Thursday, December 24, 2015

कमला कमलिनी

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माँ के साथ मैं भी ध्यानमग्न रहती| जेठ महीने के हर मंगलवार को हमारे घर देवी मंगलचंडी की पूजा होती थी| माँ बंद आँखों से माता मंगलचंडी का ध्यान करती  और मैं खुली आँखों से सामने रखे पाँच प्रकार के कटे हुए फलों से सजी थाली में रखे इकलौते आम की गुठली का| कुछ बेवकूफियाँ जन्मजात होती हैं| पूजा-आरती  के बाद जब प्रसाद वितरण की बारी आती तो अक्सर हम दोनों भाई -बहनों के बीच आम की गुठली को लेकर ठन जाती| माँ अक्सर कहती "दूसरा आम काट देती हूँ"| पर नहीं, हमें तो प्रसाद में चढ़ाई गयी आम की गुठली ही चाहिए थी| फिर एक तरकीब निकाली गयी| गुठली के लिए हम दोनों की बारी तय हुई| एक मंगलवार गुठली मुझे मिलती तो अगले मंगलवार भाई को| इस प्रकार एक बड़ी समस्या का समाधान मिला| 

इस समस्या के सुलझने से एक और बात हुई| अब मेरा ध्यान आम की गुठली से हटकर माता मंगलचंडी की कथा में रमने लगा| कथा क्या थी एक तिलिस्म सा था| कथा में एक सौदागर कुछ वर्षों तक परदेश में रहकर बाणिज्य करता है और फिर खूब सारा पैसा कमाकर कीमती चीज़ों के साथ जहाज से घर लौट रहा होता है| अभी वह किनारे पहुँचने ही वाला होता है कि उसका जहाज डूब जाता है| वह तैरकर किनारे पहुँचता है और अपने भाग्य का रोना रोता है| अचानक उसकी दृष्टि पड़ती है एक अलौकिक दृश्य पर| एक सुंदर स्त्री कमल के फूल पर आसन जमाए बैठी है| उसके एक हाथ में सफ़ेद हाथी का सर है और दुसरे हाथ से वह हाथी का सूंड चबा रही है| ऐसा अद्भुत दृश्य देखके उससे नहीं रहा गया और वह  उस स्त्री के समीप जाकर उसका परिचय पूछता है और यह भी पूछता है कि ऐसे निर्जन जगह पर वह अकेली क्या कर रही है| स्त्री का उत्तर होता है कि वह वन देवी कमला कमलिनी है| वह सौदागर को कहती है कि उसे पता है कि उसका जहाज डूब गया है और वह जहाज के डूबने का कारण जानती है| वह सौदागर को बताती है कि उसे उसका खोया हुआ धन वापस मिल सकता है| इतना सुनते ही सौदागर साष्टांग लेट जाता है और देवी कमलिनी से धन वापस पाने की तरकीब बताने को कहता है| देवी बताती है कि उसे अपने घर लौटना होगा और घर लौटकर उसकी पत्नी को जेठ महीने के हर मंगलवार देवी मंगलचंडी की पूजा करनी होगी| ऐसा करने के एक महीने बाद उसकी खोयी हुई सम्पति वापस मिल जायेगी| कथा के अंत तक ऐसा होता भी है| हमारे धर्म में पाप कोई भी करे, प्रायश्चित स्त्रियों को ही करना पड़ता है|

उन दिनों घर में टीवी नहीं होने के कारण हमारी कल्पनाशीलता अपने चरम पर थी| पूजा समाप्त होती और आम की गुठली चूसते हुए मेरी कल्पनाएँ कई आकार लेतीं| कभी सोचती जो देवी स्वयं समृद्ध है, जो चाहें तो छप्पन भोग का आनन्द ले सकती हैं, उन्हें आखिर हाथी को खाने की क्या ज़रूरत पड़ी? दुसरे ही क्षण मैं स्वयं को देवी मान मन ही मन कमल के फूलों पर सवार होती और हाथी को खाने का प्रयास करती| अजीब विडंबना थी कि हर बार सूंड मेरे गले में फँस जाता और मैं कल्पना से बाहर इस लोक में लौट आती| 

वह अप्रैल की एक दोपहर थी| उस रोज मेरी कलाईयों पर नारंगी चूड़ियाँ देख नायला एकदम से बिफर गयी|  उसने कहा "ये क्या हिन्दुनी जैसी चूड़ियाँ डाल रखी हैं हाथों में...बदल लो"| दांत कटी दोस्ती थी नायला बानो से| हमारे घर के चापाकल के पानी बिना उसकी प्यास नहीं मिटती और उसके घर के बने आम के अँचार मेरे टिफिन के जायके को दुगूना कर देते| 

"हिन्दुनी"- पहली बार ऐसा कोई शब्द सुना था| उस दिन से पहले तक कभी दुपट्टा माथे पर रखकर मुग़ल ए आज़म की मधुबाला बनते हुए आईने में देखती, तो आस-पड़ोस के लोग कहते "मियाइन लग रही हो"| कभी हरे रंग का फ्रॉक पहन लिया तो भी यही कहकर चिढ़ाते थे| उस रोज़ मैं अपने भीतर एक अजीब सी ख़ुशी महसूस कर रही थी| घर लौटते ही माँ को बताया "ये जो हम हर बात में "मियाँ" और "मियाइन" कहकर मुसलमानों को बुरा दिखाने की कोशिश करते हैं न, उनके पास भी हमारे लिए वैसा ही शब्द है-"हिन्दुनी"| क्या हम बिना एक-दुसरे पर टीका-टिप्पणी किये प्रेम से नहीं रह सकते? रंगों का धर्म किसने तय किया कि हरा  मुसलमान हो गया और नारंगी हिन्दू?" 

प्रेम जल की तरह पारदर्शी होता है| उस समय मैं उसकी सबसे प्रिय सहेली थी| हमें तो हमारी दोस्ती से मतलब था| मजहब समझ से बाहर की चीज़ थी| मुझे बुरा नहीं लगा| उसकी ज़ुबान पर भले ही मजहबी शब्द थे, पर उसके सरोकार का तो बस प्रेम से बावस्ता था| सो मैंने प्रेम ही सुना| उस घटना का हमारी दोस्ती पर कोई असर नहीं पड़ा|

उन दिनों हमारे गाँव में घरों की दीवारें छोटी हुआ करती थीं| जिनके घरों का छत खपरैल न होकर पक्का था, वह तो बस छत पर चढ़कर आस-पड़ोस के  चार-पांच घरों का हाल-समाचार पूछ लिया करते थे| किसके घर में क्या खाना पका है, पड़ोसियों को पता होता था| खाना बनाने के मामले में भी हर घर की अपनी स्पेशलिटी थी| किसी के घर की कढ़ी का सुनाम था तो किसी के घर में बने छोले का| कई मौकों पर मिल-बाँटकर खाते थे| जब नायला  का परिवार हमारे घर आता, तो हमारे आँगन में रखी चारपाई पर बैठक जमती| ऐसे में जब हमारे घरवाले नायला  के घर जाते, तो हमारे बैठने का इंतजाम आँगन में किया जाता| बैठने के लिए प्लास्टिक की कुर्सियाँ होती और हमारा चाय नाश्ता बाहर से मँगाया जाता जिसे हिन्दू दूकानदार ही लाता और परोस जाता| नायला  की दादी एक बेहद ज़हीन और पाक ख्याल स्त्री थीं| अक्सर कहतीं "हम तो आपकी ठीक से खातिर ही नहीं कर पाते| आपलोगों की भावनाओं का भी ख्याल रखना पड़ता है| हमारे अल्लाह ताला ने  सबके लिए अच्छी सोच रखने को कहा है"|

मेरी माँ कहती "नायला  की शादी पर एक दर्ज़न मेवा दरवेश लड्डू खाऊँगी| तब करियेगा हमारी खातिर"| फिर सभी हँस पड़ते| 

सातवीं कक्षा के बाद जब हम हाई स्कूल गए, तो वहाँ नायला  बानो नज़र नहीं आयी|  जब कुछ दिनों तक वह नहीं दिखी, तो एकदिन मैं उसके घर चली गयी| उसकी दादी ने बताया "बेटा, हमारे कौम में लडकियाँ बड़ी होने के बाद दिन के उजाले में निकले, तो लोग तरह-तरह की बातें करेंगे| बस इसीलिए यह घर पर रहकर ही पढ़ाई करेगी|"|

यह सुनकर मैं उदास तो बहुत हुई थी पर कहीं सुकून था कि उसकी पढ़ाई बंद नहीं हुई| स्त्रियों के खिलाफ हर धर्म का अपने ही तरीके का षड्यंत्र है| फिर तीन-चार महीनों और बाद में छह-सात महीनों पर शाम के बाद नायला  अपनी दादी, जिन्हें वह अम्मी ही कहकर बुलाती, के साथ आती| शामें खूबसूरत हो जाया करतीं| 

6 दिसम्बर 1992 का दिन भी रविवार का आलस लिए हुए था| हम भाई-बहन को स्कूल नहीं जाना होता था, सो माँ दिन में ज्यादा देर तक पूजा कर सकती थी| घर के तमाम काम निपटाकर स्नान करने के बाद अभी माँ ताम्बे के लोटे में जल और हाथ में अड़हूल लिए मन्त्र बुदबुदाते हुए सूर्य देवता को जल चढ़ा रही थी| 

"जपाकुसुमसंकाशं काश्यपेयं महाद्युतिम् ........."

अचानक बाहर से आती शोर में माँ की आवाज दब गयी| चारों ओर ख़ुशी की लहर थी| सिर पर भगवा फेटा बाँधे जश्न मनाते लोग सड़क पर उतर आये थे| अयोध्या में बाबरी मस्जिद गिराई जा चुकी थी। सभी टीवी की ओर दौड़े| माँ के हाथों के अड़हूल से भी अधिक रक्तिम था टीवी स्क्रीन| "हिन्दुनी"-यह शब्द जेहन पर अतिक्रमण कर रहा था| 

टीवी से नज़र ही नहीं हट रही थी| मृतकों की संख्या में लगातार इजाफा हो रहा था| मारे जानेवाले लोग दोनों धर्मों के थे| हैरानी इस बात की थी कि इस दंगे को प्रायोजित करनेवाले किसी भी नेता को खरोंच तक नहीं आई| 

यह धर्म भी सफ़ेद हाथी ही है| कमबख्त ये सफ़ेद हाथी का सूंड आम लोगों के ही गले में क्यूँ फँसता है? वह भी तब जब वह इसे मन ही मन खा रहे होते हैं| किसी ने देखा है असल जिंदगी में सफ़ेद हाथी को? वैसे देखा तो अल्लाह को भी नहीं है| श्रीराम को भी ग्रंथो से ही जानते हैं| फिर भी आये दिन दोनों कौमों के लोग राम और रहीम के नाम पर एक-दुसरे के खिलाफ़ खड़े नज़र आते हैं|

हम मनुष्यों को जिंदा रहने के लिए हौआ चाहिए| हमारे आसपास छोटी-छोटी खूबसूरत चीज़ें हैं, सुन्दर रिश्ते हैं और प्रेमपूर्वक जीने का साधन है| पर हमें वो चीज़ें आकर्षित करती हैं जिन्हें हमने देखा ही नहीं और जिनसे हमारा नैतिक रिश्ता जन्म लेते ही तय कर दिया गया| वो रिश्ते जिन्हें हमने अपनी पसंद से बनाये थे, पीछे छूटते चले गये| वक्त के मरहम से दंगों के ये घाव भले ही भर जाते होंगे  लेकिन हिंदू और मुसलिम समुदायों के बीच संदेह और अविश्वास की जो गहरी खाई पैदा हुई है उसे भरने में न जाने कितना वक्त लगेगा| 

कुछ समय बाद हिन्दू और मुस्लिम समुदाय के लड़कों की आपसी रंजिश में हुई लड़ाई में नायला के चचा की हत्या कर दी गयी| हत्यारे का अंदाजा लगभग सभी को था पर बिल्ली के गले में घंटी बांधता कौन!!!

1992 के बाद मैं नायला  से कभी नहीं मिली| न ही उसके परिवार का हमारे घर आना हुआ| ऐसा नहीं था कि हमारे परिवारों के बीच दंगे को लेकर कोई मनमुटाव रहा हो, पर आसपास के माहौल का हमारी निजी जिंदगी पर असर तो पड़ता ही है| मैट्रिक पास करने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए गाँव छोड़ शहर आ गयी थी| इस बीच नायला  के घर से कभी कोई हमारे घर नहीं आया| १९९५ में दुर्गा पूजा के मौके पर जब घर गयी, तो माँ ने बताया नायला  की शादी हो चुकी थी| अभी मैं पूछना ही चाह रही थी कि माँ ने शादी में शिरकत की या नहीं, कि माँ बताने लगी दो महीने पहले एक शाम एक स्त्री बड़ी सी थाली में बायना लेकर आई| माँ के पूछे जाने पर कि किसके घर से आया है उसने बिना कुछ कहे उस कशीदेकारीवाले कपड़े को हटाया | थाली में एक दर्ज़न मेवा दरवेश लड्डू थे|

मुझे देवी कमला कमलिनी याद आई| इसबार उनकी शक्ल नायला की दादी से मिल रही थी| आखिरकार वह कोई देवी ही हो सकती थी जो पाखण्ड के सफ़ेद हाथी के सूंड को चबाकर निगल गयीं| अतीत के गभीर जल में सुन्दर स्मृतियों का हंस देर तलक विचरता रहा|

विधि का विधान

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वह हमेशा की तरह ठीक बीच में उत्तर की ओर कुर्सी पर बैठा हुआ था| यह महज संयोग नहीं था कि वह जब भी यहाँ आया, यह सीट उसके लिए हमेशा उपलब्ध रही| वह जुगाड़ करने में माहिर था | पूरे चाय बार में अक्सर ही ऐसी भीड़ रहती थी और यह विशेष सीट सबसे गोचर और सुकून देनेवाली थी। उसे लाइमलाइट में रहना पसंद था| फिर उसके प्रशंसकों की भारी संख्या में मौजूदगी उसे आत्मविश्वास से भर रही थी|

उसे देखते ही विधि अतीत में खो गयी|

विधि सैकिया ने जब उसे पहली बार देखा था तो एकबारगी उसकी आँख उस आदमी के चेहरे पर रुक गयी थी| वह कुपोषित दिख रहा था| उम्र यही कोई तीस-बत्तीस रही होगी| रंग गेहूँआ, दुबला-पतला कद और लम्बाई भी कुछ ख़ास नहीं| विधि के आँखों की चमक कम हो गयी थी| पर ज्योतिर्मय बरुआ, उसे तो ऐसा लगा जैसे वह आँखें खोलकर कोई सपना देख रहा हो| ज्योतिर्मय ने विधि को जितना आँका था, वह उससे कहीं ज्यादा खूबसूरत निकली| विधि ज्योतिर्मय से मिलने उसकी आर्ट गैलरी गयी थी| अभी वह गैलरी में लगे चित्रों में ही उलझी थी कि ज्योतिर्मय ने अचानक से उसे अपनी बाँहों में भर लिया था|

