Friday, August 21, 2020

तुम्हारे साथ

 ---------------------------------------------

तुम्हारे साथ स्वर्ग नहीं जाऊँगी प्रिय  

मुझे पुकारती है नीलगिरी की पहाड़ियाँ

दिन रात आमंत्रित करती है बंगाल की खाड़ी

पुकारता है महाबलीपुरम का मायावी बाज़ार

नंदमबाक्क्म के आम के बागान में दावत उड़ाते पंछी

पुकारता है संयोग, पुकारता है अभियोग

कि लौटने की समस्त तिथियाँ मिट गई हैं पञ्चांग से

पुकारता है प्रेम, पुकारता है ऋण

पुकारता है असमंजस, पुकारता है रुका हुआ समय


जहाँ पुकार रही हैं मुझे असंख्य कविताएँ

मैं हो विमुख उनसे चल पडूँ तुम्हारे साथ!

नहीं कर सकती ऐसा अधर्म, ऐसा पाप!


प्रिय, तुम निकल पड़ो किसी यात्रा पर 

लिखो अपने पसंद की कविताएँ होकर दुविधामुक्त

देखना मैं मिलूंगी तुम्हें उन कविताओं में अक्षरशः

मैं नष्ट स्त्री हूँ, मुझे स्वर्ग की नहीं तनिक भी चाह !


पंचतत्व

 ----------------------------------------------------

बनकर स्रष्टा करना सृष्टि अहर्निश प्रेम की 

दफ़न करना अपनी जमीं पर सीने भर आशा 

कि अपने आप में पूरी पृथ्वी हो तुम 

जिसकी परिक्रमा करेंगे कई कई चाँद 

जो पोषित कर सकती है कई कई जीवन 


वृष्टि के जल को भर कलशी में 

पकाना दाल, धोना कपड़े 

बन मेघ भले पी जाना भवसागर  

आँखों का पानी बचा रहे 

बस इतना सा यत्न करना 


चूल्हे की आग में पकाना भंटा बैंगन

खाना पांता संग, मत करने देना शमन 

किसी को अपने भीतर की अग्नि का 

कि आत्मा में भर कर अंधेरा

नहीं लाया जा सकता उजाला जीवन में  


संसर्ग ही करना हो तो रहे ध्यान 

कि भले ही कर ले स्पर्श कोई शरीर का 

परन्तु तुम्हारे तुम को किंचित छू भी न सके 

न करना उत्सर्ग अपना असीम किसी को 

कि जमता रहे वहाँ संभावनाओं का मेघ 


बन चैत्र की आँधी घूमना माताल की तरह 

पर साधे रहना ताल जीवन का 

प्रेमशुन्य धरा पर लौटना बार-बार अनेक रूपों में 

बन कर प्रशांति की अविरल धारा 

क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा