Saturday, July 23, 2016

शकुन्तला की डायरी

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वह सुबह उमस भरी थी; परन्तु शाम ठण्डी बयार लेकर आयी थी| मलय किसी बिजनेस मीटिंग के लिए श्रीलंका गए हुए थे और घर में सन्नाटा पसरा हुआ था |  मैं हाथ में मोबाईल फोन लिए बालकनी में खड़ी शकुन्तला के फोन का इंतजार कर रही थी| घर के अंदर नेटवर्क नहीं मिलता था| बहुत दिनों के बाद ऐसा एकांत मिला था और मुझे शकुन्तला के अकेलेपन का भी अंदाजा था; इसलिए उसे दो दिनों के लिए अपने घर पर ही बुला लिया| मैं और शकुन्तला उन दिनों एक ही दफ्तर में काम करते थे और बहुत ही कम समय में हमारी दोस्ती गहरी हो गयी थी| इतनी गहरी दोस्ती कि हमारा कोई भी राज एक-दुसरे से छुपा न था|

शकुन्तला को शाम के सात बजे आना था, पर उसे आते हुए देर हो गयी और वह रात के नौ बजे मेरे घर पहुँची| वह पहली बार मेरे घर आयी थी| आते ही उसे पहले अपना घर दिखाया, फिर खाना बाहर के रेस्त्रां से आर्डर कर हम बातें करने लगे| हमारे पास एक-दुसरे से कहने-सुनने को इतना कुछ था कि डेढ़ घन्टे कैसे बीत गए, पता ही न चला| दरवाजे पर दस्तक हुई, तो घड़ी की ओर देखा| रात के साढ़े दस बज चुके थे| खाना आ चूका था| मैंने शकुन्तला से कपड़े बदलने को कहा और मैं मेज पर खाना लगाने लगी| खाना लगाकर जब उसे बुलाने कमरे में गयी, तो देखा उसके बैग के पास एक डायरी पड़ी थी| पूछने पर उसने बताया कि जब उसे कुछ कहना होता है और सुनने के लिए कोई नहीं होता है, वह डायरी लिखने लगती है| मैंने मुस्कुराते हुए कहा था "आज मैं हूँ न| तुम्हें इसकी क्या जरुरत!"

"मुझे सच में आज इसकी जरुरत नहीं; पर तुम्हें बहुत कुछ जानना था न, इसीलिए..." कहते हुए शकुन्तला चुप हो गयी थी|

"अरे! सुनाने के लिए तुम साक्षात मौजूद हो! इसकी क्या जरुरत?" कहते हुए मैं उसका हाथ पकड़ खाने के मेज तक ले आयी थी|

"अपने दर्द को अपनी ज़ुबानी साझा करना हर बार उस दर्द से गुजरना होता है| आज मैं तुम्हारे साथ सिर्फ खुलकर हँसना चाहती हूँ" कहते हुए उसने खाने का पहला कौर मुँह में लिया था|

न जाने हमारे पिटारे में कितनी बातें थीं कि खाने के बाद भी आधी रात तक खत्म न हुईं|  दफ्तर में काम का ऐसा बोझ हुआ करता था कि बस काम की ही बातें हो पाती थीं| मेरे पास उससे साझा करने के लिए इतनी बातें थीं कि मैं कहती रही और वह सुनती रही| न जाने कब हमारी आँखें लगीं और कब सुबह हुई| अगली सुबह नींद तो तब खुली जब सुबह के साढ़े दस बजे मलय का फोन आया| मलय ने फोन पर बताया था कि उसका काम एक दिन पहले ही ख़त्म हो गया और वह रात तक घर पहुँच जाएगा| समझ ही नहीं आ रहा था कि मलय के जल्दी लौटने की खबर पाकर मैं खुश क्यूँ नहीं हो पायी थी| मलय से मैंने प्रेम विवाह किया था; पर जो बातें मैं अपने प्रेमी मलय से बेबाकी से कर सकती थी, वही बातें मैं अपने पति मलय से चाहकर भी नहीं कर पाती| शादी के बाद धीरे-धीरे वह परत-दर-परत उघड़ता ही चला गया था| मेरा अपना कोई वजूद भी  हो सकता है, यह बात वह हजम ही नहीं कर पाया था| ऐसे में एक शकुन्तला ही थी, जिसके पास मैं अपने दिल की हर बात कह सकती थी| उसके पास एक ऐसी दृष्टि थी, जो लोगों और परिस्थितियों को अपनी नजर से नहीं, बल्कि उन लोगों की जगह खुद को रखकर देख सकती थी| कुल मिलाकर खुले दिमाग और सुंदर मन की स्वामिनी थी मेरी शकुन्तला|

