Saturday, June 30, 2018

मलय रॉयचौधुरी की कविताएँ

1. तितली प्रजन्म की नारी तुम चित्रांगदा देव 

रवीन्द्रनाथ, यह लेकिन ठीक नहीं हो रहा है |
चित्रांगदा कह रही थी आप प्रतिदिन
उसे रोक लेते हैं, आपको साबुन
लगाने के लिए, सुना है बूढ़े हो गए हैं इसलिए
अकेले स्नानघर जाने में आप
डरते हैं, और हाथ भी नहीं पहुँचता है
देह के सर्वत्र, बालों में शैम्पू वगैरह करना--
पोशाक खोलते ही, आसंग-उन्मुख नीली
तितलियाँ उडती हैं उसके ही शरीर से
और वो गाती हैं आपका लिखा हुआ गीत !

यह आप क्या कर रहे हैं ? आपकी
प्रेमिकाएँ बूढ़ी जर्जर हैं तो क्यूँ
मेरी प्रेमिका को फँसाना चाह रहे हैं !

2. खसखस का फूल 

कुचाग्र का तुम्हारे गुलाबी रंग अवंतिका
शरीर तुम्हारा हरे रंग से ढँका अवंतिका
खरोंचता हूँ निकलता है गोंद अवंतिका
चाटने देती हो, नशा होता है अवंतिका
हो दर्दनाक गिराती हो पेट अवंतिका

3. अन्तरटॉनिक

बीड़ी फूँकती हो अवंतिका
चुम्बन में श्रम का स्वाद पाता हूँ
देशी पीती हो अवंतिका
श्वास में नींद की गंध पाता हूँ
गुटखा खाती हो अवंतिका
जीभ पर रक्त का स्पर्श पाता हूँ
जुलूस में जाती हो अवंतिका
पसीने में तुम्हारे दिवास्वप्न पाता हूँ |

4. उत्सव 

तुम क्या कभी श्मशान गयी हो अवंतिका ? क्या बताऊं तुम्हें !
ओह वह कैसा उत्सव है, कैसा आनंद, न देखो तो समझ नहीं पाओगी --
पञ्चांग में नहीं ढूँढ पाओगी ऐसा उत्सव है यह | कॉफ़ी की घूँट लेता हूँ |
अग्नि को घेर जींस-धोती-पतलून-बनियान व्यस्त हैं अविराम
मद्धिम अग्नि कर रही है तेज नृत्य आनंदित होकर, धुंए का वाद्ययंत्र
सुनकर जो लोग अश्रुपूरित आँखों से शामिल होने आए हैं उनकी भी मौज
अंततः शेयर बाज़ार में क्या चढ़ा क्या गिरा, फिर टैक्सी
पकड़ सामान्य निरामिष खरीदारी पुरोहित की दी हुई सूची अनुसार --
चलना श्मशान काँधे पर सबसे सस्ते पलंग पर सोकर लिपस्टिक लगाकर ...
ले जायेंगे एक दिन सभी प्रेमी मिल काँधे के ऊपर डार्लिंग ...

