चित्रों से निकलकर मेरा पीछा करती हुई यहाँ तक आ गयी हो" सोमू  एक साँस में कह गया था |

इतना सुनते ही अन्नपूर्णा खिलखिला कर हँस पड़ी थी और कहा था "बाबु, मैंने तो सुना कि आप तो लंदन से बहुत कठिन पढ़ाई कर यहाँ लौटे हैं | क्या ज्यादा पढ़ने से लोगों को ऐसा कुछ होने लगता है?"

"पागल नहीं हूँ मैं | किसी रोज़ तुम्हें वो तस्वीर भी दिखाऊंगा | कहो, शर्त लगाओगी? अगर चित्र की वनदेवी की शक्ल हु-ब -हु तुमसे मिली, तो मुझसे ब्याह करोगी?"सोमू अधीर हो चूका था |

अन्नपूर्णा ने बिना कोई उत्तर दिए लज्जा से अपने दोनों हाथों से अपनी आँखें बंद कर लीं थी | 

सोमू इसे स्वीकार का लक्षण समझते हुए कमरे में लौट आया | वह देर तक सोचता रहा था कि ग्रामीण अंचल में पली -बढ़ी उस लड़की में कितना आत्मविश्वास था | इतना तो शायद उसमें भी न था |  वह लड़की क्या थी, साक्षात माया थी | जादुई आकर्षण था उसमें | अगले दिन उसे जमशेदपुर के लिए रवाना होना था, इसलिए उसने रात्री भोजन के बाद अपने पिता से अन्नपूर्णा के साथ विवाह का प्रस्ताव रखा था | सुनते ही पिता आगबबूला हो गए थे | 

"तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है? यह नहीं हो सकता" पिता ने स्पष्ट कह दिया था  |

"पर अन्नपूर्णा ब्राह्मण है| आपको इस बार कोई आपति नहीं होनी चाहिए" सोमू ने अपना पक्ष रखा था |

"ब्राह्मण है तो क्या हुआ, है तो हमारे महाराज की ही बेटी | कहाँ हम और कहाँ वो| मैंने तुम्हारा रिश्ता कूचबिहार के एक जमींदार घराने में पक्का कर दिया है| दोल पूर्णिमा के बाद कोई अच्छा दिन देख  तुम्हारा विवाह करा देंगे | तुम्हें अब ब्याह के लिए परेशान होने की जरूरत नहीं" सोमू के पिता ने फरमान सुना डाला था |

"क्या? आपने मेरा ब्याह पक्का कर दिया ? मुझसे बिना पूछे ? मैंने तो उस लड़की को देखा भी नहीं?" सोमू गुस्से से लाल था |

"हमने कौन सा तुम्हारी माँ को देखा था ब्याह से पहले | माता-पिता जो करते हैं अपनी संतान का भला सोचकर ही करते हैं| हमारी पसंद पर भरोसा रखो" कहते हुए सोमू के पिता उसकी पीठ थपथपाते हुए कमरे से बाहर निकल गए |

सोमू रात भर न सो सका था  | मन में कई तरह के ख्याल आए | सुबह जमशेदपुर रवाना होने से पहले वह अन्नपूर्णा से मिलने गया था तो उससे कहा था कि वह अगली बार जब आएगा तो उसे अपने साथ ले जाएगा और उससे ब्याह कर लेगा | 

सोमू अगली बार पंद्रह दिनों के अन्तराल पर लौटा, तो उसे अपने घर के अहाते में विवाह मंडप दिखा, जिसके चारों ओर केले का पेड़ लगा था | वह एक किस्म के अनजान भय से घिर गया | उसने भारी मन से घर में प्रवेश किया और सीधे रसोई की ओर भागा | वहाँ उसकी माँ खाना बना रही थी | वह अवाक् हो माँ को देखता रहा था | माँ ने बताया था "महाराज की तबियत अचानक बिगड़ गयी थी | वह चाहता था उसके जिंदा रहते उसकी इकलौती बेटी का ब्याह हो जाए | तुम्हारे पिता ने उसकी आखिरी इच्छा पूरी कर दी | पास के गाँव के एक लड़के से अन्नपूर्णा का ब्याह कर दिया | उसका ब्याह भी हुआ और महाराज भी बैकुंठ सिधार गया| ईश्वर उसकी आत्मा को शांति दे"

सोमू यात्रा से थका हुआ तो था ही, अन्नपूर्णा की शादी की बात सुन टूट सा गया था | वह अपने कमरे में जाकर बिस्तर पर औंधे मुँह पड़ गया था | उसके दिनभर अन्न-जल ग्रहण न करने की बात सुन उसके पिता उसे रात्री भोजन के लिए बुलाने स्वयं आए थे |

अभी उसके पिता अपने चिर-परिचित अंदाज में उसे समझाना शुरू ही किए थे "बेटे, पुरुष नहीं रोते ..."