"ये क्या कर रहे हो" विधि असहज महसूस कर रही थी|

"तुम्हारी तरह मैं भी बेहद अकेला हूँ| चलो साथ में सुकून के कुछ पल साथ जीते हैं" ऐसा कहकर ज्योतिर्मय विधि को बेतहाशा चूमने लगा| विधि बर्फ सी पिघलती चली गयी| सूखी धरती जिस प्रकार बारिश का स्वागत करती है, विधि ने उसी प्रकार ज्योतिर्मय का अपने जीवन में स्वागत किया|

फिर दोनों हफ्ते में कभी एकबार तो कभी दो बार मिलते| तीन-चार महीनों में ही विधि प्रेम में इस कदर पागल हो चुकी थी कि वह मन ही मन ज्योतिर्मय से शादी का मन बना चुकी थी| ज्योतिर्मय की एक आदत थी कि वह जिन लोगों से प्रभावित होता या जिन लोगों लोगों को प्रभावित करना चाहता, उनकी एक तस्वीर बनाकर आर्ट गैलरी में रखता| उन तस्वीरों की एक विशेषता यह थी कि उनमे मौजूद इंसान की शक्ल तो असल इंसान से नहीं मिलती पर जिसके लिए तस्वीर बनाई गयी है, अलबत्ता वह उस तस्वीर में अपनी मौजूदगी को जरूर पहचान सकता था| कुछ समय पहले ज्योतिर्मय ने जब पेरिस के चित्रकार फ्रांसुआ से प्रभावित होकर उनका स्केच बनाया, तो किसी आम इंसान के लिए यह बता पाना मुश्किल था कि तस्वीर में मौजूद शख्स कौन है; पर जब फ्रांसुआ अपने भारत प्रवास के दौरान उस आर्ट गैलरी में गए तो उनकी नजर उस तस्वीर पर गयी जिसमे सफेद कमीज और खाकी पेंट पहना हुआ इंसान टोपी से मुंह ढंककर पेड़ के नीचे बैठा है| उस आदमी के दाहिने हाथ में छह उंगलियाँ हैं, बाएं हाथ में सिगार है और बाएं हाथ की एक ऊँगली में अंग्रेजी अक्षर ऍफ़ लिखी हुई प्लैटिनम की अंगूठी है| फ्रांसुआ बेहद प्रभावित हुए और जब फ्रांसुआ ने वह चित्र खरीदना चाहा तो ज्योतिर्मय ने उन्हें वह उपहारस्वरूप भेंट किया| ज्योतिर्मय के कैनवास पर स्त्री अब मेखला पहनी हुई नजर आने लगी|

ज्योतिर्मय असम के सोनितपुर का रहनेवाला था, विधि उसी जिले के बिस्वनाथ चरियाली की रहनेवाली थी| जहाँ विधि नौकरी करने कोलकाता आयी थी, ज्योतिर्मय असफल प्रेम की यादों से मुक्त होने के लिए असम छोड़कर पड़ोसी  राज्य  पश्चिम बंगाल आ गया था| दोनों फेसबुक पर मिले, दोस्ती हुई, दोस्ती गहरी हुई और फिर मिलने का कार्यक्रम तय हुआ| विधि ज्योतिर्मय से अक्सर फोन पर बात करती, उसके चित्रों का ज़िक्र करती और कभी-कभी अपनी परेशानियाँ भी बाँट लेती|  वह धैर्यपूर्वक विधि की बातें सुनता और उसे नैतिक समर्थन देता| विधि को ज्योतिर्मय के बारे में इतना ही पता था कि स्नातक स्तर की पढ़ाई के बाद उसने बैंकिंग और रेलवे के परीक्षाओं की तैयारी की थी और असफल रहा था| दरअसल वह दौर ही उसकी असफलताओं का था| उसके पहले प्रेम का भी यही हश्र हुआ| फिर अपनी वीरान जिन्दगी में रंग भरने के लिए उसने रंगों का सहारा लिया और चित्रकार बन गया| चित्रकारी का शौक उसे बचपन से ही था| उसकी चित्रों के पात्र और विषय इतने संवेदनशील होते थे कि देखते ही देखते उसके प्रशंसकों की लम्बी कतार खड़ी हो गयी|

विधि के सफल प्रेम की असफलता उसके जीवन का सबसे बड़ा दुःख थी| समाज और परिवार से लड़कर अपने से कम कमानेवाले बंगाली लड़के विधान चक्रवर्ती से  प्रेम विवाह किया था| विधि इंटरनेशनल बीपीओ में मैनेजर थी और विधान किसी प्राइवेट फर्म का सेल्स इग्जेक्युटिव| शादी के कुछ ही महीनों में रूपये-पैसों को लेकर लड़ाई शुरू हो गयी थी| विधान, जो शादी से पहले बेहद संजीदा और संवेदनशील जान पड़ता था, अब बात-बात में विधि पर हाथ उठाने लगा था| कभी दोस्त तो कभी रिश्तेदार आकर बीच-बचाव करते और विधान को समझाते| पर विधान पर कोई असर न पड़ता देख सभी चुप रहने लगे| रिश्तेदारों ने विधि को समझाया कि बच्चे के आ जाने से विधान में बदलाव आएगा और फिर शादी के तीन सालों के बाद विधि ने एक लड़के को जन्म दिया| बच्चे के आने से विधान में कुछ समय के लिए परिवर्तन तो दिखा, पर ज्यादा दिन नहीं टिका| उसकी बदमिजाजी की वज़ह से अक्सर उसकी नौकरी चली जाती और वह एक-एक पैसे का मोहताज हो जाता| संसार का पूरा भार विधि के नाजुक कांधों पर ही रहता| जीवन में प्रेम हो तो इन्सान पहाड़ भी तोड़  देता है लेकिन जहाँ जीवन में लेशमात्र भी प्रेम न हो और ऊपर से संसार का समस्त बोझ उठाना हो, तो जीवन पहाड़ बन जाता है| विधि का जीवन पहाड़ बन चूका था|

जीवन अगर पहाड़ था तो विधि और विधान उस पहाड़ के दो अलग-अलग छोड़ पर थे| विधि ने कई बार विधान के साथ अपने रिश्ते को सुधारने की कोशिश की, पर हर बार हार गयी| विधान हीनभावना से इस प्रकार ग्रस्त हो चूका था कि अतीत को भुलाकर आगे बढ़ पाने में असमर्थ हो रहा था| वह विधि पर शक करने लगा| कभी दफ्तर से लौटने में देर हो, तो विधि पर इल्जाम लगाया जाता; कभी किसी से देर तक फोन पर बातें कर ले, तब भी यही होता| ऐसे में कभी जब विधान शराब के नशे में होता तो विधि के हाथों से फोन छीनकर अगले इंसान का परिचय बिना पूछे ही कहने लगता "सालों! तुम सब ऐश कर रहे हो| जहाँ जिम्मेदारी निभाने की बात आएगी तो ऐसे गायब हो जाओगे जैसे  गधे के सिर से सींग| याद रखना, दुखों का निदान है, विधि का विधान है|"

विधि बाद में फोन करनेवाले से माफ़ी मांग लेती|

हीनभावना एक तरह की मानसिक बीमारी है जो व्यक्ति के व्यवहार को बेहद अस्वाभाविक एवं असामाजिक बना देती है और कर्मशीलता में अवरोधक बन जाती है। विधान खुद को रोगी ही नहीं मानता था तो विधि द्वारा प्रस्तावित मनोचिकित्सक की सलाह लेने की बात को कैसे मान लेता! दोनों के बीच दूरियां इतनी बढ़ चुकी थी कि बातचीत भी लगभग खत्म हो गयी| एक तरह के अवसाद ने विधि को घेर लिया था| पैसा था, शोहरत थी, दोस्तों की कतार थी| जीवन में कुछ नहीं था, तो वह था प्यार| निराशा जीवन में इस कदर घर कर चुकी थी कि उसे आत्महत्या का ख्याल आने लगा| जिंदा रहने के लिए विधि को अब प्रेम की सख्त जरूरत थी|  ऐसे में ज्योतिर्मय से परिचय होना एक सुखद अनुभूति थी|

जैसे-जैसे समय बीता, विधि को पता चला कि ज्योतिर्मय की आर्ट गैलरी उसकी अपनी नहीं है| उसके किसी प्रशंसक ने उसे वह जगह अपने पेंटिंग्स की प्रदर्शनी लगाने के लिए दी है| फिर एकदिन उसे पता चला कि जब कभी ज्योतिर्मय को पैसों की जरुरत होती है, ओडिशा की जानीमानी समाज सेविका नीता रथ उसे पैसे भेज देती है| ज्योतिर्मय कई दफे नीता से मिलने भुवनेश्वर जा चूका है| पार्क स्ट्रीट के शेक्सपीयर सरणी में ज्योतिर्मय का नीता से करीबी रिश्ता सभी की जुबां पर था| ज्योतिर्मय की कई चित्रों में विधि को परिचित स्त्रियाँ दिखने लगीं| कभी गले की हंसुली तो कभी गले का स्कार्फ; ज्योतिर्मय के चित्रों में मौजूद स्त्रियों का परिचय दे देता| विधि का दिमाग बहुत कुछ कह रहा था पर "दिल है कि मानता नहीं" की तर्ज़ पर उसने तमाम सुनी-सुनायी बातों को अफवाह मानते हुए ख़ारिज कर दिया| कहते हैं सावन के अंधे को सभी कुछ हरा नजर आता है; तो प्रेम में डूबे हुए इंसान को भी प्रेम के सिवाय कुछ नजर कहाँ आता!

वह आषाढ़ की दोपहर थी, हालाँकि बारिश नहीं हो रही थी| प्रेम में डूबी युवती की हालत फिल्म "मुग़ल ए आज़म" की मधुबाला की तरह होती है जो गा रही होती है "छुप न सकेगा इश्क़ हमारा, चारों तरफ है उनका नज़ारा"| खुली आँखों में भी वह था और बंद आँखों में तो उसके सिवाय कुछ और था ही नहीं| ज्योतिर्मय की उपस्थिति विधि के लिए किसी दिव्य आसव का काम करती| विधि एक लम्बे अरसे के बाद उससे मिलने वाली थी| अपराह्न दो से ढ़ाई बजे के बीच का समय हो रहा था और चाय बार खाली था। यह पहला मौका था जब विधि की बनायी हुई रेखा चित्रों का प्रदर्शन ज्योतिर्मय की पेंटिंग्स के साथ हो रहा था| विधि खुद किसी कलाकृति से कम नहीं लग रही थी| इस प्रदर्शन का आयोजन ज्योतिर्मय की करीबी नताशा राय ने किया था| विधि निर्धारित समय से आधे घंटे देर से पहुंची|

"ये कौन हैं" ज्योतिर्मय ने विधि को चाय बार में प्रवेश करते देख नताशा से पूछा|

"विधि सैकिया" कहते हुए नताशा ने विधि का अभिवादन किया|

विधि को दुःख हुआ और उसे यह समझते देर नहीं लगी कि ज्योतिर्मय किसी को अपने और विधि के रिश्ते की बात नहीं बताना चाहता है|  दुःख अपनी जगह है पर प्रेम ने यदि आपको थेथर न बना दिया हो, तो इसका मतलब है कि आपका प्रेम अभी परवान नहीं चढ़ा! थेथर नहीं बने तो काहे का प्रेम किया! विधि ने बैठने के लिए ज्योतिर्मय के पास बरसाती के नीचेवाला सीट चुना| छाते को पास ही की एक कुर्सी पर टांगा और एक ओलोंग चाय (मकाईबाड़ी बागान की खास किस्म) की फ़रमाइश की| चाय की चुस्कियाँ लेते हुए वह ज्योतिर्मय को एकटक निहारती रही| ज्योतिर्मय भी दूसरों की नजर बचाकर बीच-बीच में उसे देख लेता| चाय जी अंतिम चुस्की लेते ही वह प्रदर्शनी में लगे चित्रों को देखने के लिए उठ खड़ी हुई| कई नए चित्रकारों से परिचय भी हुआ| चित्रकारी में प्राकृतिक रंगों के इस्तेमाल पर खूब चर्चा हुई|

शाम हो आयी थी और लौटते हुए पक्षी बता रहे थे कि घर लौटने का समय हो आया था| चाय बार के बाहर चित्रकारों और उनके प्रशंसकों की भीड़ थी| ज्योतिर्मय एक ओर खड़े होकर नताशा के उलझे बालों को सुलझा रहा था और आसपास खड़े लोग उन दोनों की करीबी रिश्तों की कहानियाँ सूना रहे थे| विधि के लिए यह सब असह्यनीय हो रहा था| अभी-अभी मिला अनुभव उसे गहराई तक आंदोलित कर रहा था|

"लौट चलो, उधर मत देखो," कहीं से आवाज आयी|

विधि ने इधर-उधर देखा| यह आवाज उसकी अंतरात्मा की थी| वह घर लौट आयी|

विधान सो चूका था| पर्दा खुला था। कमरे की खिड़की पर लैम्प पोस्ट की रौशनी आ रही थी| वह सोने की कोशिश करती रही| कुछ समय तक बारिश की बूंदों का कांच पर बनाती हुई तरह-तरह की आकृतियाँ देखती रही। शायद वह कुछ सोच रही थी। नहीं, वह कुछ सोच पाने की स्थिति में नहीं थी। शायद कुछ भी कल्पना कर पाने की क्षमता को खत्म करने के लिए ही उसने खिड़की से पर्दा हटाया था कि बाहर के दृश्यों में खो जाए। उसने अपने आप से कहा कि वह कुछ भी नहीं सोचना चाहती है। पर यह संभव कैसे था, ज्योतिर्मय अब भी उसकी यादों में था। यादों में गर्माहट भी थी। यादें समुद्र तट पर रखे किसी लकड़ी के चारों ओर लिपटे उस समुद्री शैवाल की तरह होती हैं जो बहने के लिए ऊँचे ज्वार का इंतज़ार करती हैं। हम इंसानों को बहने के लिए भावनाओं की जरुरत होती है| कभी-कभी तो इस बात का संशय होता है कि हमारे अंदर खून अधिक बहता है या कि भावनाएँ।

विधि भावनाओं का खूनी वजन अधिक देर तक नहीं उठा पायी| उसके अन्दर उफनता पश्चाताप का सैलाब उसकी आँखों से बह निकला|

 "मुझे बुरा लगा। बहुत, बहुत बुरा लगा" विधि ने आपसे यह बात कही और विधान से लिपटकर रोने लगी। विधान की नींद खुल गयी| कुछ दार्शनिक और कुछ व्यंगात्मक लहजे में वह रविन्द्र संगीत की एक पंक्ति को तोड़ -मरोड़कर गुनगुनाने लगा "तोमरा जे बौलो दिबोशो रोजोनी, भालोबाशा भालोबाशा, सोखी भालोबाशा कारे कोय, से जे केबोली जातोनामोय" (तुम जो कहते हो दिन रात प्रेम...प्रेम...प्रेम क्या है, ये सिर्फ़ पीड़ादायी है)