5. प्रियंका बरुआ 

प्रियंका बरुआ तुम्हारे
होठों का महीन उजाला
मुझे दो न जरा सा

विद्युत् नहीं है
कई साल हुए
मेरी उँगलियों में हाथों में

तुम्हारी उस हँसी से
जरा सा बुझा दोगी क्या
मेरे जलते होठों को

जब भी कहोगी तुम
कविता की कॉपी से
निकालकर दे दूँगा तुम्हें

सुना है आग भी है
तुम्हारी देह के किसी खाँचे में
माँगते हुए शर्म महसूस करता हूँ

जुगनू का हरा
प्रकाश हो, तो भी चलेगा
दो न जरा सा

होंठ जो सूख गया है
प्रियंका बरुआ देखो
कविता लिखना भी हुआ बंद

तुम्हारे कभी के दिए हुए
अंधकार में अब भी
डूब जाती है हाथों की उँगलियाँ

तुम्हारी उस हँसी से
जरा सा बुझा दोगी क्या
मेरे जलते होठों को

जब भी कहोगी तुम
कविता की कॉपी से
निकालकर दे दूँगा तुम्हें

6. विज्ञानसम्मत कीर्ति 

पंखा टांगने के उस खाली हुक से
गले में नायलोन की रस्सी बाँध लटक जाओ
कपाट सटाकर दरवाजे के पीछे
ऊँची तान पर रेडिओ चलाकर झटपट
साड़ी साया कमीज खोलकर टूल के उपर
खड़े होकर गले में फाँसी की रस्सी पहन लेना
सारी रात अंधकार में अकेली लटकती रहना
आँखें खुलीं जीभ बाहर निकला हुआ
दोनों ओर बेहोश दो हाथ और स्तन
जमी हुई षोडशी के शून्य पाँव के नीचे
पृथ्वी की छुआछूत से परे जहाँ
बहुत पुरुषों के होठों ने प्यार किया है
उस शरीर को छूने में डरेंगे आज वो लोग

लटको, लाश उतारने के लिए हूँ मैं |

7. दलाल 

यह क्या कुलनारी ! तुम जहाज घाट पर देह बेचने आयी हो
लूँगी पहना हुआ पानखोर दलाल नहीं रखा ?
सफ़ेदपोश कवि शरीर को छलनी कर देगा
शंख और लोहे की चूड़ियाँ उतार दोनों हाथों से खींच लेंगे तुम्हें लॉरी पर
लॉक अप में निर्वस्त्र मध्यरात्रि.......उस समय गाना तुम रवीन्द्र संगीत

छी कुलपुत्री ! तुम सबको करने देती हो प्यार
जिस-तिस के साथ जहाँ तहाँ सो जाती हो
चारोंओर रंगीन आँखों वाले मंजे हुए ठग सब पर नजर रखे हुए हैं, याद रखना

मैं तो स्ट्रेचरवाही हूँ कुछ भी नहीं कर सकूँगा
शायद टिफिन डब्बे में ले आऊँगा रोटी और आलू-जीरे का भुजिया
गाना सुनाने के बीच झुक-झुक कर पैसा उठाऊँगा
सुबह होते ही गंगा के किनारे तुम खड़ी रहकर उल्टी करना
अस्पताल में मिलेगा बेडपैन ग्लूकोज बोतल में पानी
गंदे बिस्तर के पास सोया हुआ तन्द्रागत कुत्ता  |

8. वज्रमुर्ख का तर्क 

आज शुक्रवार है | वेतन मिला है | शायद शरतकाल की पूर्णिमा है |
महीन मेघ के मध्य खेल रही है ज्योत्स्ना | मध्यरात्रि | सुनसान सड़क |
जरा सी ताड़ी चढ़ाई है | गुनगुना रहा हूँ अतुलप्रसाद |
कहीं कुछ नहीं है, अचानक आवारा कुत्तों का दल
भौंकने लगता है | पीछा करता है | दौड़ता रहता हूँ असहाय |
नहीं समझ पाया पहले | राजपथ आकर होंश आता है |
वेतन गिर गया है कहीं हाथ से | कैसे लौटूँगा घर ?
कोई भी तो विश्वास नहीं करेगा | सोचेंगे खेला होगा रेस,
गया होगा वेश्या के घर, दोस्तों के साथ उड़ाया होगा |
बंधु - बांधव कोई नहीं है | रेस भी नहीं खेला कब से |
दूसरी स्त्रियों के खुले वक्ष पर अंतिम बार हाथ कब लगाया था
भूल गया हूँ | नहीं जानता विश्वास नहीं करता कोई भी क्यूँ |
मुझे तो लगता रहता है, जो नहीं किया वही किया है शायद |
जो नहीं कहा, मैंने वही कहा | फिर इस पूर्णिमा का मतलब क्या है ?
क्यूँ इस वेतन का मिलना ? क्यूँ गाना ? क्यूँ ताड़ी ?

फिर घुसना पड़ेगा बेहद गंदी गली में | निर्घात कुत्ते
गंध सूंघकर जान जाएँगे | घेर लेंगे चारोंओर से |
जो होना है हो जाए | आज साला इस पार या उस पार |

