अनुवाद : सुलोचना
1. हार-जीत
ततैये मधुमक्खी के बीच हुई रस्साकशी
हुआ महातर्क दोनों में शक्ति ज्यादा किसकी
ततैया कह रहा, है सहस्र प्रमाण
तुम्हारा दंश नहीं है मेरे समान
मधुकर निरुत्तर छलछला उठी ऑंखें
वनदेवी कहती कानों में उसके धीरे
क्यूँ बाबू, नतसिर! यह बात है निश्चित
विष से तुम जाते हो हार और मधु से जीत
2. उदारचरितानाम
प्राचीर की छिद्र में एक नामगोत्रहीन
खिला है छोटा फूल अतिशय दीन
धिक् धिक् करता है उसे कानन का हर कोई
सूर्य उगकर उससे कहता, कहो कैसे हो भाई ?
3. भक्ति और अतिभक्ति
भक्ति है आती रिक्तहस्त प्रसन्नवदन
अतिभक्ति कहे, देखूँ कितना
मिलता है धन
भक्ति कहे, मन में है, नहीं दिखाने की औकात
अतिभक्ति कहे, मुझे तो मिलता
हाथोंहाथ |
4. जीवन जब सूख जाए
जीवन जब सूख जाए
करुणाधारा में आना
समस्त माधुरी छुप जाए
गीतसुधारस में आना
कर्म ले जब प्रबल-आकार
गरज उठे ढ़ाक से दिशा चार
हृदयप्रान्त में हे नीरवनाथ ,
शांतचरण से आना
स्वयं को जब बना कृपण
कोने में रहे पड़ा दीनहीन मन
द्वार खोल हे उदार नाथ
राज समारोह में आना
इच्छा मिले जब विपुल धूल में
कर अंधा अबोध भूल में
हे पवित्र, हे अनिद्र
रूद्र आलोक में आना |
5. मेरा सिर नत कर दो हे देव तुम्हारे
मेरा सिर नत कर दो हे देव तुम्हारे
चरण-धूल
के तल में।
अहंकार सब हे देव मेरे
डुबा
दो आँखों के जल में।
करने को अपना गौरव दान
किया अपना केवल अपमान,
स्वयं को केवल घुमा - घुमा कर
चकराकर
मरता हूं पल-पल में।
अहंकार सब हे देव मेरे
डुबा
दो आँखों के जल में।
स्वयं का कहीं न करूं प्रचार
मेरे
अपने काम में;
अपनी ही इच्छा करो हे देव पूर्ण
मेरे
जीवन धाम में ।
मांगता हूँ तुम्हारी चरम शांति
प्राणों में तुम्हारी परम कांति
मुझे छुपाकर रख लो अपने
हृदय-कमल
के दल में।
अहंकार सब हे देव मेरे
डुबा
दो आँखों के जल में।
6. अंतर मेरा विकसित करो
अंतर मेरा विकसित करो
अन्तरतर हे !
निर्मल करो, उज्ज्वल करो,
सुंदर करो हे!
जाग्रत करो, उद्यत करो,
निर्भय करो हे!
मंगल करो, निरलस नि:संशय
करो हे!
अंतर मेरा विकसित करो,
अन्तरतर हे ।
सबके संग युक्त करो,
मुक्त करो हे बंध,
सकल मर्म में संचार करो
शांत तुम्हारे छंद ।
चरणकमल में चित्त मेरा निस्पंदित करो हे,
नंदित करो, नंदित करो,
नंदित करो हे!
अंतर मेरा विकसित करो
अन्तरतर हे !
