Wednesday, August 31, 2016

अतिरेक

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दिखे आसमान में सबसे रौशन सितारे जब थी सबसे अँधेरी रात 
चुभती रह गयी दिल में सबसे अधिक नहीं कही गयी इक बात 
सबसे ज्यादा चाहा गया उसे, जिसने नहीं समझा हमारा जज्बात 
की जिसे भूलने की कोशिश ज्यादा, हर पल उसे ही किया याद 

सबसे अँधेरी रात में लुका - छिपी खेलता रह गया माहताब 
सबसे कठिन निर्णय था कि पलटें पन्ना या बंद करें किताब 
सबसे बड़ा दुःख दे गया अपनी आँखों का सबसे प्रिय ख्वाब 
वह कोयला हीरा बन गया झेला जिसने सबसे ज्यादा दबाब 

जीवन के सबसे अधिक कष्टप्रद समय में हमें मिले इंसान नेक 
सबसे जटिल समय में ही खोया हमने अपना संयम और विवेक 
मृत्यु के सबसे निकट में जाना जीवन का सबसे बड़ा सत्य एक 
सबसे अंत में जाना, है अदभूत यह जीवन संयोगों का अतिरेक 

-----सुलोचना वर्मा ------

खुशियाँ

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खुशियाँ एकदम से तो गायब नहीं हो जाती हैं 
गुम जाती हैं अक्सर एक पाँव के मोजे की तरह  
जो मिल नहीं पाता हमें जरुरत के ऐन मौके पर 
और फिर प्रकट होता है अप्रत्याशित जगह से 

असम्भव है बिना दुःख भोगे खुशियों को पाना 
बिन बारिश के इंद्रधनुष उगने जितना दुष्कर  
खुशियाँ होती हैं वो वनफूल जो उग आती हैं 
उन जगहों पर जहां सोचा ही नहीं जाता उन्हें 

खुशियाँ होती हैं वो इत्र जिसे छिड़कते हैं हम 
दूसरों पर जितना, महक उठते उतना खुद भी  
खुशियाँ झाँकती हैं हमारे जीवन में ठीक वैसे ही 
जैसे झाँकता सूर्य का प्रकाश खपरैल की छत से

हम चले अनजान रास्तों पर ढूंढते हुए खुशियाँ
जबकि खुशियाँ ही रास्ता थीं जीवन के पथ पर 
चलते - चलते पहुंचे हम सफेद कास के वन में 
और आँखों को मिलीं खुशियाँ उस भारी क्षण में 

खुशियाँ होती हैं मेघों के जैसी जो उड़ जाती हैं
बनकर भाप तनिक देर तक निहारे जाने पर 
मुनासिब नहीं होता है खुशियों को ढूंढकर लाना 
खुशियों का मतलब है कुछ बातों को भूल जाना 

---सुलोचना वर्मा----

Saturday, August 27, 2016

इन्तजार

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उसके अंदर बहता है अदृश्य समुद्र 
जिसमें गहरे डूब जाना चाहती थी मैं 
मुझे ठहर जाना था पानी में कूदकर 
आह दुर्भाग्य ! मुझे तैरना आता था 

आजकल मुझे है लहरों का इन्तजार !!!

--सुलोचना वर्मा-----

रंग

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मेरी आँखों ने देखी दुनिया, 
सफेद और काले रंगों में 
कि उसमें यही दो रंग थे जन्म से 
मेरे ख्यालों का रंग हुआ
मिटटी की तरह धूसर
कि भावनाएँ केंचुए की तरह दबी रहीं अन्दर 
जब मैंने किया प्रेम
तो इन्द्रधनुषी रंग ही बिखरे 
मेरी आत्मा आसमानी रही 
और विस्तार अपरिमित 

--सुलोचना वर्मा-----

भूल

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जब हमें सीखना था चीजों को बनाना 
हम खरीद रहे थे उन तमाम चीजों को 
जब हमें सीखना था शऊर बांटने का 
हम गिन रहे थे कुछ चीजों की कमी 

जब हमें करना था अपने चरित्र का निर्माण 
उन दिनों हम सीख रहे थे प्रतिस्पर्धा करना
जिन दिनों हमें जानना था महत्व चीजों का 
हम भागते चले जा रहे थे सफलता के पीछे 

हमने दोहराया उन भूलों को जिन्हें नहीं सुधारा कभी भी 
हमने चीजों को ही जिंदगी समझ लेने की बड़ी भूल की 
हमारी भूल से बढ़ा लीं हमने चीजें और छूटती गयी जिंदगी 
जबकि जिंदगी से अधिक खूबसूरत चीज और कुछ भी नहीं  