सुबह का नाश्ता करते हुए लगभग साढ़े ग्यारह बज चुके थे और हम दोनों मिलकर दिन के खाने की तैयारी में लग चुके थे| खाना बनाते हुए हमारी बातों का सिलसिला जारी था| मेरी बातें ख़त्म ही नहीं हो रहीं थी| शादी के बारह बरस बाद मेरे बचपन का प्यार मेरी जिंदगी में ढ़ेरों खुशियाँ और लड़कपन में साथ बिताए गए लम्हों की सोंधी महक लिए लौट आया था| मैं शकुन्तला को पुनर्वसु के बारे में बताती रही| मेरे भीतर उन सुन्दर यादों  का ऐसा सैलाब उमड़ पड़ा था जो बाहर आने को बेताब था| कहते हैं न खुशियाँ बाँटने से बढ़ती हैं; मैं भी शकुन्तला से अपनी बात साझा कर अपनी खुशियाँ बढ़ा रही थी| मैं अपनी खुशी साझा करने में इतनी लीन थी कि शकुन्तला के चेहरे पर रह-रहकर उभरते दर्द को उसकी खामोशी समझती रही| मैं जब भी बात करते और खाना बनाते हुए उसकी तरफ देखती, वह मुस्कुरा देती| मुझे उसकी आँखों में एक अजीब उदासी तैरती हुई दिख रही थी, पर मैं उसके कुछ कहने का इन्तजार कर रही थी| इसी बीच उसने सलाद काट लिया था और अपने और मेरे लिए कॉफ़ी भी बनाई थी|

कॉफ़ी की पहली चुस्की लेते हुए मैंने कहा था "कितनी स्ट्रोंग कॉफ़ी बनाई है, मुझे अब रात भर नींद नहीं आएगी"

"मैं ठीक यही चाहती हूँ| मेरे जाने के बाद तुम मुझे इसी बहाने याद तो करो" उसने मुस्कुराते हुए कहा था|

दिन का खाना खाते हुए लगभग दो बज गए थे| हम टीवी देखते हुए खाना खा रहे थे| टीवी पर अचानक खबर आयी कि मुहर्रम की जुलूस के दौरान बिजली के हाईटेंशन तार की चपेट में आने से एक युवक की मौत हो गयी और नौ लोग झुलस गए| घटना से नाराज़ लोगों ने जुलूस को बीच में ही रोक दिया और  बिजली विभाग के साथ-साथ प्रशासन पर लापरवाही का आरोप लगाते हुए सड़क को जाम कर दिया| शकुन्तला एकदम से घबरा गयी| यह उसके ही इलाके की घटना थी| वह घर लौट जाना चाह रही थी और मैं उसे ऐसे माहौल में नहीं जाने देना चाहती थी| हम बारी-बारी चैनल बदलकर समाचार पर नजर रख रहे थे| लगभग पाँच बजे खबर आयी कि पुलिसिया कार्यवाही के बाद स्थिति नियन्त्रण में थी| शकुन्तला बिना देर किए लौट गयी| जल्दबाजी में उसकी डायरी उसी कमरे में रह गयी|

अगले तीन महीनों में दफ्तर में और शकुन्तला की जिंदगी में कुछ ऐसी घटनाएँ घटीं कि शकुन्तला गहरे अवसाद में चली गयी और उसने नौकरी को भी अलविदा कह दिया| इसी बीच मैं अपने बीमार पिता को देखने कई बार मुम्बई गयी| पिछले एक महीने में मलय का बिजनेस के सिलसिले में कभी सिंगापूर तो कभी दुबई जाना हुआ| शकुन्तला से मिलना दुर्लभ होता रहा| मैं भी बुरी तरह दफ्तर के कामों में व्यस्त हो गयी थी| कुछ समय पहले छुट्टीवाले दिन मेहमानों का कमरा ठीक करते हुए शकुन्तला की डायरी पर नजर गयी| फ़रवरी का महीना दस्तक दे चूका था| आम की पत्तियों के बीच छिपी हुई कोयल ने उच्च स्वर में अपना कूक भरा तराना छेड़ दिया था। आम के मंजरियों की सुगन्ध से सवेरे की हवा भारी हो गई थी। ऐसा लगा जैसे शकुन्तला मुझे पुकार रही हो| मुझसे रहा न गया और मैंने बेतरतीबी से डायरी खोला|  