"हाँ, कापुरुष रोते हैं ; जैसे मैं हर बार अपना प्रेम खोकर रोता हूँ| पहली बार पुरुष बनने चला था, आप लोगों ने मुझसे वह मौका भी छीन लिया" सोमू ने अपने पिता को वाक्य पूरा करने नहीं दिया |

अगली सुबह सोमू जमशेदपुर लौट गया |

5 पंचम अध्याय - "अन्नपूर्णा का वैधव्य"

रंग उसे लूसी की याद दिलाता तो चित्र की वनदेवी उसे अन्नपूर्णा की ; संगीत उसे रुक्मिणी की याद दिलाता | उसने अपने अतीत से भागने के लिए योगाभ्यास शुरू किया | खाली समय में शारीरिक व्यायाम के अतिरिक्त वह ध्यान लगाने के विभिन्न तरीकों को सीखने लगा | चार महीनों से वह घर भी नहीं गया था | अचानक एक रविवार उसके माता-पिता जमशेदपुर आ गए और उसे बताया कि अगले महीने के प्रथम सप्ताह ही उसका विवाह तय हुआ है| योगाभ्यास और ध्यान का ही असर रहा होगा कि सोमू ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी | तीन दिन बाद सोमू यंत्रवत माता-पिता के साथ कोलकाता चला गया | विवाह की खरीदारी से लेकर विवाह के नियम -क़ानून तक अपने माता-पिता के हर निर्देश का पालन किया | 

पत्नी, जो गहनों से लदी थी, देखने में औसत थी | विवाह के कुछ महीनों में सोमू को यह भी पता चल गया कि उसे न तो लिखने-पढ़ने में कोई रूचि है, न ही संगीत में | कभी उसने सोमू के चित्रों में भी किसी प्रकार की कोई रूचि नहीं दिखाई | सोमू इस बात से बेहद दुखी रहता था | उसने अपने बनाये चित्र कोलकाता के भंडार कक्ष में रखवा दिया था |

दिन, महीने , साल बदलते रहे और सोमू दो बच्चों के पिता बने | सोमू कभी अपना अतीत विस्मृत नहीं कर पाए | परिस्थितियों ने उन्हें चैन से रहने न दिया | अपनी छोटी संतान के अन्नप्राशन पर जब सोमू कोलकाता गए, उनके लौटने के ठीक दो दिन पहले रुक्मिणी की सीढ़ियों से गिरने से मृत्यु हो गयी | वह उसकी अंत्येष्टि में शामिल हुए और घर लौटकर रोने की बजाय देर तक ग्रामोफोन  पर किशोरी अमोनकर को सुना | 

इस घटना के तीन साल बाद सोमू के पिता चल बसे | पिता के श्राद्ध पर उसने ब्राह्मण भोज के समय अन्नपूर्णा को खाना बनाते देखा | वह विधवा के वेश में थी |  सोमू के पूछने पर उसने बताया कि उसका विवाह जिस युवक से किया गया था, वह शराबी था | शादी के दो साल बाद एक दिन वह स्नान करने नदी में गया, तो नहीं लौटा | कई दिनों बाद उसकी लाश लौटी |  दो -चार घरों में खाना बनाकर किसी प्रकार उसका गुज़ारा चल रहा था | 

"मेरे साथ जमशेदपुर चलोगी? हमारे साथ रहना " सोमू ने भावुक होकर कहा था | 

" इस विधवा से ब्याह करेंगे बाबु?"अन्नपूर्णा ने व्यंग्य करते हुए पूछा था |

सोमू ने जब कोई उत्तर नहीं दिया, अन्नपूर्णा ने कहा था "वनदेवी हूँ,  दासी नहीं बन पाऊँगी | मेहनत कर अपना पेट पाल सकती हूँ | संभव हो तो आप मुझे वनदेवी का चित्र उपहार में दे जाइये"

सोमू ने जमशेदपुर लौटने से पहले भंडार कक्ष से ढूँढकर वनदेवी का चित्र अन्नपूर्णा को दिया था |  

सोमू की माँ अकेली रह गयी थी और वह सोमू के साथ जमशेदपुर भी नहीं जाना चाहती थी | सोमू जब कभी उन्हें अपने साथ ले जाने की बात करता, वो कहतीं कि उन्हें उसी घर में अपना प्राण त्याग करना है जहाँ उसके पिता की स्मृतियाँ हैं| सोमू अब हर महीने कोलकाता का एक चक्कर लगाने लगे थे | पिता की अंत्येष्टि के अगले महीने जब वो अपनी माँ से मिलने आए, तो माँ ने उन्हें कुलदेवी के दर्शन करवाने का आग्रह किया | कुलदेवी का मंदिर ग्राम के दूसरे छोड़ पर था | जब सोमू माँ को लेकर वहाँ पहुँचे, उन्हें वनदेवी का वह चित्र, जो उसने अन्नपूर्णा को उपहार में दिया था, कुलदेवी की प्रतिमा के ठीक ऊपर टंगा दिखा | अगली सुबह उसने अन्नपूर्णा से शिकायत के लहजे में जब पूछा था कि उसने उस चित्र को मंदिर में क्यूँ टांगा, तो उसने जवाब में कहा था "प्रेम के लिए इस संसार में कोई मंदिर नहीं है| उस चित्र को कुलदेवी के ऊपर टांग कर मैंने यह स्थापित करने की कोशिश की है कि प्रेम से बड़ा कोई भगवान नहीं होता"| यह सुन कर सोमू कुछ कह ही नहीं पाया | उसके अंदर जैसे कुछ चटखा | वह चीख कर रोना चाहता था, पर आँखों में अश्रु जल आने से पहले मानस पटल पर पिता का कहा गूँजने लगता "पुरुष नहीं रोते" |  उसने मन ही मन सोचा कि अन्नपूर्णा सचमुच की देवी ही होगी जो शापित हो इहलोक में विचर रही है|   

6 षष्ठ अध्याय - "पुरुष नहीं रोते"