9. धनतंत्र का क्रमविकास 

कल रात बगल से कब उठ गयी
चुपचाप अलमारी तोड़कर कौन सा एसिड
गटागट पीकर मर रही हो अब
उपजिह्वा गल चुकी है दोनों गालों में है छेद
मसूरे और दाँत बहते हुए दिख रहे हैं चिपचिपे तरल में
गाढ़ा झाग, घुटने में हो रहा है ऐंठन से दर्द
बाल अस्तव्यस्त, बनारसी साड़ी साया
खून से लथपथ, मुठ्ठी में कजरौटा
सोले से बना मुकुट रक्त से सना रखा है एक ओर
कैसे कर पायी सहन, नहीं जान पाया
नहीं सुन पाया कोई दबी हुई चीत्कार
तो क्यूँ सहमति दी थी गर्दन हिलाकर
मैं चाहता हूँ जैसे भी हो, तुम बच जाओ
समग्र जीवन रहो कथाहीन होकर

10. स्वच्छ दीवार

वह दीवार कैसी दिखती है
उसे नहीं पता
दीवार जिसकी है वह भी कभी
नहीं जान पायी
वह केवल जानती है कि है
दीवार
बचा-बचा कर रखा है
उस युवक के लिए
जिसे वह तोड़ने देगी
युवा लोग फिर भी पसीने से तर हो जाते हैं
एक स्वच्छ पतली
दीवार तोड़ते हुए
हजारों-हजार सालों से
तोड़ी जा रही है दीवार
रक्त के साथ रस से निर्मित
वह दीवार
जिसकी टूटती है उसे गर्व नहीं होता
जो तोड़ता है उसका भी
अहंभाव नाचता है पसीने में
रस का नागर होने का ख़िताब मिला है
प्रेमी को
प्रेमिका दिखाएगी चादर में रक्त लगाकर
अध्यवसाय में समय के साथ लड़कर
दीवार टूटने का वह आनंद
दोनों जन का
जिसने तोड़ा और जिसका टूटा
सेलोफेन सा महीन
दीवार न तोड़कर मनुष्य
जन्म नहीं लेगा
इसलिए
सभी दीवारों को
स्वच्छ मांस से निर्मित
सेलोफेन सा हो या
लोहे की ईंट की अदृश्य
सीमारेखा की
प्रेम के पसीने में भिगोकर
तोड़ देना है जरूरी
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1. প্রজাপতি প্রজন্মের নারী তুই চিত্রাঙ্গদা দেব

রবীন্দ্রনাথ, এটা কিন্তু ভালো হচ্ছে না।
চিত্রাঙ্গদা বলছিল আপনি প্রতিদিন
ওকে রুকে নিচ্ছেন, আপনাকে সাবান
মাখাবার জন্য, বুড়ো হয়েছেন বলে
আপনি নাকি একা বাথরুমে যেতে
ভয় পান, আর হাতও পৌঁছোয় না
দেহের সর্বত্র, চুলে শ্যাম্পু-ট্যাম্পু করা--
পোশাক খুললে, আসঙ্গ-উন্মুখ নীল
প্রজাপতি ওড়ে ওরই শরীর থেকে
আর তারা আপনার লেখা গান গায় !

এটা আপনি কী করছেন ? আপনার
প্রেমিকারা বুড়ি থুতথুড়ি বলে কেন
আমার প্রেমিকাটিকে ফাঁসাতে চাইছেন !

2. পপির ফুল

বোঁটায় তোর গোলাপ রঙ অবন্তিকা
শরীরে তোর সবুজ ঢাকা অবন্তিকা
আঁচড় দিই আঠা বেরোয় অবন্তিকা
চাটতে দিস নেশায় পায় অবন্তিকা
টাটিয়ে যাস পেট খসাস অবন্তিকা

3. অন্তরটনিক

বিড়ি ফুঁকিস অবন্তিকা
চুমুতে শ্রমের স্বাদ পাই
বাংলা টানিস অবন্তিকা
নিঃশ্বাসে ঘুমের গন্ধ পাই
গুটকা খাস অবন্তিকা
জিভেতে রক্তের ছোঁয়া পাই
মিছিলে যাস অবন্তিকা
ঘামে তোর দিবাস্বপ্ন পাই