१.
 डायरी के तीसरे पन्ने पर शकुन्तला ने उसके लिए "किस्सागो" शब्द का इस्तेमाल किया है| पढ़कर पता चला कि यूँ तो वो खुद किसी कहानी से कम न था, पर आसपास घटित होती हर घटना के लिए उसके पास कोई न कोई कहानी जरूर होती| जब वह पहली बार शकुन्तला से  मिला, उसने पहले उसे अपने टूटे हुए प्रेम की कहानी सुनाई और फिर सुनने लगा उसकी छूटी हुई प्रेमगाथा|  प्रेम कई बार टूट जाता है तो कई बार छूट जाता है| वह बेहद उदास था कि उसका प्यार टूट गया था| शकुन्तला ने उसे बताया कि कैसे वह अपने छूटे हुए प्रेम को जी रही थी और प्रेमी की याद में अब भी आँखों में काजल लगा रही थी कि उसे पसंद रहे कजरारे नैन| इसी बात पर उसे कोई कहानी याद आ गई और वह कहानी सुनाने लगा "पता है उस कहानी की नायिका भी ठीक ऐसे ही जी रही थी प्रेम| उसने प्रेमी की निशानी को मिट्टी के चूल्हे के नीचे दबाकर रखा था और जब कभी उसका मन भारी होता, वह चूल्हा तोड़कर वह निशानी निकालती और बुक्का फाड़कर रोती...."

वह कहानी सुनाता रहा और शकुन्तला उसकी आँखों में आँखें डाल कहानी सुनती रही| ठीक जिस वक़्त वह कहानी सुना रहा था और सुन रही थी वह, वक़्त बुन रहा था अपने मनोरंजन के लिए एक नई कहानी|

मुझे कहानी का अंत जानने की इतनी जल्दी है कि मैं कई पन्ने बिना पढ़े ही धड़ाधड़ पलट देती हूँ|

डायरी के पृष्ठ संख्या २०२ पर शकुन्तला ने लिखा है कि आजकल वह अक्सर बीते हुए वक़्त के चूल्हे को तोड़ने की कोशिश करती है; पर स्मृतियों के राख गर्म हैं| उँगलियाँ झुलस तो जाती हैं, पर ढूँढे से भी प्यार की कोई निशानी नहीं मिलती| धूप तेज हो तो मिट्टी के चूल्हे को तोड़कर वापस बनाने और उसे सूखने में लगभग तीन दिन का समय लगता है; पर कोई यह कैसे बताए कि दिल टूट जाए तो जुड़ने में कितना समय लगता है!!!

हाय रे प्रेम ! क्लिफ रिचर्ड और डोरिस डे की दीवानी से भी हिन्दी में कविताई करा गया| डायरी के पृष्ठ संख्या २०३ पर लिखा है-

न जाने किस घड़ी तुमसे प्यार हो गया
मन की सादगी का मेरे शृंगार हो गया
मैंने धरा प्रेम को वक़्त के चूल्हे पर
वह जला, सुलगा और अंगार हो गया

२.
डायरी के उन्नीसवें पन्ने को पढ़ते हुए मेरे मन में विचार आया कि उस "किस्सागो" के गाँव का नाम शायद अजायबपुर रहा होगा कि उसके गाँव में उसके अलावे और भी कई अद्भुत किस्म के लोग थे| यह भी हो सकता है कि यह महज किस्सागोई ही रही हो!! कौन जाने कि वह किसी शहर का रहा हो!!!

शकुन्तला ने उन्नीसवें पन्ने पर लिखा कि उस रोज वह अपने किस्सागो के साथ किसी बिलिंग काउंटर पर थी| कुछ बैंकों के डेबिट कार्डस पर पन्द्रह प्रतिशत के छूट का ऑफर दिया जा रहा था| किस्सागो के पास एक से अधिक बैंकों के कार्ड्स थे जबकि शकुन्तला के पास केवल एक| उसने सभी कार्ड्स को एक साथ निकाला कि तभी किस्सागो को इस घटना से मिलती-जुलती एक कहानी याद आयी जो उसने सुनाया - "पता है हमारे यहाँ के एक बुजुर्ग रेलयात्रा से पहले हर बार टिकट लेते और उसे संभाल कर रख लेते थे|  जब भी टीसी उनसे टिकट माँगता, तो जमा की हुई सभी टिकटों को सामने रखकर चुनने को कह देते थे....'