 मूसलाधार बारिश होने लगी - आसमान से अषाढ़ की और विधि की आँखों से पश्चाताप की|

Friday, December 18, 2015

सर्दी के मौसम में

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घेर लेती हैं स्मृतियाँ सर्दी के मौसम में 
चारों ओर छाये घने कोहरे की तरह  
और महकने लगती हैं रह-रहकर यादें 
जैसे जुड़े के गजरे में लगी बेला की लड़ी 

झटक देना चाहती हूँ मैं स्मृतियों को 
सद्य गीले बालों से पानी की तरह 
स्मृतियाँ ढँक लेती हैं मुझे बनकर लिहाफ़ 
और तप्त हो उठता है मेरा एकाकीपन 

स्मृतियाँ हैं जैसे कोई पुराना असाध्य रोग 
और मैं, ठीक जैसे एक सुश्रुषा-विहीन रोगी 
कभी स्मृतियाँ हैं अतीत का शब्दहीन सुख 
तो कभी कोई आर्तनाद या विषाद -पुराण   

जहाँ बीता हुआ वक़्त लौटकर नहीं आता 
मौसम बेहया है, लौटकर आया है फिर 
सजने लगी हैं ओस की नरम-नरम बूँदें फिर 
कुछ घास की नोंक पर तो कुछ पलकों पर मेरी 

-------सुलोचना वर्मा-----------

Saturday, December 5, 2015

ठण्ड का मौसम

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अक्सर ही मैं पड़ जाती हूँ बीमार इस मौसम में 
जहाँ बजने लगते हैं दाँत, सूज जाती हैं आँखे मेरी 
और कड़कड़ाने लगती हैं शरीर की हड्डियां बेतरह
 तो कैसे कहूं कि ठण्ड का मौसम मुझे पसंद आता है 

जबकि हर पल रंग बदलते इस निर्मम संसार में
माँ के स्नेह के बाद ठण्ड ही एकमात्र अनुभूति है
जो कर जाती है प्रवेश इतने अपनेपन से
लहू के साथ मेरी कम कैल्शियम वाली हड्डियों में 

हालांकि इस अजीब अपनेपन से अभिभूत कर जाता है 
और जीवन में अंगीकरण का ज़रूरी मन्त्र सिखा जाता है 
फिर भी है तो यह एकतरफा प्रेम ही, जो दर्द दे जाता है 
 तो कैसे कहूं कि ठण्ड का मौसम मुझे पसंद आता है!!! 

----सुलोचना वर्मा------

Sunday, November 29, 2015

खराब समय

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ठीक जिस वक़्त ढूंढ रही थी मैं
खराब समय की संज्ञा
जम रहा था पसीना माथे पर समय के
मानवता की हाहाकार पर


मिनटों और सेकण्ड्स में बिखर रहा था जो
लड़ी से टूटे उजले मोती के दाने की भाँति
असहिष्णु हो उठा वह खराब समय अब
और चल पड़ा घृणा के रक्तिम पथ पर


कुहासा ओढ़े चला जा रहा है घृणित समय
बंद कर रहे हैं लोग घरों के खिड़की दरवाजे
छोड़ जाती हैं समस्त ऋतुएँ भी खराब समय को
नहीं गलता है खराब समय बारिश के पानी से


स्वाभाविक है जहाँ अन्धकार खराब समय के लिए
उसकी उम्मीदों में है शामिल अच्छे दिनों का प्रकाश
कि कभी देखे हैं उसने भी यहाँ मैदानों में हरा घास
कि उसकी स्मृतियों में अब भी दहकता है रंगीन पलाश


पलट दिया जाता है देखते ही देखते
कैलेंडर का अंतिम पन्ना भी
और रह जाता है समय काल की विस्मृति में
बनकर केवल एक इतिहास


खराब समय चलता है लड़खड़ाकर शराबी की तरह
उसकी शरीर से फूटता रहता है घृणा का मवाद
जिससे दूरी बनाकर आगे बढ़ जाते हैं अच्छे लोग
अच्छे लोग, जो ले आए है यह भीषण महामारी !!!


 ----सुलोचना  वर्मा--------

Wednesday, November 18, 2015

अव्यक्त

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मुझे समझना इतना जटिल तो न था
जितना होता है दुरूह व्याकरण
जैसे क्रिया के रूप, अव्यय, समास
मेरे दुःख में है शामिल सर्वनाम
जो आया तुम्हारे हिस्से संज्ञा की जगह


जहाँ मुझे समझने की कोशिश की
अंकगणित के किसी प्रमेय की तरह तुमने
सरल रही मैं बीजगणित के संकेतों सी
अज्ञात रहा मेरा मान तुम्हें आरम्भ से अंत तक
और नहीं निकल पाया रिश्तों के समीकरण का हल


रेवती, स्वाति,मृगशिरा या अनुराधा 
नहीं रही मैं आकाश में स्थित नक्षत्र ही
कि मुझ तक पहुँच पाना हो दुष्कर
मुझे जल्दी थी पहुँचने की मंजिल तक
और तुम्हें जाना ही नहीं था कहीं भी


कुछ बातें थीं मेरी जो रह गयीं अनुच्चारित
जानने की कोशिश ही नहीं की जिन्हें तुमने
किसी गैर-जरूरी प्रागैतिहासिक भाषा की तरह
जहाँ सालता रहा मुझे कुछ न कह पाने का कष्ट
अव्यक्त इच्छाएं तुम्हारी समय करता रहा स्पष्ट


----सुलोचना  वर्मा--------

Monday, November 16, 2015

अवसाद

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लिपटा है हर अप्रकाशित अनुभूति से
अन्धकार की तरह काला कोई दुःख
रख देती हूँ मैं तह करके दुखों को
अपने ही शरीर के हर जोड़ पर
जम जाती है हड्डियों में कैल्शियम की तरह,
और इस प्रकार संभाल लेती है पीड़ा मुझे


मेरे सपने टटोलते हैं अंधकार मे आलोक
पर नहीं पकड़ पाते हैं एक भी कतरा
सुख का फ़ानूस जल-जलकर बुझ जाता है
दुःख है कि टिका रहता है ध्रुव तारा की तरह
अपने निर्धारित स्थान पर- स्पष्ट और धवल
दुःख आसमान है-रंग नीला और सीमाहीन


भले बंजर हो चुकी हो मेरे आँखों की जमीन
और अभिघात बन चुका दिखता हो जीवन
मैं गाउंगी गीत बहारों के, भुलाकर अवसाद
कि कर पाये उम्मीद निराशा पर वज्र संघात
रखा है मौत का सामान जहाँ हर कदम पर
वहाँ ज़िंदा रहना ही है मेरा एकमात्र प्रतिवाद

Saturday, October 31, 2015

भूख-2

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तोड़कर धरती की गहरी नींद
जग उठता है मिटटी का चूल्हा
अदृश्य सीढ़ियों से उतर आती है भूख


किसी हवन कुण्ड सा दिखता है चूल्हा
भूखे साधक को, पेट भरने के अनुष्ठान में
साधना को भंग करती है तृप्ति
चूल्हा ध्यानमग्न हो जाता है धरती की साधना में


बीत गया एक अरसा, बीते हुए मिट्टी को चूल्‍हे से
कितने साधक आए, की साधना और चले गये
गुम हो गये, लौटकर भूख के अतृप्त प्रदेश में
बनकर साक्षी देखता रहा समय का पैगंबर


नहीं जगाता अब किसी को भी नींद से मिट्टी का चूल्हा
कि धरती को अब नींद ही कहाँ है आती
भूख है कि अदृश्य सीढ़ियों से फिर भी उतर आती है!


----सुलोचना  वर्मा--------

प्रश्न

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कितनी करवटों से बनती है एक रात
कितनी लम्बी रात से तय होती है दूरी 
समझ सकते हो?


कितने बड़े अपराध से उपजता है भय
कितने बड़े भय से छूट जाता है साथ
बता सकते हो क्या ?


कितनी लम्बी बातों में हो जाता है प्रेम
कितने गहरे प्रेम में छूट जाता है संसार
जो करते प्रेम , तो बता पाते!


कितने बड़े दुःखों से जन्म लेता है अवसाद
कितने भीषण अवसाद में ख़त्म होते हैं हम
प्रतिपल, निःशब्द


कितनी उपेक्षा से मरता है कोई सम्बन्ध
कितने सम्बन्ध हैं अपेक्षाकृत महत्वपूर्ण
समझ पाये हो ?


कितनी दुश्चिंताओं में ढूँढा जा सकता है तुम्हें
कितने ढूँढें जाने पर मिल सकते हो तुम
हो सके तो बताना, प्रतीक्षा रहेगी


कब तक इतने प्रकाश वर्ष रहूँगी मैं प्रतीक्षारत ?

----सुलोचना  वर्मा--------

Monday, October 12, 2015

आकार

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सब जानते हैं  
कि वह नही बेल पाती
चाँद सी गोल रोटियाँ
और ना ही बेल पाती है
समभुज त्रिकोण वाले पराठे


पर वह भरती है पेट कुछ लोगों का
लाकर चावल, आंटे, नमक और घी
साथ ही लाती और भी कई ज़रूरी सामान
जो होने चाहिए किसी रसोई में

है शुद्ध कलात्मक क्रिया
पेट भर पाना, अपना और औरों का
कि जहाँ पेट हों भरे ,
लोग निहार सकते हैं चाँद को घंटों
और कर सकते हैं चर्चा उसकी गोलाई की


भरा पेट देता है दृष्टिकोण
कि आप देख पाएँ
बराबर है त्रिभुज का हर कोण


सामान्य है ना बेल पाना
रोटियों और पराठों का
कमाकर लाना भी सामान्य ही है


असामान्य है समाज का स्वीकार लेना
एक ऐसी स्त्री को, जो सभी का पेट भरते हुए
नही बेल पाती है सही आकार की रोटी और पराठे 


रसोई के बाहर अमीबा नज़र आती है स्त्री

-----सुलोचना वर्मा-------

Sunday, October 4, 2015

मैं बुद्ध हुई जाती हूँ

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मेरे दिशाहीन सपने
ढूंढ़ते हैं आवारा रातों में
झड़े हुए हरश्रृंगार के कुछ फूल
बिजली की तार पर बैठा नीलकंठ
या नील नदी की लुप्त कोई एक धारा


जैसे लिख जाना चाहते हों समय के पन्नों पर
कुछ सुन्दर महकते यादगार बेशकीमती लम्हें
जैसे उकेर रहे हों कैनवास पर मुक्ति को आतुर आत्मा
और शायद थोड़ा शोक पतझड़ में पेड़ से गिरे किसी पत्ते का


आह! मैं बुद्ध हुई जाती हूँ आवारा रातों में सपनों के बोधिवृक्ष तले

-------सुलोचना वर्मा-----------

मुझे होना था

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मुझे होना था किसी चट्टान की तरह
कि तोड़ पाती तुम्हारे दर्प के आईने को
और तुम देख पाते अपना खण्डित प्रतिबिम्ब
काँच के हर टुकड़े में अपनी ही आँखों से
फिर कहते मन ही मन उठाते हुए कोई टुकड़ा 
ओह! तो ये मेरे पाप का उनहत्तरवाँ  हिस्सा है!!


हो सकती थी मैं कोई ऐसी शक्तिशाली लहर
जो बहा ले जाती तुम्हारे भय की जलकुम्भी को
और सौंप आती उसे समयपुरुष के पास
कि तुम जान पाते नहीं होता है कठिन इतना भी

वैतरणी पार करना और मुक्त हो जाना दुविधा से
फिर तुम कहते- ओह! तो मैं कैद था अब तक!!


समय के आईने में देखा कि तुम्हारा दर्प पहाड़ था
तुम्हारे भय के समंदर में मैं बह गयी बन जलकुम्भी
समयपुरुष मुझे सौंप आया, मेरे सामने संसार था


सुनो! मुझे प्रेम का बिरवा बोना था, हाँ मुझे होना था!!!

------सुलोचना वर्मा------

दीवाली बोनस

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लौटते हुए फैक्ट्री से घर को इक शाम
बाँध लिया रुमाल में सरफुद्दीन मियाँ ने
एक कतरा चाँद की नवजात रौशनी का
कि नहीं दिया मालिक ने इसबार कुछ भी


घर गए, रखकर रुमाल बेटी के सर पर कहा -
तुम्हारे चेहरे के नूर से ही रौशन है ये जिंदगी
कौन दे पाता इससे बड़ी कोई दीवाली बोनस


घर में जला संतोष का दीया

----सुलोचना वर्मा--------

Sunday, September 27, 2015

माया

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1.
वह गयी बाजार लेने सौदा
और ले आई एक झोला दुःख
पाव भर अवसाद
एक कनमा तिरस्कार के साथ
कई किलो बेबसी
कि कुछ दुःख बाजारू थे 

2.
फूलों की तरह रंगीन था उसका दुःख
उसकी आँखों में था दुःख रक्त जवा का
जमा था सीने में नीला अवसाद अपराजिता का
दहक रहा था उसके अंतस में तिरस्कार का पलाश
बेबसी महक रही थी हर पल बन रजनीगंधा
जबकि कुछ भी नहीं था सुन्दर उसके जीवन में फूलों जैसा


3.
उसने ख़ारिज किए दुनिया के तमाम रंग औ' बाजार
और जा बैठी रूखे बाल लिए जिंदा ही अंतिम स्थान पर
जलती चिता पर उसके अट्टहास ने धरा मायावी रूप
माया से हुए लोग आकर्षित, चर्चा हुई उसकी दिव्यता की 
भरने लगी उसकी झोली सस्ते और मँहगे चढ़ावों से
कि माया के बाजार से बड़ा कोई बाजार नहीं होता


सुख के रंगीन बाजार में भटकती है अदृश्य माया!!!