7. मेघदूत
कविवर, कब किस विस्मृत
बरस में
किस पुण्य आषाढ़ के प्रथम दिवस में
लिखा था तुमने मेघदूत ? मेघमन्द्र श्लोक
विश्व में विरही हैं जितने, उन सबके शोक
रखा है अपना अंधेरा कई तहों में
सघन संगीत के मध्य में पुंजीभूत करके |
उस दिन उज्जयिनी के उस प्रासाद-शिखर पर
न जाने कैसी घन घटा, विद्युत--उत्सव,
उद्दामपवनवेग, गुड़गुड़ रव ।
गंभीर निर्घोष उस मेघ संघर्ष का
जगा उठा सहस्र वर्षों के
अंतरगूढ़ वाष्पाकुल विच्छेद क्रन्दन को
एक दिन में | तोड़कर काल के
बंधन को
उस दिन बह निकले थे अविरल
चिरकाल से अवरुद्ध अश्रुजल
आद्र करते हुए तुम्हारी उदार श्लोकराशि |
उस दिन क्या संसार के समस्त प्रवासी
जोड़ हस्त मेघपथ पर शून्य की ओर उठा माथा
गाते थे समवेत स्वर में विरह की गाथा
लौटकर प्रिय के गृह? बंधनविहीन
नवमेघपंख पर कर आसीन
भेजना चाहा था प्रेमवार्ता
अश्रुवाष्प से भरा - दूर वातायन में यथा
विरहन थी सोई भूतलशयन में
मुक्तकेश में, म्लान वेश में, सजल नयन में ?
उन सबों का गीत तुम्हारे संगीत में
भेज दिया क्या, कवि, दिवस में, निशीथ में
देश-देशांतर में, ढूँढते हुए
विरहिणी प्रिया ?
श्रावण में जाहन्वी का जैसा हो जाता है प्रवाह
खींच लाती है दिग्दिगन्त से वारिधारा
महासमुद्र के मध्य होने के लिए दिशाहारा |
पाषाण-श्रृंखलाओं में जैसे है बंदी हिमाचल
आषाढ़ के अनन्त शून्य में हेरता हूँ मेघदल
होकर कातर लेता श्वास स्वाधीन-गगनचारी
सहस्र कन्दराओं से ला वाष्प राशि-राशि
भेजता है गगन की ओर; दौड़ते हैं वे
भागने की कामना करते हुए; शिखर पर चढ़कर
सब मिलकर अन्त में हो जाते हैं एकाकार,
समस्त गगनतल पर जमा लेते हैं अधिकार ।
उस दिन के बाद से बीते कई सौ दिन
प्रथम दिवस की स्निग्ध वर्षा नवीन |
प्रत्येक वर्षा दे गई नवीन जीवन
तुम्हारे काव्य पर बरसाकर बरिषण
नववृष्टिवारिधारा, करते हुए विस्तार
नवघनस्निग्धछाया का करते हुए संचार
नव नव प्रतिध्वनि जलद-मन्द्र की,
स्फीत कर स्रोत-वेग तुम्हारे छंद की
वर्षातरंगिणी के समान |
कितने काल से
कितने विरही लोगों ने, प्रियतमा विहीन घरों में,
वृष्टिक्लांत बहुदीर्घ लुप्त तारा शशि
आषाढ़ संध्या में क्षीण दीपलोक में बैठ
उस छंद का मंद-मंद कर उच्चारण
निमग्न किया है निज विजन वेदना
उन सबका कंठ-स्वर कानों में आता है मेरे
समुद्र के तरंगों की कलध्वनि के समान
तुम्हारे काव्य के भीतर से|
भारत की पूर्वी सीमा पर
बैठा हूँ आज मैं जिस श्यामल बंग देश में
जहाँ कवि जयदेव ने वर्षा के एक दिन
देखी थी दिगंत के तमालविपिन में
श्यामल छाया, मेघों से पूर्ण
मेंदुर अम्बर |
आज अंधकार दिवा, वृष्टि झर-झर
पवन दुरंत अति, अपने आक्रमण में
अरण्य बाहें उठाकर कर रही है हाहाकार |
विद्युत् झाँक रही है चीरकर मेघ भार
बरसकर शून्य में सुतीक्ष्ण वक्र मुस्कान के साथ
|
अँधेरे बंद गृह में बैठकर अकेला
पढ़ रहा हूँ मेघदूत; मेरा गृह-त्यागी मन
मुक्तगति मेघों की पीठ पर जमाकर आसन,
