Friday, May 30, 2014

सोने की चिड़ियाँ

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विश्व के मानचित्र पर
आज भी चिन्हित है वह देश
कहलाता था जो कभी विश्व गुरु
और था समृद्ध हर दृष्टि से  
हर लड़का होता था कान्हा उस देश का
और राधा कही जाती थी लडकियां

जब वहाँ हर डाल पर होता था बसेरा
सोने की चिड़ियाँ का
अक्सर बन जाया करती थी कुछ नारी
गणिका, नगरवधू या देवदासी
और ठीक उसी समय
पुरुष रहा करता था केवल पुरुष

जहाँ नारी स्त्री से बन जाती थी सती
पुरुष बना रहता था पति
मृत्यु शैया तक
जहाँ रानियों को मान लेना होता था जौहर
पुरुष बना रहता था शौहर
बहुपत्नीवाले सभ्य समाज में
नहीं थी शिकायत किसी को भी
समाज की इस दोहरी बनावट से
ना ही स्त्री को , ना ही पुरुष को
और असर था यह ज्ञान का
जो दिया जाता रहा लिंग के आधार पर

आधुनिकता के इस दौर में 
सचमुच की जीवित चिड़ियों के साथ
गायब है सोने की चिड़ियाँ डाल पर से
नहीं रोते लोग यहाँ अब लड़की के जन्म पर
उसे तो जन्म लेने ही नहीं देते
और जो ले चुकी है जन्म
करते हैं उनका शोषण; हर प्रकार से
फिर लहराते हैं किसी पेड़ पर परचम
अपने पुरुषत्व का डंके की चोट पर

तरक्की कर ली है हमने हर मायने में
और जारी है हमारा सभ्य होते रहना
इतना सभ्य हो जाएगा
इस समाज का पुरुष  निकट भविष्य में
बाँट लेगा पत्नी को भाई -बंधुओं में
बता देगा इस कृत्य को माँ का परम आदेश
और माँ ? क्या करेगी माँ ?
खींच देगी बहु का घूंघट कुछ ज्यादा ही लम्बा
कि नहीं करना पड़े सामना
उसकी आँखों में तैरते सवालों का
दर्द का, नफरत का
या समझा लेगी खुद को यह कहकर
कि गलती कर जाया करते हैं लड़के
या फिर जश्न मना रही होगी
अपनी अजन्मी बेटियों को जन्म नहीं देने का

ये सिलसिला चलता रहेगा तब तक
जब रह जायेगी धरती पर
एक अकेली औरत
ठीक उसी समय आएगा
किसी धर्म का कोई गुरु
जो बांचेगा ज्ञान यह कहकर
कि बनाया है औरत को उसने अपनी पसली से
और उस औरत का धर्म होगा तय
सभ्यता को आगे बढ़ाना !!!!

इस प्रकार पार कर
असभ्यताओं की सारी सीमाएं
करेगा मानव प्रवेश पुनः
किसी सभ्यता वाले युग में
जहाँ हर डाल पर फिर होगा बसेरा
सोने की चिड़ियाँ का |


सुलोचना वर्मा

Tuesday, May 27, 2014

मेरे जैसा कुछ

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नहीं हो पायी विदा
मैं उस घर से
और रह गया शेष वहाँ
मेरे जैसा कुछ


पेल्मेट के ऊपर रखे मनीप्लांट में
मौजूद रही मैं
साल दर साल


छिपी रही मैं
लकड़ी की अलगनी में
पीछे की कतार में


पड़ी रही मैं
शीशे के शो-केस में सजे
गुड्डे - गुड़ियों के बीच


महकती रही मैं
आँगन में लगे
माधवीलता की बेलों में


दबी रही मैं
माँ के संदूक में संभाल कर रखी गयी
बचपन की छोटी बड़ी चीजों में 


ढूँढ ली गयी हर रोज़
पिता द्वारा
ताखे पर सजाकर रखी उपलब्धियों में


रह गयी मैं
पूजा घर में
सिंहासन के सामने बनी अल्पना में


हाँ, बदल गया है
अब मेरे रहने का सलीका
जो मैं थी, वो नहीं रही मैं |


---------सुलोचना वर्मा -------

Monday, May 26, 2014

उम्र

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मेरे तुम्हारे बीच
आकर ठहर गया है
एक लम्बा मौन
छुपी हैं जिसमे
उम्र भर की शिकायतें
हर एक शिकायत की
है अपनी अपनी उम्र