4. উৎসব

তুই কি শ্মশানে গিয়েছিস কখনও অবন্তিকা ? কী বলব তোকে !
ওহ সে কী উৎসব কী আনন্দ, না দেখলে বুঝতে পারবি না--
পাঁজিতে পাবি না খুঁজে এমনই উৎসব এটা । কফিতে চুমুক দিই।
আগুনকে ঘিরে জিন্স-ধুতি-প্যান্ট-গেঞ্জি মেতে আছে ননস্টপ
মিচকে আগুন তেড়ে নাচছে আনন্দ খেয়ে, ধোঁয়ার বাজনা
শুনে কাঁদো-চোখে যারা সব অংশ নিতে এসেছে তারাও মজা
শেষে শেয়ার বাজারে কী উঠল কী নামল আবার ট্যাকসি
ধরে ছোটো নিরামিষ কেনাকাটা পুরুতের দেয়া লিস্টি মেনে--
চলিস শ্মশানে কাঁধে চিপেস্ট পালঙ্কে শুয়ে লিপ্সটিক মেখে...
নিয়ে যাব একদিন সবাই প্রেমিক মিলে কাঁধের ওপরে ডারলিং...

5. প্রিয়াংকা বড়ুয়া

প্রিয়াংকা বড়ুয়া তোর
ঠোঁটের মিহিন আলো
আমাকে দে না একটু

ইলেকট্রিসিটি নেই
বছর কয়েক হল
আমার আঙুলে হাতে

আগুনও আছে নাকি
তোর দেহে কোনো খাঁজে
চাইতে বিব্রত লাগে

জোনাকির সবুজাভ
আলো থাকলেও চলে
দে না রে একটুখানি

ঠোঁট যে শুকিয়ে গেছে
প্রিয়াংকা বড়ুয়া দ্যাখ
কবিতা লেখাও বন্ধ

তোর ওই হাসি থেকে
একটু কি নিভা দিবি
আমার শুকনো ঠোঁটে

যখনি বলবি তুই
কবিতার খাতা থেকে
তুলে দিয়ে দেব তোকে

6. বিজ্ঞানসন্মত কীর্তি

ফ্যান টাঙাবার ওই খালি হুক থেকে
কন্ঠে নাইলন দড়ি বেঁধে ঝুলে পড়ো
কপাট ভেজিয়ে দরোজার চুপিসাড়ে
উঁচুতানে রেডিও চালিয়ে তাড়াতাড়ি
শাড়ি শায়া জামে খুলে টুলের ওপরে
দাঁড়িয়ে গলায় ফাঁস-রশি পরে নিও
সারারাত অন্ধকারে একা ঝুলে থেকো
চোখ ঠিকরিয়ে জিভ বাইরে বেরোনো
দুপাশে বেহঁশ দুই হাত আর স্তন
জমাট ষোড়শি শূন্য পায়ের তলায়
পৃথিবীর ধরাছোঁয়া ছাড়িয়ে যেখানে
বহু পুরুষের ঠোঁটে আদর খেয়েছ
সে-শরীর ছুঁতে ভয় পাবে তারা আজ

দোলো লাশ নামাবার জন্য আছি আমি ।

7. দালাল

এ কী কুলনারী তুমি জাহাজঘাটায় দেহ বেচতে এসেছো
লুঙি-পরা পানখোর দালাল রাখোনি
সাদাপোষাকের কবি শরীর ঝাঁঝরা করে দেবে
শাঁখা-নোয়া খুলে তারা দুহাত হিঁচড়ে টেনে তুলবে লরিতে
লকাপে ল্যাংটো মাঝরাত.....সে-সময়ে গেয়ো তুমি রবীন্দ্রসংগীত

ছিহ কুলখুকি তুমি সবায়ের আদর কুড়োও
যারতার সাথে গিয়ে যেখানে-সেখানে শুয়ে পড়ো
চারিদিকে কটাচোখ ধ্রুপদী জোচ্চোর সব নজর রাখছে মনে রেখো

আমি তো স্ট্রেচারবাহী কিছুই করতে পারব না
হয়তো টিফিনবাক্সে এনে দেব রুটি আর আলুজিরে ভাজা
গান শোনাবার মাঝে ঝুঁকে-ঝুঁকে পয়সা কুড়োবো
ভোর হলে গঙ্গার পাড়ে তুমি দাঁড়িয়ে-দাঁড়িয়ে বমি কোরো
হাসপাতালেতে পাবে বেডপ্যান গ্লুকোজ বোতলে জল
তালচিটে বিছানায় পাশে শোয়া ঘুমন্ত কুকুর ।

