Saturday, October 31, 2015

भूख-2

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तोड़कर धरती की गहरी नींद
जग उठता है मिटटी का चूल्हा
अदृश्य सीढ़ियों से उतर आती है भूख


किसी हवन कुण्ड सा दिखता है चूल्हा
भूखे साधक को, पेट भरने के अनुष्ठान में
साधना को भंग करती है तृप्ति
चूल्हा ध्यानमग्न हो जाता है धरती की साधना में


बीत गया एक अरसा, बीते हुए मिट्टी को चूल्‍हे से
कितने साधक आए, की साधना और चले गये
गुम हो गये, लौटकर भूख के अतृप्त प्रदेश में
बनकर साक्षी देखता रहा समय का पैगंबर


नहीं जगाता अब किसी को भी नींद से मिट्टी का चूल्हा
कि धरती को अब नींद ही कहाँ है आती
भूख है कि अदृश्य सीढ़ियों से फिर भी उतर आती है!


----सुलोचना  वर्मा--------

प्रश्न

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कितनी करवटों से बनती है एक रात
कितनी लम्बी रात से तय होती है दूरी 
समझ सकते हो?


कितने बड़े अपराध से उपजता है भय
कितने बड़े भय से छूट जाता है साथ
बता सकते हो क्या ?


कितनी लम्बी बातों में हो जाता है प्रेम
कितने गहरे प्रेम में छूट जाता है संसार
जो करते प्रेम , तो बता पाते!


कितने बड़े दुःखों से जन्म लेता है अवसाद
कितने भीषण अवसाद में ख़त्म होते हैं हम
प्रतिपल, निःशब्द


कितनी उपेक्षा से मरता है कोई सम्बन्ध
कितने सम्बन्ध हैं अपेक्षाकृत महत्वपूर्ण
समझ पाये हो ?


कितनी दुश्चिंताओं में ढूँढा जा सकता है तुम्हें
कितने ढूँढें जाने पर मिल सकते हो तुम
हो सके तो बताना, प्रतीक्षा रहेगी


कब तक इतने प्रकाश वर्ष रहूँगी मैं प्रतीक्षारत ?

----सुलोचना  वर्मा--------

Monday, October 12, 2015

आकार

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सब जानते हैं  
कि वह नही बेल पाती
चाँद सी गोल रोटियाँ
और ना ही बेल पाती है
समभुज त्रिकोण वाले पराठे


पर वह भरती है पेट कुछ लोगों का
लाकर चावल, आंटे, नमक और घी
साथ ही लाती और भी कई ज़रूरी सामान
जो होने चाहिए किसी रसोई में

है शुद्ध कलात्मक क्रिया
पेट भर पाना, अपना और औरों का
कि जहाँ पेट हों भरे ,
लोग निहार सकते हैं चाँद को घंटों
और कर सकते हैं चर्चा उसकी गोलाई की


भरा पेट देता है दृष्टिकोण
कि आप देख पाएँ
बराबर है त्रिभुज का हर कोण


सामान्य है ना बेल पाना
रोटियों और पराठों का
कमाकर लाना भी सामान्य ही है


असामान्य है समाज का स्वीकार लेना
एक ऐसी स्त्री को, जो सभी का पेट भरते हुए
नही बेल पाती है सही आकार की रोटी और पराठे 


रसोई के बाहर अमीबा नज़र आती है स्त्री

-----सुलोचना वर्मा-------

Sunday, October 4, 2015

मैं बुद्ध हुई जाती हूँ

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मेरे दिशाहीन सपने
ढूंढ़ते हैं आवारा रातों में
झड़े हुए हरश्रृंगार के कुछ फूल
बिजली की तार पर बैठा नीलकंठ
या नील नदी की लुप्त कोई एक धारा


जैसे लिख जाना चाहते हों समय के पन्नों पर
कुछ सुन्दर महकते यादगार बेशकीमती लम्हें
जैसे उकेर रहे हों कैनवास पर मुक्ति को आतुर आत्मा
और शायद थोड़ा शोक पतझड़ में पेड़ से गिरे किसी पत्ते का


आह! मैं बुद्ध हुई जाती हूँ आवारा रातों में सपनों के बोधिवृक्ष तले

-------सुलोचना वर्मा-----------

मुझे होना था

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मुझे होना था किसी चट्टान की तरह
कि तोड़ पाती तुम्हारे दर्प के आईने को
और तुम देख पाते अपना खण्डित प्रतिबिम्ब
काँच के हर टुकड़े में अपनी ही आँखों से
फिर कहते मन ही मन उठाते हुए कोई टुकड़ा 
ओह! तो ये मेरे पाप का उनहत्तरवाँ  हिस्सा है!!


हो सकती थी मैं कोई ऐसी शक्तिशाली लहर
जो बहा ले जाती तुम्हारे भय की जलकुम्भी को
और सौंप आती उसे समयपुरुष के पास
कि तुम जान पाते नहीं होता है कठिन इतना भी

वैतरणी पार करना और मुक्त हो जाना दुविधा से
फिर तुम कहते- ओह! तो मैं कैद था अब तक!!


समय के आईने में देखा कि तुम्हारा दर्प पहाड़ था
तुम्हारे भय के समंदर में मैं बह गयी बन जलकुम्भी
समयपुरुष मुझे सौंप आया, मेरे सामने संसार था


सुनो! मुझे प्रेम का बिरवा बोना था, हाँ मुझे होना था!!!

------सुलोचना वर्मा------

दीवाली बोनस

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लौटते हुए फैक्ट्री से घर को इक शाम
बाँध लिया रुमाल में सरफुद्दीन मियाँ ने
एक कतरा चाँद की नवजात रौशनी का
कि नहीं दिया मालिक ने इसबार कुछ भी


घर गए, रखकर रुमाल बेटी के सर पर कहा -
तुम्हारे चेहरे के नूर से ही रौशन है ये जिंदगी
कौन दे पाता इससे बड़ी कोई दीवाली बोनस


घर में जला संतोष का दीया

----सुलोचना वर्मा--------