उम्र लम्बी है शिकायतों की
और उम्र से लम्बा है मौन

-----सुलोचना वर्मा------

Saturday, May 24, 2014

मोती

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मैं मरुथल की रेत-सी
गाती हूँ राग मियाँ की मल्हार
जिसमे करती हूँ ज़िक्र तुम्हारा
बड़े ही जतन से
गांधार स्वर की मानिंद


तुम हवा से बन जाते हो बवंडर,
भींच लेते हो मुझे अपने दामन में
उकेरता है एक बहुआयामी अमूर्त रेखा चित्र
रेगिस्तान की ज़मीं पर
हमारा यह सूफी कत्थक वैले


जल उठता है रात का अँधेरा
लिखता है मेरे दामन पर प्यार-पानी से
फिसलने लगते हैं गीत के बोल मेरे होठों से
और हो जाते हैं बंद किसी सीपी में 


सुनो हवा ,
सावन के बाद जो आओ मुझसे मिलने
लगा लेना कान अपना सीपी में
और सुन लेना कजरी धीरे से
ढूँढ लेना मेरा वजूद उस सीपी में बंद
मेरे शब्दों के मोती में 


सुलोचना वर्मा

Saturday, May 17, 2014

सादगी

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रूठ गयी चूड़ियाँ कलाई से
आईना देखता रहा 
बिंदी जा लिपटी मेरी परछाई से
और देखती रही एकटक मुझे |


मुझे मुझमे विलीन होता देख
जाते-जाते  बिछिया ने पाँव में काटी
एक ज़ोरदार चिकोटी  !


भारी हो उठा पाजेब द्वन्द में
घूँघरू मोती बरसाते रहे
बिलख उठा बाजू पर बँधा ताबीज़
पिघलता चला गया उसमे भरा मोम
और उड़ गयी दुआ पंख लगाकर दूर वीरानो में |


आँखों ने सोख लिया सारा का सारा काजल
और भरती ही चली गई अंतस की सुरमेदानी में |


घूर रही हैं पेशानी पर तैरते सवालों को
मेरी बेनाम सी अधूरी ख्वाहिशें
कुछ और उलझ गयी हैं
मेरे माथे की मुलायम लटें
शूल सा चुभ रहा है ह्रदय में
गले की हार से लगा लॉकेट
लहुलुहान कर गया मुझे बेतरतीब होकर
सादगी का ये प्रौढ़ आलिंगन !!!


(c)सुलोचना वर्मा

Friday, May 16, 2014

स्वीकृति

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प्रेम की पराकाष्ठा कहें
या केवल एक विडंबना
आत्मा दे देती है स्वीकृति
प्रेम में पराधीनता की
मौनव्रत धारण किये


कदाचित सुन पाते अन्तर्नाद
मर्यादाओं की दहलीज़ पर खड़े मूक प्राण की
स्वीकारोक्ति के आचरण की
सुन लेते हैं जैसे लोग विरोधाभास
अक्सर किसी शीतयुद्ध में |


(c)सुलोचना वर्मा

वटवृक्ष

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क्यूँ व्यथित हो वटवृक्ष
जो रेंग रही हैं तुम्हारे तन पर अमरबेलें
और जकड़ रही है निशिदिन
तुम्हे निज बाहुपाश में


नहीं, तुम असहाय नहीं
ये  है सामर्थ्य तुम्हारा
कि धरा है तुमने धरणी को अपनी बहुभुजाओं से
देना औरो को आश्रय, रचा है विधाता ने तुम्हारी नियति में


सनद रहे ! तुम्हारी कोटरों में
रहते है विषयुक्त काले सर्प
फैलाकर चलते फन, जब भी जाते भ्रमण को
और अपने गरल पर व्यर्थ ही करते दर्प


तुम्हारी क्षमता का परिचायक हैं
तुम्हारी असंख्य शाखाओं पर पत्तों की भरमार
तुम्हें होना है परिणत कल्पतरु में
और करना है पोषित ये समस्त संसार


ना हो व्यथित, कि तुम हो वटवृक्ष
सह लो थोड़ा संताप, धरे रहो तुम धीर
और करो अभिमान निज पर कि तुम्हारी छाया में रहकर
सिद्धार्थ "गौतम" कहलाये


पढ़ा होगा हर एक पत्ते को तप के तमाम वर्षों में 
और तथागत ने सीखा होगा धैर्य का पाठ तुम्ही से
सीखा होगा तृष्णा का त्याग, प्रज्ञा की वृद्धि तुम्हारे आचरणरुपी धर्म से
धर्म, जो यह बताए कि करुणा से भी अधिक मैत्री है आवश्यक |
 