8. বজ্রমূর্খের তর্ক

আজকে শুক্কুরবার । মইনে পেয়েচি । বোধায় শরতকালের পুন্নিমে ।
পাতলা মেঘের মধ্যে জোসনা খেলচে । মাঝরাত । রাস্তাঘাট ফাঁকা ।
সামান্য টেনিচি তাড়ি । গাইচি গুনগুন করে অতুলপ্রসাদ ।
কোথাও কিচ্ছু নেই হঠাত নেড়ি-কুকুরের দল
ঘেউ ঘেউ করে ওঠে । তাড়া করে । বেঘোরে দৌড়ুতে থাকি ।
বুঝতে পারিনি আগে । রাজপথে এসে হুঁশ হয় ।
মাইনেটা পড়েচে কোথাও হাত থেকে । কী করে ফিরব বাড়ি ?
কেধ তো বিশ্বাস করবে না । ভাববে খেলেচে রেস,
গিয়েচে মাগির বাসা, বন্ধুদের সাথে নিয়ে বেলেল্লা করেচে ।
বন্ধুবান্ধব কেউ নেই । রেসও খেলি না কতকাল ।
অন্য স্ত্রীলোকের খোলা-বুকে হাত শেষ কবে দিয়েচি যে
ভুলে গেচি । জানি না বিশ্বাস করে না কেউ কেন ।
আমার তো মনে হতে থাকে, যা করিনি সেটাই করিচি বুঝি ।
যা কইনি, সেকথা বলিচি । তাহলে এ পুন্নিমের মানে ?
কেন এই মাইনে পাওয়া? কেন গান ? কেন তাড়ি ?

আবার ঢুকতে হবে রামনোংরা গলির ভেতরে । নির্ঘাত কুকুরগুলো
গন্ধ শঁকে টের পাবে । ছেঁকে ধরবে চারিদিক থেকে ।
যা হবার হয়ে যাক । আজ শালা এস্পার কিংবা ওস্পার ।

9. ধনতন্ত্রের ক্রমবিকাশ
শেষরাতে পাশ থেকে কখন উঠেছ
চুপচাপ আলমারি ভেঙে কী অ্যাসিড
ঢকঢক করে গিলে মরছ এখন
আলজিভ খসে গেছে দুগালে কোটর
মাড়িদাঁত দেখা যায় কষেতে বইছে
গাঢ় ফেনা হাঁটুতে ধরেছে খিঁচ ব্যথা
চুল আলুথালু বেনারসি শাড়ি শায়া
রক্তে জবজবে মুঠোতে কাজললতা
শোলার মুকুট রক্ত-মাখা একপাশে
কী করে করেছ সহ্য জানতে পারিনি
শুনতে পাইনি কোনো চাপা চীৎকার
তবে কেন সায় দিয়েছিলে ঘাড় নেড়ে
আমি চাই যেকরেই হোক বেঁচে ওঠো
সমগ্র জীবন থাকো কথাহীন হয়ে

१०. স্বচ্ছ দেওয়াল

সে দেওয়াল কেমন দেখতে
জানে না
দেওয়ালটা যার সেও কখনও
জানেনি
সে কেবল জানে রয়েছে
দেওয়ালখানা
বাঁচিয়ে বাঁচিয়ে রাখছে
সেই যুবকের জন্য
যাকে সে ভাঙতে দেবে
যুবকেরা তবু গলদঘর্ম হয়
স্বচ্ছ একটা পাতলা
দেওয়াল ভাঙতে
হাজার হাজার বছর যাবত
চলছে দেওয়াল ভাঙা
রক্তের সাথে রসের তৈরি
সেই দেওয়াল
যার ভাঙে তার গর্ব ধরে না
যে ভাঙছে তারও
অহমিকা নাচে ঘামে
রসের নাগর খেতাব মিলেছে
প্রেমিকের
প্রেমিকা দেখাবে চাদরে রক্ত লেগে
অধ্যবসায়ে সময়ের সাথে লড়ে
দেওয়াল ভাঙার সে কি আনন্দ
দুজনেরই
যে ভাঙল আর যার ভাঙা হল
সেলোফেন ফিনফিনে
দেওয়াল না ভেঙে মানুষ
জন্মাবে না
তাই
সব দেওয়ালই
স্বচ্ছ মাংসে গড়া
সেলোফেনে হোক কিংবা
লোহার ইঁটের অদৃশ্য
সীমারেখার
প্রেমের ঘামেতে ভিজিয়ে
ভেঙে ফেলা দরকার