बीते वर्षों में बहुत कुछ बदला | सोमू एकबार फिर सौमित्र हो गए | कई पदोन्नति, कई तबादला और अंतिम तबादला कोलकाता में हुआ | उनके अंतिम तबादले के वर्ष ही उनकी माँ का स्वर्गवास हो गया था | पत्नी से उनका संबंध औपचारिक रह गया | बच्चे बड़े हो गए और अब उनके अपने बच्चे थे | संतोष की बात यह रही कि उनके बच्चे उनका बेहद ख्याल रखते हैं| रंग और चित्र से नाता भले ही टूट सा गया, पर उनसे प्रेम न छूटा | ग्रामोफ़ोन अब सजावट का सामान बन कर रह गया था | सौमित्र अब मोबाइल के एक क्लिक पर किशोरी अमोनकर से लेकर प्रभा अत्रे तक किसी को भी सुन सकते थे | उनके पढ़ने का शौक कब लिखने में तब्दील हो गया, यह उन्हें भी पता न चला | शायद अकेलेपन के अपने नितांत निजी क्षणों में अतीत का तीर जब सीने में चुभता, वह उसे पन्नों पर उतार देते | उनकी कविताओं में लूसी के प्रेम को पढ़ा जा सकता और रुक्मिणी के मृत्यु विलाप को | 

सौमित्र अब अस्सी पार कर चुके हैं|  अपने बच्चों से अपनी अंतिम इच्छा ज़ाहिर करते हुए सौमित्र ने कह दिया है कि मृत्योपरांत उन्हें चंदन की लकड़ी पर न जलाया जाए | वह चाहते हैं कि लकड़ी की जगह उन सभी कैनवास का प्रयोग चिता के लिए किया जाए जिस पर उन्होंने कभी वनदेवी और वन के चित्र उकेरे थे | अपने बच्चों से कहा कि जलती हुई चिता से उठती रंगीन लपटों में जीवन को देखे और उनके लिए कभी आँसू न बहाए | पत्नी से कुछ नहीं कहा | पत्नी और उनके बीच किसी प्रकार का संवाद तभी होता है जब वह अत्यंत आवश्यक हो |

हर शाम वह बिला नागा हुगली नदी के किनारे बैठ ध्यान करते हैं और फिर घर पहुँचकर संध्या करने बैठ जाते हैं| आसपास के लोगों को भले ही लगता है कि सौमित्र शांभवी मुद्रा में योगरत होते हैं, यह सिर्फ सौमित्र ही जानते हैं कि उनके ध्यान में नदी होती है जिसमें पानी की सतह के नीचे हिलसा मछलियां और सतह के ऊपर अन्नपूर्णा तैर रही होती है| कभी -कभी जल की जगह कुलदेवी की पूजा बेदी, मछली की जगह कुलदेवी और अन्नपूर्णा की जगह वनदेवी का चित्र उभर आता है| संध्या अर्चना करते हुए गायत्री मंत्र नहीं बुदबुदाते | रुक्मिणी को ध्यान करते हुए एक ही प्रश्न बारबार पूछते हैं "तुम मुझे कभी क्षमा कर पाओगी?"|

सौमित्र अब नहीं रोते | सौमित्र अब ध्यान लगाकर अतीत के अश्रु जल में गोता लगाते हैं|

होलिका दहन

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बुंदेलखंड के जमींदार हिरण्यकश्यप अपने इकलौते बेटे प्रह्लाद की अंधभक्ति को लेकर बेहद चिंतित थे | प्रह्लाद ने एकबार अपनी माँ कयाधु को कहते सुन लिया था कि ईश्वर की आराधना से संसार में किसी भी वस्तु को प्राप्त किया जा सकता है और यही बात उसके बाल मन में घर कर गयी थी | वह अपना ज्यादातर वक़्त पूजा-अर्चना में लगाया करता था और हर बात के लिए ईश्वर पर आश्रित रहने लगा था | न उसका मन पढ़ने में लगता न ही खेलने में | वह अपने आसपास के लोगों से भी कटा-कटा सा रहता था | शुरू-शुरू में जमींदार हिरण्यकश्यप ने बच्चे की इन गतिविधियों को उसके विकास की उम्र मानकर और बालपन की बालसुलभ प्रवृत्ति मानकर अनदेखा किया; परन्तु जब कुछ समय के बाद भी यह गतिविधियाँ कम होने की बजाय बढ़ती रहीं, तो वे प्रह्लाद से कठोरता से पेश आए | इसी क्रम में एकदिन उन्होंने अपने आदेशपाल से घर से सभी देवी-देवताओं की मूर्तियाँ निकाल उन्हें जंगल में रख आने का आदेश दिया | आदेशपाल ने आज्ञा का यथाशीघ्र पालन किया और जमींदार के घर की सभी देवी-देवताओं की मूर्तियों को जंगल में रख आया |

जमींदार हिरण्यकश्यप लगभग आश्वस्त हो चुके थे कि घर से मूर्तियों के निष्कासन से उनकी समस्या का समाधान हो गया था कि तभी किसी ने उन्हें सूचना दी कि प्रह्लाद जंगल चला गया और वहाँ जाकर वह ईश्वर के तप में लीन हो गया |  उन्हें महसूस हुआ कि उन्होंने जल्दबाजी में गलत फैसला ले लिया | वह प्रह्लाद को लाने स्वयं जंगल गए पर प्रह्लाद ने उनके समक्ष शर्त रखा कि वह घर तभी जाएगा जब वह जंगल में रखी मूर्तियों को घर ले जा सकेगा | हिरण्यकश्यप को प्रह्लाद के बाल हठ के आगे झुकना पड़ा और वह प्रह्लाद और मूर्तियों के संग भारी मन से घर लौट गए |