-------सुलोचना वर्मा------------

Saturday, September 19, 2015

चीनी का पराठा

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पकड़ लेते हैं बच्चे माँ का आँचल
देखकर तवे पर पकता चीनी का पराठा
थमाती है माँ पराठा जो होता है कड़क
माँ की नयी ताँत की साड़ी की तरह


चमक उठती है बच्चों की आँखों में
अखण्ड ज्योति की शोभा यात्रा

एक-एक रवा मीठी मुस्कान देकर माँ
करती रहती है किसी किसान की तरह
प्रत्यारोपित प्रेम परिवार के बेहड़उर में


--------सुलोचना वर्मा -------------

Friday, September 11, 2015

उन दिनों-२ (पिता के लिए)

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पड़ जाते थे बल पिता की पेशानी पर उन दिनों
सोचते हुए हमारे उज्जवल भविष्य के विषय में 
पर हम नहीं देख पाते थे चिन्ता उन रेखाओं में
और करते थे याद मानचित्र पर बनी कर्क रेखा को


उन दिनों हमारी समस्त चिन्तायें करती थी वास 
पृथ्वी की उत्तरतम काल्पनिक अक्षांश रेखा पर
जिसपर चमकता है सूर्य लम्बवत दोपहर के समय
तब आकाश के चाँद से लेकर परियों के देश तक
भौगोलिक हुआ करती थीं हमारी तमाम समस्यायें


पिता के मेहनत से जमा हुई सिक्कों की रेजगारी
तो हमारे रंगीन सपनों में उग आये ऊँचे पहाड़
वह दूरदृष्टि ही थी किसी उपत्यका में बसे पिता की
कि हम लाँघ सके चुनौतियों की कई पर्वत श्रृखला


अब, जबकि समय बह गया है पानी की तरह
सोच रही हूँ इस जीवन के डमरुमध्य में खड़ी मैं
पिता ने जोड़े थे परिश्रम की दोमट मिट्टी के कण
तब जाकर कहीं उर्वरा हुई हमारी जीवन की जमीन


याद नहीं रहता मुझे कोई भी मानचित्र आजकल
जब भी देखती हूँ अब, मुझे पिता ब्रह्माण्ड लगते हैं|


-------सुलोचना वर्मा---------

हवा का रुख बदल रहा है

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हवा का रुख बदल रहा है!
बता गये लौटते हुये ओखला विहार के प्रवासी पक्षी
हरे-भरे पेड़, जो काटे गये रोजगार के नाम पर
काटे जाने से पहले बता गये कि रुख बदल रहा है!
कह गयी पुरवैया चुपके-चुपके से कानों में
कि देखो- हवा का रुख बदल रहा है!
सुबह और शाम निरन्तर बढ़ती धुएं की मोटी परत
जो कि हासिल है विकास की, चिढ़ा कर कहती है
बदल रहा है! बदल रहा है!
हवा का रुख बदल रहा है!

खेतों में लगा प्याज कह रहा है टमाटर से
बदल रहा है! हवा का रुख बदल रहा है!
हरे खेतों पर उग आये कंक्रीट के जंगल
कब से बता रहे हैं  --- बदल रहा है!
धुंधलाता तारा, बाउल का इकतारा 
सभी तो कह रहे हैं  --- बदल रहा है!
बदल रहा है! बदल रहा है!
हवा का रुख बदल रहा है!

गँवायी जिन्होंने जमीन भूमि अधिग्रहण में
बसी रही गरीबी जिनके घर के हर कण में
उन्हें तो पता है --- बदल रहा है!
चाय बगान के दरवाजों पर लटकते ताले
खाने को नहीं जिनके सूखी रोटी के निवाले
उन्हें तो पता ही है --- बदल रहा है!
बदल रहा है! बदल रहा है!
हवा का रुख बदल रहा है!

पत्रिकाओं में कवि और अखबार की छवि
सभी बता रहे हैं  --- बदल रहा है!
इस दौर का खुलूस, सड़कों का जुलूस
बता रहा है  --- बदल रहा है!
विचार अक्षुण्ण, बुद्धिजीवी का खून
कह रहा है --- बदल रहा है!
बदल रहा है! बदल रहा है!
हवा का रुख बदल रहा है!

-------सुलोचना वर्मा------------

Wednesday, September 9, 2015

आखिरी संवाद

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उस आखिरी संवाद में उसने खर्चे 
शब्दकोष के सबसे सधे हुए शब्द
की प्रेम की सबसे सुन्दर व्याख्या
सम्बन्ध को कहा प्रकृति का प्रारब्ध


खर्चे हुए शब्दों में थी गरमाहट
डेगची से निकलती भाप जितनी
प्रेम की व्याख्या में थी मादक गंध
होती है जैसी हिरण की कस्तूरी में 


सम्बन्ध को रखा उसने वक़्त के सरौते पर
कसैला ही निकलना था झूठ की कसैली को
देखा गया है ऐसा युगों से कि होता है अक्सर

विश्वासघात का प्रारब्ध ही सच्चे प्रेम की नियति

-----सुलोचना वर्मा------

Thursday, August 27, 2015

आरक्षण

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मानो बनाया गया हो खड़िया मिट्टी से 
आयताकार आरेखों का समुच्चय
जैसा बनाती थी लडकियाँ कितकित खेलते हुए
और कहा गया हो कि-" ये लो है तैयार 
तुम्हारे हिस्से का आयत 
जहाँ चलना होगा तुम्हें एक पाँव पर
अपने अंतिम पड़ाव तक रोके साँस" 


ठीक ऐसा ही समुच्चय  है हमारे देश में भी
जाति व्यवस्था के आयताकार आरेखों का
जो हो रहा है संकीर्ण दिन - प्रतिदिन


आप गरीब हैं तो बन सकते हैं अमीर
चाहें तो कर सकते हैं धर्म परिवर्तन भी
पर नहीं सौंपी गई परम्परा की ऐसी थाती
जिससे बदल सके आप अपनी जाति

बिसरा चुकी है कितकित को आज की नयी पीढ़ी
जोड़कर उन्ही आयतों को राजनेता बना रहे हैं सीढ़ी
ओलिंपियाड सा बन गया है प्रजातंत्र का खेल 
खून बहाती, लाश बिछाती चली आरक्षण की रेल

-------सुलोचना वर्मा ------------

Thursday, August 20, 2015

छाता

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सावन रहा और रही बारिश
रही मैं और रहा मेरा छाता 
जो रहा मुझे इतना प्रिय
कि बारिशों से मैं छाते को बचाती रही
और मुझे बारिशों से प्रेम सा होता रहा


अंतस रहा कि भींगता ही रहा
कि मन के पास नहीं रहा छाता
सिहरन भर बस कुछ बूंदें ही रहीं
रहीं जो उभरती त्वचा पर बारहा   


बारिश जो रही कभी गुल
तो कभी मेहरबान रही
एक विश्वास रहा फिर भी
जो छाता बन तना रहा


----सुलोचना वर्मा ------

Tuesday, August 11, 2015

लोहे का पुल

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कुछ समय पहले हमारे गाँव बखरी बाज़ार जाते हुए 
पार करना होता था लोहे का एक पुल डरहा में
ठीक इसके नीचे बहती थी एक टूटे कमर वाली नदी
जो चमक उठती थी तेज धुप में आईने की तरह


पड़ गई हैं अब बहुत दरारें इस जर्जर लोहे के पुल मे
गाँव वालों के साथ सरकारी महकमे के रिश्तों की तरह
और ढह सकता है यह किसी भी क्षण भरभरा कर
इस देश के जननायक के प्रति हमारी आस्था की मानिंद


गाँव वाले यहाँ तक आते तो हैं तेज क़दमों से चलते हुए
पर ठिठक कर हैं रुक जाते कि विपत्ति अचानक ही है आती  
हालाँकि नीचे बहते नदी में इतना भी नहीं बचा है पानी
कि डूब सके कोई एक साल का बच्चा भी इसमें
फिर कौन होना चाहेगा आहत कीचड़ में सन कर
जबकि नहीं छुपी है सरकारी अस्पताल की हालत किसी से
जो कि है इस जगह से कोई चार -पाँच मील दूर


करती हूँ फिर भी यह उम्मीद मैं
कि जाऊं जब अगली बार मैं अपने गाँव 
देखूं कि हो गयी है मरम्मत टूटे पुल की
जो लोहे का होकर भी जर्जर है पड़ा 
दौड़ रहें हो उस पर लोग और मोटर गाड़ी
कि वह महज एक लोहे का पुल ही नहीं
जरिया है सम्पर्क का, दस्तावेज है इतिहास का 
जिसे नहीं बहने देना चाहिए सूख चुकी नदी में भी
कि बचा रहा इतिहास और बचा रहे सम्पर्क
फिर साथ गाँव वालों का बना रहे न रहे !!!


--------सुलोचना वर्मा---------------

Sunday, August 9, 2015

शून्य

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हो जाती हैं महत्वपूर्ण अक्सर कई छोटी-छोटी बातें
जैसे होता है स्थान बड़ा शून्य का अंकगणित में
हो जाता है शून्यमय विवेक, शून्य का नाम ही सुनते 
विलीन हो जाना होता है हमें भी शून्य में ही एक दिन
नहीं बताया आर्यभट्ट ने कि यह सत्य था शाश्वत युगों से


नहीं बताया सरसतिया ने भी एक राज अपने प्रेमी से
कि वह गयी है जान कि वह है एक ऐसी शून्य
जिसके पहले लगे हैं कई अंक प्रेमी के अंकगणित में 
कि शून्य हो गये हैं भाव उसकी झूठी आँखों के
और शून्य हो गया है स्वाद उसके होठों का 


सरसतिया अब प्रेम में आर्यभट्ट बन रही है
फिर ज़रूरी नहीं होता हर बात का बताये जाना !!!


--------------सुलोचना वर्मा----------------------

Wednesday, August 5, 2015

इरोम चानू शर्मीला

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हौआ नहीं होता है मौत का आना
आप हो सकते हैं खर्च ठीक उसी तरह
जैसे खराब नल से टपकता है पानी


मृत्यु है जैसे कोई एक मछुआरा
जिसने फैला रखा है जाल हर तरफ
जल थल और आसमान तक में
आप मर सकते हैं बिना किसी योजना के
बस, ट्रक या मोटर कार के नीचे आकर
या फिर उतर सकती है पटरी से रेलगाड़ी
जिसमें आप इस वक्त सफर कर रहे हैं
फिर आम है विमान का दुर्घटनाग्रस्त हो जाना


हौआ नहीं होता है मौत का आना
आप हो सकते हैं खर्च ठीक उसी तरह
जैसे खराब नल से टपकता है पानी


चकित करता है मुझे अक्सर जिंदा रहना
उस बहादुर स्त्री इरोम चानू शर्मीला का
जिसने किया है इनकार मर-मर कर जीने से
और मर रही है हर पल जी-जी कर
जैसे उँगलियों को चाट रही हो खाने के बाद
कुछ इस तरह स्वाद ले रही जीवन का


जहाँ हममें से अधिकांश बीता रहे हैं जीवन
वह कह सकती है कि उसने इसे जीया सार्थकता से
बिस्कुट के छोटे - बड़े टुकड़ों की तरह नहीं
बल्कि पान की गिलौरी की तरह चबाकर


मुझे वह किसी किसान की तरह लगती है
जो रोप रही है बीज जीवन में आशाओं के
उसकी सोच जो है किसी पारसमणि के समान
मैं चाहती हूँ जा टकराए नियति का पत्थर उससे
और सोने सा चमक उठे मानवता का चेहरा


हौआ नहीं होता है मौत का आना
आप हो सकते हैं खर्च ठीक उसी तरह
जैसे खराब नल से टपकता है पानी


---------सुलोचना वर्मा -----------

Sunday, July 12, 2015

विज्ञान

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आख़िर ढूँढ ही लिया विज्ञान ने तुम्हारे मकबरे को
जहाँ सोये पड़े हो हजारों सालों से तुम चिरनिंद्रा में


सबसे आसान रहा जान लेना तुम्हारा नाम तुतनखामन
कि वह खुदा था सोने की ताबूत में और संकेतों में भी
फिर खोला एक-एक कर पट्टियों को तुम्हारी ममी से
जब वो कर रहे थे ऐसा क्या तुम्हे दर्द हुआ था तुतनखामन?


कंप्यूटर टोमोग्राफी ने बताया तुम्हारा भोजन था पौष्टिक
कि तुम्हारी हड्डियों में अब भी मौज़ूद थे खनिज पदार्थ
और फोरेंसिक विश्लेषण ने तुम्हारी उम्र बताई उन्नीस
क्या तुम्हारे पास खाने की आहार योजना थी तुतनखामन?


सुन्दर बनावट तुम्हारे नाखूनों की कर रही थी इशारा
शाही परिवार से तुम्हारे करीबी ताल्लुकात की ओर  
फिर बिखरा था मकबरे में कीमती चीजों का जखीरा
क्या तुम जानते थे कि राजाओं को भी मरना होता है तुतनखामन?


विज्ञान का कमाल ही है कि हम जान पाए तुम्हारे बारे में
पर विज्ञान अपनी प्रोद्योगिकी से नहीं कर पाया अविष्कार
किसी ऐसे यंत्र का जो माप सके दुःख अल्पायु में मरने का
या माप सके संतोष एक किशोरवय राजा के दफ्न होने का
अपने ही दो मृत जन्मे नन्हें राजकुमारों के बिलकुल पास
क्या तुम्हारा प्रसिद्ध श्राप विज्ञान के लिए था तुतनखामन?

 ------सुलोचना वर्मा---------

Sunday, July 5, 2015

यात्रा

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जब कभी जाना रहा मुझे बंगलुरु
हवाई जहाज से की यात्रा मैंने
कि मेरे पास रही समय की कमी

 
चुना मैंने रेल मार्ग हमेशा ही 
मैं जब कभी भी गयी बेगुसराय
कि मेरी आमद भी रही सीमित

 
मैं चुनूँगी जल मार्ग उस रोज
जाना हुआ जब बोरा बोरा द्वीप
कि फैला सकूँ पैर कुछ ज्यादा

 
जहाँ घट रहा है पृथ्वी का आयतन 
और सिमट रही है हमारी धरती
बढ़ रही है दूरियाँ बस इंसानों के बीच

 
बताओ न, अक्कड़ बक्कड़नुमा यात्राओं के
इन बं बे बो वाले जाने-माने पड़ावों से भी पड़े
कौन सा है मार्ग जो तुम्हारे हृदय तक पहुँचे!

 
----सुलोचना वर्मा------------

Tuesday, June 30, 2015

उचित है

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उचित है बचे रहना थोड़ी संवेदना का
असंख्य सीपियों की मांसल छाती में
कि बरकरार रहे हरापन समंदर का


उचित है लहराते रहना काले बालों का
तमाम लड़कियों के सुन्दर चेहरों पर
कि दुनिया ले सुध आकाश में जमे मेघ की


उचित है विदा लेना मनुष्य का अपने भ्रम से 
प्रेम की रात ढलने से भी पहले ही जीवन में
कि चला जाता है विद्युत् आँधी के पूर्वाभास में


उचित है उठा लेना काँधे भर ज़िम्मेदारी
जीवन में बने खूबसूरत रिश्तों का
कि बना रहे फर्क प्रेम और सुविधा में


स्वार्थ के दौर का का गुजर जाना उचित है|

-------सुलोचना वर्मा------------

Sunday, June 21, 2015

जन्मदाता

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लेकर जाते रहे जहाँ हम अपनी फरियाद
रही हमारे जीवन में किसी मंदिर जैसी माँ
पिता हुए तीर्थ स्थल जीवन की धरती पर
कि पूरी हुई हमारी जितनी माँगें थीं वहाँ


दुनिया में थी भीड़ और भटक जाना था तय
फिर माँ जैसा कोई अवलम्ब होता है कहाँ
हम भूले, हम भटके, फिर घर को भी लौटे
कि पिता नाम का मानचित्र अंकित रहा यहाँ


-----सुलोचना वर्मा-----

Monday, June 15, 2015

खेल-खेल में

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नहीं खेलते अब बच्चे इस देश में 
'राजा' 'मंत्री' 'चोर' 'सिपाही' का खेल
कि खेल-खेल में सारे चोर डाकू हैं बन गए
कहाँ मानते सिपाही अब पाँच सौ रुपयों में
आठसौ का मंत्री अब करोड़ों का राजा है!!

