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तोड़कर धरती की गहरी नींद
जग उठता है मिटटी का चूल्हा
अदृश्य सीढ़ियों से उतर आती है भूख
किसी हवन कुण्ड सा दिखता है चूल्हा
भूखे साधक को, पेट भरने के अनुष्ठान में
साधना को भंग करती है तृप्ति
चूल्हा ध्यानमग्न हो जाता है धरती की साधना में
बीत गया एक अरसा, बीते हुए मिट्टी को चूल्हे से
कितने साधक आए, की साधना और चले गये
गुम हो गये, लौटकर भूख के अतृप्त प्रदेश में
बनकर साक्षी देखता रहा समय का पैगंबर
नहीं जगाता अब किसी को भी नींद से मिट्टी का चूल्हा
कि धरती को अब नींद ही कहाँ है आती
भूख है कि अदृश्य सीढ़ियों से फिर भी उतर आती है!
----सुलोचना वर्मा--------
तोड़कर धरती की गहरी नींद
जग उठता है मिटटी का चूल्हा
अदृश्य सीढ़ियों से उतर आती है भूख
किसी हवन कुण्ड सा दिखता है चूल्हा
भूखे साधक को, पेट भरने के अनुष्ठान में
साधना को भंग करती है तृप्ति
चूल्हा ध्यानमग्न हो जाता है धरती की साधना में
बीत गया एक अरसा, बीते हुए मिट्टी को चूल्हे से
कितने साधक आए, की साधना और चले गये
गुम हो गये, लौटकर भूख के अतृप्त प्रदेश में
बनकर साक्षी देखता रहा समय का पैगंबर
नहीं जगाता अब किसी को भी नींद से मिट्टी का चूल्हा
कि धरती को अब नींद ही कहाँ है आती
भूख है कि अदृश्य सीढ़ियों से फिर भी उतर आती है!
----सुलोचना वर्मा--------