सुलोचना वर्मा

Monday, May 12, 2014

पागल चित्रकार

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मेरे सपनों के कैनवास पर
जल से ही सही
पर उकेरुंगा तुम्हारी तस्वीर
और तुम्हें वृष्टि की सूरत देकर
रंग लेगा मल्हार अपनी तकदीर


पर नहीं चाहूँगा सोख ले तुम्हे मिटटी
तो इस चित्र में तुम्हे बरसना होगा पथरीली सतह पर
बह जाना होगा लेकर रूप सरिता का
नहीं चाहूंगा बंधों तुम कभी तटबंधों में
समर्पण तुमसे नहीं मांगूगा मैं वनिता का


तुम्हें अल्हड़पन देने को बलखा जायेगी मेरी तूलिका
फिर आँखें मूंदकर सुनूँगा तुम्हारा कल कल
ले जाना चाहता हूँ तुम्हे ऊँचे पहाड़ों तक
जहाँ निहारूंगा तुम्हे झरना बनते देख
अपने रोमानी जीवन के समस्त बहारों तक


साथ निभाऊंगा तुम्हारा मैं, दूर दूर रहकर
और करता रहूँगा प्रवाहित अपनी संवेदनाओं का शिलाखंड
जब जब करेगा नीरस मुझे तुम्हारा मौन
जबकि जानता हूँ यह मेरी भक्ति मात्र होगी
तुम्हारा प्रसाद पानेवाला होता हूँ मैं कौन


करूंगा वेदोच्चारण, गाऊंगा मंगल गान
जब होगा तुम्हारा मिलन अपने सागर के संग
वो बन जाएगा मांझी, थाम लेगा पतवार
और इस घटना के पश्चात सर्वस्व तुम्हारा होगा
बस रह जायेगी नम मेरे घर की दीवार


जानता हूँ जब वृष्टि बन जायेगी नदी,
वो गुजरेगी मेरे पथरीले अंतस से 
मैं हो जाऊँगा उसके जैसा पावन, निर्विकार
प्रेम में नदी को ही जीता रहूँगा कई साल 
आखिर मैं ठहरा एक पागल चित्रकार |


सुलोचना वर्मा

Friday, May 9, 2014

दो चोटी वाली लड़की

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ना इतराना दो चोटी वाली लड़की
जो कह दे तुम्हें कोई गुलाब का फूल
कि जो ऐसा हुआ
ताक पर रख दी जायेगी तुम्हारी बौद्धिकता
फिर तुम्हें दिखना होगा सुन्दर
तुम्हें महकना भी होगा
फिर .........
चर्म इन्द्रि से देखना चाहेंगे लोग तुम्हारा सौन्दर्य
और लगभग भूल जायेंगे विलोचन की उपस्थिति
उमड़ पड़ेंगे लोग लेने तुम्हारा सुवास
कुछ लोग महानता का ढोंग भी रचेंगे
और तुम्हारा कर देंगे उत्सर्ग किसी देवता के चरणों में
इन सभी परिस्थितियों में
बिखर जायेंगी तुम्हारी पंखुडियाँ
और तुम्हे मुरझा जाना होगा


क्या जानती हो दो चोटी वाली लड़की
नहीं ख़त्म होगी बात तुम्हारे मुरझा जाने पर
और समाज सोचेगा भी नहीं
कि वह कर देगा व्यक्त अपनी मानसिक अस्‍वस्‍थता को 
जब जब करेगा प्रश्न तुम्हारे यौन शुचिता की
और तुम बनी रह जाओगी केवल और केवल
एक शर्मनाक विषय,
एक नीरस चर्चा,
जिसे समाज स्त्री कहता है 


सुनो दो चोटी वाली लड़की
तुम्हें बनना है बछेंद्री पाल
और नाप लेना है माउंट एवरेस्ट
गाड़ देना है झंडा अपने वजूद का
और अपने नाम का परचम लहराना है
विश्व के सबसे ऊँचे पर्वत शिखर पर .......


तुम्हे मैरीकॉम भी बनना है दो चोटी वाली लड़की
कि तुम जड़ सको जोरदार घूँसा
हर उस मनहूस चेहरे पर
जिसकी भंगिमाएँ बदलती हों
तुम्हारे शरीर की बदलती ज्यामिति पर ......


दो चोटी वाली लड़की, बन सकती हो तुम मैरी अंडरसन
जो करे इजाद एक ऐसा विंडशील्ड वाइपर
जिसे लोग करे इस्तेमाल
अपने दिमाग पर पड़े धुल को धोने के लिए
और फिर एक हो जाए उनका रवैया लड़का और लड़की के लिए .....