खेल-खेल में बीतता रहा सुन्दर-सा समय
खत्म हुआ रजवाड़ा खेल-खेल में ही जैसे
खर्च हो गई हजारों की बादशाहत बचपन की
स्मृतियों का चोर मगर शून्य में ही उलझा रहा !!


-------सुलोचना वर्मा-------------

Friday, June 12, 2015

शून्य के जनसमुद्र में

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हो उठा है कुत्सित ये मनहूस शहर
किसी स्तनविहीन नग्न नारी की देह के समान 
और रात है एक पेड़ जिसपर लटक रहा है लालच
बनकर चमगादड़ों का कोई झुण्ड


खो गयी है इक रात उसके जीवन की 
जिसे वह जी सकती थी सोकर या जागते हुए
जिसे पी गया है अंधकार स्वाद की ओट में
और अवाक रह गयी अभिसार को निकली युवती


कहाँ से ढूँढे सांत्वना का कोई भी शब्द ऐसे में
जहाँ ले चुकी हैं समाधि हमारी भावनाएँ
गूँजती हो जहाँ साज़िश शून्य के जनसमुद्र में
जहाँ भोर होते ही पूजी जायेगी फिर एक कन्या


------सुलोचना वर्मा--------------

Thursday, June 4, 2015

मस्कुलर डिस्ट्राफी

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उसके नसों में बह रही है रिक्तता लहू की तरह
जो उसकी आँखों में है ठहरा, वह सूनापन है
शिथिलता जमी है मांसपेशियों में बर्फ की तरह
उसके अन्दर चरमराता हड्डियों का कम्पन है


उसकी साँसों में है दुर्गन्ध निराशा की
दिल की जगह जो धड़क रहा वो भय है
 जिंदा रहना उसका है एक बड़ी चुनौती
जो उसके रोमकूपों में है बसा, वो प्रलय है


उसकी साँसे तो चल रहीं हैं, पर वह जिंदा नहीं है
उसे इच्छा-मृत्यु देने में लोगों की सम्मति नहीं है
मुझे वह हम्पी के चट्टान से बने रथ की तरह लगती है
जिसमे पहिये तो लगे हैं, पर गति नहीं है|


-------सुलोचना वर्मा -----------

Sunday, May 24, 2015

स्त्रियाँ स्वतंत्र हैं

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इस देश की स्त्रियाँ स्वतंत्र हैं
कि शोध करे कण भौतिकी पर
और ठीक स्वर्ण पदक पा लेने के बाद
घर बैठे बन बेरोजगार बिना किसी ग्लानी के


वो कर सकती हैं प्रेम टूटकर किसी से
और जा सकती हैं किसी अजनबी के साथ बिताने उम्र
ऐसे में कुल की मर्यादा की रक्षा करने के लिए
इस देश की स्त्रियाँ स्वतंत्र हैं


इस देश की स्त्रियाँ स्वतंत्र हैं
कि जन सकें आठवीं बेटी बेटे की आस में
और जीतीं रहें यंत्रवत जीवन साल दर साल
किसी अनजाने भय में होकर लिप्त


वो हो सकती हैं अनुकूलित जरुरत के हिसाब से
कि उनकी अपनी कोई इच्छा ही नहीं होती
किसी भी प्रकार की ग्लानी, दुःख और पीड़ा से
इस देश की स्त्रियाँ स्वतंत्र हैं


मेरी आँखों में अक्सर खटकती है ऐसी स्वतंत्रता
कि पनपे आधी आबादी को भी करोड़ों साल बीते
पूछती है अपनी निजता की पराधीन मेरी आत्मा
इस देश की स्त्रियाँ इतनी स्वतंत्र क्यूँ हैं!!!


-------सुलोचना वर्मा---------------

Tuesday, May 12, 2015

इक्कीसवीं सदी का मानव

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उसे दंभ है अपनी सहन शक्ति पर
कि वह झेल सकता है असंख्य पीड़ा
और निहार सकता है सहचरों के बदन से रिसता खून
बिना व्यक्त किये हुए कोई भी प्रतिक्रिया
और रह सकता है बिलकुल ही सहज
फिर दे सकता है वह वर्तमान के झूठ की गवाही 
अतीत के ही किसी गुप्त दरवाजे से

वह पड़ा रह सकता है बधिरों की तरह सुनते हुए
और भूल सकता है आँखों देखी घटनाएँ भी
वह कर सकता है प्रेम का भी विनिमय पैसों से
पाया गया है ऐसा विगत कुछ वर्षों में
कि गिरा है पैसा जब-जब मूल्य सूचकांक पर
साथ ही थोड़ा-थोड़ा वह भी गिरा है


गिरने से टूट गयी है उसकी हिम्मत
बिखर गया है उसका स्वाभिमान 
सिल गया है उसका विवेक
और क्षीण हुई कई अन्य क्षमताएँ भी|


--------सुलोचना वर्मा -----------------

Tuesday, May 5, 2015

नीला मुख

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जुलाई का महीना उमस भरा होता है, पर नीला की तो जिंदगी ही उमस भरी है| पता नहीं क्या सोचकर उसके माता-पिता ने उसका नाम नीला रखा था| उस पर यह संयोग ही है कि उसे नीले रंग से भी विशेष प्रेम है|


उस रोज़ जब नीला की सास ने फोन कर उसकी माँ से उसके अस्पताल में भर्ती होने की बात बतायी, तो उनके होंश उड़ गए| अगली ही फ्लाइट से नीला के माता-पिता कोलकाता से मुंबई पहुँच गये| नाइन हिल्स अस्पताल के रिसेप्शन एरिया में जाकर नीला के पिता ने रिसेप्शनिस्ट से पूछा "नीला कौन से रूम में एडमिट है?"

"रजिस्ट्रेशन नंबर बताइए"

"वो नहीं पता, हम तो अभी-अभी आये हैं| मैं नीला का फादर हूँ"

"डू यू मीन नीला मुख़र्जी?"रिसेप्शनिस्ट कम्प्यूटर पर नाम ढूँढते हुए पूछती है|

"यस, यस, नीला मुख़र्जी"

"रूम नंबर वन जीरो फोर एट"

"थैंक यू"

कमरे में घुसते ही उन दोनों ने नीला की ओर देखा| उसके होठों पर हमेशा की तरह मुस्कान थी पर आँखों में थी अनकही तकलीफ| माँ-बाप का प्रेम जैसे ही उसकी आँखों में उतरा, दर्द ने एक के बाद एक सारे लिबास उतार फेंके| उसके पसंदीदा परिधान की ही तरह उसकी आत्मा का रंग भी दर्द से नीला पड़ गया था|

नीला ने अपने माता-पिता को बताया कि उसे पिछले दो दिनों से तेज बुखार और बदन में दर्द था| आज सुबह उसे सोकर उठने में कुछ ज्यादा ही देर हो गयी और घर का सारा काम खत्म करने के बाद दिन का खाना बनाने में देर हो गयी| मेज पर खाना लगाकर उसने जैसे ही पुलक को आवाज दी, वह नीला को गालियाँ देता हुआ तेजी के साथ अपने कमरे से निकला और मेज तक आते ही उसपर रखा सारा समान उठाकर फेंकने लगा| जब नीला ने उससे ऐसा करने से मना किया तो मेज पर रखे काँटे चम्मच (फोर्क) से उसपर तबतक वार करता रहा जब तक उसकी सास ने आकर बीच-बचाव नहीं किया| उसकी चार साल की बेटी, परी वहाँ मौजूद थी जो लगातार चिल्ला रही थी "बाबा, प्लीज स्टॉप, डोंट किल माय मॉम"|  उसकी सास ने पुलक का हाथ पकड़कर कहा था कि अगर वह नहीं रुका तो नीला मर जायेगी और उसकी अपनी बेटी ही उसके खिलाफ बयान दे देगी| फिर उसकी सास उसे लेकर अस्पताल आयी जहाँ डॉक्टरों ने नीला को भर्ती कर लिया|

नीला के माँ-बाबा अवाक होकर उसे सुनते रहे| नीला के ससुरालवालों का रुख नीला के लिए अच्छा नहीं था, यह तो वह जानते थे लेकिन इतनी बड़ी घटना को अंजाम दिया जाएगा, उनकी सोच के बाहर था|

"उसने कहा उसे मेरी जैसी बीबी नहीं चाहिए"नीला रो पड़ी|

"क्यूँ?क्या बुराई दिख गई उस जानवर को तुझमे"नीला की माँ गुस्से से लाल हो रही थी|

"सुनो, रहने दो यह सब यहाँ; मैंने डॉक्टरों से बात कर ली है, नीला को कल सुबह डिस्चार्ज कर देंगे| फिर हम सब वहाँ जाकर उनलोगों से आमने-सामने बात करेंगे" नीला के पिता का दुःख अब उनके चेहरे पर उभर आया था|

"क्या बात करेंगे आप? ऐसा कोई पहली बार तो किया नहीं उसने!!! हाँ, आज उसने सारी हदें जरूर पार कर दी|"नीला इतनी मायूस हो चुकी है कि उसे लगभग पता है कि पुलक पर किसी की बात का कोई असर नहीं होना है|

अगली सुबह नीला को अस्पताल से डिस्चार्ज होने में साढ़े दस बज गए|

"पुलक तो अब घर पर नहीं होगा| तुम्हे पुलक के ऑफिस का पता तो मालूम है न ?"नीला के बाबा ने उससे पुछा|

"हम्म"नीला इससे अधिक कुछ कहने की हालत में नहीं है| उसके शरीर में अभी तक सूजन है|

अगले ही घंटे तीनों विले पार्ले पहुँच गए| नीला के बाबा ने पुलक के दफ्तर के बाहर खड़े होकर उसे फोन किया और बाहर आने के लिए कहा| सड़क के उस पार पुलक के दफ्तर के ठीक सामने बायोकॉन का दफ्तर था| नीला की माँ सामने लगे बायोकॉन के बोर्ड को एकटक देखे जा रही थी जिस पर लिखा था "द डिफरेंस लाइज इन आवर डीएनए"|

"हाँ, बात डीएनए की ही तो है| आदमी भले ही मंगल ग्रह पर चला जाय, पर पाषण युग की हिंसक प्रवृत्ति से निजात पाना उसके बस की बात ही नहीं है| यह २७ दिसम्बर, २००४ का मंगलवार नहीं है| यह तो अनंत काल से मर्दवादी सोच द्वारा स्त्रियों की मर्यादा के दमन का अमंगल दिन है| अन्तरिक्ष में पँहुच जाने के बाद भी औरतें कबीलाई समाज में ही रहती हैं और बँट जाती हैं इनकी जागीरों से लेकर उनकी वस्तुओं तक में; कुल मिलाकर स्त्री सम्पत्ति ही है|"नीला की माँ का प्रलाप शुरू हो चूका था|

"आपलोग घर चलें, वहाँ चलकर बात करते हैं| मुझे यहाँ कोई तमाशा नहीं चाहिए| मैं पार्किंग से कार निकालकर लाता हूँ"पीछे से पुलक की आवाज आयी|

दोहरे व्यक्तित्व का आदमी कितनी साफ़गोई से अपनी हैवानियत पर पर्दा डालकर इंसान बना रहता है|
दो घंटों के बाद सभी पुलक के घर पहुँचते हैं| नीला कार से बाहर आते ही जल्दी से माथे पर साड़ी का पल्लू रखती है जैसे कि माथे पर पल्लू रखने में थोड़ी देर हो गयी तो धूमकेतु आ गिरेगा|

अन्दर पहुंचकर जैसा कि नीला ने बताया था, पुलक एक ही बात दोहराये जा रहा था कि उसे अब नीला के साथ नहीं रहना है|

"क्यूँ" नीला के पिता कारण जानना चाह रहे थे|

"बस, मुझे नीला पसंद नहीं है"

"पसंद नहीं है? नीला कोई वस्तु नहीं है, जो कल पसंद आयी थी और आज पसंद नहीं है| अच्छा ख़ासा कमाते हो; फिर भी घर में कामवाली नहीं है| मेरी बेटी सुबह से रात तक तुम लोगों की तीमारदारी में लगी रहती है| फिर, हर समस्या का हल होता है| राजकुमारी की तरह पाला है हमने इसे और तुम्हे जानवरों जैसी हरकत करते शर्म नहीं आयी!!!" नीला के पिता आगबबुला हो रहे थे|

"आप अपनी बेटी ले जाइए भाई साहब| फिर कुछ हो गया तो मैं इसकी ज़िम्मेदारी नहीं ले पाउंगी" नीला की सास ने बीच में टोकते हुए कहा|

"ऐसे माहौल में बेटी को छोड़कर तो हम भी चैन से नहीं रह पायेंगे| चलो नीला, अब तुम्हें यहाँ नहीं रहना"नीला की माँ रो रही थी|

नीला कमरे में गयी और थोड़ी देर बाद सूटकेस लिए परी के साथ कमरे से बाहर आयी| फिर चारों भारी मन से नीला के ससुराल से निकल पड़े|

चार घंटे बाद नीला अपने माता-पिता के साथ अपने घर में थी| घर में प्रवेश करते हुए उसके मन में यही बात चल रही थी कि सिर्फ यही घर उसका अपना है जहाँ वह ख़ुशी में खिलखिलाकर हँस सकती है; दर्द में चिल्लाकर रो सकती है और बीमार होने पर अपने बिस्तर पर पड़ी रह सकती है| अपने कमरे में पहुँचते ही वह बिस्तर पर किसी बोझ की तरह ढह गयी| परी ने हर बार की तरह नानी से राजकुमार की कहानी सुनाने की जिद की तो नानी ने कहा "वह कहानी तो बहुत पुरानी हो गयी है| कितनी बार सुना चुकी हूँ| आज तुम्हें लक्ष्मीबाई की कहानी सुनाती हूँ|"

नीला की माँ अब नीला के साथ-साथ परी की भी देखभाल कर रही थी| एक स्थाई डर हमेशा उनके साथ चला करता था, लेकिन वह निडर बनी रहने के लिए विवश थी|

चार महीने बाद एक दिन अचानक पुलक ने नीला के बाबा को फोन किया और कहा कि वह परी को लेने आ रहा है| नीला के बाबा ने मना कर दिया| उन्होंने कहा कि परी बहुत छोटी है और उसे माँ की ज़रूरत है| इतना कहकर उन्होंने फोन रख दिया|

नीला सामने सोफे पर लेटी मोबाइल पर इयरफोन लगाकर सर क्लिफ रिचर्ड्स के गाने सुन रही थी"इट्स सो फनी, वो डोंट टॉक एनीमोर"|

