Saturday, April 11, 2020

इक चराग़ जला दिया कभी इक चराग़ बुझा दिया

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आलस ने दोपहर के ढाई बजा दिए। बहुत कुछ करना चाहा था ढाई बजे से पहले तक। कुछ लिखने बैठी। पाँच पंक्तियाँ भी न लिख पाई। एक दोस्त का फोन आ गया और मेरा मन उस शहर की ओर भाग गया जिसे मैं अपना घर कहती हूँ । फोन रखकर खाना खाने जा ही रही थी कि वातावरण की नीरवता ने मानो मौन व्रत तोड़ा हो! यह हवाई जहाज की आवाज़ थी। बालकनी में गई। बाहर धूप तेज़ थी पर हवा चल रही थी। हवा में वह गर्माहट भी नहीं थी जो अमूमन अप्रैल महीने में चेन्नै की आबोहवा में होती है। आसमान में हवाई जहाज को देख मन एकदम वैसे ही मचल गया जैसे बचपन में हम सभी आसमान की ओर माथा उठाये तब तक उसे निहारा करते थे जबतक वह आँखों से ओझल न हो जाता था।

"ऐ हवाई जहाज! क्या तुम हमारे शहर जा रहे हो?" यह पूछना चाहा पर तभी दिमाग़ ने कहा कि हवाई जहाज भी भला उत्तर देता है! लॉक डाउन में एयर इंडिया का ऐसा कोई जहाज शायद एमरजेंसी मिशन पर विदेश को जा रहा होगा । यह भी हो सकता है कि यह एयर इंडिया का कार्गो विमान हो। तेज़ धूप में इतनी ऊँचाई पर कुछ भी स्पष्ट नहीं दिखता सिवाय हवाई जहाज के रंग रूप के।

हवाई जहाज के जाते ही कोयल और पंडुक की जुगलबंदी शुरू हो गई। सामने पेड़ पर कोयल को देख उसकी तस्वीर फोन में कैद करने का सोच ही रही थी कि वह पत्तों की ओट में छुप गयी। फोटो लेना भी रह गया।

खाना खा लेने के बाद सूरज की रौशनी संग लुकाछिपी का खेल खेला। कई सालों बाद ऐसा संयोग हुआ कि दिन को ढ़लते हुए देखकर शाम किया। इससे पहले आठ बरस पूर्व कौसानी की हिमाच्छादित नंदा देवी की चोटियों पर सूरज की कलाकारी देखकर दिन तमाम किया था।

पास के सुपरमार्केट में तीन दिन पहले गयी थी तो चाय पत्ती नहीं मिली। बची हुई चाय पत्तियाँ ज़्यादा दिन चले, इसलिए शाम को नींबू चाय पीने का निर्णय लिया।

फिर यह डायरी लिख रही थी कि एक दोस्त का फोन आया और उसने बताया कि वह जेनरेटर के लिए फ्यूल लेने बाहर गया था। उसे लगा शायद रात के नौ बजे प्रधानमंत्री के कहे मुताबिक बिजली चली जायेगी। उसे यह बताना फ़िज़ूल लगा कि प्रधानमंत्री ने स्वेच्छा से 9 मिनट के लिए बिजली बंद कर दीया जलाने को कहा है। बिजली विभाग बिजली बंद नहीं करेगा।

स्नान करते हुए साढ़े आठ बजे गए। मन में संशय था कि अच्छे दिनों में कुछ भी हो सकता है। "कहीं सचमुच बिजली चली गयी, तो!" ऐसे में डिनर जल्द बनाकर खा लेना ही उचित था। रोटियाँ बनाई और सब्जी काटने और फिर बनाने का जोखिम लिए बिना बैंगनापल्ली आम के साथ खाकर तृप्त हुई।

 नौ बजकर दो मिनट पर एक बार फिर हवाई जहाज के आसमान से गुजरने की आवाज़ आई। दिल फिर बच्चे की तरह मचल गया "मुझे दिल्ली जाना है"। फिर ख़ुद को तसल्ली दी कि शायद ज़ल्द ही थोड़े दिनों के लिए लॉक डाउन से राहत मिले। क्या पता देर रात तक कोई ऐसी खबर ही सुना दे। इसी उधेड़बुन के बीच ख़ुशी ने फोन किया और बताया कि ग्रेटर नोएडा में लोग दिया, मोमबत्ती और टॉर्च जलाने के अलावा शंख और थाली भी बजा रहे हैं और पटाखे भी जला रहे हैं। उसके पास कई प्रश्न थे जिनका जवाब मैंने अभिधा में न देकर व्यंजना में दिया। उसके प्रत्युत्तर ने समझा दिया कि लड़की बड़ी समझदार हो गई है।