उस पन्ने पर शकुन्तला ने लिखा कि बचपन में उसने "मार्था -द स्टोरीटेलर" की कहानी पढ़ी थी जिसमें मार्था अपनी हर कहानी "वन्स अपॉन अ टाइम" से शुरू करती थी| असल ज़िन्दगी में इस तरह से कभी किसी ने कहानी नहीं सुनाया| आज पहली बार वह एक ऐसे इंसान से मुख़ातिब थी जो हर कहानी "पता है" कहकर शुरू करता है| शकुन्तला फिर से बच्ची बन गयी; उसे उसका अपना खास  "किस्सागो -द स्टोरीटेलर" मिल गया|

मैं आदतन एकबार फिर कई पन्नों को एक साथ पलटते हुए पृष्ठ संख्या २०४ पर आ गई| शकुन्तला ने अपने किस्सागो के नाम एक चिठ्ठी लिखी है| सम्बोधन से पहले "मेरे" लिखकर काट दिया गया है| शायद संशय है कि उसका किस्सागो अब उसका है भी या नहीं| अगली पंक्ति में लिखा है "पता है कमबख्त!! मेट्रो रेल में भी आठ डब्बे होते हैं| ये कैसा प्रेम था तुम्हारा जो छह महीने भी नहीं जिंदा रह पाया!!! पता है कुछ दिनों से कुछ भी ठीक  नहीं रह रहा और आज मुझे फिर वहाँ जाना था; पर उस बिलिंग काउंटर पर अकेले खड़े होने भर के ख्याल से डर गयी| पता है मैं सोचने लगी कि वहाँ हर ओर तुम्हारी स्मृति बिखरी पड़ी होगी; तो ऐसे में उन्हें समेटने में अगर मैं खुद बिखर गई, तो कौन संभालेगा मुझे!!! स्मृतियाँ भी तो रेल के टिकटों की ही तरह होती हैं जिन पर तारीख की मुहर लगी होती है| पता है टिकट को चाहें, तो फेंक सकते हैं; बता सकते हो स्मृतियों से निजात कैसे पाया जाता है!!!"

पन्ना पलटती हूँ और पृष्ठ संख्या २०५ पर आती हूँ जिस पर लिखा है -

मुझे शब्दों से था प्रेम और वह तकदीर का फसाना था
लाज़िमी ही था हमको एक - दुसरे के करीब आना था
वक़्त का टिकट था पास, पर छूट गई रेलगाड़ी प्रेम की
कोई बताए तो क्यूँकर भला मुझको ऐसा नसीब पाना था

३.
आज  शकुन्तला की डायरी पढ़ते हुए लगा कि कुछ बातों को शायद वक़्त रहते कह देना चाहिए| अगले कुछ पन्नों को पढ़कर यह ख्याल भी जाता रहा| वह तो किस्सागो है, क्या उसे मौन का मर्म समझ आता होगा !!

पछत्तरवें पन्ने पर शकुन्तला ने लिखा है "जरूरी था कॉफ़ी शॉप पर उस मैनेजर से कैपेचिनो के तापमान को लेकर उलझना? तुमने मेरा वक़्त भी उसे दे दिया!!! कायदे से आज लड़ना तो मुझे चाहिए था तुमसे कि तुम सिर्फ अपने काम की वजह से आये थे शाम के वक़्त| पर मैं उस वक़्त को जी लेना चाहती थी कि मुझे दिख रहा है इन दिनों अब सब कुछ पहले जैसा नहीं रहा| न जाने क्यूँ लग रहा है तुम दुष्यंत होने की राह पर हो और हमारा साथ अब शायद कुछ दिन का ही है| कालिदास के दुष्यंत ने भी शकुन्तला को इसी तरह आहिस्ता-आहिस्ता भुलाया होगा|"

पृष्ठ संख्या २१२ पर शकुन्तला ने लिखा है "पता है आज से ठीक एक महीना और सात दिन पहले जब तुमने "ये प्यार-व्यार सब बेकार की बातें हैं| हमने सबको देख लिया " कहते हुए मिलने से इंकार कर दिया न, उस रोज मुझे अभिज्ञानशकुन्तलम् के पांचवें भाग में वर्णित दुष्यंत और शकुन्तला का संवाद याद आया| दुष्यंत ने जब  शकुन्तला को अपनाने से इंकार करते हुए पूरी स्त्री जाती के ही शील पर दोषारोपण कर डाला था, तब शकुन्तला ने जवाब में कहा था "अनार्य आत्मनो हृदयानुमानेन प्रेक्षसे" मतलब यह कि "अनार्य, तुम अपने ही हृदय के समान सबको समझते हो"| मैं भी ठीक यही कहना चाहती थी|"

