Thursday, February 27, 2014

सूरज

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सूरजमुखी के ख्वाहिशों का सूरज
जा बसा है दूर पश्चिम की ओर
और उसकी सुनहरी धूप सहला रही है
पीले टेशुओं वाले अमलताश को
किरणों ने बना लिया है पीले फूलों का गजरा
और खोंस लिया है अपने बालों में
इधर सिर झुकाए खड़ी है सूरजमुखी
कर रही है अवलोकन अपनी इच्छाओं का
बेहद करीब से देख लिया है
इस पुरे घटनाक्रम को
दूर से झांकते दहकते पलाश ने
और हो रहा है लज्जित अपने समलैंगिग रिश्ते पर
उधर निखर रहा है अमलताश
नए रिश्ते की गुनगुनी धुप पाकर
कल जब अलसाई सी धुप
उतर आएगी सूरजमुखी के आँगन
तो नहीं लगेगा कोई अभियोग सूरज पर
धुप में एकबार फिर नहाएगी सूरजमुखी
नहीं तौलेगी सूरज की मंशा प्रेम के तराजू पर
मुस्कुराकर कह देगी सम्बन्ध में अनुबंध नहीं होते

(c)सुलोचना वर्मा

Wednesday, February 26, 2014

अतुकांत

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मनुष्य की अनंत इच्छाएं
जान लेना चाहती है वह सब कुछ
जो परे है उसकी समझ से
मान लेना चाहता है मानव
स्वयं को बुद्धिजीवी
और तर्क ढूंढने लगती है
उसकी  बौद्धिकता
हर होनी के पीछे का
तोड़कर प्रकृति के हर नियम
कर लेना चाहता है
स्वयं को अनुशासित
निज भी गढ़ता है नित्य नए प्रमेय 
और रखता है दृढ विश्वास
उन पौराणिक कथाओं में
हुआ था जिनका सूत्रपात
पाषाण युग की किसी कन्दरा में
और व्यतीत हो जाता है
जीवन को छंद मान
मात्रा नापने और तुक बैठाने की
इस आपाधापी में
जीवन का हर वसंत
जो बना देती है जीवन को
एक पर्ण विहीन वृक्ष
शब्द सूखकर झड़ जाते हैं जिससे
वक़्त के क्रूर पन्नो पर
और नहीं कर पाते चिन्हित कोई भाव 
आह ! यदि जीवन धारा
ढल जाती बन अतुकांत कविता
तो शब्द पिघल पिघल कर
भाव की सरिता में बहते
और बहते बहते जा मिलते
अनंत के सागर में
होता जीवन तब सार्थक
धरती पर जन्म लेकर

सुलोचना वर्मा

Tuesday, February 25, 2014

तुम ध्यानमग्न रहे

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रचा गया प्रपंच
हुआ कार्यान्वित छल
लुट गयी अस्मिता
तुम ध्यानमग्न रहे


उठे कई प्रश्न
लगाये गए लांछन 
श्रापित हुई भक्ति
तुम ध्यानमग्न रहे


हुआ घोर अन्याय
दिया गया अभिशाप
बन गयी नारी पत्थर
तुम ध्यानमग्न रहे


तज अर्धनारीश्वर स्वरुप
कर विस्मृत  नारी पीड़ा
क्यूँ सति वेदना भूल
तुम ध्यानमग्न रहे ?


सतयुग से त्रेतायुग
शीला धर मौनव्रत
रही मुक्ति प्रतीक्षारत
तुम ध्यानमग्न रहे ?


हे त्रिकालदर्शी "पुरुष"
देवों के देव  होकर भी
क्यूँ "भोले" मात्र बनकर
तुम ध्यानमग्न रहे ?


सुलोचना वर्मा

Friday, February 14, 2014

मेरा चेतन कहता है


नहीं मिलते इस जड़ के तेवर मेरे चेतन से
ठन गयी है इन दोनों की आपस में
अजब सी उथल पुथल मची है मेरे अन्दर
साज़िश लहू बन दौड़ रही मेरे रग में


मेरा चेतन कहता है - चलो बेल का पेड़ लगायें
बूँद बूँद उसे सींचे निर्मल जल से
करे उत्सर्ग किसी शिवलिंग पर उसके पत्ते
और उसका अमृत  फल गरीबों में बांटें


बुदबुदाता है जड़ सुनकर चेतन की बातें
लगेंगे पुरे पंद्रह वर्ष बेल पर फल आने में
क्यूँ पेड़ सींचने में वक़्त करना है जाया
इससे तो कहीं भला है मर कर जल जाने में