अगले दिन शरत पूर्णिमा थी | हिरण्यकश्यप ने काफी विचार करने के बाद अपनी समस्या के समाधान के लिए अपनी छोटी बहन होलिका को बुला भेजा | जमींदार को होलिका की सूझबूझ पर बहुत विश्वास था | होलिका हिमाचली लड़के इलोजी से प्रेम करती थी और एक अरसे से उससे विवाह करना चाहती थी परंतु इस अन्तर्जातीय विवाह को हिरण्यकश्यप मान्यता देने को तैयार न थे | उस रोज़ जब बड़े भाई के बुलावे पर होलिका आई तो भाई ने बहन के समक्ष यह प्रस्ताव रखा कि यदि वह अगले वर्ष शरत पूर्णिमा के दिन तक किसी प्रकार प्रह्लाद की अंधभक्ति समाप्त करने में सफल रही, तो वह स्वयं इलोजी से उसका विवाह करवाएँगे | होलिका अपने बड़े भाई के इस प्रस्ताव पर राज़ी हो गयी | उसके पास इलोजी से विवाह करने का और कोई दूसरा रास्ता भी न था |

अगले दिन जब प्रह्लाद पूजा करने बैठा, तो होलिका ने उससे कहा "तुम इतना पूजा-पाठ करते हो, काश ! कि तुम्हें इसका पुण्य भी उतना ही मिलता"

"उतना ही मिलता !!! क्या कहना चाहती हैं आप?" प्रह्लाद नहीं समझ पा रहा था |

"देखो, पूजा तुम करते हो | फूल और फल हमारा माली उगाता है; प्रसाद तुम्हारी माँ बनाती हैं और पूजा के स्थान की सफाई तो घर का सहायक करता है| तुम्हारी पूजा का पुण्य तुम्हारे अतिरिक्त उन सभी को बराबर हिस्से में मिलता है| तो पूरा पुण्य तुम्हें तो नहीं मिला न ?" कहते हुए होलिका प्रह्लाद की आँखों में देखने लगी |

"अरे हाँ !!!" कहता हुआ प्रह्लाद सोच में पड़ गया था|

"परेशान होने की कोई बात नहीं| अगर तुम चाहो, कल से बागीचे की देखभाल में माली की मदद कर सकते हो और कुछ समय बाद तुम्हें स्वयं फूल और फलों को उगाना आ जायेगा| इसी प्रकार तुम हमारे गोशाला जाकर गायों की सेवा कर सकते हो, उन्हें चराने ले जा सकते हो और उन्हें दूहना भी सीख सकते हो | हो सके तो सहायक के बदले कल से पूजा स्थान की सफाई तुम ही करो" कहती हुई होलिका ने उसे एकसाथ कई उपक्रमों में व्यस्त रखने का कारगर उपाय ढूँढ लिया था | प्रह्लाद की सहमती देख लगे हाथ उसने माली से लेकर सहायक तक सभी को उचित निर्देश दे दिया |

प्रह्लाद ईश्वर को पाने के लिए कुछ भी कर सकता था | अगले दिन सुबह उठते ही पहले वह माली के साथ काम पर लग गया | फिर वह गौशाला गया और गौ पालन के गुर सीखने लगा | पूजा स्थान की सफाई सबसे आसान काम था |  इन कामों में अब प्रह्लाद को तीन से चार घंटों का समय देना पड़ता था | फिर शारीरिक श्रम के चलते वह शाम में थकान की वज़ह से जल्दी ही सो जाता | पूजा के लिए अब कम समय मिलता; पर वह संतुष्ट रहता कि पूजा का सारा पुण्य उसे अकेले ही मिल रहा था | कुछ ही महीनों में प्रह्लाद ने अपनी लगन से ये सब काम तो सीखा ही; साथ ही गाय और पेड़-पौधों से उसे लगाव हो गया | लाजिम भी था जिनके साथ वक़्त बिताया, उनसे लगाव तो होना ही था |

अभी पाँच महीने ही बीते थे कि एक दिन फिर होलिका पूजा के ऐन वक़्त प्रह्लाद के सामने उपस्थित हुईं  और कहने लगीं "मैं बेहद खुश हूँ कि अब तुम अपनी पूजा की सारी व्यवस्था स्वयं करते हो | ईश्वर भी तुमसे बेहद खुश होंगे | बस एक बात की कमी है अब"

"अब किस बात की कमी है!!" प्रह्लाद ने आश्चर्यचकित होकर पुछा था |

"बिना शिक्षा के तुम न मन्त्र का सही उच्चारण जानते हो न ही कर्मकांड की सही विधि का ही ज्ञान है तुम्हें | इस सबके लिए जिस ज्ञान की आवश्यकता होती है, वह तो विधिवत शिक्षा के पश्चात ही मिलना संभव हो सकता है और यह है बड़ा मुश्किल काम | न जाने तुम कर पाओगे या ... " कहती हुई होलिका एक बार फिर प्रह्लाद की आँखों में देखने लगी |

"क्यूँ नहीं कर सकता | जरूर करूँगा | ईश्वर के लिए तो मैं कुछ भी कर सकता हूँ" प्रह्लाद ने होलिका की अपेक्षानुसार ही उत्तर दिया था |

कुछ समय के बाद प्रह्लाद ने अपने पिता से कहकर एक प्रतिष्ठित विद्यालय में अपना नामांकन करवाया और मन लगाकर पढ़ने लगा | प्रकृति और ईश्वर को जानने की ऐसी उत्सुकता कि पाठ्यक्रम के इतर पुस्तकों को पढ़ने के लिए प्रह्लाद पुस्तकालय भी जाने लगा |  अब वह पूजा के लिए मुश्किल से आधा घंटा ही निकाल पाता था | कुछ समय बाद उसके वैज्ञानिक प्रयोगों की माया थी कि वह ईश्वर की अपेक्षा प्रकृति में अधिक विश्वास करने लगा था |