"याद है उस रोज़ कॉफ़ी की एक चुस्की लेते ही कैपेचिनो का तापमान कम पाकर तुम कैसे उलझ गए थे कॉफ़ी शॉप के मैनेजर से? पूछे जाने पर उसने बताया था कैपेचिनो को ६० से ७० डिग्री सेल्सियस तापमान पर सर्व किया जाता है| अब तुम्हारे बिन जब भी वहाँ जाती हूँ न, वो मैनेजर अक्सर पूछ बैठता है "टेमप्रेचर ठीक है?" इस प्रश्न का जवाब देते हुए जुबान ही नहीं, मन भी जल जाता है| तुम बता सकते हो रिश्तों में कितनी गर्माहट होनी चाहिए!!!"

उस पन्ने पर आखिरी पंक्तियों में लिखा था -

कैपेचीनो सा था तुम्हारा प्रेम
जुबां को बचाते हुए पीना था
मेरा तो नाम ही रहा शकुंतला
हर युग में दुष्यंत को जीना था

४.
कुछ दिनों से जीवन की आपाधापी में इस कदर उलझी कि न पढ़ने का समय मिला और न ही लिखने का हौसला| बस ठन गयी है जड़ और चेतन की आपस में| एक आलेख लिख रही थी, जो अधूरा रह गया| एक अधूरी कविता भी कर रही है मेरा इन्तजार कोलकाता के बाबूघाट पर बँधी बिन माझी की एक नाव की तरह,  जो न जाने कब मुकम्मल होगी|
सिरहाने के पास धुल से सनी पड़ी है शकुंतला की डायरी| यह भी पूरा कहाँ पढ़ पायी मैं आज तक  ... ज़िन्दगी कभी मुकम्मल होती है या वह भी..???

डायरी से धुल के आवरण को हटाती हूँ और किसी एक पन्ने पर आकर खुलती है डायरी| पृष्ठ संख्या २१३ है| शकुन्तला ने लिखा है- "तुम्हारी कमीज पर जो पीले रंग की धारियां हैं न, मेरे पके हुए दर्द का रंग हैं| तुमने इसे होली के रंगों से रंगना चाहा पर मेरे प्यार का रंग इतना गहरा रहा कि उस पर कोई रंग कहाँ चढ़ पाता!!! उस रोज जब तुम दफ्तर जाने के लिए तैयार हो रहे थे, मैंने तुमसे बिना पूछे ही पहन ली तुम्हारी कमीज । यूँ तो तुम्हारी गंधस्मृति मेरे मानस में बसती है पर न जाने क्यों उस दिन उस गंध को अपने शरीर पर महसूस करना चाहती थी| कितना अजीब था यह जबकि मैंने आज तक किसी के उतारे हुए कपडे नहीं पहने!!! शायद अंतिम मुलाक़ात अपने लिए बीन रही थी सुखद स्मृतियाँ | क्या पता आज भी उस कमीज की बायीं तरफ मेरे महरूनी दुपट्टे के पार का सुनहला रेशा लगा हो!! सुनो, अगली बार गंगा के घाट पर जाना, तो उस कमीज को जलाकर तर्पण कर आना| सुना है इंसानी आत्मा पीछा छोड़ भी दें तो स्मृतियों का भूत पीछा नहीं छोड़ता; फिर तुमने तो बड़े सलीके से हत्या की मेरे अनुराग की, बाबू !!!

पृष्ठ संख्या २१४ पर लिखा है -

वो साथ नहीं, बिछुड़ा भी नहीं
मैं तन्हा भी हूँ, मुंतज़र भी नहीं
जिसकी दीद में जहाँ की खबरें
एक उसे ही मेरी खबर भी नहीं

५.
कुछ समय पहले एक पत्रिका के लिए भाषा पर आलेख लिखना था, जो आज भी निजी कारणों से अधूरा पड़ा है| आज मेरी बेटी कथक क्लास जाने से पहले हमेशा की तरह रसोई की तरफ दौड़ी| लौटते हुए पूछा "मम्मा, मैंने फ्रिज में जूस रखा था; क्या आपने खाया है"? मेरे मना करने पर अपने पिता से पूछ बैठी "क्या आपने पीया है"?  मैं मुस्कुराए बिना नहीं रह पायी| उसने अपनी माँ और अपने पिता के मातृभाषाओं के अनुकूल ढालते हुए अपने लिए एक नयी भाषा का ईजाद कर लिया है| सोचा जब भूमंडलीकरण के दौर में भाषा पर आलेख लिखूँगी, तो इस बात का ज़िक्र भी करुँगी|  फिर अचानक याद आया कि शकुन्तला ने भी अपनी डायरी में भाषा के बाबत कुछ लिखा था| बेटी जा चुकी है| मैं डायरी उठाकर पन्ने पलटती हूँ|

