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१.
सन २००३ में बहुराष्ट्रीय कम्पनी क्वार्क में
हमारे बॉस रहे अतुल गुप्ता ने कहा था "जब भी किसी से कुछ सीखना हो, तो स्पंज बन
जाना"। बात गहरी थी, सो मन में गाँठ बाँध ली| फिर एकबार दफ्तर में रंग
को बतौर विषय पढ़ाते हुए प्रोफेसर राव ने कहा था "आल मेन आर कलर ब्लाइंड (सभी
पुरुष वर्णान्ध होते हैं )"| बड़ा अटपटा लगा था क्योंकि हमने तो जीव विज्ञान में वर्णान्धता को एक रोग की
तरह पढ़ा था। पूछने पर उन्होंने बताया कि किसी भी रंग को उसकी सम्पूर्णता में
स्त्रियाँ ही देख पाती हैं। उदाहरण के तौर पर उन्होंने बताया कि जिस लाल रंग को एक
स्त्री ९८ से १०० प्रतिशत वाला लाल देखती है, एक पुरुष उसे शायद ८० से ९० प्रतिशत तक ही लाल
देख पाता है। प्रतिशत ऊपर या नीचे हो सकता है। उस दिन पता चला कि जानने के लिए
कितना कुछ है दुनिया में और किसी के बारे में बिना जाने राय कायम करना कितना बेकार
काम है। दुनिया हमारी जानकारी और सोच के आगे भी है। अलग-अलग दफ्तरों में काम करते
हुए हमें जीवन के ऐसे रंग दिखे, जिन्हें देखने के लिए केवल आँखों का होना काफी नहीं था, एक अलग नजरिए की जरुरत थी|
कुछ समय पहले दफ्तर में एक इंजीनियर स्पीकर पर
बादशाह के गाने सुन रहा था | थोड़ी देर तक झेलने के बाद मुझसे न रहा गया और मैंने उससे कहा "कोई
अंग्रेजी गाना लगा दो,
भजन लगा दो, ठुमरी ही लगा
दो, पर बादशाह को
घर जाकर ही सुनना|
हमारा दिन मत ख़राब करो| अभी उसने बहस ही छेड़ा था कि बादशाह के गाने मे क्या खराबी है, मेरा फोन बज उठा और मैं
फोन रिसीव करने कमरे से बाहर चली गयी| जब वापस लौटी, तो आशा भोंसले का गीत बज
रहा था| मुझे उस
इंजीनियर ने कहा "अब तो आप खुश होंगी | ठुमरी चला दी मैंने"
मैंने कहा "यह ठुमरी नहीं, साधारण फ़िल्मी गीत है| तुम्हे पता है इस गीत को
माला सिन्हा पर फिल्माया गया था "
उसने कहा "इतना ठुमक-ठुमक कर गा तो रही है, अब ठुमरी और कैसा
होगा"
अभी हँसते हँसते लोटपोट हुई जा रही थी कि पास
बैठा दूसरा सॉफ्टवेयर इंजीनियर पूछ बैठा "ये वही माला सिन्हा हैं न जिन्हे
लोग वैजयंती माला के नाम से भी जानते हैं?"
हँसते हँसते पेट में दर्द हो गया | मनीष और इम्तियाज़ को कभी
नहीं भूलूँगी| उन दोनों ने
मुझे तब हँसाया जब मुस्कुराने के लिए भी प्रयत्न करना पड़ रहा था| ठीक उस वक़्त नहीं कह पायी
थी; पर अब जब भी वह
घटना याद आती है,
तो दिल से कहती हूँ- शुक्रिया !!
मुझे उन दोनों के भोलेपन पर खूब रश्क हुआ |
२.
मेरा मानना है कि सुविधा संपन्न लोगों के लिए
अनभिज्ञता विलासिता है| सुखी रहने का सार भी शायद इसी में निहित है| कुछ महीनों पहले मेरी एक सहेली ने पूछा था
"ये जीमेल क्या होता है?" उसकी अनभिज्ञता पर रश्क हुआ था|
कुछ समय पहले मैंने दफ्तर की एक लड़की से पूछा
"तुम्हारी हॉबी क्या है?"