इतराता है जड़ लिए कुटिल मुस्कान अधरों पर
सोचता क्या मैंने कभी गणित पढ़ा जीवन में
मुझसे तो  लम्बी मेरी पीड़ा की उम्र है 
क्या लग पायेगा इस चक्र, फल जीवन के वृक्ष में


खिलखिलाकर हँस देता है मेरा चेतन तब
कहता है हाथ धर जड़ के कंधे पर
नहीं देखा है मौत को मैंने अब तक
रख दो बीमारियों को वक़्त के चरखे पर


ये मेरे निर्धारित कार्यक्रम हैं , पुरे होकर रहेंगे
नहीं छुपेंगे जड़ की शिथिलता के बादलों में
मैं चेतन हूँ, अनंत हूँ , अमर हूँ गतिमान
क्या बाँध पायेगा कोई अशरीरी को साँकलों में


सुलोचना वर्मा


 

Sunday, February 9, 2014

बहुरुपिया

नही थी परवाह उसे लिंग या मज़हब की
अक्सर बदलकर आता वो अपनी वेश भूषा
बुनता धर्म और समाज के ताने बाने
हमारे गाँव रहता था एक बहुरुपिया


उसकी अभिनय क्षमता ढाल देती थी
उसे नये नये किरदारों में
वो लोगों के जीवन में लगाता सेंध
और निकाल लाता उनके अंदर से अनदेखा सच


कई चेहरे निकल आते थे
हरे नीले दरवाज़ों के पीछे से
जब बहुरुपिया निकल आता था सड़कों पर
दौड़ जाती थी खुशी लोगों के चेहरों पर


बहुरुपिए आज भी निकलते हैं सड़कों पर
पर नही दिखती खुशी की परछाई तक किसी चेहरे पर
कभी खुद को किसी और में ढूंढता; तो कभी किसी मे खुद को पाता
हर कोई जी रहा है दोहरी सी ज़िंदगानी


सीमित है धर्म अब, समाज बिखर सा गया
सिमट गयी घर की देहरी, मंदिर भी ताला जड़ा
अब जंगल के लूटेरों से लेकर, मंदिर के पुजारी तक
शहर की गलियों से, गाँव के नुक्कर तक, हर कोई बहुरुपिया है


सुलोचना वर्मा

Saturday, February 8, 2014

मुठ्ठी भर आसमान

गुड्डी, इक इठलाती रंगीन पतंग, जब भी आसमान की सैर पर जाती, तो चिड़ियों को बिना किसी बंधन के उड़ता देख यही सोचती कि काश ! उसे भी ऐसी आज़ादी होती | उसे डोर के साथ बँधे रहने में घुटन सी महसूस हो रही थी | वह  इस बंधन को तोड़ हवा के साथ उड़  जाना चाहती थी  | सोचती थी हवा का साथ मिलेगा तो अपने पंख पर वर्चस्व की आशाओं का बोझ लेकर वह  पूरी दुनिया घूम सकेगी | जब जिधर  हवा का रुख़ होगा, तब उधर ही चल देगी|

घुटन  होने पर लोग ऐसा काम कर जाते हैं जिसके बारे में कभी सोचा भी ना हो | बस, फिर क्या था| एक दिन जब डोर गुड्डी को अपने साथ आसमान ले जाना चाहता था, गुड्डी कुछ सोचकर दूसरी तरफ चल पड़ी-हवा के ठीक विपरीत दिशा में |  पतंग तब आसमान की ओर बढ़ती है जब हवा का प्रवाह पतंग के उपर और नीचे से होता है, जिससे पतंग के उपर कम दबाव और पतंग के नीचे अधिक दबाव बनता है। यह विक्षेपन हवा की गति कि  दिशा के साथ क्षैतिज खींचाव भी उत्पन्न करता है। हवा आश्चर्य के साथ और डोर मायूस होकर अस्त व्यस्त अवस्था में ज़मीन पर आती पतंग को देखता रहा | 

गुड्डी को ज़मीन पर आते देख लोग दौड़ते हुए उसकी तरफ बढ़ रहे थे | दौड़ने वालों में वो भी थे जिन्हे पतंगबाज़ी का शौक था; और वो भी जो सिर्फ़ पतंग लूटना जानते थे, जिनका पतंग उड़ाने से कोई सरोकार नही था | वो इन पतंगो को लूटकर किसी तहख़ाने में जमा करते और अपनी शान में पतंगबाज़ी की झूठी कहानियाँ गढ़ते |