बन सकती हो तुम ग्रेस हूपर दो चोटी वाली लड़की
और लिख सकती है कोबोल जैसी कोई नयी भाषा
जिसे पढ़ें उभय लिंग के प्राणी बिना भेदभाव के
और डिस्प्ले लिखकर कहे "हेल्लो वर्ल्ड "
बड़े ही जिंदादिली और बेबाकी के साथ .......


जो ऐसा कुछ नहीं बन पायी दो चोटी वाली लड़की
तो कर लेना अनुसरण अपने पिता का...खेतों... खलिहानों  तक
लगा लेना झूला आम के किसी पेड़ पर और बौरा जाना
जैसे बौराती है अमिया की डाली फागुन में
खूब गाना कजरी सखियों के संग मिलकर
ऐसे में कहीं जो कोई धर दे तुम्हारी जुबां पर हाथ
मंथर होने लगे तुम्हारी आवाज़
उठा लेना हाथ में हंसुआ
और काट देना गन्दी फसल को......... जड़ से....
फिर खोल लेना अपनी चोटियाँ मुक्तिबोध में
बना लेना गजरा खेत के मेड़ पर उग आये वनफूलों से
खोंस लेना बालों में आत्मविश्वास के साथ
चल पड़ना हवा के बहाव की दिशा में
कि तुम हो प्रकृति
तुम्हे रहना है हरा भरा...हर हाल में |


बताओ न, दो चोटी वाली लड़की,
तुम्हें क्या बनना है ?


-----(c)सुलोचना वर्मा--------------

Monday, May 5, 2014

एक रही अनीता

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एक रही अनीता
और उसका होना रहा आशीर्वाद
जैसे ऋचाओं की गूँज पर ईश्वर से संवाद


उसकी छवि ऐसी धवल
जैसे हरश्रृंगार का फूल
और रश्मि प्रात नवल


जो एक रही अनीता
जा बसी नभ के उस पार 
हमारी यादों के झील में 
अनीता फिर भी रही


-----सुलोचना वर्मा ------

Friday, May 2, 2014

एक नदी

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मेरे और तुम्हारे देश के बीच
बहती है एक नदी
जो तय करती है हम दोनों की
अपनी- अपनी पहचान
जिसे मैं गंगा कहती हूँ और तुम पद्मा
नदी, जो एक है
बँटकर भी नहीं बदल पाती है अपना स्वाद
और झेलती रहती है असंख्य पीड़ा
उसकी असंतुष्टि भर देती है उसमे अवसाद का उन्माद
बहा ले जाती है दूर दूर तक अपने दोनों किनारों को
निज के विभाजन का उत्तरदायी जान
करती है चित्कार, जो गूँजता है शुन्य में
जिसे नहीं सुन पाते किसी भी एक देश के बासिन्दे
फिर हमारी निर्ममता पर होकर विवश
समेट लेती है अपने दोनों किनारों को
और ढूँढने लगती है अपने आस्तित्व का अर्थ |

नदी का आत्ममंथन, कहीं मंद ना कर दे उसकी धार
और उसके निज के होने के अभिप्राय का अनुसंधान
कहीं ना कर दे उसे किसी अनजान पथ पर विचलित
आखिर वो नदी है; और उसे पालन करते रहना है 
निर्दिष्ट दिशा में अविरल चलते रहने का क्रम......

जब बाँटा गया नदी को
तो तय कर दी गयी उसकी भाषा
हमारी सीमा-रेखा में वो करेगी छल-छल
और तुम्हारे देश में कल-कल बहेगी
हमारी सोच कितनी भी संकीर्ण हो
नदी का विशाल ह्रदय है
लम्बी कर देती है हर उस वस्तु की छाया
जो उसमे जाकर गिरती है !
बता देती है हर एक को उसकी औकात
या यूँ कहें कि व्यक्त करती है
अपने उदार व्यक्तित्व को नए प्रकाश में |

नदी की बात छोड़ो, हम अपनी बात करते हैं
चलो अपने सपनो को हम आज पंख देते हैं
और प्रेम को देते हैं एक नया आयाम
सुनो, मैं इस पार से झांकती हूँ अपने गंगा में
तुम उस पार अपने पद्मा में झाँको
और नदी, जो है हम दोनों की अपनी
कर देगी विस्तृत हमारी छाया
और नदी के लगभग बीचोबीच
हमारे मिलन का साक्षी होगा अनंत आकाश !!!!

सुलोचना वर्मा