--सुलोचना वर्मा-----

Friday, August 26, 2016

एक दिन

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एक दिन मैं बहती हुई मिलूँगी समंदर के फेनिल जल में 
तुम्हें उस जल का स्वाद पहले से कहीं अधिक खारा लगेगा 
एक दिन मैं बहती हुई जा मिलूँगी नरम हवा के साथ
उस रोज हवा में होगी सांद्रता पहले से कुछ ज्यादा ही 
एक दिन मैं बहती हुई पहुँच जाऊँगी तुम्हारी चेतना तक 
और जम जाऊँगी कैलाश पर्वत पर जमे बर्फ की तरह 

एक दिन शायद तुम मुझे करोगे याद देर तक भूलवश 
उस रोज मैं पिघल जाऊँगी, बहने लगूँगी बनकर तरल   
फिर कहाँ जा पाऊँगी कहीं और, रहूँगी तुम्हारे अंदर ही 
बहती रहूँगी तुम्हारे रक्त के साथ हृदय की धमनियों तक 

---सुलोचना वर्मा -----

Thursday, August 25, 2016

इच्छाएँ

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हम गए शिवाला और सुना आए शिव को अपनी औघर इच्छाएँ
शंकर शाम्भवी योग मुद्रा में थे लीन, त्रिकालदर्शी भोले बने रहे 

हम कान्हा के वृन्दावन गए कि सुना पायें अपनी अपूर्ण इच्छाएँ
मुरलीधर आँखों को मूँद सम्पूर्ण तन्मयता से बजाते रहे बाँसुरी

हमने टूटते तारों पर ज़ाहिर की अपनी आसमानी इच्छाएँ
सितारे नहीं पहुँच पाए जमीन तक, चमकते रहे बन जुगनू  

हमने नवाया शीश दरगाह पर लेकर अपनी बेखौफ इच्छाएँ
पीर बाबा सोए रहे इत्र से सनी चादर तान अपनी मजार पर 

हम चढ़ाने गए भोग तारापीठ में लेकर अपनी अनंत इच्छाएँ
और हमें सुनने से पहले ही काली ने निकाल लिया था जीभ 

हम गिरिजाघर भी गए लेकर अपनी अलौकिक इच्छाएँ
हम क्या माँगते, ईसा मसीह हाथ फैलाये सूली पर टंगे थे

वहाँ पीठ पर रीढ़ की हड्डी नहीं, हमारी जम चुकी इच्छाएँ हैं 
जो झुकाये जा रही हैं हमें वक़्त के साथ हर रोज थोड़ा - थोड़ा

इच्छाएँ हैं औघर, अपूर्ण, आसमानी, बेखौफ, अनंत, अलौकिक 
जिसके आगे हैं बेबस इंसान, देवी, देवता, सूफी पीर और मसीहा 

-----सुलोचना वर्मा-----

Monday, August 15, 2016

उलझन

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लगाए ठहाके उलझनों में मैंने  
और मैं आसूँओं में मुस्कुराई
मेरी उदासियों को हुई उलझन 
और मेरी उदासियाँ कुम्हलाई 

-----सुलोचना वर्मा ---------

संयोग

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हम उठा लाए ईंटें ढह चुके रिश्ते के मकान से 
हमने बनाया सपनों का एक नया आशियाना  
और ढह गया यह भी फकत चंद ही महीनों में 
हमें रहा दरारों पर घर बनाने का शौक पुराना 

समंदर जितना ही नमक था मेरी आँखों के पानी में 
पर शांत रहा समंदर कि हवा निभा रहा था उसका साथ 
मैं तरसती रही पाने को साथ तुम्हारा, तुम हवा हो गए 
तुमने देखा मेरा समंदर और किया किनारा छुड़ाकर हाथ 

लिखा था किताबों में नुस्खा सात बार गिरकर आठ बार उठने का 
पर कहाँ लिखा था कि कैसे उठा जाता है नजरों से गिरने के बाद 
न जाने कैसा था यह संयोग कि मैं हर बार चली धारा के विपरीत 
कि वो मरी हुई मछलियाँ थीं जो बह रहीं थी जल की धारा के साथ

-----सुलोचना वर्मा------

प्रयोजन

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मुझसे मेरा ही परिचय करा रहे थे असह्यनीय पीड़ा भरे दिन 
पीड़ा भरे दिन. जिनमें आकाश में छाए थे काले - काले से बादल 
पीड़ा भरे दिन. जिनमें टूटे हुए सड़कों पर भरा था घुटने तक जल 
पीड़ा भरे दिन. जिनमें जिंदगी आजमा रही थी मुझपर अपना बल  

पीड़ा भरे दिन बता रहे थे पता चंद सरल लोगों का 
सरल लोग, जो देते हैं आपका साथ हर परिस्थिति में 
सरल लोग, जो नहीं कर पाते हैं अभिनय झूठे रिश्तों का 
सरल लोग, जो बचा लेते हैं रिश्तों को जटिल हो जाने से 