जमींदार हिरण्यकश्यप अपने पुत्र में इस सकारात्मक बदलाव देख बेहद प्रसन्न हुए और अपनी बहन से किए हुए वायदे के मुताबिक शरत पूर्णिमा को उसका ब्याह उसके प्रेमी इलोजी के साथ धूमधाम से करवाया | उन्हें इस बात का भी भान हुआ कि किसी भी समस्या का हल हठ या कठोरता की अपेक्षा सूझबूझ से किया जाना चाहिए | इसी उपलक्ष्य में उन्होंने पुराने जर्जर हो चुके रीति रिवाजों के बहिष्कार के लिए प्रतीकात्मक तौर पर पुराने जर्जर हो चुके सामानों को जलाया और इसे होलिका के नाम पर होलिका दहन कहा | होलिका दहन में होलिका को जलाया जाना पुरानी बात थी; आज के जमाने में होलिका द्वारा समाज की रुढ़िवादी परम्पराओं और वर्जनाओं को जला नए प्रतिमान गढ़ने को होलिका दहन कहा गया |

Saturday, June 30, 2018

मलय रॉयचौधुरी की कविताएँ

1. तितली प्रजन्म की नारी तुम चित्रांगदा देव 

रवीन्द्रनाथ, यह लेकिन ठीक नहीं हो रहा है |
चित्रांगदा कह रही थी आप प्रतिदिन
उसे रोक लेते हैं, आपको साबुन
लगाने के लिए, सुना है बूढ़े हो गए हैं इसलिए
अकेले स्नानघर जाने में आप
डरते हैं, और हाथ भी नहीं पहुँचता है
देह के सर्वत्र, बालों में शैम्पू वगैरह करना--
पोशाक खोलते ही, आसंग-उन्मुख नीली
तितलियाँ उडती हैं उसके ही शरीर से
और वो गाती हैं आपका लिखा हुआ गीत !

यह आप क्या कर रहे हैं ? आपकी
प्रेमिकाएँ बूढ़ी जर्जर हैं तो क्यूँ
मेरी प्रेमिका को फँसाना चाह रहे हैं !

2. खसखस का फूल 

कुचाग्र का तुम्हारे गुलाबी रंग अवंतिका
शरीर तुम्हारा हरे रंग से ढँका अवंतिका
खरोंचता हूँ निकलता है गोंद अवंतिका
चाटने देती हो, नशा होता है अवंतिका
हो दर्दनाक गिराती हो पेट अवंतिका

3. अन्तरटॉनिक

बीड़ी फूँकती हो अवंतिका
चुम्बन में श्रम का स्वाद पाता हूँ
देशी पीती हो अवंतिका
श्वास में नींद की गंध पाता हूँ
गुटखा खाती हो अवंतिका
जीभ पर रक्त का स्पर्श पाता हूँ
जुलूस में जाती हो अवंतिका
पसीने में तुम्हारे दिवास्वप्न पाता हूँ |

4. उत्सव 

तुम क्या कभी श्मशान गयी हो अवंतिका ? क्या बताऊं तुम्हें !
ओह वह कैसा उत्सव है, कैसा आनंद, न देखो तो समझ नहीं पाओगी --
पञ्चांग में नहीं ढूँढ पाओगी ऐसा उत्सव है यह | कॉफ़ी की घूँट लेता हूँ |
अग्नि को घेर जींस-धोती-पतलून-बनियान व्यस्त हैं अविराम
मद्धिम अग्नि कर रही है तेज नृत्य आनंदित होकर, धुंए का वाद्ययंत्र
सुनकर जो लोग अश्रुपूरित आँखों से शामिल होने आए हैं उनकी भी मौज
अंततः शेयर बाज़ार में क्या चढ़ा क्या गिरा, फिर टैक्सी
पकड़ सामान्य निरामिष खरीदारी पुरोहित की दी हुई सूची अनुसार --
चलना श्मशान काँधे पर सबसे सस्ते पलंग पर सोकर लिपस्टिक लगाकर ...
ले जायेंगे एक दिन सभी प्रेमी मिल काँधे के ऊपर डार्लिंग ...

5. प्रियंका बरुआ 

प्रियंका बरुआ तुम्हारे
होठों का महीन उजाला
मुझे दो न जरा सा

विद्युत् नहीं है
कई साल हुए
मेरी उँगलियों में हाथों में

तुम्हारी उस हँसी से
जरा सा बुझा दोगी क्या
मेरे जलते होठों को

जब भी कहोगी तुम
कविता की कॉपी से
निकालकर दे दूँगा तुम्हें

सुना है आग भी है
तुम्हारी देह के किसी खाँचे में
माँगते हुए शर्म महसूस करता हूँ

जुगनू का हरा
प्रकाश हो, तो भी चलेगा
दो न जरा सा

होंठ जो सूख गया है
प्रियंका बरुआ देखो
कविता लिखना भी हुआ बंद

तुम्हारे कभी के दिए हुए
अंधकार में अब भी
डूब जाती है हाथों की उँगलियाँ

तुम्हारी उस हँसी से
जरा सा बुझा दोगी क्या
मेरे जलते होठों को

जब भी कहोगी तुम
कविता की कॉपी से
निकालकर दे दूँगा तुम्हें

6. विज्ञानसम्मत कीर्ति 

पंखा टांगने के उस खाली हुक से
गले में नायलोन की रस्सी बाँध लटक जाओ
कपाट सटाकर दरवाजे के पीछे
ऊँची तान पर रेडिओ चलाकर झटपट
साड़ी साया कमीज खोलकर टूल के उपर
खड़े होकर गले में फाँसी की रस्सी पहन लेना
सारी रात अंधकार में अकेली लटकती रहना
आँखें खुलीं जीभ बाहर निकला हुआ
दोनों ओर बेहोश दो हाथ और स्तन
जमी हुई षोडशी के शून्य पाँव के नीचे
पृथ्वी की छुआछूत से परे जहाँ
बहुत पुरुषों के होठों ने प्यार किया है
उस शरीर को छूने में डरेंगे आज वो लोग