"पुलक का फोन था;कह रहा था कि परी को  आकर ले जाएगा| मैंने मना कर दिया|"नीला के बाबा उसके पास आकर बैठते हुए बोले|

"हम्म" नीला गाने में लीन थी|

"तुम भी तो कुछ कहो| तुम "हम्म" "हूँ" "हाँ" से ज्यादा कभी कुछ नहीं कहती|" नीला के बाबा को नीला का मौन खल रहा था|

"क्या कहूँ? जन्मदाता हैं आपलोग, मेरे लिए जो भी करेंगे, अच्छा ही करेंगे"नीला इतना कहकर अपने पलकों पर मोतियों के दाने लिए कमरे में चली गयी|

नीला की यह बात उसके बाबा के ह्रदय को शूल की तरह बेध गयी| साढ़े पाँच साल पहले जब नीला ने अपने पड़ोस के लड़के संजीत से शादी करने की इच्छा ज़ाहिर की थी तो उसके बाबा ने कहा था "हम तुम्हारे जन्मदाता हैं; तुम्हारे लिए जो भी करेंगे, अच्छा ही करेंगे"|

नीला के बाबा अपराधबोध से माथा झुकाए बैठे रहे|

दिन, सप्ताह और महीने गुजरते रहे| नीला के माता-पिता की परेशानियाँ भी बढ़ती रहीं| आस-पड़ोस के लोग तरह-तरह की बातें बनाने लगे थे|

"पता नहीं हमारे बाद इसका क्या होगा| अगर बच्चा नहीं हुआ होता, तो फिर शादी की भी सोच सकते थे| अब इसके लिए किसी नौकरी का इंतजाम करना होगा| इसके आगे पहाड़ सी जिन्दगी पड़ी है, ऐसे ही पड़े रहने से थोड़े ही न चलेगा| इसके बाबा ने कई लोगों से बात की है पर हर कोई एक्सपीरियंस ढूँढता है| एमबीए खत्म होने के बाद हमने नीला को नौकरी नहीं करने दी| हम उसके ब्याह के दायित्व से जल्द से जल्द मुक्त हो जाना चाहते थे| तब कहाँ सोचा था कि ऐसा दिन भी आएगा" एक दिन नीला ने अपनी माँ को फोन पर किसी रिश्तेदार से कहते सुना|

नीला को अवसाद का ऑक्टोपस धीरे-धीरे जकड़ रहा था| कई बार आत्महत्या का ख्याल आता, फिर परी की ओर देखकर सोच में पड़ जाती|

सरस्वती पूजा के दिन नीला की माँ अपने कमरे से बाहर निकली और बेहोश हो गयी| एम्बुलेंस बुलाया गया और सभी अस्पताल पहुँच गए| थोड़ी ही देर बाद डॉक्टर ने आकर नीला के बाबा को बताया "इट्स माइल्ड हार्ट अटैक"|

नीला की माँ कुछ रोज़ अस्पताल रहकर घर लौट आयी| घर में इन दिनों कुछ था, जो नया था| परी को फोन पर पुलक से बात करते देख नीला की माँ को आश्चर्य हुआ|

जिस दिन नीला की माँ को दिल का दौरा पड़ा, उसी रोज़ शाम में नीला ने पुलक को फोन किया और परी से उसकी बात करायी| नीला को उस दिन लगा कि उसकी जिंदगी को ठीक करने की च्येष्टा में उसके माँ-बाबा की जिंदगी खराब हो रही थी| उसने मुंबई वापस जाने का मन बना लिया; हालाँकि वह जानती थी कि वापसी का रास्ता इतना आसान भी न था|

पिछले एक महीने से परी पुलक से बात करती और फिर ठीक उसके बाद नीला भी पुलक से बात करती| पहले पहल पुलक ने रौब दिखाया; पर नीला ने सब कुछ ठीक करने का मन बना लिया था| यह जानते हुए कि उसकी कोई भी गलती नहीं थी, वह पुलक से माफ़ी माँग बैठी| फिर पुलक भी परी को खोना नहीं चाहता था| आखिर परी भी तो उसी की संपत्ति थी|

होली से दो दिन पहले पुलक नीला और परी को लेने आया| नीला को फोन पर अपने आने की सूचना देकर वह बाहर कार में ही बैठा रहा|  नीला के माँ-बाबा उसके साथ बाहर तक आना चाह रहे थे, पर नीला ने उन्हें रोका| 
नीला परी को लेकर कार में बैठ गयी| कार आगे बढ़ता रहा और वह पीछे छूटती रही| उसे लगभग मालूम था कि दिन और तारीख के सिवाय कुछ नहीं बदलेगा|

"न जाने किस अदृश्य रेशमी डोर से बंधे हैं इन दोनों के रिश्ते| नहीं तो जो कुछ हुआ, उसके बाद इनका फिर से मिलना तो नामुमकिन ही लग रहा था| अच्छा हुआ बेटी ससुराल चली गयी| वैसे भी उसका असली घर तो वही है" नीला की माँ ने दीर्घ निश्वास छोड़ते हुए उसके बाबा से कहा|

नीला के बाबा ने कार के ओझल होते ही अखबारों के पीछे खुद को छुपा लिया|

नीला को मुंबई लौटे चार महीना हो गया| अब भी कभी घर के काम करते हुए उसके माथे से पल्लू सरकता है तो उसके माथे पर धूमकेतु आ ही गिरता है| उसके चेहरे और आँखों के नीचे का स्याह उसके नाम को पहले की ही तरह सार्थक करता है| आजकल उसके पड़ोसी आपस में बात करते हुए उसे "नीला मुखर्जी" की जगह "नीला मुख" कहकर पुकारते हैं| नीला मुख अब किसी विष वमन का प्रत्युत्तर नहीं देती; मौनव्रत धारण किये स्वयं को नीलवसना में परिवर्तित होते हुए देखती है और जिंदगी से प्रतिशोध लेती है| उधर नीला मुख के जन्मदाता खुश हैं कि नीला ने इतना कुछ सहकर भी अपने परिवार को टूटने से बचा लिया| फिर इस उपक्रम में उसके खुद के कितने टुकड़े हुए, इस सवाल का हल तो गणित के प्रकाण्ड विद्वान् भी नहीं दे सकते; फिर किसी और की क्या मजाल है|

Friday, April 3, 2015

मंजूगाथा

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ब्लू लाइन बस के नीचे आकर मंजू के पति की मौत हो गयी और दो बरस की ममता को साथ लिए मंजू नैहर

आ गयी| नैहर में अभी सात महीने ही बीते थे कि भाभियों ने उसे तंग करना शुरू कर दिया| मंजू की माँ को
यह समझते देर न लगी कि मंजू का वहाँ ज्यादा दिन रहना संभव नहीं हो पायेगा| वह मंजू के लिए नए वर की तलाश में लग गयी|
 
"अम्मा भी न हद करती हैं, कौन ब्याहेगा इस बेवा और एक लड़की की माँ को....लड़का होता तो और बात
थी; पर लड़की कोई नहीं गछेगा" उसकी भाभियाँ अक्सर आपस में बातें करते हुए कहती|
 
कई रिश्ते आते और चले जाते| फिर एकदिन पड़ोस के गाँव से एक रिश्ता आया| बीस साल की मंजू के लिए
लड़के की उम्र थोड़ी ज्यादा थी| यही कोई ३० साल का रहा होगा| पर उम्र की किसे परवाह थी!!! किशोर
सिंह ने न सिर्फ मंजू के रिश्ते के लिए हामी भरी बल्कि उसकी बेटी को अपनाने के लिए भी तैयार हो गया|
फिर क्या था, चट मँगनी और पट ब्याह|

शादी के बाद जब मंजू अपने नए ससुराल जा रही थी तो उसकी माँ ने ममता को अपने पास रख लिया|
"तू कुछ दिन वहाँ रह ले, वहाँ के कायदे क़ानून समझ ले, फिर इसे ले जाना| वैसे भी ममता ज्यादा समय अब मेरे पास ही रहती है " अम्मा ने मंजू को समझाते हुए कहा|
 
दिल पर पत्थर रखकर मंजू ने नए ससुराल का रुख किया था| यहाँ सभी कुछ ठीक-ठाक ही था| शादी के
बाद सातवें महीने जब मंजू नैहर लौटी, तो उसने अपनी माँ को बताया कि वह फिर से माँ बननेवाली है और
जंचगी तक नैहर ही रहेगी|
 
नौवाँ महीना बीतते ही मंजू ने एक लड़के को जन्म दिया| उसकी माँ को लगा कि अब सभी कुछ ठीक हो
जाएगा और मंजू की जिंदगी भी जीवन की पटरी पर दौड़ पड़ेगी| तीन महीने बाद जब मंजू ससुराल पहुंची, तो
बेटे के साथ बेटी को भी ले गयी|
 
जहाँ नन्ही सी ममता खुश थी कि वह अब अपनी माँ के साथ रहेगी; उसके यहाँ आने से परिवार के अन्य
सदस्यों की भवें तनी रहती थी| आखिरकार एक दिन किशोर ने खुद ही मंजू से कह दिया कि उसे और उसके
परिवारवालों को ममता का वहाँ रहना पसंद नहीं| उसने मंजू से ममता को वापस अपने नैहर भेजने को कहा
जिसके जवाब में मंजू ने कुछ नहीं कहा| वह अगले ही दिन अपने दोनों बच्चों को लेकर नैहर आ गयी|  जब
सप्ताह बीत गया, तो एक दिन किशोर आ धमका|  
 
"क्या हुआ, यहीं पड़े रहने का इरादा है क्या तुम्हारा"किशोर चिल्लाया|
 
"मैं तुम्हारे साथ चलने को तैयार हूँ; पर मेरे साथ मेरे दोनों बच्चे चलेंगे" मंजू की आवाज में ठहराव था|
 
"नहीं, मैं किसी गैर के बच्चे को नहीं अपना सकता; उसे यहीं रहना होगा"किशोर ने झल्लाते हुए कहा|
 
"फिर मैं अपने दोनों बच्चों को अकेले ही पाल-पोसकर बड़ा कर लूँगी| मैं अपनी बच्ची को अकेले नहीं छोड़
सकती" कहती हुई मंजू रुआँसा हो गयी थी|
 
"मैं भी देखता हूँ कि कब तक तुम्हारा यह तेवर कायम रह पाता है" कहता हुआ किशोर उलटे पाँव लौट गया|
वह लगभग आश्वस्त था कि मंजू बहुत देर सवेर उसके पास लौट आएगी|
 
नैहर रहते अभी तीन महीने ही गुजरे थे कि हालातों ने उससे अपने पैरों पर खड़े होने की फ़रमाइश करनी
शुरू कर दी| कभी बेटी को पेट भर खाना नहीं मिलता तो कभी बेटे के दूध में पानी मिलाने की नौबत आ
जाती| उसकी अपनी भूख और प्यास तो कब की ख़त्म हो चुकी थी| ऐसे में एक दिन वह अपने पड़ोस की
शीला के साथ काम की तलाश में शहर की ओर गयी और शान्ति अपार्टमेंट्स के गौतम घोष के घर में
कामवाली की नौकरी तय करके घर लौटी|
 
वक़्त के कंधे से कन्धा मिलाते हुए पता ही न चला कि कब बारह साल गुजर गए| उसकी बेटी ममता तड़के
सुबह उठकर घर के काम-काज में माँ की मदद करने के बाद सरकारी स्कूल में पढ़ने के लिए जाती थी|
स्कूल से लौटकर फिर माँ की मदद करने में जुट जाती| गाँव  के तीज-त्योहारों में ममता ही वहाँ की औरतों
को मेंहदी लगाती और जो भी पैसे मिलते, माँ को लाकर सब दे देती| उसका भाई, मनोज, सुबह देर से
उठता, तैयार होकर नाश्ता करके इंग्लिश मीडियम स्कूल जाता| स्कूल से लौटते ही गाँव के कुछ अन्य
शरारती बच्चों के साथ मिलकर किसी शैतानी में जुट जाता| मंजू अक्सर उसे लेकर परेशान रहती थी| ममता
की ममता थी कि उसे अपने भाई पर बड़ा लाड़-दुलार आता; उसकी शैतानियों पर भी|
 
मंजू जब ज्यादा परेशान होती तो अक्सर मिसेज घोष को कहती "पता नहीं क्या लिखा है मालिक ने मेरी
किस्मत में!!! इतनी मुसीबतों में भी छोड़े को अंग्रेजी स्कूल में पढ़ा रही हूँ और इक वो है कि पढ़ाई में मन ही
नहीं लगाता है| इतने पैसे ममता पर खर्च कर दूँ तो हर बार अव्वल आये"  
 
"तो ममता पर ही क्यूँ नहीं खर्च करती हो पैसे? गधे को घोड़े बनाने के चक्कर में उस बेचारी के साथ अन्याय
क्यूँ कर रही हो?"
 
"उसने पराये घर जाना है और फिर गधा ही सही, बुढापे में बेटा ही काम आएगा"
 
"कितने भाई हैं तुम्हारे?"
 
"तीन"
 
"फिर तुम्हारी माँ तुम्हारे साथ क्यूँ रहती है?"
 
कबूतर जैसे बिल्ली से बचने के लिए आँखे मूँद लेता है, मंजू बिना जवाब दिए सर झुकाए वहाँ से चल देती|
 
एक दोपहर जब मिसेज घोष टीवी में उन्नाव के किसी साधू के सपने को आधार मान भारतीय पुरातत्व संस्थान द्वारा सोने की खुदाई का समाचार देख रही थी, अचानक से कॉल बेल बजा| दरवाजा खोलते ही मिसेज घोष के सामने मंजू और ममता खड़े थे|
 
"इस समय?"
 
"हाँ, आपसे जरुरी बात करना था"
 
"हाँ, बोलो"
 
"मेरी तबियत बहुत खराब है; आप मेरा हिसाब कर दो"
  
"मतलब? क्या हुआ तुम्हें?"
 
"जी, मुंह आया है मेरा| कुछ खाया नहीं जा रहा"
 
"ये भी कोई बिमारी है भला?" कहते हुए मिसेज घोष हँसी नहीं रोक पायी|
 
"मुझे चक्कर आता है" मंजू चाहकर भी मिसेज घोष को नहीं समझा पा रही थी|
 
"डॉक्टर को दिखाओ, ठीक हो जाएगा"
 
"जी, दवाई तो ले ही रही हूँ| बस आप मेरा हिसाब कर दो"
 
"नहीं करती जा!! छुट्टी ले, आराम कर ले"
 
मंजू और ममता निराश होकर लौट गए| लौट क्या गए, फिर नहीं आये| मिसेज घोष ने कुछ दिन इंतज़ार करने के बाद दूसरी कामवाली को रख लिया|
 
लगभग एक महीने के बाद मिसेज घोष फोन पर अचानक ममता की आवाज़ सुनकर हैरत में पड़ गयी|
ममता रो रही थी|

"क्या हुआ तुम्हें?"

