Tuesday, March 25, 2014

पीहर

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बाटिक प्रिंट की साड़ी में लिपटी लड़की 
आज सोती रही देर तक 
और घर में कोई चिल्ल पो नहीं 
खूब लगाए ठहाके उसने भाई के चुटकुलों पर 
और नहीं तनी भौहें उसकी हँसी के आयाम पर 
नहीं लगाया "जी" किसी संबोधन के बाद उसने 
और किसी ने बुरा भी तो नहीं माना
भूल गयी रखना माथे पर साड़ी का पल्लू 
और लोग हुए चिंतित उसके रूखे होते बालों पर 
और एक लम्बे अंतराल के बाद, पीहर आते ही
घर वालों के साथ साथ उसकी मुलाक़ात हुई 
अपने आप से, जिसे वो छोड़ गयी थी 
इस घर की दहलीज पर, गाँव के चैती मेले में 
आँगन के तुलसी चौरे पर, और संकीर्ण पगडंडियों में 

Saturday, March 22, 2014

सुनो भगत

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सुनो भगत, तुम्हे कर रही हूँ संबोधित  
अपने ह्रदय पर एक अपराध बोध लिए
लज्जा आती होगी तुम्हे हमारी कृतघ्नता  पर
और पछतावा अपनी शहादत के लिए


काँप रहे हैं लोग बदलाव के विचारों से
और कर रहे हैं अब तमंचे पे डिस्को 
वही तमंचा, जिसे तुमने उठाया था
क्रान्ति और आज़ादी के लिए  


कर रहे लोग व्याख्या, क्रांति का शब्दों में
हैं अपने अपने फायदे, है अपना अपना अर्थ
ले रहे हैं प्राण अपने ही देशवासियों का
हिंसा और साम्प्रदायिकता के लिए


लगाते हैं तुम्हारे पोस्टर करने को दिखावा
केवल और केवल एक प्रतीक स्वरुप मान
भरकर क्रान्ति का नए स्वर में हुंकार
करते हैं  इस्तेमाल तुम्हे राजनीति के लिए


खड़े हैं दो अलग अलग ध्रुवों पर - वो और तुम
क्रमशः कुमकुम और रक्त लिए अपने अपने माथे पर
तुम अमर हो आज भी देश के हर इन्क़लाब  में
और वो, मौन हैं अपनी धृष्टता के लिए 


विस्मृत हुआ तुम्हारी क्रांति का अंतिम पड़ाव 
तुम्हारे ही जान से प्यारे इस हिन्दुस्तान  को
ऐसे में क्या तुम आ सकोगे फिर एक बार
अपनी क्रांति की पुनरावृति के लिए


सुलोचना वर्मा

Friday, March 7, 2014

हरा रंग

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(१)


आ गया है फागुन
और साथ ले आया है मंज़र
तुम्हारे साथ मेरी आखिरी होली का
यह लाल नहीं, हरा रंग है
इतनी आसानी से नहीं उतरेगा
यह कहकर जो तुमने मला था चेहरे पर
अपनी उँगलियों के पोरों से 
और मैं विह्वल हो उठी थी अंतस तक


(२)

हर बार ले आती हूँ वही हरा रंग
महसूस करती हूँ उन्हें छूकर
उँगलियों के पोरों से
वो बतियाने लगते हैं
मचल जाते हैं बच्चों सा
और जब भरते हैं किल्लोल
मन श्याम श्याम होता है
मैं मीरा बन जाती हूँ


(३)

वो श्याम की होली थी
मीरा करती भी तो क्या
प्रेम में राधा बन गयी
ओढ़कर बसंती चुनरिया
प्रीत के रंग में रंग गयी
और मैं .....
तुम्हारे प्रेम में अब तक लाल हूँ
और वह हरा रंग उसे ज़िंदा रखता है


(c)सुलोचना वर्मा

 

Wednesday, March 5, 2014

दोहे- फागुन के

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संग फागुनी रंग लें, होली का त्यौहार|
बहती बासंती चपल, सुरभित मंद बयार||

 
नव कोंपल धारण करे, ज्यों तरु जीर्ण उतार|
तज कुभाव तू भी मनुज, भर मन उच्च विचार||


देता फागुन मास है, सबको यह संदेश|
पर हित सोचें भूलकर, सकल राग अरु द्वेष||


आमों वाली डालियां, बौराती सुन फाग|
गेहूं सरसों झूमतें, मद लहरित बन बाग||


वासंती धरणी हुई, फसल पकी खलिहान|
महकी अमिया भ्रमर दल, गाते गुनगुन गान||


टेसू तरुवर पे लदें, लग लग कर बहु अंग|
निखर संवर देखों चढ़ा, चटख फागुनी रंग||


अनुरागी अंतस लिए, भर पिचकारी रंग|
खेलत बनवारी हुलस, होली राधा संग||


मंदिर लो बरसा बहुल, ठाकुर जी पर रंग|
स्वयं लाल मीरा हुई, जगत् देखकर दंग||


है सुलोचना फाग यह, मधुर प्रेम का राग|
प्रीत राधिका की कभी, मीरा का वैराग||


(c)सुलोचना वर्मा

Sunday, March 2, 2014

सम्बन्ध

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एक नया सम्बन्ध
जो पैदा होता है मंद मुस्कान लिए
अंतःकरण की उपजाऊ सतह पर
जब फूटता है संभावनाओं का विरवा
जैसे जैसे सम्बन्ध तय करता है
अपने उम्र की दूरियां
बढ़ता ही चला जाता है
पैमाना संबंधों का
जुड़ जाते हैं कई शब्द
क्या, किंचित, यदि जैसे
रह जाते हैं कई प्रश्न अनुत्तरित
और खामोशी बयाँ कर देती है
कुछ अनकहे वाकये
चढ़ने लगता है सम्बन्ध फिर
अनुबंध की सीढियां
आखिरी सीढ़ी अनुबंध की
लाकर खड़ा कर देती है
बौद्धिकता की उस छत पर
लग जाता है जहाँ रिश्तों पर
प्रतिबन्ध का ताला
और हर प्रतिबन्ध के उस पार
पास के किसी दरीचे से झाँक
मंद मंद मुस्कुराता है
एक नया सम्बन्ध


(c)सुलोचना वर्मा