उड़ रहा है देश-देशान्तर में | है कहाँ
सानुमान आम्रकूट; बहती है
कहाँ
विमल विशीर्ण रेवा विन्ध्यपदमूल में
शिलाओं से बाधित है जिसकी गति; वेत्रवती के तीर पर
पके फलों से श्याम दिखने वाले जंबू-वन की छाया
में
कहाँ छिपा हुआ है दशार्ण ग्राम
खिली हुई केतकी के बाड़े से घिरा;
पथतरुशाख पर जहाँ ग्रामविहंगों ने
बनाए हैं अपने वर्षाकालीन नीड़, कलरव से पूर्ण
वनस्पति; न जाने किस नदी
के तीर पर
वह जुहीवन में विहार करने वाली वनांगना लौट रही
है,
तप्त कपोल के ताप से क्लांत कर्णोतपल
मेघ की छाया लग वह हो रही है विकल;
भ्रू विलास नहीं सीखा; कौन हैं वे नारियाँ
जनपद की वधुएँ गगन में निहारती
घनघटा, उर्ध्व नेत्र से
देखती हैं मेघपथ की ओर,
घननील छाया पड़ती है सुनील नयनों में;
मेघों से श्याम वह कौन सा है शैल
जिसकी शिला पर मुग्ध सिद्धान्गना
स्निग्ध नवघन को देख हुई थी अनमना
शिला के नीचे, सहसा भयानक झंझा
के आते ही
चकित चकित हो भय से काँपती थर-थर
वसन सम्भाल ढूंढती फिरती गुहाश्रय,
कहती हैं, "ओ माँ, लगता है गिरि-श्रृंग उड़ा कर ले जायेगी!"
कहाँ है अवंतिपुरी; निर्विन्ध्या तटिनी;
कहाँ उज्जयिनी ढूंढती शिप्रा नदी के जल में
स्वयंहिमछाया - जहाँ द्विप्रहर में
प्रणय चंचलता भूल भवन के शिखर में
सुप्त कपोत, है केवल विरह
विकार में
रमणी निकलती है बाहर प्रेम-अभिसार के लिए
सूची भेद्य अंधकार में राजपथ के मध्य
कदाचित विद्युतलोक में; कहाँ विराजता है
ब्रह्म्नावर्त में कुरुक्षेत्र; कहाँ है कनखल,
जहाँ वह चंचल यौवना जहूकन्या,
गौरी की भृकुटी भंगिमा की कर अवहेलना
छोड़कर झाग कर रही है परिहास
पकड़कर धुर्जटि की जटा भालचन्द्रस्पर्शी तरंग
रूपी हाथों से
इस प्रकार मेघ रूप में कई देशों से होकर
हृदय तैरता जाता है, उत्तरीय के अंत में
कामनाओं का मोक्षधाम अलका के मध्य,
विरहणी प्रियतमा विराजती है जहाँ
होती है सौन्दर्य की आदिसृष्टि | कौन ले जा सकता था
वहाँ, तुम्हें छोड़, बिना खर्च के
लक्ष्मी की विलासपूरी - अमर भुवन में !
अनंत वंसत में जहाँ नित्य पुष्पवन में
नित्य चन्द्रलोक में, इन्द्रनील पर्वत के मूल में
स्वर्ण सरोज खिलकर सरोवर कूल में
मणिमहल के असीम सम्पदा में हो निमग्न
रो रहे हैं एकाकीपन की विरह वेदना पर |
खुले वातायन से उन्हें देखा जा सकता
शैयाप्रान्त में लीन कमनीय क्षीण शाशिरेखा
पूर्व गगन के मूल में लगभग अस्तप्राय |
कवि, तुम्हार मन्त्र
से आज मुक्त हो जाता है
रुद्ध हो चुकी है इस हृदय के बंधन की व्यथा;
पाया है विरह का स्वर्गलोक, जहाँ
चिरनिशि जाप रही है विरहिणी प्रिया
जागकर अकेले अनंत सौन्दर्य के साथ |
फिर खो जाता है- ढूंढता हूँ चहुँओर
वृष्टि होती है अविरल; छा जाता है अंधियारा
आई है निर्जन निशा; प्रान्त के अंत में
रोता हुआ चला जा रहा है वायु बिना किसी उद्देश
के |
सोच रहा हूँ आधी रात, हैं अनिद्रनयान,
किसने दिया ऐसा श्राप, काहे का व्यवधान?