पृष्ठ संख्या २१५ पर शकुन्तला ने लिखा है "आज पहली बार तुम्हें किसी चीज के लिए "ना" कहना बहुत साल रहा है| क्या करती!!! तुम्हारे प्रति मेरे अनुराग की तरह ही कमबख्त ईमानदारी भी नहीं जाती| जिस भाषा में अपने अनुराग का तुमसे साक्षात्कार नहीं करवा सकी, जिस भाषा में अपना नेह नहीं समझा पायी, जिस भाषा के मेरे शब्द तुम्हारी तकलीफों में तुम्हारे साथ बने रहने के योग्य साबित न हो सके और जिस भाषा में मैं जिंदगी चिल्लाती रही और तुम लम्हा-लम्हा मौत देते रहे, उस भाषा पर कहने के लिए शब्द कहाँ से लाती| उस भाषा में तो सिर्फ अपने मन का प्रलाप ही लिखा जा सकता है| फिर तुमने इन दिनों मौन की जो प्रगाढ़ भाषा सिखाई है न बाबू , फ़िलवक्त उसे ही दुरुस्त कर रही हूँ| तुम्हें याद हो कि न याद हो, तुम्हारी एक तस्वीर देखते हुए मैंने तुमसे कहा था कि तुम उस तस्वीर में मेरे पिता जैसे दिखते हो| कभी कहा नहीं तुमसे पर उस दिन के बाद से तुम्हें पिता जितना ही सम्मान दिया| प्रेम कितना किया, नहीं कहूँगी| प्रेम कहा नहीं जाता, जीया जाता है| मेरे पिता अक्सर कहा करते थे "मौनं सर्वत्र् साधयते"| अब वह कुछ नहीं कहते, मौन ही रहते हैं| वह मेरा मौन समझते हैं और मैं उनका| हम दोनों को पता है हमारे बीच जिस दिन भाषा आ जाएगी, हम परस्पर से सच नहीं कह पायेंगे| चित्त में अपार दुःख लिए एक-दुसरे पर सुख का झूठा प्रक्षेपण करेंगे| पिता और पिता जैसा दिखने वाला शख्स एक साथ गलत तो नहीं हो सकता| क्या पता किसी दिन नियति के हाथों पस्त होकर तुम्हारा मौन मेरे बाएँ हाथ के कनक कंकण से आ टकराए और जीवन सोने के जैसा चमक उठे!!!

मुर्खता के लिए भी किसी भाषा की जरुरत नहीं होती| फिर यह तो मेरा प्रिय शगल है| ठीक जिस क्षण तुम "ठीक है" कहकर मौन हो गए, मैं दौड़ती हुई आलिन्द तक गयी और उस जगह पर टंकित शून्य को देर तक देखती रही, जहाँ से जाते हुए पलटकर कभी तुमने देखा था | शून्यता की अपनी अलग भाषा होती है| यह शून्य बड़ा चीत्कार करता है बाबू , इस चीत्कार के आगे और कुछ भी सुनाई नहीं देता!!!

तुम कोशिश करो कि सुन सको कभी
मेरे मौन की प्रार्थना अपने मन मंदिर में
मैं सीख लूँ ताल तुम्हारे मौन के सुर की
किसी दिन अपने पायल बंधे मंजीर में


६.
शकुन्तला की डायरी के तेईसवें पन्ने पर जो कुछ लिखा है, उसे पढ़कर मैं गहन सोच में डूब गयी| क्या कोई अंदर ही अंदर इतना खाली हो सकता है!!! शकुन्तला ने ऐसा क्यूँ किया? उसकी डायरी से यह तो जाहिर है कि वह किस्सागो के प्रेम में है; पर किस्सागो को अभी उसने कितना जाना है कि इतना भरोसा कर बैठी?? काश कि उससे मिलकर पूछ सकती|

उस पन्ने पर लिखा था "मुझे मालूम था तुम क्या चाहते हो| फिर भी नहीं रोक पायी खुद को| नेह बड़ा मजबूर करता है"

इश्क की रस्मों-रिवायत थी
दावत पर मैं, दावत भी थी
मैं उसको दिल क्यों दे बैठी
जिसको मुझसे अदावत थी