"आंटी, मम्मी हॉस्पिटल में है, तबियत बहुत खराब है| लगता है नहीं बचेगी" कहते हुए ममता सुबक रही थी|

"अरे, ऐसा नहीं कहते| मेरी बात कराओ मंजू से" मिसेज घोष परेशान हो उठी|

"नमस्ते दीदी" मंजू की आवाज़ लड़खड़ा रही थी|

"क्या हो गया तुम्हें?"

"अल्सर बता रहे हैं डॉक्टर"

"ओह!"

"मुझे पैसों की ज़रूरत है"

"हाँ, ममता को भेजो आज ही"

"नहीं, आज नहीं;रविवार को मैं खुद आऊँगी| आप पैसे और किसी के हाथ में नहीं देना; खासकर मेरे बेटे
को"

"ठीक है, जैसा तुम कहो" फोन रखकर मिसेज घोष अवसाद भरी चिंता में डूब गयी| थोड़ी देर बाद खुद को
सम्भालते हुए उठी और हड़बड़ी में नम्बर डायल करने लगी|

"शुनछो गौतोम, मोंजू आर बांचबे ना (सुनो गौतम, मंजू अब नहीं बचेगी)" मिसेज घोष ने पति को फोन लगाया|

"बांचबे ना? माने?(नहीं बचेगी? मतलब?)"

"ओर अल्सर होयेछे, ओ हॉस्पिटल ए(उसे अल्सर हुआ है, वह अस्पताल में है)"

"ओह"

फिर एक लम्बे मौन के बाद दोनों फोन रख देते हैं| पति-पत्नी, दोनों  ही बड़े संवेदनशील हैं|

यूँ तो रविवार का इंतज़ार हर बार लम्बा होता है; पर इस बार कुछ ज्यादा ही लम्बा था|

"तेरे आने का धोखा सा रहा है.........दिया सा रात भर जलता रहा है"शाम के वक़्त मिसेज घोष बेगम अबीदा परवीन के गाने सुन रही थी| कॉल बेल की घंटी के बजते ही दरवाजे की ओर भागी| सोचा शायद मंजू आयी होगी| दरवाजा खोला तो देखा मनीषा थी, उनकी नयी कामवाली|

"सुबह क्यूँ नहीं आयी?"

"क्या बताऊँ मैम, हमारे गाँव की एक लड़की आज अचानक से ख़त्म हो गयी| मैं वहाँ चली गयी थी|"

"हाँ, सारे गाँव का ज़िम्मा तुमने ही तो ले रखा है" मिसेज घोष ने व्यंग करते हुए कहा|

"मैम, यूँ तो कुछ ख़ास मिलना नहीं होता था हमारा, पर उसकी बेटी का रोना देख नहीं रहा गया| बहुत बुरा
हुआ उसके साथ...." मनीषा बोलती ही चली जा रही थी|

"बेटी?"मिसेज घोष को अचानक याद आता है कि मनीषा का ससुराल ही मंजू का मायका है|

"हाँ, आप तो जानते हो उसे| आपके यहाँ काम करने वो भी तो अपनी माँ के साथ आती थी"

"कौन? ममता?"

"हाँ"कहकर मनीषा बर्तन माँजने में व्यस्त हो गयी|

मिसेज घोष झट से फ़ोन लेकर मंजू का नंबर डायल करना चाहती है| अभी-अभी जो सुना, उस पर भरोसा
नहीं हो पा रहा है| मंजू का नम्बर बंद हो चूका है|

मिसेज घोष आँखों को बंद किये रॉकिंग चेयर पर झूलती रही|

भला हुआ मेरी मटकी फूटी रे.......... मैं तो पनिया भरन से छूटी रे ................ अबीदा तो जैसे मंजू के लिए ही गा रही थी|

एक महीने बाद, वह भी रविवार का दिन था| ममता अपनी नानी के साथ आयी| उसकी माँ ने मरने से पहले
उसे मिसेज घोष से पैसे लेने को कहा था| आज ममता ने अपनी माँ की चुन्नी से अपना सर ढँका हुआ था|
मिसेज घोष ने सवालों के ढेर लगा दिए| ममता चुप रही| उसकी नानी बता रही थी कि मंजू का दूसरा पति
आकर मनोज को अपने साथ ले गया| कहकर गया था कि मंजू का अंतिम संस्कार करने के सप्ताह बाद उसे
लेकर वापस आ जाएगा| एक महीना गुजर गया, अब भी लोगों को उसके आने का इंतज़ार है|
मिसेज घोष ने ममता के हाथों में रूपये पकड़ाते हुए कहा कि किसी भी मुसीबत में वह उनके पास आ
सकती है| यह सोचकर कि अब ममता का ख्याल रखनेवाला कोई नहीं है और सर्दियाँ दस्तक दे चुकी हैं,
ममता को नया कम्बल भी दिया|

कई महीने गुजर गए| मनोज अपनी नयी दुनिया में व्यस्त हो गया| उधर ममता ढूँढ रही है लोगों की आँखों में अपने लिए थोड़ी सी ममता..... 
 

Monday, March 16, 2015

अन्नदाता

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वह मरता तो है आम इंसानों की ही तरह
ख़त्म होती है उसकी भी चिंता उसी के साथ
और छूट जाता है संघर्ष से उसका सम्बन्ध भी मरकर  
पर मिट्टी में मिलकर उसकी तरह कोई खुश नहीं होता


जहाँ आम इंसान छोड़ जाता है वसीयत मरने से पहले
वह छोड़ जाता है अपने हिस्से की धूप बच्चों की खातिर
कभी रख जाता है एक जोड़े बैल तो कभी एक ट्रैक्टर
और दे जाता है उन्हें अन्नदाता बने रहने की ज़िम्मेदारी 


जहाँ टंग जाता है आम इंसान मरते ही दीवारों पर अक्सर
कृत्रिम फूलों की माला से सजे सुन्दर महँगे फोटो फ्रेम में
मर जाना अन्नदाता का यहाँ एक बेहद ही आम घटना है
एक ऐसी आम घटना जिसका कहीं कोई ज़िक्र नहीं होता


जहाँ अन्नदाता पसीना बहाकर मेहनत से अन्न उगाते हैं
आम इंसानों की इस धरती पर देवी व देवता पूजे जाते हैं
ये अन्नदाता भी कहीं न कहीं देवताओं की तरह ही होते हैं
जहाँ हो सुख और पेट हों भरे, अन्नदाता कहाँ याद आते हैं 


------सुलोचना वर्मा --------

Sunday, March 15, 2015

किसान

भर आया फागुन का आकाश
तो भर आया उसका भी गला
और भर आई उसकी आँखें भी


ज्यूँ बरसने लगी बूँदे बारिश की
और धीरे-धीरे मिट्टी बैठ जाने लगी
बैठने लगा उसका कलेजा भी


सो गयी खेत में खड़ी फसल
जगी रही बर्षा रानी कुछ यूँ
जागता रहा सोते हुए वह भी


रुकी बारिश कर फसल बर्बाद
बर्बाद हुआ वह फसल से ज्यादा
वह इंसान तो है ही, किसान भी


-----सुलोचना वर्मा ---------

Wednesday, March 11, 2015

प्रकृति में प्रकृति

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वह गर्मियों में घूमने नहीं गयी हिमालय
और जमने दिया बर्फ अपनी इच्छाओं पर
नहीं देखा उसने कभी पुरी का समंदर भी 
पर डालती रही रेत आँखों के सैलाब पर

नहीं पढ़ा कभी न्यूटन के गति का तीसरा नियम
फिर भी करती रही कड़ी मेहनत घर और बाहर
सुनाया ही कब किसी ने हिग्ग्स बोसॉन के बारे में उसे
विश्वास रहा कि मानती रही कण-कण में होता है भगवान्

नहीं चखा अभी तक घर में पड़ा सल्फास उसने
और मरती रही देखकर फरवरी महीने की बारिश
वह निश्चित तौर पर किसान की पत्नी ही रही होगी
प्रकृति में प्रकृति को भला और किसने जिंदा रखा है

----सुलोचना वर्मा-------

Sunday, March 1, 2015

भूख

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मैंने देखा है उन्हें भूख से कुलबुलाते हुए
जब पार होती है उनके सहने की सीमा
वो चबाने लगते हैं संविधान के ही पन्ने
या शहीदों पर चढ़ी माला के फूलों को 
जिससे थोड़ा और पंगु हो उठता है देश
और थोड़ा भारी हमारे मुल्क की पताका
जो फहर तो जाती है ऊँचे आसमान में
विश्व के मानचित्र पर गर्व से नहीं लहराती


अब यह कोई आम भूख तो है नहीं
जो लगे अलसुबह के नाश्ते से लेकर
रात के खाने तक के सफर के ही बीच
यह एक ऐसी भूख है जो कभी नहीं मिटती
इसीलिए जब कभी नहीं भरता उनका पेट
मिठाई, रोटियों, फलों या सब्जियों से
जानने को अपनी इस भूख का आयाम
वो किसानों की जमीन ही खा जाते हैं


-----सुलोचना वर्मा----------

Wednesday, February 25, 2015

नागफनी

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पल्लवी के आते ही मधुपुर के सतीश का मकान घर जैसा दिखने लगा था| घर के आँगन में, जहाँ पहले चापाकल और एक नीम का पेड़ एक दूसरे का आसरा बने खड़े थे, अब वहाँ चारों ओर क्यारियों में सुन्दर-सुन्दर फूलों के इर्द-गिर्द तितलियाँ मंडराती फिरती थीं| घर साफ़ सुथरा रहने लगा था| ठीक जैसे वह सुलगती रहती अन्दर ही अन्दर, आँगन के बीच में तुलसी चौरे पर अब एक दीया जला करता था| शाम में जलते हुए दीये की रौशनी के बीच उसका मन बुझा-बुझा सा रहता|


घर में वैसे तो किसी चीज़ की कमी नहीं थी; पर शादी हुए दो साल बीत गए थे और घर में किलकारियाँ नहीं गूँजी थीं| वैसे तो पिछले एक साल से सतीश और पल्लवी शहर के सात चक्कर लगा आये | हर बार अलग-अलग डॉक्टरों ने सभी कुछ ठीक होने की बात कही, पर जैसा कि होता आया है, दोषी सिर्फ स्त्री ही मानी जाती है| समाज के साथ-साथ पति ने अपनी ज़िम्मेदारियाँ निभायीं|


"मरुभूमि में नागफनी ही उगता है; फूल नहीं खिलता...." कहता हुआ पति स्वयं को दोषमुक्त प्रमाणित करने की कोशिश करता|

पल्लवी सारे जहान का ताना बर्दाश्त कर लेती, परन्तु पति की बात सुनते ही नागफनी के कांटे सा कुछ उसके मन में चुभने लगता| वह सतीश की बातों का कोई जवाब नहीं देती| हर बार घर के अहाते में लगे नागफनी से एक डाल काटती और उसे आसपास रोप देती| इसप्रकार मन में चुभते शब्दों पर धैर्य की मिटटी डाल देती| शादी के पहले साल मनसा पूजा के लिए पड़ोस से नागफनी की एक डाल काटकर ले आई थी| पूजा कने के बाद उसे घर के अहाते में रोप दिया था| पल्लवी बिला वज़ह ताना सुनती रहती और घर के काम काज में दिल लगाती|

गुलाब, पड़ोस के ही गाँव इस्लामपुर का रहनेवाला था और मधुपुर में घर-घर जाकर अंडे बेचता था| वह सप्ताह में मधुपुर के दो चक्कर लगा ही लेता था| वह जब भी सतीश के घर जाता, पल्लवी अंडे लेकर रसोई की ओर जाती और लौटते हुए गुलाब की हाथों में चार बताशे थमाती हुई पानी की गिलास पकड़ाती| फिर रूपये देकर उसे विदा करती थी| गुलाब को पहले पहल यह अटपटा सा लगा था| जब सतीश की शादी के बाद वह पहली बार अंडे लेकर उसके घर पहुंचा, पल्लवी ने उसके हाथ से अंडे लिए और उसे बरामदे में बैठने को कहकर घर के अन्दर चली गयी| जब लौटकर आई तो एक तश्तरी में चार बताशे और एक गिलास पानी गुलाब की ओर बढ़ाया| गुलाब ने अचरज भरी दृष्टि से उसे देखा और उससे कहा कि वह उसे बस रूपये दे दे| तब पल्लवी ने मुस्कुराते हुए कहा था "इतनी तेज धूप में बाहर से आ रहे हो; इन बताशों को खाकर पानी पी लो; फिर रूपये भी ले जाना"

"जी, बताशे तो रहने दें, मैं पानी पी लेता हूँ" गुलाब ने सकुचाते हुए कहा था|

"अरे नहीं, इतनी तेज धूप से आकर भी भला कोई सीधे पानी पीता है!! तबियत बिगड़ जायेगी" पल्लवी ने अधिकारपूर्वक आग्रह किया|

गुलाब ने एक साथ चारो बताशे मुँह में भरकर चबाये और फिर एक ही साँस में पानी का गिलास खाली कर गया| उसके बाद वह रूपये लेकर अगले घर की ओर चल पड़ा|

तब से वह क्रम यूँ ही चलता रहा| अब तो गुलाब को बताशों की आदत पड़ चुकी थी| एकबार उसने पल्लवी से पूछ ही लिया "आप हमेशा पानी से साथ हमेशा बताशे ही क्यूँ खिलाती हैं, कुछ और क्यूँ नहीं?"

पल्लवी ने धीमे से मुस्कुराते हुए कहा था "मैं यह बताशे प्रसाद में चढ़ाती हूँ और फिर पूजा के बाद इन्हें डिब्बे में बंद कर देती हूँ कि कभी कोई धूप से बाहर आये तो इसे खाकर ही पानी पिये"

"तो आप प्रसाद नहीं...."

गुलाब की बात को बीच में ही काटती हुई पल्लवी ने कहा था "नहीं, मैं नहीं खाती| मुझे मीठा पसंद नहीं"

एकबार जब गुलाब अंडे लेकर सतीश के घर पहुँचा, पल्लवी अहाते से नागफनी की डाल काटकर उसे रोप रही थी और उसकी आँखों से दर्द बह रहा था|

"क्या हुआ आपको? आप रो रही हैं?" पूछते हुए गुलाब ने अंडो को बरामदे में रखा

"कुछ नहीं, मैं अभी आयी" कहकर आँचल से आँख पोछती हुई पल्लवी अन्दर चली गयी

थोड़ी ही देर बाद पल्लवी तश्तरी में बताशे और पानी का गिलास लेकर बरामदे में आ गयी| गुलाब ने बिना कुछ पूछे आदत के मुताबिक़ एक साथ चारों बताशे मुँह में डालकर चबाया और फिर गिलास भर पानी पी गया| फिर रूपये लेकर चला गया| अभी अंडे लेकर अगले घर पहुँचा ही था कि उसके कानों तक कुछ शब्द उड़ते-उड़ते आ ही गए| बात उसकी समझ में आ गयी|

लगभग डेढ़ साल बाद एकदिन फिर वही मंज़र गुलाब की आँखों के आगे था| पल्लवी और नागफनी एक-दुसरे पर आँसू  बहा रहे थे| गुलाब चुपचाप आकर बरामदे में बैठ गया| उसने उस मकान को घर बनते देखा था| पल्लवी के आने के बाद जो घर फूलों से सज गया था; अब वहाँ गिनती के फूल रह गए थे| तुलसी मुरझा गयी थी और बगान से लेकर बरामदे तक नागफनी ही नागफनी दिखाई दे रहा था| अचानक पल्लवी बताशे और पानी के साथ बरामदे में आई| अभी रूपये लाने के लिए मुड़ी ही थी कि गुलाब ने उसका हाथ पकड़ लिया| पल्लवी को पल भर ऐसा लगा जैसे किसी ने उसके पाँव के नीचे से जमीन खींच ली| उसने आश्चर्य से गुलाब की ओर देखा| उसके कुछ कहने से पहले ही गुलाब कहने लगा "और कितना सहोगी? पिछले तीन सालों से मैं सब देख रहा हूँ| ये घर क्यूँ नहीं छोड़ देती?"