लटको, लाश उतारने के लिए हूँ मैं |

7. दलाल 

यह क्या कुलनारी ! तुम जहाज घाट पर देह बेचने आयी हो
लूँगी पहना हुआ पानखोर दलाल नहीं रखा ?
सफ़ेदपोश कवि शरीर को छलनी कर देगा
शंख और लोहे की चूड़ियाँ उतार दोनों हाथों से खींच लेंगे तुम्हें लॉरी पर
लॉक अप में निर्वस्त्र मध्यरात्रि.......उस समय गाना तुम रवीन्द्र संगीत

छी कुलपुत्री ! तुम सबको करने देती हो प्यार
जिस-तिस के साथ जहाँ तहाँ सो जाती हो
चारोंओर रंगीन आँखों वाले मंजे हुए ठग सब पर नजर रखे हुए हैं, याद रखना

मैं तो स्ट्रेचरवाही हूँ कुछ भी नहीं कर सकूँगा
शायद टिफिन डब्बे में ले आऊँगा रोटी और आलू-जीरे का भुजिया
गाना सुनाने के बीच झुक-झुक कर पैसा उठाऊँगा
सुबह होते ही गंगा के किनारे तुम खड़ी रहकर उल्टी करना
अस्पताल में मिलेगा बेडपैन ग्लूकोज बोतल में पानी
गंदे बिस्तर के पास सोया हुआ तन्द्रागत कुत्ता  |

8. वज्रमुर्ख का तर्क 

आज शुक्रवार है | वेतन मिला है | शायद शरतकाल की पूर्णिमा है |
महीन मेघ के मध्य खेल रही है ज्योत्स्ना | मध्यरात्रि | सुनसान सड़क |
जरा सी ताड़ी चढ़ाई है | गुनगुना रहा हूँ अतुलप्रसाद |
कहीं कुछ नहीं है, अचानक आवारा कुत्तों का दल
भौंकने लगता है | पीछा करता है | दौड़ता रहता हूँ असहाय |
नहीं समझ पाया पहले | राजपथ आकर होंश आता है |
वेतन गिर गया है कहीं हाथ से | कैसे लौटूँगा घर ?
कोई भी तो विश्वास नहीं करेगा | सोचेंगे खेला होगा रेस,
गया होगा वेश्या के घर, दोस्तों के साथ उड़ाया होगा |
बंधु - बांधव कोई नहीं है | रेस भी नहीं खेला कब से |
दूसरी स्त्रियों के खुले वक्ष पर अंतिम बार हाथ कब लगाया था
भूल गया हूँ | नहीं जानता विश्वास नहीं करता कोई भी क्यूँ |
मुझे तो लगता रहता है, जो नहीं किया वही किया है शायद |
जो नहीं कहा, मैंने वही कहा | फिर इस पूर्णिमा का मतलब क्या है ?
क्यूँ इस वेतन का मिलना ? क्यूँ गाना ? क्यूँ ताड़ी ?

फिर घुसना पड़ेगा बेहद गंदी गली में | निर्घात कुत्ते
गंध सूंघकर जान जाएँगे | घेर लेंगे चारोंओर से |
जो होना है हो जाए | आज साला इस पार या उस पार |

9. धनतंत्र का क्रमविकास 

कल रात बगल से कब उठ गयी
चुपचाप अलमारी तोड़कर कौन सा एसिड
गटागट पीकर मर रही हो अब
उपजिह्वा गल चुकी है दोनों गालों में है छेद
मसूरे और दाँत बहते हुए दिख रहे हैं चिपचिपे तरल में
गाढ़ा झाग, घुटने में हो रहा है ऐंठन से दर्द
बाल अस्तव्यस्त, बनारसी साड़ी साया
खून से लथपथ, मुठ्ठी में कजरौटा
सोले से बना मुकुट रक्त से सना रखा है एक ओर
कैसे कर पायी सहन, नहीं जान पाया
नहीं सुन पाया कोई दबी हुई चीत्कार
तो क्यूँ सहमति दी थी गर्दन हिलाकर
मैं चाहता हूँ जैसे भी हो, तुम बच जाओ
समग्र जीवन रहो कथाहीन होकर

10. स्वच्छ दीवार

वह दीवार कैसी दिखती है
उसे नहीं पता
दीवार जिसकी है वह भी कभी
नहीं जान पायी
वह केवल जानती है कि है
दीवार
बचा-बचा कर रखा है
उस युवक के लिए
जिसे वह तोड़ने देगी
युवा लोग फिर भी पसीने से तर हो जाते हैं
एक स्वच्छ पतली
दीवार तोड़ते हुए
हजारों-हजार सालों से
तोड़ी जा रही है दीवार
रक्त के साथ रस से निर्मित
वह दीवार
जिसकी टूटती है उसे गर्व नहीं होता
जो तोड़ता है उसका भी
अहंभाव नाचता है पसीने में
रस का नागर होने का ख़िताब मिला है
प्रेमी को
प्रेमिका दिखाएगी चादर में रक्त लगाकर
अध्यवसाय में समय के साथ लड़कर
दीवार टूटने का वह आनंद
दोनों जन का
जिसने तोड़ा और जिसका टूटा
सेलोफेन सा महीन
दीवार न तोड़कर मनुष्य
जन्म नहीं लेगा
इसलिए
सभी दीवारों को
स्वच्छ मांस से निर्मित
सेलोफेन सा हो या
लोहे की ईंट की अदृश्य
सीमारेखा की
प्रेम के पसीने में भिगोकर
तोड़ देना है जरूरी
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1. প্রজাপতি প্রজন্মের নারী তুই চিত্রাঙ্গদা দেব