७ .
कितना मजा आता है न दूसरों की जिंदगी में ताका-झाँकी करने में !! मुझे भी बड़ा मजा आ रहा था शकुन्तला की डायरी पढ्ने में, हालाँकि उसका दर्द भी महसूस कर रही थी अपने अंदर| वह अवसाद में ऐसी डूबी कि फिर कहाँ गम हुई, कुछ पता न चला| उसका फोन भी बंद ही मिलता रहा| आज पृष्ठ संख्या २१९ पढ़ते हुए उदास हो गयी| यह डायरी का अंतिम पन्ना तो नहीं, पर इसके बाद के सभी पन्ने कोरे हैं|| डायरी में आखिरी बार शकुन्तला ने लिखा -

फिर एकबार अभिमान छोड़ तुम्हारे असीम दर्प के सामने घुटने टेकते हुए तुम्हें शुभकामनाएँ दे बैठी| क्या करूँ अब गिनती के दिन रह गए मेरे जीवन में| फिर उस दुनिया में न तो हम अभिमान ही ले जा सकते हैं और न ही राग या द्वेष| बहुत बुरा लगा जब मैंने तुम्हारी तस्वीरें तुम्हें सौपने की बातें की और तुमने कोई सवाल नहीं किया| मुझे मालूम है कि वह तस्वीरें तुम्हारे लिए कीमती हैं और मैं दुनिया से विदा लेने के पहले उसे तुम्हारे हवाले करके जाना चाहती हूँ| बहुत अच्छा लगा जब तुमने पूछा कि मैं तुम्हारा एक काम कर सकती हूँ या नहीं| हालाँकि यह लगा कि तुम्हें मेरे प्यार पर भरोसा है और तुम्हें लगभग मालूम था कि मैं "ना" नहीं कहूँगी पर यह भी लगा कि एकबार फिर तुम सिर्फ अपनी जरुरतों को पूरा करने के लिए मेरा इस्तेमाल कर रहे हो| हाय रे प्रेम, मैं फिर से इस्तेमाल होने के लिए तैयार थी| बहुत बुरा लगा जब मैंने कहा कि यह काम अधूरा छोड़कर नहीं जाना चाहती और तुमने एकबार भी नहीं पूछा कि मुझे कहाँ जाना है| मुझे बहुत बुरा लगा जब मैंने कहा कि अगर सब ठीक रहा तो तुम्हारा काम अगले दिन बारह बजे तक हो जाएगा और तुमने एकबार भी नहीं पूछा कि क्या है जो ठीक नहीं भी हो सकता है| एकबार मन किया कि बता दूँ  कि मैं पिछले पन्द्रह दिनों से बिस्तर पर पड़ी हूँ और यह जो तुम दो दिनों से मुझसे लगातार इतना काम करा रहे हो, यह लेटकर नहीं होता| पर तुम इतने अधिकार से मुझसे काम करवा रहे थे, मैंने इसमें भी एक प्रकार का सुख ढूँढ निकाला|  एक लम्बा अरसा बीता जब आखिरी बार तुमने मुझपर इतना अधिकार जताया था| बुरा लगा कि तुमने एकबार भी नहीं पूछा कि मैं कैसे हर वक़्त तुम्हारे काम के लिए उपलब्ध रही जबकि घर में और काम भी होते हैं| समझ गयी तुम्हें सिर्फ काम से काम है|

बहुत बुरा लगा जब तुमने मुझे फिर उसी नाम से पुकारा जिस नाम से पुकारे जाना मुझे पसंद नहीं जबकि तुमने भी कभी इक नाम दिया था मुझे जो मुझे बेहद पसंद है| मैंने इसबार इस बात पर तुम्हें नहीं टोका| मेरी पसंद और नापसंद मेरी निजी जरूरतें हैं और अपनी जरूरतों की बातें उनसे कही जाती हैं जो जरूरतों के दिनों में आपके साथ खड़ें हों न कि उनसे जो हर बार अपनी जरूरतें पूरी करने के लिए आपके पास आते हों| बुरा लगा जब मैंने तुम्हें वक्त से बहुत पहले शुभकामनाएँ दीं और तुमने कुछ नहीं पुछा| बेहद बुरा लगा जब मेरी सहेली ने तुम्हें मेरी सेहत के बारे में वो बता दिया जो मैं तुमसे छुपा रही थी और तुमने फिर भी मुझसे कुछ नहीं पूछा| मुझे बहुत बुरा लगा जब तुम मुझे तब भी मैसेज ही करते रहे जब अपने काम के लिए ही सही एकबार फोन कर सकते थे|

कुछ दिन पहले जब मैंने तुम्हें अस्पताल से फोन किया, मैंने तुम्हें सब कुछ बता दिया था| उसके बाद तुम्हें एकबार भी जरुरत महसूस नहीं हुई कि तुम पूछो मैं कैसी हूँ, किस हाल में हूँ| कुछ भी तो नहीं छुपाया तुमसे !