क्यूँ उर्ध्व में देख रोता रुद्ध मनोरथ?
क्यूँ प्रेम को नहीं मिल पाता निज पथ?
सशरीर कौन नर गया है वहाँ,
मानस सरसी तट पर विरह निद्रित
रविहीन मणिदीप्त साँझ के देश में
जगत की नदी, गिरी, सभी के शेष में |
8. अफ्रीका
उद्भ्रांत उस आदिम युग में
जब स्रष्टा ने
स्वयं से होकर असंतुष्ट
किया था विध्वस्त
नूतन सृष्टि को बारम्बार,
अधैर्य होकर बार-बार
अपना सर हिलाने के उन दिनों में
रुद्र समुद्र के
बाहू
प्राची धरित्री
के सीने से
छीनकर ले गए
तुम्हें, अफ्रीका,
बाँधा तुम्हें
वनस्पतियों के निविड़ पहरे में
कृपण आलोक के
अन्तःपुर में।
वहाँ तुमने निभृत
अवकाश पर
किया संग्रह दुर्गम के रहस्यों को,
पहचान रहे थे तुम
जल, स्थल और आकाश के दुर्बोध संकेतों को,
प्रकृति का
दृष्टि-अतीत जादू
जगा रहा था मंत्र तुम्हारी चेतनातीत मन में ।
विद्रूप कर रहा
था भीषण को
विरूप के छद्मवेश
में,
चाह रहा था शंका
से हार मनवा लेना
स्वयं को कर उग्र
विभीषिका की प्रचण्ड महिमा में
तांडव के
दुन्दुभिनाद में ।
हाय छायावृता,
काले घूंघट के
पीछे
अपरिचित था
तुम्हारा मानवरूप
उपेक्षा की आबिल
दृष्टि में।
वे आए लोहे की हथकड़ी
लेकर
जिनके नाखून
भेड़ियों से भी हैं तेज,
आए लोगों कों
गिरफ्तार करनेवाले दल
गर्व से जो हैं
अंधे तुम्हारी बिना सूर्य की रौशनी वाले अरण्य से अधिक।
सभ्यों के बर्बर
लोभ ने
नग्न की अपनी
निर्लज्ज अमानवीयता ।
तुम्हारी भाषाहीन
क्रंदन के वाष्पाकुल अरण्य पथ पर
पंकिल हुई धूल
तुम्हारे रक्त और अश्रु में मिल;
बड़े पाँव वाले
कँटीले जूतों के नीचे
वीभत्स कीचड़ पिण्ड
चिरचिन्ह लगा गए
तुम्हारे अपमानित इतिहास में ।
समुद्र तट पर उसी
मुहूर्त उनके हर मोहल्ले के
गिरजाघरों में बज
रहा था प्रार्थना का घड़ियाल
सुबह- शाम, दयामय देवता के नाम पर;
शिशु खेल रहे थे
माँ की गोद में;
कवि के संगीत से
गुंजायमान थी
सुंदरता की
आराधना |
आज जब
पश्चिम-दिगंत में
प्रदोष काल के
झंझा बतास से है रुद्ध श्वास ,
जब बाहर निकल आए
पशु गुप्त गुफा से,
अशुभ ध्वनि के
साथ करता है घोषणा दिन का अंतिम काल,
आओ, युगांतकारी कवियों,
आसन्न संध्या की
शेष रश्मिपात में
खड़े हो जाओ उस
सम्मान खो चुकी मानवी के द्वार पर,
कहो "क्षमा
कीजिए" -
हिंस्र प्रलाप के
मध्य
वही हो तुम्हारी
सभ्यता की शेष पुण्यवाणी ।
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1. হার-জিত
ভিমরুলে মৌমাছিতে হল রেষারেষি,
দুজনায় মহাতর্ক শক্তি কার বেশি।
ভিমরুল কহে, আছে সহস্র প্রমাণ
তোমার দংশন নহে আমার সমান।
মধুকর নিরুত্তর ছলছল-আঁখি—
বনদেবী কহে তারে কানে কানে ডাকি,
কেন বাছা, নতশির! এ কথা নিশ্চিত
বিষে তুমি হার মানো, মধুতে যে জিত।
2.উদারচরিতানাম্
প্রাচীরের ছিদ্রে এক নামগোত্রহীন
ফুটিয়াছে ছোটো ফুল অতিশয় দীন।
ধিক্ ধিক্ করে তারে কাননে সবাই—
সূর্য উঠি বলে তারে, ভালো আছ ভাই?