सरल लोग वैसे बिल्कुल भी न थे जैसे होते हैं रूपकथा के पात्र 
रूपकथा के पात्र , जिनके सुंदर चेहरे पर होता है तेज रौशनी का  
रूपकथा के पात्र , जिनके शब्द छल सकते हैं आपको अनायास 
रूपकथा के पात्र , जिनके पास है मंत्र निज जरूरतों को साधने का 

रूपकथा के पात्र रूपकथा से निकलकर आ पहुँचे मेरी जिंदगी में 
मेरी जिंदगी में अब वो लोग थे जिनके होने की मैं करती रही कामना 
मेरी जिंदगी में अब आ गयी इतनी जिंदगी कि मैंने देखा नया सपना 
मेरी जिंदगी में अब रूपकथा के पात्र के सिवाय था कहाँ कोई अपना 

मेरी जिंदगी में अब छल कर रहे थे शब्द बड़ी ही कुशलता से मौन रहकर 
मौन रहकर बता रहे थे कि कहे गए शब्द कर चुके थे पूरी अपनी जरुरत 
मौन रहकर बता रहे थे कि जरुरत भर ही शब्दों का किया गया था प्रयोग 
मौन रहकर बता रहे थे कि प्रयोग के प्रयोजन मात्र जरुरत रही मेरी जिंदगी

पीड़ा भरे दिन समझा गए प्रयोजन मौन की, जरुरत भर शब्दों को खर्चने की

---सुलोचना वर्मा------

Thursday, August 11, 2016

टीस

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इन दिनों एक स्पर्श 
अक्सर दर्ज हो जाता है 
स्मृतियों के काँधे पर 

इन दिनों  एक मुस्कान 
स्मृति उकेर जाती है 
शून्य में तैरते हुए अक्सर

इन दिनों एक शब्द 
गूँजता रहता है कानों में 
बारबार, देर तलक 

इन दिनों  एक दृष्टि 
पीछा करती है मेरा 
निर्वासित एकांत में 

इन दिनों एक उपलब्धि 
चुभ रही है शूल जैसी 
स्मृतियों के हृदय में 

इन दिनों एक स्मृति 
जी रही हूँ वर्तमान में 
लेकर अतीत से उधार 

इन दिनों एक टीस 
चलती है मेरे साथ 
हर पल, निरंतर, अथक 

इन दिनों एक पौधा 
नहीं बन पाता पुनर्नवा 
बनकर महकता है पनहास 

---सुलोचना वर्मा ------

Wednesday, August 10, 2016

दिमाग

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हमें करना था वो जो होता सही 
पर हमने वो किया जो था आसान 
और बढ़ा लीं अपनी मुश्किलें 

हम मगन थे अपनी ही दुनिया में औरों से बेखबर 
लोग थे कि हमारे असामाजिक होने की बात कर रहे थे 
हम थे कि खुश होते रहे कि लोग हमें फिर भी जानते थे 

हमें मुस्कुराते रहना था कठिन समय में भी 
कि हम बदल पाते दुनिया की सुरत 
पर हमने दुनिया देखी और जार-जार रोये 

हमसे दुनिया ने कहा शरीर को माटी में मिल जाना है 
और हम लगाते रहे मुल्तानी मिट्टी इसे कसने को 
शरीर तो कस गया पर आत्मा ढ़ीली पड़ती गयी 

हमारी आँखों को देखना था आत्मा की सुन्दरता 
पर हम पड़े रहे शरीर के मोह में सब जानते हुए 
आत्मा अभिमानी थी, चली गयी त्यागकर शरीर 

ऐ दिमाग, तू किसी काम न आया 
हम बने रहे आजीवन ज्ञान पापी 
हमें मुर्ख बने रहना ही रास आया !!!

----सुलोचना वर्मा-----

Tuesday, August 9, 2016

जरूरतें

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सम्मान और सामान
श्रुतिसम भिन्नार्थक शब्द थे
स्त्री के लिए पुरुष के शब्दकोष में
जिनका अर्थ तय करती थीं जरूरतें
वक्त बेरहम अक्सर पलट जाता था

---सुलोचना वर्मा -------

Wednesday, August 3, 2016

प्रण

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आँखों के होने मात्र से नहीं देखा जा सकता कोई सपना
सिर्फ हाथों के होने भर से नहीं छु सकते आप आकाश
मौन को सुनने के लिए ज़रूरी नहीं होता कानों का होना
विवेक के होने पर भी नहीं होता वस्तुस्थिति का आभास

पाँव के होने मात्र से नहीं पहुँचा जा सकता है अंतरिक्ष 
मन के होने भर से ही नहीं किया जा सकता है मन का 
जीवन का स्वाद लेने के लिए नहीं होती जरुरत जीभ की   
बस जरूरी है हम कर लें सम्मान लिए गए हर प्रण का

-----सुलोचना वर्मा -----------