"कहाँ जाऊँगी? कैसे मरद हो, इतना भी नहीं जानते कि अब इस घर से मेरी अर्थी ही बाहर जा सकती है!! वैसे भी जो नसीब में लिखा है, उसे स्वीकार कर लेने में ही भलाई है"

"काहे का नसीब और काहे की भलाई!! तुम्हारे हिस्से नागफनी नहीं, गुलाब होना चाहिए!! चलोगी मेरे साथ?"

"यह नहीं हो सकता.....यह संभव ही नहीं है...........लोग क्या कहेंगे"

"क्या कहेंगे, अब भी कुल्टा, मनहूस और न जाने क्या-क्या कहते हैं और तब भी वही कहेंगे!!! क्यूँ करती हो उन सबकी परवाह जो तुम्हारे हिस्से का दुःख तक नहीं बाँट सकते? मुझे तुम्हारी आदत सी हो गयी है| इतना प्रेम तो मुझे आज तक किसी से नहीं मिला| चलो, हम दोनों मिलकर एक नई जिंदगी की शुरुआत करते हैं| मैं कल सुबह पोखर के पास तुम्हारा इंतज़ार करूँगा" कहकर गुलाब तेजी से घर के बाहर निकल गया|

पल्लवी के मन में रात भर उधेर बुन चलता रहा; पर हर बार वह एक ही निष्कर्ष पर पँहुचती| अब उसे इंतज़ार था एक नई सुबह का| वह सुबह भी आई और वह गुलाब का हाथ थामे अपरिचित रास्ते पर चलने लगी| उसी रोज़ सतीश के घर में लगा फूल का आखिरी पौधा भी मुरझा गया| शेष रह गया नागफनी|

साढ़े चार किलोमीटर की दूरी तय करने के बाद गुलाब अब अपने गाँव आ पहुँचा था| जिस हिम्मत के साथ वह पल्लवी का हाथ थामे उसे उसके ससुराल से ले आया था, वही हिम्मत अब उसका साथ नहीं दे रही थी|

गुलाब की माँ चिल्लायी "हलक से निकली बात फ़लक तक पहुँच जाती है और फिर पल्लवी तो पास के ही गाँव की बहू है| पूरे गाँव में हमारे नाम की थू-थू होगी!! तुम्हे अपने जात-बिरादरी की कोई कुँआरी लड़की नहीं मिली ?? हाय ! मुझे ज़हर क्यूँ नहीं दे दिया ऐसा करने के पहले...."

अड़ोस-पड़ोस के लोगों ने भी भला-बुरा कहना शुरू कर दिया था| गुलाब पल्लवी को लेकर श्रीकान्त बाबू के घर गया और वहाँ जाते ही उनकी पत्नी के पैरों पर गिर पड़ा| गुलाब की माँ  कुछ साल पहले तक श्रीकान्त बाबू के घर बर्तन माँजा करती थी| अब उसके बेटे जवान हो गए थे और उसके बेटों ने उसे काम करने की मनाही कर रखी थी|

"हम दोनों को बचा लीजिये गौरी चाची"

"कौन है यह"

"अब यह मेरी पत्नी है| मेरी माँ को आप ही समझा सकती हैं| यह बेचारी उस घर में बड़े कष्ट झेल रही थी| अब मैं ही इसका सहारा हूँ"

इतने में गुलाब की माँ वहाँ पहुँच गई| रोते हुए उसने पूरी बात बतायी| वह रह रहकर अपने बेटे को कोस भी रही थी|
गौरी चाची अत्यधिक धार्मिक होते हुए भी आधुनिक सोच की महिला थीं| उनकी बात पूरा गाँव मानता था| उन्होंने पहले गुलाब और पल्लवी को समझाया कि उनका इस तरह विवाह करना सही नहीं था और पल्लवी को पहले तलाक लेना था| साथ ही गुलाब की माँ को समझाया कि जो होना था वह तो हो ही गया| अब पल्लवी को बहु मान लेने में ही समझदारी है|

अब इस रिश्ते को मान लेने के अलावे गुलाब की माँ के पास कोई विकल्प न था| अंततः वह गुलाब और पल्लवी को अपने साथ घर ले गयी|

अभी घर के द्वार पर पहुंची ही थी कि पल्लवी की नजर द्वार पर लटकती नागफनी की डाल पर पड़ी| उसने अचरज से गुलाब की ओर देखा| गुलाब ने बताया कि उसके गाँव में लोग बुरी नज़र से बचने के लिए ऐसा टोटका करते हैं| फिर बिना किसी रस्म या रिवाज की औपचारिकता निभाये ही पल्लवी को घर के अन्दर ले जाया गया|
कल तक सतीश के घर में जहाँ पल्लवी का वक्त काटे न कटता था; नए घर में सुबह से शाम कब हो जाती थी, उसे पता ही न चलता| गुलाब के घर में उसके माँ-बाप के अतिरिक्त उसके तीन भाई, दो भाभियाँ, चार भतीजे और एक भतीजी थी| घर की नई बहु पर सब अपना रौब दिखाते|  घर में कमाने वाले कम और खानेवाले ज्यादा थे| सुबह से शाम तक घर का सारा काम करती और घर के बाकी सदस्यों के खाने के बाद जो बचता, उसे ही खाकर गुजर बसर करना पड़ता था|

ऐसा एक भी दिन नहीं बीतता जब गुलाब को एक शादीशुदा महिला से शादी करने लिए ताना नहीं दिया जाता हो| गुलाब किसी की बात का कोई जवाब दिए बिना सबकी बात चुपचाप सुन लेता| जैसे जैसे समय बीता, गुलाब में भी बदलाव आने लगा| अब जब कभी गुलाब के घरवाले पल्लवी को भला-बुरा कहते, गुलाब भी उनके साथ हो लेता| शादी के कुछ ही दिनों के बाद पल्लवी को गुलाब में काँटे नजर आने लगे| वह जो प्रेयस था अब वह भी पति के जैसा व्यवहार करने लगा था| एक दिन पल्लवी ने द्वार पर लगे नागफनी के डाल को घर के बाहर रोप दिया|
ग्यारह महीनों में पल्लवी सूखकर काँटा हो गयी थी| बालों में कंघी किए कई दिन गुजर जाते थे और उसके बदनसीब सूखे होठों पर पपड़ियाँ नागफनी की मानिंद उग आई थीं|

सर्दियाँ आ गयी थीं| एक दिन पल्लवी घर बुहारते हुए जैसे ही घर के बाहर बरामदे तक गयी, उसकी नजर नागफनी के पौधे पर पड़ी| उसमे फूल खिला था|  वह देर तक उस फूल को एकटक देखती रही और फिर एकदम से बेहोश हो गयी| होश में आने पर उसे बताया गया कि एक फूल उसकी कोख की मरुभूमि में लगे नागफनी पर भी उग आया था| यह खबर सुनते ही उसकी कानों में सतीश की आवाज़ गूँजने लगी| कमबख्त कहा करता था कि मरुभूमि में फूल नहीं खिलता|

गुलाब उसके सिरहाने बैठ उसके बालों को सहला रहा था| एक अरसे बाद पल्लवी को गुलाब की आँखों में प्रेम नजर आ रहा था| हालाँकि अपने अन्दर पल रहे उस नागफनी को सींचने की शक्ति अब उसमे बाँकी नहीं थी; पर एक लम्बे अंतराल के बाद उसे पति में फिर से प्रेयस दिख रहा था| आज तक वह इसी उम्मीद के सहारे ही तो जी रही थी कि किसी रोज़ पति की जगह अपने खोये हुए प्रेयस को पा लेगी; फिर ऐसे में उम्मीद से होने के अलावे उसके पास कोई और विकल्प भी नही था|

नौ खूबसूरत प्रेम महीने देखते ही देखते बीत गए| उस रोज़ गौरी चाची घर के सामने अपने बगीचे में पौधों को पानी दे रही थी कि तभी सामने सड़क की ओर से किसी के जोर जोर से रोने की आवाज उनके कानों में पड़ी| आवाज जानी पहचानी लग रही थी| घर के बाहर लगे लोहे की जालीवाले दरवाजे से झाँककर देखा, तो गुलाब की माँ थी|

"फूल सा सुन्दर बच्चा पैदा हुआ था, चुड़ैल खुद भी मरी और साथ उसे भी...."गुलाब की माँ दहारें मार-मारकर रो रही थी| गुलाब मुरझाया सा अपनी माँ के पीछे चल रहा था|  घर पहुँचते ही गुलाब अपने कमरे में गया जहाँ उसकी नजर दीवार पर टंगे अपने और पल्लवी की तस्वीर पर पड़ी| यह उसकी और पल्लवी की इकलौती तस्वीर थी जो पाँच महीने पहले हुजूर साहेब के मेले में खींचवायी थी| उसके शरीर में सिहरन-सी दौड़ रही थी और कांटे से खड़े होने लगे थे| उसे घबराहट महसूस हुई और वह तेजी से भागता हुआ घर के बरामदे पर रखी कुर्सी पर आ बैठा| अब उसकी आँखों के सामने नागफनी का वही पेड़ था जिसे पल्लवी ने ही रोपा था| उसका मन अवसाद से भर आया था| गुलाब खुद को संभालता हुआ उठ खड़ा हुआ और नागफनी की दो डालें काटकर उसे पास ही में रोप डाला| उस रोज़ के बाद गुलाब को किसी ने नहीं देखा|

चित्र :साभार गूगल

Tuesday, February 17, 2015

दादी

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जैसे पिरोकार फूल माली बनाता है माला
दादी ने पिरोकार हमें बनाया था परिवार
चिपकता है जैसे डाक टिकट लिफाफे से
जुड़ा था वैसे ही लोगों से दादी का सम्बन्ध


जब हुई तैयार माला और जुड़ गए धागे के दोनो सिरे
दादी ने छोड़ी माला और खुद चली गयी देव-देवियों के पास
कि कितना भी मँहगा लगा हो डाक टिकट, वहाँ चिठ्ठी नहीं पहुँचती
और ज़रूरी भी था देवताओं तक पहुँचाना संदेश
दादी हम सब की प्रार्थना थी , सो खुद ही चली गयी


उस दिन से एक तारा चमकता है अधिक औरों से
बढ़ी है मिठास आँगन मे लगे चापाकल के पानी मे
सुरभित है द्वार पे लगी माधवी लता पहले से भी ज़्यादा
और भी हैं ऐसी कई बातें, जहाँ दादी दिखती हैं ज़िंदा



---सुलोचना वर्मा------------

Sunday, February 8, 2015

माँ

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पूरे जग की आधी आबादी में है एक वह भी
करती हूँ जिसके नाम का उच्चारण हर रोज
ऐसा नहीं कि मेरे जीवन में नहीं है कोई और 
पर एक उसके होने से बना रहता है भरोसा
कि होती रहेगी हल हर समस्या जीवन की


लब से निकलती हर दुआ पुकारती है उसे ही
जबकि ऐसा नहीं कि निकलता हो दिव्य प्रकाश
उसके माथे के पीछे से वृत्त सा आकार लिए
पर जब कभी होती हूँ अँधेरे में मैं उसके साथ
जरुरत ही महसूस नहीं होती कभी रौशनी की


----सुलोचना वर्मा---------

Saturday, January 31, 2015

मौत

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जब चूमे मुझे हिमालय की बर्फ सी निष्ठुर मौत
तो बस मिले स्वाद उस गुलाबी बर्फ के गोले का
जो खाया करते थे हम अक्सर अपने बचपन में
हमारी मुलाक़ात हो खुशियों की ही तरह संक्षिप्त
जब बाँहे डाले मौत अन्धकार में कभी मेरे गले में  

 
मैं चाहूँगी कि उड़े मेरी आत्मा उस चिड़ियाँ की तरह
जो कर देती है बादलों को भी अनदेखा उड़ते हुए
या चख लेती है स्वाद कभी उनका हवा मिठाई जान
रखती नहीं है डर मन में वह बिजली के कौंध जाने का 
नहीं देखना चाहती मैं भी अपनी परछाई मौत को मान


जब पक जाए उम्र की फसल समय की घूप से
कह देना चाहूँगी तब "हाँ" मैं भी बिना कुछ सोचे
जैसे त्याग देता है पेड़ पीले पत्तों को पतझड़ में
झर जाना चाहूंगी मैं जीवन के उस बसंत के पार
पसन्द होगा मुझे बहते रहना अनंत के निर्झर में


मौत हो सकती है एक बेहद खूबसूरत यात्रा भी
जिसका नहीं होता होगा कोई भी गंतव्य स्थान
नहीं होता होगा जहाँ कोई अप्रिय या बहुत ख़ास
फिर थक जाता है इंसान भी जीते-जीते एक दिन
और मौत है इक कभी न ख़त्म होनेवाला अवकाश


----सुलोचना वर्मा------

Friday, January 30, 2015

सप्तर्षि

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मेरे जीवन में रह गए हैं कुछ अनुत्तरित सवाल 
और मेरे ऊपर है विस्तार असीम आकाश का
जहाँ मौजूद अनेकों नक्षत्रों में है एक सप्तर्षि
बनाता है जो आकार प्रश्नवाचक चिन्ह जैसा 
दरअसल है मेरा अपना सवाल आकाश पर 
और जब कभी भी जिंदगी लेती है इम्तिहान
मैं जानती हूँ आते हैं सारे प्रश्न उसी सप्तर्षि से


अक्सर रात में जब होती हूँ खड़ी मैं अपने घर के बाहर
मेरे सिर से नब्बे अंश का कोण बनाता होता है वह भी
जानती हूँ कि हो जाएगा हल यह प्रश्न शाश्वत होकर भी
ज्यूँ ले जाएगा समय मौसम को वैशाख के महीने में
हल मिलता जाएगा कुछ एक सवालों का जीवन में भी
कि यह वही प्रश्न है जो रहता है इस गोलार्ध के उत्तर में


----सुलोचना वर्मा-----