फोन रखकर सोशल मीडिया की सैर करने लगी, तो पता चला कि जहाँ देश भर के लोगों ने कोरोना समय में प्रधानमंत्री का कहा मान दीया, टॉर्च और मोमबत्ती जलाया, वहीं कई राज्यों में लोग संवेदना को परे रख ढोल के साथ सड़कों पर उत्सवधर्मी होते दिखे। कई जगहों से आगज़नी की खबरें भी आईं। नहीं आई तो वह ख़बर जिसका मुझे इंतज़ार था! उदासी और इंतज़ार में सुबह हो गई। मजरूह सुल्तानपुरी जी ने ऐसे ही कश्मकश वाले लम्हों के लिए कहा होगा-
शब-ए-इंतिज़ार की कश्मकश में न पूछ कैसे सहर हुई
कभी इक चराग़ जला दिया कभी इक चराग़ बुझा दिया

सु लोचना
5 अप्रैल

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Saturday, April 4, 2020

राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा


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25 मार्च का दिन था। कोरोना काल में घर से काम करते हुए तीसरा दिन। नियमानुसार सुबह 9:25 से कॉन्फ्रेंस कॉल पर थी। हम मुम्बई और पुणे के सहकर्मियों को "गुडी पाडवा" और तेलगु भाषी सहकर्मियों को "उगाडी" की शुभकामनाएँ दे चुके थे और अब सिर्फ काम की बातें हो रही थीं।  लगभग 11 बजे कॉलिंग बेल की आवाज़ सुनकर लैपटॉप हाथ में लिए ही दरवाजा खोलने चली गई। दरवाजा खोलते ही सामने एक चेहरा नमूदार हुआ। दिमाग़ पर ज़ोर दिया तो याद आया यह वही शख़्स था जिससे कम्युनिटी वाशिंग स्पॉट पर मिली थी। मिली क्या थी, उस पर रौब जमाते हुए कहा था "आई एम इन द क्यू"। वह सरल स्वभाव का इंसान दिखा। बिना किसी बहस के मान गया। फिर थोड़ी देर की बातचीत के बाद पता चला कि बंगलुरु में पले बढ़े उस गौर वर्ण पुरुष की जड़ें हैदराबाद में हैं और यह तेलगु भाषी शख़्स पिता की नौकरी के कारण बचपन में कुछ साल पटना भी रह चुका है। यह जानकर कि मैं बिहार से हूँ, वह अंग्रेजी से सीधे हिन्दी पर आ गया। उस रोज बात वहीं ख़त्म हुई। उसे पहले दिन यह सुनकर भी अजीब लगा कि मैं वर्क फ्रॉम होम के तहत सचमुच काम करती हूँ!

पर आज आते ही पूछा "आप कैसे मैनेज करने वाली हैं सब कुछ?"
"क्या सब कुछ?"
"शायद आपको मालूम नहीं सोसायटी के सारे गेट्स बंद कर दिए गए हैं। पानी वाले को भी अंदर नहीं आने दिया जा रहा। मैं पोरुर जा रहा हूँ ग्रॉसरी लाने। आपको कुछ चाहिए तो लिस्ट दे दीजिए।"

अचानक यह सुनकर घबरा गयी। मैंने दिमाग़ पर फिर से ज़ोर डालते हुए कहा "आई हैव स्टेपल्स। जस्ट नीड फ्रूट्स एंड वेजिटेबल्स...मिल्क पाउडर...एन्ड वाटर.."
उसने कहा "चलिए, चलकर ले आते हैं।"
मैं यूपी नम्बर की अपनी कार लेकर ऐसे माहौल में जाने के पक्ष में नहीं थी। उसके स्कूटर पर पानी और कुछ खानेपीने का सामान आ सकता था। तय हुआ कि डेढ़ -दो किलोमीटर पैदल चलकर इस मोहल्ले या अगले वाले से सब्जी, फल और अन्य ज़रूरी चीजों को खरीदा जाएगा। उसने मुझसे तैयार होकर 15 मिनट बाद आने को कहा और चला गया। कोरोना काल में सर और नाक -मुँह ढँकने की अतिरिक्त तैयारी भी करनी पड़ती है।

