Sunday, September 27, 2015

माया

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1.
वह गयी बाजार लेने सौदा
और ले आई एक झोला दुःख
पाव भर अवसाद
एक कनमा तिरस्कार के साथ
कई किलो बेबसी
कि कुछ दुःख बाजारू थे 

2.
फूलों की तरह रंगीन था उसका दुःख
उसकी आँखों में था दुःख रक्त जवा का
जमा था सीने में नीला अवसाद अपराजिता का
दहक रहा था उसके अंतस में तिरस्कार का पलाश
बेबसी महक रही थी हर पल बन रजनीगंधा
जबकि कुछ भी नहीं था सुन्दर उसके जीवन में फूलों जैसा


3.
उसने ख़ारिज किए दुनिया के तमाम रंग औ' बाजार
और जा बैठी रूखे बाल लिए जिंदा ही अंतिम स्थान पर
जलती चिता पर उसके अट्टहास ने धरा मायावी रूप
माया से हुए लोग आकर्षित, चर्चा हुई उसकी दिव्यता की 
भरने लगी उसकी झोली सस्ते और मँहगे चढ़ावों से
कि माया के बाजार से बड़ा कोई बाजार नहीं होता


सुख के रंगीन बाजार में भटकती है अदृश्य माया!!!

-------सुलोचना वर्मा------------

Saturday, September 19, 2015

चीनी का पराठा

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पकड़ लेते हैं बच्चे माँ का आँचल
देखकर तवे पर पकता चीनी का पराठा
थमाती है माँ पराठा जो होता है कड़क
माँ की नयी ताँत की साड़ी की तरह


चमक उठती है बच्चों की आँखों में
अखण्ड ज्योति की शोभा यात्रा

एक-एक रवा मीठी मुस्कान देकर माँ
करती रहती है किसी किसान की तरह
प्रत्यारोपित प्रेम परिवार के बेहड़उर में


--------सुलोचना वर्मा -------------

Friday, September 11, 2015

उन दिनों-२ (पिता के लिए)

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पड़ जाते थे बल पिता की पेशानी पर उन दिनों
सोचते हुए हमारे उज्जवल भविष्य के विषय में 
पर हम नहीं देख पाते थे चिन्ता उन रेखाओं में
और करते थे याद मानचित्र पर बनी कर्क रेखा को


उन दिनों हमारी समस्त चिन्तायें करती थी वास 
पृथ्वी की उत्तरतम काल्पनिक अक्षांश रेखा पर
जिसपर चमकता है सूर्य लम्बवत दोपहर के समय
तब आकाश के चाँद से लेकर परियों के देश तक
भौगोलिक हुआ करती थीं हमारी तमाम समस्यायें


पिता के मेहनत से जमा हुई सिक्कों की रेजगारी
तो हमारे रंगीन सपनों में उग आये ऊँचे पहाड़
वह दूरदृष्टि ही थी किसी उपत्यका में बसे पिता की
कि हम लाँघ सके चुनौतियों की कई पर्वत श्रृखला


अब, जबकि समय बह गया है पानी की तरह
सोच रही हूँ इस जीवन के डमरुमध्य में खड़ी मैं
पिता ने जोड़े थे परिश्रम की दोमट मिट्टी के कण
तब जाकर कहीं उर्वरा हुई हमारी जीवन की जमीन


याद नहीं रहता मुझे कोई भी मानचित्र आजकल
जब भी देखती हूँ अब, मुझे पिता ब्रह्माण्ड लगते हैं|


-------सुलोचना वर्मा---------

हवा का रुख बदल रहा है

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हवा का रुख बदल रहा है!
बता गये लौटते हुये ओखला विहार के प्रवासी पक्षी
हरे-भरे पेड़, जो काटे गये रोजगार के नाम पर
काटे जाने से पहले बता गये कि रुख बदल रहा है!
कह गयी पुरवैया चुपके-चुपके से कानों में
कि देखो- हवा का रुख बदल रहा है!
सुबह और शाम निरन्तर बढ़ती धुएं की मोटी परत
जो कि हासिल है विकास की, चिढ़ा कर कहती है
बदल रहा है! बदल रहा है!
हवा का रुख बदल रहा है!

खेतों में लगा प्याज कह रहा है टमाटर से
बदल रहा है! हवा का रुख बदल रहा है!
हरे खेतों पर उग आये कंक्रीट के जंगल
कब से बता रहे हैं  --- बदल रहा है!
धुंधलाता तारा, बाउल का इकतारा 
सभी तो कह रहे हैं  --- बदल रहा है!
बदल रहा है! बदल रहा है!
हवा का रुख बदल रहा है!

गँवायी जिन्होंने जमीन भूमि अधिग्रहण में
बसी रही गरीबी जिनके घर के हर कण में
उन्हें तो पता है --- बदल रहा है!
चाय बगान के दरवाजों पर लटकते ताले
खाने को नहीं जिनके सूखी रोटी के निवाले
उन्हें तो पता ही है --- बदल रहा है!
बदल रहा है! बदल रहा है!
हवा का रुख बदल रहा है!

पत्रिकाओं में कवि और अखबार की छवि
सभी बता रहे हैं  --- बदल रहा है!
इस दौर का खुलूस, सड़कों का जुलूस
बता रहा है  --- बदल रहा है!
विचार अक्षुण्ण, बुद्धिजीवी का खून
कह रहा है --- बदल रहा है!
बदल रहा है! बदल रहा है!
हवा का रुख बदल रहा है!

-------सुलोचना वर्मा------------

Wednesday, September 9, 2015

आखिरी संवाद

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उस आखिरी संवाद में उसने खर्चे 
शब्दकोष के सबसे सधे हुए शब्द
की प्रेम की सबसे सुन्दर व्याख्या
सम्बन्ध को कहा प्रकृति का प्रारब्ध


खर्चे हुए शब्दों में थी गरमाहट
डेगची से निकलती भाप जितनी
प्रेम की व्याख्या में थी मादक गंध
होती है जैसी हिरण की कस्तूरी में 


सम्बन्ध को रखा उसने वक़्त के सरौते पर
कसैला ही निकलना था झूठ की कसैली को
देखा गया है ऐसा युगों से कि होता है अक्सर

विश्वासघात का प्रारब्ध ही सच्चे प्रेम की नियति

-----सुलोचना वर्मा------