जबाब मिला "ऑनलाइन शॉपिंग"
मैंने कहा कि यह तो आज की तारीख में हम सभी
कमोबेश करते ही हैं|
फिर मैंने उसे उदाहरण देते हुए पूछा "मान लो दफ्तर में छुट्टी है और घर
पर भी अकेली हो और इन्टरनेट डाउन है, क्या करोगी"
जबाब मिला "ऑफ़लाइन शॉपिंग"
मुझे हँसी भी आई और उस पर प्यार भी | रश्क भी हुआ कि उसने सिलाई, गाने, लिखने-पढ़ने, घर सजाने जैसा कोई काम शौक
में शुमार नहीं किया|
दिल्ली में रहते हुए एक साल हुआ है और उसे सिर्फ कनाट प्लेस और मयूर विहार पता
है| अगले महीने
नॉएडा शिफ्ट करेगी|
मैंने पूछा "किस सेक्टर में"
जवाब मिला "मेरे पति को पता है| उन्होंने देखा है| उन्होंने तो किसी मूवर्स
और पैकर्स वाले से भी बात कर ली है"
"अच्छा किया, कौन सा मूवर्स और पैकर्स?"
"मेरे पति को पता है|"
मैंने आगे उससे कुछ नहीं पुछा| पूरे यकीन के साथ कह सकती
हूँ कि उसे सीरिया या फिलिस्तीन समस्या के बारे में भी कुछ पता नहीं होगा| उसे न तो बस्तर में
आदिवासियों के साथ हो रही घटनाओं से कुछ लेना देना है और न ही कुपवाड़ा में मारे गए
सैनिकों से | उसे तो यह भी
पता न होगा कि एमसीडी चुनाव में क्या हुआ| ऑनलाइन शॉपिंग किया और खुश हो लिए | कनाट प्लेस गए, खादी से कुर्ता खरीदा और
खुश हो लिए | उसके दुखों में
शुमार है कमरे के एसी का ठीक से काम न करना या ठण्डे पेयजल का उपलब्ध न होना |
उससे बस रश्क हुआ जाता है| हम भी तो उसकी तरह अपनी एक दुनिया बना सकते थे जहाँ देश-विदेश और समाज के गम
सेंध नहीं लगा पाते |
अपनी खुशियाँ और अपने गम हम परिभाषित करते| हमसे हो न सका और अब हम कर ही क्या सकते हैं
सिवाय रश्क करने के |
३.
ठीक जिस रोज़ आपकी तबियत नासाज हो और आप दफ्तर से
छुट्टी लेने के बजाय "वर्क फ्रॉम होम" का विकल्प चुनें कि सप्ताह भर
पहले से ही किसी विदेशी कस्टमर के साथ आपका और आपकी टीम का स्काइप कॉल निर्धारित
था, ठीक तभी आपके
ऊपर वाले फ्लैट में किसी को दीवार पर ड्रिल मशीन चलाने की जरुरत आन पड़ती है, ठीक तभी सोसाइटी का माली
भी घास तराशने की मशीन लेकर घास काटने आ पहुँचता है, ठीक तभी पड़ोस के किसी घर में किसी बच्चे को रोना
होता है, ठीक तभी किसी
को उस बंद फ्लैट के दरवाजे पर लगातार दस्तक देना होता है, जिसके कालिंग बेल पर बजता हो "जय जगदीश हरे
!"
ऐसा हादसा तो अंकल पोजर के साथ भी न हुआ होगा !!
ऐसे में आपको उन तमाम सुविधा संपन्न लोगों से रश्क हुआ जाता है जिन्हें नौकरी करने
की जरुरत नहीं या फिर जो अपनी तमाम सुविधाओं के लिए दूसरों पर आश्रित हैं और चैन
की जिंदगी बसर कर रहें हैं|
४ .