मैं जब तैयार होकर तीसरी मंज़िल गयी और उसके कमरे का बेल बजाया, वह फोन पर किसी से बात कर रहा था। मुझे सोफे पर बैठने को कहकर बालकनी में चला गया। मैं कमरे का मुआयना करने लगी।  कमरा किसी मंदिर से कम न था। एक मंदिर था, नीचे लोबान जल रहा था, बिस्तर पर यजुर्वेद की किताब और बिस्तर के सिरहाने कई देवता टंगे हुए थे। आईआईटी मद्रास, सेंटर ऑफ एक्सेलेंस और यह कमरा... मेरा दिमाग तारतम्य ढूँढ ही रहा था कि आवाज़ आई "सॉरी मैम! आपको इंतज़ार करना पड़ा। चलिए।"

हम सबसे पहले सब्जी की दुकान गए, वहाँ बैंगन और मुनगा को छोड़ एक भी सब्जी लेने लायक हालत में न थी। पास के सुपरमार्केट में मिल्क पाउडर, ब्रेड आदि सामान देख सुकून मिला पर तय हुआ कि सब्जी और फल लेने के बाद लिया जाएगा। आगे डेढ़ -दो किलोमीटर चलने के बाद फल की दुकान थी। वहाँ पहुँचने से पहले ही सर्विस डिलीवरी हेड का मुम्बई से फोन आ गया "व्हेर आर यू सुलोचना! वी आर वेटिंग फ़ॉर यू"। सुनसान सड़क पर आवाज़ साफ थी। मैंने उन्हें दो घंटे में लौटने का कहकर जैसे ही फोन बन्द किया, पास से आवाज़ आई "यू गाइज़ रियली वर्क!" मैं जवाब देने के लिए मुख़ातिब हुई तो देखा उसके चेहरे पर सचमुच की हैरानी थी। उसे टेलीकॉम और आईटी के कामकाज का विवरण देती हुई फल की दुकान तक गई। वहाँ से हमने सप्ताह भर का फल खरीदा। भुगतान उसने किया। सब्जी कहीं भी ठीकठाक हालत में नहीं मिली। फिर सुपरमार्केट आए और यहाँ से जो कुछ ले सकते थे, लिया। यहाँ भुगतान मैंने किया।

लौटते हुए जब लिफ़्ट में गए, तो मेरी शक्ल देखकर वह चिंतित हुआ। चेन्नै की गर्मी से चेहरा सुर्ख हो चुका था। मैंने बताया कि मेरी त्वचा हाइपोअलर्जेनिक है और डरने की कोई बात नहीं है। पर मेरे हिस्से के फल और अन्य चीजें मुझे थमाने के बाद उसने अपने बैग से आँवला निकालकर तत्काल खाने का निर्देश दिया। फिर पानी पीने का भी। जब तक चेहरे की रंगत फीकी नहीं पड़ गई, वह दरवाजे पर खड़ा रहा।

फलों को धोकर और बाकी चीजों को पोछकर रखने के बाद बाहर पहने हुए कपड़ों को धोकर नहाने की बारी थी।   नहाते हुए यह सोच रही थी कि दो अजनबियों का कोरोना काल में एक दूसरे की ग्रोसरी का भुगतान करना ज़्यादा अजीब है या उस इंसान का आपकी मदद को आगे आना जिसे आपने वाशिंग सेंटर से दो बार लौटा दिया हो!