दुनिया से विदा लेने में शायद थोड़ा वक्त है, तुमने मुझे अपनी जिंदगी से विदा कर दिया है, यह समझ गयी हूँ| कहने को कुछ भी शेष नहीं रह गया| पर तुम ही तो कहते हो, उम्मीदों के टूटने पर कह देना चाहिए; बस इसलिए कह दिया| अब मैं नहीं कहूँगी, मेरा मौन कहेगा और जब तक धडकनें चलेंगी, यह दिल सहेगा|

फ़िक्र तो हमेशा करते रहेंगे तुम्हारा
पर अब हम कभी ज़िक्र नहीं करेंगे
कौन चाहेगा तुम्हें हमारे बाद इतना
सोचकर यही हम बेफिक्र नहीं मरेंगे

अंतिम पन्ना पढ़ते ही एक प्रकार के अपराध बोध ने मुझे घेर लिया था|

"ओह! तो वह तब भी इतनी ही बीमार थी जब मेरे घर आयी थी? हाय! मैं अपनी ही सुनाती रह गयी उसे| एकबार उसे भी कहने का मौका दिया होता! क्या पता सबकुछ कहकर शायद वह अवसाद से निकल पाती! इस बीच इतने महीने निकल गए, मैने सबसे पहले यह पन्ना क्यूँ  न पढ़ा" मैं मन ही मन बुदबुदा रही थी|

शाम के सात बजे मलय दफ्तर से घर आए और आते ही अखबार का तीसरा पन्ना दिखाते हुए पूछा "यह तुम्हारी सहेली है न? एकबार तुम्हारे दफ्तर के बाहर यही तो मिली थी न?"
"क्या हुआ" कहते हुए मैंने अख़बार उसके हाथ से झपट लिया| अखबार में शकुन्तला के मौत की खबर थी| खबर छपी थी कि मरते हुए वह अपने शरीर के ११ अंग जरुरतमंदों को दान कर गयी| उसके अम्लान मुख की कांति को देख कोई नहीं बता सकता था, कि वह मरी पड़ी है। ऐसा लग रहा था, जैसे अपने किस्सागो के सुखद स्वप्न में वह पूरी तरह से लीन हो चुकी है|

पूरी खबर पढ़ने से पहले ही मैं बेहोश हो चुकी थी| जब होश आया तो मलय ने मेरे हाथों में कॉफ़ी की मग पकड़ायी|

"कितनी स्ट्रोंग कॉफ़ी बनाई है, मुझे अब रात भर नींद नहीं आएगी" कहते हुए मुझे शकुन्तला की बनायी कॉफ़ी याद आ गयी| इसबार कॉफ़ी जुबान के साथ मन को भी कसैला कर रही थी|

मैं देर तक शकुन्तला के बारे में सोचती रही| स्वयं अधूरे प्रेम को शिद्दत से जीती हुई शकुन्तला न जाने कितने लोगों में जीवन दान कर प्रेम का संचार कर गयी |

"तुम हमेशा याद आओगी शकुन्तला" उस रात देर तक यही बुदबुदाती रही|

इस घटना को कई महीने गुजर गए| इन दिनों  मैंने डायरी लिखना शुरू किया है|

Sunday, July 10, 2016

प्रेम और पुरुष

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        1.
उसे प्रेम हुआ
उसने प्रेम निभाया 
चली गयी वह छोड़कर 
उसका प्रेम आहत हुआ 

        2.
प्रेम हुआ उसे फिर 
निभाया उसने फिर प्रेम  
फिर छोड़कर चली गयी वह 
आहत हुआ उसका पुरुष 

        3.
अब उसने प्रेम किया 
जीता रहा प्रेम कुछ देर  
और चला गया छोड़कर उसे 
बचा लिया उसने अपना पुरुष इस तरह 

प्रेम पुरुष था, बना रहा कठोर हर हाल में !

---सुलोचना वर्मा -------

Thursday, July 7, 2016

बेकार

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जो नहीं मिला, वो प्यार है
जो हासिल है, बेकार है

--सुलोचना वर्मा ---