Sunday, November 29, 2015

खराब समय

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ठीक जिस वक़्त ढूंढ रही थी मैं
खराब समय की संज्ञा
जम रहा था पसीना माथे पर समय के
मानवता की हाहाकार पर


मिनटों और सेकण्ड्स में बिखर रहा था जो
लड़ी से टूटे उजले मोती के दाने की भाँति
असहिष्णु हो उठा वह खराब समय अब
और चल पड़ा घृणा के रक्तिम पथ पर


कुहासा ओढ़े चला जा रहा है घृणित समय
बंद कर रहे हैं लोग घरों के खिड़की दरवाजे
छोड़ जाती हैं समस्त ऋतुएँ भी खराब समय को
नहीं गलता है खराब समय बारिश के पानी से


स्वाभाविक है जहाँ अन्धकार खराब समय के लिए
उसकी उम्मीदों में है शामिल अच्छे दिनों का प्रकाश
कि कभी देखे हैं उसने भी यहाँ मैदानों में हरा घास
कि उसकी स्मृतियों में अब भी दहकता है रंगीन पलाश


पलट दिया जाता है देखते ही देखते
कैलेंडर का अंतिम पन्ना भी
और रह जाता है समय काल की विस्मृति में
बनकर केवल एक इतिहास


खराब समय चलता है लड़खड़ाकर शराबी की तरह
उसकी शरीर से फूटता रहता है घृणा का मवाद
जिससे दूरी बनाकर आगे बढ़ जाते हैं अच्छे लोग
अच्छे लोग, जो ले आए है यह भीषण महामारी !!!


 ----सुलोचना  वर्मा--------

Wednesday, November 18, 2015

अव्यक्त

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मुझे समझना इतना जटिल तो न था
जितना होता है दुरूह व्याकरण
जैसे क्रिया के रूप, अव्यय, समास
मेरे दुःख में है शामिल सर्वनाम
जो आया तुम्हारे हिस्से संज्ञा की जगह


जहाँ मुझे समझने की कोशिश की
अंकगणित के किसी प्रमेय की तरह तुमने
सरल रही मैं बीजगणित के संकेतों सी
अज्ञात रहा मेरा मान तुम्हें आरम्भ से अंत तक
और नहीं निकल पाया रिश्तों के समीकरण का हल


रेवती, स्वाति,मृगशिरा या अनुराधा 
नहीं रही मैं आकाश में स्थित नक्षत्र ही
कि मुझ तक पहुँच पाना हो दुष्कर
मुझे जल्दी थी पहुँचने की मंजिल तक
और तुम्हें जाना ही नहीं था कहीं भी


कुछ बातें थीं मेरी जो रह गयीं अनुच्चारित
जानने की कोशिश ही नहीं की जिन्हें तुमने
किसी गैर-जरूरी प्रागैतिहासिक भाषा की तरह
जहाँ सालता रहा मुझे कुछ न कह पाने का कष्ट
अव्यक्त इच्छाएं तुम्हारी समय करता रहा स्पष्ट


----सुलोचना  वर्मा--------

Monday, November 16, 2015

अवसाद

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लिपटा है हर अप्रकाशित अनुभूति से
अन्धकार की तरह काला कोई दुःख
रख देती हूँ मैं तह करके दुखों को
अपने ही शरीर के हर जोड़ पर
जम जाती है हड्डियों में कैल्शियम की तरह,
और इस प्रकार संभाल लेती है पीड़ा मुझे


मेरे सपने टटोलते हैं अंधकार मे आलोक
पर नहीं पकड़ पाते हैं एक भी कतरा
सुख का फ़ानूस जल-जलकर बुझ जाता है
दुःख है कि टिका रहता है ध्रुव तारा की तरह
अपने निर्धारित स्थान पर- स्पष्ट और धवल
दुःख आसमान है-रंग नीला और सीमाहीन


भले बंजर हो चुकी हो मेरे आँखों की जमीन
और अभिघात बन चुका दिखता हो जीवन
मैं गाउंगी गीत बहारों के, भुलाकर अवसाद
कि कर पाये उम्मीद निराशा पर वज्र संघात
रखा है मौत का सामान जहाँ हर कदम पर
वहाँ ज़िंदा रहना ही है मेरा एकमात्र प्रतिवाद