स्नान करने के बाद खाना बनाया और उसे भी खाने का निमंत्रण दे दिया। दफ्तर के कॉल और रसोई के बीच सामंजस्य स्थापित करने की तमाम कोशिशों के बाद भी चावल थोड़ा सा बर्तन की सतह पर लग/जल गया था। सब्जी भी इंडक्शन पर कुछ खास नहीं बनी थी। पर उसने  तृप्ति सहित खाना खाते हुए कहा "थैंक यू मैम! आपकी वज़ह से मेरा उगाडी हैप्पी हो गया"! मैं उसकी थाली में और चावल डालने लगी, तो वह उठा और हवा की तरह बाहर गया और तीसरी मंजिल के अपने फ्लैट से दही का पैकेट लेकर तूफ़ान की तरह पुनः मेरे फ्लैट में दाखिल हुआ। वह मुझसे भी दही भात खाने का आग्रह करने लगा। मैंने उसे बताया कि हम मिष्टी दोई (मीठा दही) खाने वाले प्राणी हैं, नमकीन दही भात हमसे न खाया जाएगा।

खाना खाते हुए दफ़्तर और घर की बात चली, तो उसने बताया कि उसका छोटा भाई गूगल में कार्यरत है और पत्नी तथा बेटी के साथ हैदराबाद में रहता है। जब मैंने पूछा कि उसने ब्याह क्यों नहीं किया तो पहले कुछ देर चुप रहा और फिर शर्माते हुए कहा "आई एम इन लव विथ माय कज़न"।

दक्षिण में रहते हुए डेढ़ बरस हो गए, तो यह मेरे लिए कोई नयी बात नहीं थी, पर उसने अपनी ओर से स्पष्टीकरण देते हुए कहा "इधर कज़न में शादी होता है और इसका कारण भले ही ज़मीन जायदाद से जुड़ा है, पर जब आप बचपन से सुनते आए हों कि बड़े होने के बाद आपकी बुआ या आपके मामा की बेटी से आपका ब्याह होगा, तो कम उम्र से ही उसके प्रति आकर्षण होता है और किशोरावस्था तक पहुँचते प्यार हो जाता है।"

"सो योर ब्रदर हैड अरेंज्ड मैरेज?"

"नहीं मैम। उसने गलत काम किया। उसे बुआ की बेटी से प्यार था। बुआ के पति तैयार नहीं थे। ये दोनों लिव इन में रहने लगे, फिर सबको मान लेना पड़ा"

"स्मार्ट चैप! व्हाई डोंट यू फॉलो दैट पाथ!"

"मेरे मामा को बहुत अमीर लड़का चाहिए। वे किसी कीमत पर हमारी शादी नहीं करना चाहते हैं। जब उनकी बेटी ने शादी करने से मना कर दिया, तो उन्होंने मुझसे कहा "इलोप विथ हर"। पर मैं सही रास्ते पर चलकर ही मंज़िल को प्राप्त करना चाहता हूँ। सच कहूँ तो अब यह सोचने लगा हूँ कि इस उम्र में शादी क्या करना। मैं छत्तीस बरस का हो गया। वो मुझसे सात साल छोटी है और जेएनयु से एमफिल करने के बाद लॉ पढ़ रही है। अभी तो उसे भी वक़्त लगेगा। सोचता हूँ सन्यास ले लूँ"

"पर उम्र होने पर तो संग-साथ की ज़रूरत और भी बढ़ जाती है। शादी का मतलब सिर्फ़ बच्चा पैदा करना ही तो नहीं होता है न" ऐसा ज्ञान देते हुए मानस पटल पर उसके कमरे की तस्वीर उभर आई थी।

"कोई बात नहीं। हम दोनों एक-दूसरे से प्यार करते हैं और इतना काफी है ज़िन्दगी जी लेने के लिए" कहते हुए उसके चेहरे पर आत्मविश्वास झलक रहा था।

मेरे मना करने के बावजूद वह थाली और कटोरी उठाकर अपने फ्लैट ले गया और बर्तन माँजकर वापस दे गया।
लंच ब्रेक ओवर हो गया था, लैपटॉप से प्रोग्राम मैनेजर की आवाज़ आई "सुलोचना मैम, आर यू देयर!"

मैं दफ़्तर की कॉल में सॉफ्टवेयर के मसले सुलझाने में लग गई, पर दिमाग में फ़ैज़ की पंक्तियाँ चल रही थी -

"तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है
तू जो मिल जाये तो तक़दीर निगूँ हो जाये
यूँ न था मैं ने फ़क़त चाहा था यूँ हो जाये
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा"

सु लोचना
चेन्नै
25/3/2020

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