गुड्डी तो आज़ाद होना चाहती थी | अभी आज़ाद हुई भी नही थी की उसकी आज़ादी को उसकी आवारगी जान कई हाथ उसकी तरफ बढ़ने लगे | वह भाँप गयी की उसके चिथड़े होने में तनिक भी समय नही लगेगा | आख़िर थी तो वह काग़ज़ की ही एक पतंग| उसने एक भी क्षण बिना  गँवाए, पकड़ लिया हवा का दामन और चल पड़ी डोर के साथ | अब वह हर परिस्थिति में डोर के साथ बँधी रहती है | उसे उसकी आज़ाद होने की कोशिश का वह भयावह दृश्य और उससे मिला अनुभव डोर से बाँधे रखता है| वह जान चुकी है कि उसे नभ का अपरिमित विस्तार नही मिल पाएगा ; पर चेहरे पर संतोष है इस बात का की उसके पास भी मुठ्ठी भर ही सही, पर अपना थोड़ा सा आसमान तो है|

सुलोचना वर्मा

Wednesday, February 5, 2014

पराया धन


बाँध दी गयी
दहलीज़ों में
बनी दान सामग्री
रिवाज़ों में
हो गयी अभिशप्त
घरों में
परिवर्तित की गयी
पत्थरों में
बाँट दी गयी
पतियों में
हो गयी तिरस्कृत
समाजों में
झोंक दी  गयी
तंदूरों में
निहित था
केवल दो शब्दों में
"उसके"
संपूर्ण जीवन का सार
"वह"
"पराया धन" थी


सुलोचना वर्मा

 

Monday, February 3, 2014

क्षितिज के चंद्रहार

क्यूँ देखते हो तुम
अपनी अभिलाषा के रक्तिम पुष्प को
जो रुला जाती हैं तुम्हे
और दिवा-स्वप्न ही रह जाती है
दिव्य मुस्कान अधरो पर

 
जिन्हे तुम मोती कहते हो
वो अनार के दाने हैं
टूटकर बिखर जाएँगे
जब यौवन का सूरज ढलेगा
अनुभवों के पहाड़ों पर


वो काँपते अधरो की सिसकियाँ नही
पत्तियो की सरसराहट है
क्यूँ कोसते हो पतझड़ को
गाते हुए प्रेम वीथि में
आरज़ू के बहारों पर


जब इला सजकर दुल्हन सी
चली प्रीत की नगरिया
क्यूँ दिखलाते हो राग
तब विस्मृत कर अनुराग
डोली के कहाँरों पर


कभी की तारों की वृष्टि
कभी बरसाई शीतल चाँदनी
ना कुम्हलाओ ऐ अनुरागी
कब वसुधा हुई समर्पित
क्षितिज के चंद्रहारों पर

सुलोचना वर्मा


 

Saturday, February 1, 2014

शंख


सहस्त्र कोटि युगों से शंख, लेता रहा अवतार
कभी बना बाज़ार की मुद्रा , कभी धारदार औजार 


शंख जुड़ा धार्मिक जीवन से, मंगल ध्वनि निर्दिष्ट
शंखनाद का पूजा के समय ,स्थान रहा विशिष्ट 


समुद्र जैसा गंभीर गर्जन, सुनो इसमें  लगाकर कान
कहलाता है जो समुद्रपुत्र, है लक्ष्मीकांत की शान 


करे गूंजीत मंदिर का प्रांगण, शंख एक पावन प्रतीक
कभी हुंकार भरे कुरुक्षेत्र में,बनकर विजय ध्वनि सटीक 


है  विवाह के अवसर पर, शंख ध्वनि अनिवार्य
पहनना शंख की बनी चूड़ियाँ, सधवाओं का कार्य 


शंख भाग है अष्टमंगल  का , बौद्ध धर्म का चिन्ह पवित्र
शंख भस्म करे रोग दूर, है मानव का सच्चा मित्र 


मोती उपलब्ध नही होने पर, करे चंद्रदोष समाप्त
शंख की अंगूठी पहनने का , ज्योतिषी विद्या ज्ञाप्त 


बल पड़े भिन्न दिशा, शंख के कई प्रकार
वामावर्त  बने औषधि तो, दक्षिणावर्त दे धन अपार 


आत्मरक्षा के लिए जीव, बनाते आ रहे खोल
बदली धरती की काया, शंख बना रहा अनमोल 


सुलोचना वर्मा