রবীন্দ্রনাথ, এটা কিন্তু ভালো হচ্ছে না।
চিত্রাঙ্গদা বলছিল আপনি প্রতিদিন
ওকে রুকে নিচ্ছেন, আপনাকে সাবান
মাখাবার জন্য, বুড়ো হয়েছেন বলে
আপনি নাকি একা বাথরুমে যেতে
ভয় পান, আর হাতও পৌঁছোয় না
দেহের সর্বত্র, চুলে শ্যাম্পু-ট্যাম্পু করা--
পোশাক খুললে, আসঙ্গ-উন্মুখ নীল
প্রজাপতি ওড়ে ওরই শরীর থেকে
আর তারা আপনার লেখা গান গায় !

এটা আপনি কী করছেন ? আপনার
প্রেমিকারা বুড়ি থুতথুড়ি বলে কেন
আমার প্রেমিকাটিকে ফাঁসাতে চাইছেন !

2. পপির ফুল

বোঁটায় তোর গোলাপ রঙ অবন্তিকা
শরীরে তোর সবুজ ঢাকা অবন্তিকা
আঁচড় দিই আঠা বেরোয় অবন্তিকা
চাটতে দিস নেশায় পায় অবন্তিকা
টাটিয়ে যাস পেট খসাস অবন্তিকা

3. অন্তরটনিক

বিড়ি ফুঁকিস অবন্তিকা
চুমুতে শ্রমের স্বাদ পাই
বাংলা টানিস অবন্তিকা
নিঃশ্বাসে ঘুমের গন্ধ পাই
গুটকা খাস অবন্তিকা
জিভেতে রক্তের ছোঁয়া পাই
মিছিলে যাস অবন্তিকা
ঘামে তোর দিবাস্বপ্ন পাই

4. উৎসব

তুই কি শ্মশানে গিয়েছিস কখনও অবন্তিকা ? কী বলব তোকে !
ওহ সে কী উৎসব কী আনন্দ, না দেখলে বুঝতে পারবি না--
পাঁজিতে পাবি না খুঁজে এমনই উৎসব এটা । কফিতে চুমুক দিই।
আগুনকে ঘিরে জিন্স-ধুতি-প্যান্ট-গেঞ্জি মেতে আছে ননস্টপ
মিচকে আগুন তেড়ে নাচছে আনন্দ খেয়ে, ধোঁয়ার বাজনা
শুনে কাঁদো-চোখে যারা সব অংশ নিতে এসেছে তারাও মজা
শেষে শেয়ার বাজারে কী উঠল কী নামল আবার ট্যাকসি
ধরে ছোটো নিরামিষ কেনাকাটা পুরুতের দেয়া লিস্টি মেনে--
চলিস শ্মশানে কাঁধে চিপেস্ট পালঙ্কে শুয়ে লিপ্সটিক মেখে...
নিয়ে যাব একদিন সবাই প্রেমিক মিলে কাঁধের ওপরে ডারলিং...

5. প্রিয়াংকা বড়ুয়া

প্রিয়াংকা বড়ুয়া তোর
ঠোঁটের মিহিন আলো
আমাকে দে না একটু

ইলেকট্রিসিটি নেই
বছর কয়েক হল
আমার আঙুলে হাতে

আগুনও আছে নাকি
তোর দেহে কোনো খাঁজে
চাইতে বিব্রত লাগে

জোনাকির সবুজাভ
আলো থাকলেও চলে
দে না রে একটুখানি

ঠোঁট যে শুকিয়ে গেছে
প্রিয়াংকা বড়ুয়া দ্যাখ
কবিতা লেখাও বন্ধ

তোর ওই হাসি থেকে
একটু কি নিভা দিবি
আমার শুকনো ঠোঁটে

যখনি বলবি তুই
কবিতার খাতা থেকে
তুলে দিয়ে দেব তোকে

6. বিজ্ঞানসন্মত কীর্তি

ফ্যান টাঙাবার ওই খালি হুক থেকে
কন্ঠে নাইলন দড়ি বেঁধে ঝুলে পড়ো
কপাট ভেজিয়ে দরোজার চুপিসাড়ে
উঁচুতানে রেডিও চালিয়ে তাড়াতাড়ি
শাড়ি শায়া জামে খুলে টুলের ওপরে
দাঁড়িয়ে গলায় ফাঁস-রশি পরে নিও
সারারাত অন্ধকারে একা ঝুলে থেকো
চোখ ঠিকরিয়ে জিভ বাইরে বেরোনো
দুপাশে বেহঁশ দুই হাত আর স্তন
জমাট ষোড়শি শূন্য পায়ের তলায়
পৃথিবীর ধরাছোঁয়া ছাড়িয়ে যেখানে
বহু পুরুষের ঠোঁটে আদর খেয়েছ
সে-শরীর ছুঁতে ভয় পাবে তারা আজ

দোলো লাশ নামাবার জন্য আছি আমি ।

7. দালাল

এ কী কুলনারী তুমি জাহাজঘাটায় দেহ বেচতে এসেছো
লুঙি-পরা পানখোর দালাল রাখোনি
সাদাপোষাকের কবি শরীর ঝাঁঝরা করে দেবে
শাঁখা-নোয়া খুলে তারা দুহাত হিঁচড়ে টেনে তুলবে লরিতে
লকাপে ল্যাংটো মাঝরাত.....সে-সময়ে গেয়ো তুমি রবীন্দ্রসংগীত