3. ভক্তি ও অতিভক্তি
ভক্তি আসে রিক্তহস্ত প্রসন্নবদন—
অতিভক্তি বলে, দেখি কী পাইলে ধন।
ভক্তি কয়, মনে পাই, না পারি দেখাতে।—
অতিভক্তি কয়, আমি পাই হাতে হাতে।
4. জীবন যখন শুকায়ে যায়
- রবীন্দ্রনাথ ঠাকুর---গীতাঞ্জলি
জীবন যখন শুকায়ে যায়
করুণাধারায় এসো।
সকল মাধুরী লুকায়ে যায়,
গীতসুধারসে এসো।
কর্ম যখন প্রবল-আকার
গরজি উঠিয়া ঢাকে চারি ধার,
হৃদয়প্রান্তে হে নীরব নাথ,
শান্তচরণে এসো।
আপনারে যবে করিয়া কৃপণ
কোণে পড়ে থাকে দীনহীন মন,
দুয়ার খুলিয়া হে উদার নাথ,
রাজ-সমারোহে এসো।
বাসনা যখন বিপুল ধুলায়
অন্ধ করিয়া অবোধে ভুলায়
ওহে পবিত্র, ওহে অনিদ্র,
রুদ্র আলোকে এসো।
5. আমার মাথা নত করে দাও হে তোমার
- রবীন্দ্রনাথ ঠাকুর---গীতাঞ্জলি
আমার মাথা নত করে দাও হে তোমার
চরণধুলার তলে ।
সকল অহংকার হে আমার
ডুবাও চোখের জলে ।
নিজেরে করিতে গৌরব দান
নিজেরে কেবলই করি অপমান,
আপনারে শুধু ঘেরিয়া ঘেরিয়া
ঘুরে মরি পলে পলে ।
সকল অহংকার হে আমার
ডুবাও চোখের জলে ।
আমারে না যেন করি প্রচার
আমার আপন কাজে ;
তোমারি ইচ্ছা করো হে পূর্ণ
আমার জীবন-মাঝে ।
যাচি হে তোমার চরম শান্তি
পরানে তোমার পরম কান্তি
আমারে আড়াল করিয়া দাঁড়াও
হৃদয়পদ্মদলে ।
সকল অহংকার হে আমার
ডুবাও চোখের জলে ।
6. অন্তর মম বিকশিত করো
- রবীন্দ্রনাথ ঠাকুর---গীতাঞ্জলি
অন্তর মম বিকশিত করো
অন্তরতর হে।
নির্মল করো, উজ্জ্বল করো,
সুন্দর কর হে।
জাগ্রত করো, উদ্যত করো,
নির্ভয় করো হে।
মঙ্গল করো, নরলস নিঃসংশয় করো হে।
অন্তর মম বিকশিত করো,
অন্তরতর হে।
যুক্ত করো হে সবার সঙ্গে,
মুক্ত করো হে বন্ধ,
সঞ্চার করো সকল মর্মে
শান্ত তোমার ছন্দ।
চরণপদ্মে মম চিত নিঃস্পন্দিত করো হে,
নন্দিত করো, নন্দিত করো,
নন্দিত করো হে।
অন্তর মম বিকশিত করো
অন্তরতর হে।