खबर यह है कि सॉफ्टवेयर कंपनी इंफोसिस ने सन
२०१६ और २०१७ के बीच लगभग आठ से नौ हजार
कर्मचारियों को कार्यमुक्त किया है। ये कर्मचारी ऑटोमेशन के चलते कार्यमुक्त किए
गए हैं। ऑटोमेशन के चलते जॉब कम हो रही हैं जिससे लोगों को निकाला जा रहा है।
अमेरिका में चुनाव जीतने के बाद ट्रम्प महोदय ने
अपना चुनावी वादा निभाया और अमेरिका में अब भारत से जाने वाले सॉफ्टवेयर
इंजिनियरों की संख्या में काफी कमी आ गयी । कुल मिलाकर यहाँ बेरोजगारी और बढ़ गयी।
ठीक ऐन वक़्त पर किसी सुबह समाचार पत्र में पढ़ने
को मिला कि हाई स्कूल ड्रॉपआउट धर्मपाल गुलाटी (जी हाँ, एमडीएच मसालों वाले) एफएमसीजी सेक्टर के हाईएस्ट
पेड सीईओ हैं।
स्कूल के दिनों में हमने शास्त्रीय संगीत सीखा
कि जीवन में लय बना रहे। कॉलेज के दिनों में हमनें वनस्पति विज्ञान पढ़ा कि हरियाली
बची रहे जीवन में। फिर क्या, एक दिन संगीत के किसी अनुष्ठान में दूसरा पुरस्कार मिला जिसे स्पॉन्सर किया था
किसी कंप्यूटर इंस्टिट्यूट ने। कंप्यूटर के प्रेम में ऐसी पड़ी कि आगे की सभी पढ़ाई
अलग-अलग संस्थानों से आईटी में ही किया। पिछले कुछ वर्षों में हमने भी ऑटोमेशन के
कई सारे प्रोजेक्ट डिलीवर किए। अब लग रहा है कि हमने तो कुल्हाड़ी पर ही पाँव रख
दिया।
माँ बेहद लज़ीज खाना बनाती हैं। उन्होंने बहुत
कोशिश की कि मैं भी उनकी तरह पाककला में दक्ष हो जाऊँ, पर मैं उन दिनों मुँह में मुलेठी दबाये जीवन में
लय और लय में मिठास ढूँढ रही थी। मसालों से ही नहीं किचन से भी दूर रही। अब जब जिंदगी
मसालेदार खबरों से हमारा सामना करवा रही है, तो स्वाद तीखा ही लगेगा न!!! काश कि हमने मसालों की चिंता की होती !! रश्क
तो होना ही था !
५.
कुछ समय पहले जब मैंने ऑटोमेशन का ज़िक्र करते
हुए लिखा था कि किस प्रकार ऑटोमेशन के चलते इनफ़ोसिस के आठ से नौ हजार लोग कार्यमुक्त हो गए और किस प्रकार हमने खुद
कुल्हाड़ी पर पाँव रख दिया, तो कुछ लोगों ने आईटी क्षेत्र से होने
के नाते हमारे प्रति संवेदना व्यक्त की और कुछ चिंतित हुए। कुछ लोग शायद यह सोचकर
मुस्कुराये भी कि यह शायद आईटी से ही जुड़ा मसला हो और हमें हमारे कर्म के अनुसार
फल मिला हो। यह ऑटोमेशन सिर्फ आईटी के लिए ही चिंताजनक है, ऐसी बात नहीं है। साल २०१८ में, गूगल और टेस्ला दोनों
कम्पनियाँ ड्राईवर-लेस (चालक विहीन) कार सड़कों पर उतारने का मन बनाया। इन कारों पर
वर्ष २००९ से काम चल रहा है और कई बार सफल परीक्षण भी हो चूका है। यक़ीनन कोई भी
बदलाव वक़्त की माँग करता है, पर शायद किसी ड्राईवर के लिए यह अच्छी खबर नहीं है।
सात जनवरी २०१७ को फ़ोर्ब्स में प्रकाशित खबर के
मुताबिक चीन में एक रोबोट ने तीन सौ अक्षरों का एक आलेख एक सेकण्ड में लिख डाला।
इस आलेख के आँकड़े पत्रकारों के द्वारा उसी विषय पर लिखे आलेख के आँकड़ों से ज्यादा
सटीक थे। रोबोट पत्रकारिता सिर्फ पत्रकारों की आशंकित बेरोजगारी से जुड़ा मुद्दा भर
नहीं है। कंप्यूटर हो या रोबोट, लॉजिक से चलते हैं। जैसा लॉजिक भरा जाएगा, वैसा काम करेगा।मुझे लगता है एकदिन धरती पर
रोबोट राज होगा और हम इंसान उनकी गुलामी करेंगे। बात सिर्फ मशीनों पर निर्भरता की
ही नहीं है, जानकारियाँ अब
सीमित की जा रही हैं|
सभी को जल्दी है और इस जल्दबाजी में पिछड़ते चले जा रहे हैं| वह समय दूर नहीं जब मुझे
बतौर मनुष्य रोबोट से रश्क होगा !