ছিহ কুলখুকি তুমি সবায়ের আদর কুড়োও
যারতার সাথে গিয়ে যেখানে-সেখানে শুয়ে পড়ো
চারিদিকে কটাচোখ ধ্রুপদী জোচ্চোর সব নজর রাখছে মনে রেখো

আমি তো স্ট্রেচারবাহী কিছুই করতে পারব না
হয়তো টিফিনবাক্সে এনে দেব রুটি আর আলুজিরে ভাজা
গান শোনাবার মাঝে ঝুঁকে-ঝুঁকে পয়সা কুড়োবো
ভোর হলে গঙ্গার পাড়ে তুমি দাঁড়িয়ে-দাঁড়িয়ে বমি কোরো
হাসপাতালেতে পাবে বেডপ্যান গ্লুকোজ বোতলে জল
তালচিটে বিছানায় পাশে শোয়া ঘুমন্ত কুকুর ।

8. বজ্রমূর্খের তর্ক

আজকে শুক্কুরবার । মইনে পেয়েচি । বোধায় শরতকালের পুন্নিমে ।
পাতলা মেঘের মধ্যে জোসনা খেলচে । মাঝরাত । রাস্তাঘাট ফাঁকা ।
সামান্য টেনিচি তাড়ি । গাইচি গুনগুন করে অতুলপ্রসাদ ।
কোথাও কিচ্ছু নেই হঠাত নেড়ি-কুকুরের দল
ঘেউ ঘেউ করে ওঠে । তাড়া করে । বেঘোরে দৌড়ুতে থাকি ।
বুঝতে পারিনি আগে । রাজপথে এসে হুঁশ হয় ।
মাইনেটা পড়েচে কোথাও হাত থেকে । কী করে ফিরব বাড়ি ?
কেধ তো বিশ্বাস করবে না । ভাববে খেলেচে রেস,
গিয়েচে মাগির বাসা, বন্ধুদের সাথে নিয়ে বেলেল্লা করেচে ।
বন্ধুবান্ধব কেউ নেই । রেসও খেলি না কতকাল ।
অন্য স্ত্রীলোকের খোলা-বুকে হাত শেষ কবে দিয়েচি যে
ভুলে গেচি । জানি না বিশ্বাস করে না কেউ কেন ।
আমার তো মনে হতে থাকে, যা করিনি সেটাই করিচি বুঝি ।
যা কইনি, সেকথা বলিচি । তাহলে এ পুন্নিমের মানে ?
কেন এই মাইনে পাওয়া? কেন গান ? কেন তাড়ি ?

আবার ঢুকতে হবে রামনোংরা গলির ভেতরে । নির্ঘাত কুকুরগুলো
গন্ধ শঁকে টের পাবে । ছেঁকে ধরবে চারিদিক থেকে ।
যা হবার হয়ে যাক । আজ শালা এস্পার কিংবা ওস্পার ।

9. ধনতন্ত্রের ক্রমবিকাশ
শেষরাতে পাশ থেকে কখন উঠেছ
চুপচাপ আলমারি ভেঙে কী অ্যাসিড
ঢকঢক করে গিলে মরছ এখন
আলজিভ খসে গেছে দুগালে কোটর
মাড়িদাঁত দেখা যায় কষেতে বইছে
গাঢ় ফেনা হাঁটুতে ধরেছে খিঁচ ব্যথা
চুল আলুথালু বেনারসি শাড়ি শায়া
রক্তে জবজবে মুঠোতে কাজললতা
শোলার মুকুট রক্ত-মাখা একপাশে
কী করে করেছ সহ্য জানতে পারিনি
শুনতে পাইনি কোনো চাপা চীৎকার
তবে কেন সায় দিয়েছিলে ঘাড় নেড়ে
আমি চাই যেকরেই হোক বেঁচে ওঠো
সমগ্র জীবন থাকো কথাহীন হয়ে

१०. স্বচ্ছ দেওয়াল

সে দেওয়াল কেমন দেখতে
জানে না
দেওয়ালটা যার সেও কখনও
জানেনি
সে কেবল জানে রয়েছে
দেওয়ালখানা
বাঁচিয়ে বাঁচিয়ে রাখছে
সেই যুবকের জন্য
যাকে সে ভাঙতে দেবে
যুবকেরা তবু গলদঘর্ম হয়
স্বচ্ছ একটা পাতলা
দেওয়াল ভাঙতে
হাজার হাজার বছর যাবত
চলছে দেওয়াল ভাঙা
রক্তের সাথে রসের তৈরি
সেই দেওয়াল
যার ভাঙে তার গর্ব ধরে না
যে ভাঙছে তারও
অহমিকা নাচে ঘামে
রসের নাগর খেতাব মিলেছে
প্রেমিকের
প্রেমিকা দেখাবে চাদরে রক্ত লেগে
অধ্যবসায়ে সময়ের সাথে লড়ে
দেওয়াল ভাঙার সে কি আনন্দ
দুজনেরই
যে ভাঙল আর যার ভাঙা হল
সেলোফেন ফিনফিনে
দেওয়াল না ভেঙে মানুষ
জন্মাবে না
তাই
সব দেওয়ালই
স্বচ্ছ মাংসে গড়া
সেলোফেনে হোক কিংবা
লোহার ইঁটের অদৃশ্য
সীমারেখার
প্রেমের ঘামেতে ভিজিয়ে
ভেঙে ফেলা দরকার