Saturday, September 12, 2020

बुद्धदेव बसु

१. इस सर्दी में 


यदि मैं मर सकता

इस सर्दी में,

जैसे मरता है पेड़,

मरा रहता है सांप जैसे

समस्त दीर्घ सर्दी भर ।


नए हो जाते हैं पेड़ सर्दियों के अंत में,

जड़ से उर्ध्व की ओर उठ आता है तरुण प्राणरस,

खिल उठता है चमकीला हरा हर पत्ते पर 

और अजस्र अभिमान फूलों पर।


और साँप उतार देता है अपना केंचुल,

उसकी नई त्वचा पर होती है नक्काशी शंख की तरह;

उसकी जिह्वा मुक्त हो निकल आती है आग की शिखा की तरह,

वह आग जो भय नहीं जानती।


क्योंकि वे मरे रहते हैं

समस्त दीर्घ सर्दी भर,

क्योंकि वे मरना जानते हैं।


यदि मैं भी मरा रह पाता

यदि मुझे आता बिल्कुल शून्य हो जाना,

डूब जाना स्मृतिहीन, स्वप्नहीन अतल नींद में -

तो मुझे प्रति मुहूर्त मरना नहीं पड़ता 

बचे रहने के इस प्रयास में,

खुश होने, ख़ुश करने के लिए

अच्छा लिखने, प्यार करने के प्रयास में।


२. चिल्का में सुबह


इतना अच्छा लगा आज सुबह मुझे 

कैसे कहूँ?

इतना निर्मल नील यह आकाश, इतना असह्य सुंदर,

जैसे गुणी के कंठ की अबाध उन्मुक्त तान 

दिगंत से दिगंत तक;


इतना अच्छा लगा मुझे इस आकाश की ओर देखकर;

चारों ओर हरी पहाड़ियों से घिरा टेढ़ा-मेढ़ा, कोहरे में धुँआधार,

बीच में चिल्का चमक रहा है।


तुम पास आई, थोड़ी देर बैठी, फिर गई उधर,

स्टेशन पर गाड़ी आकर रुकी, वही देखने।

गाड़ी चली गई! - तुमसे इतना प्यार करता हूँ,

कैसे कहूँ?


आकाश में सूर्य की बाढ़, नहीं देखा जाता ।

गायें एकाग्र हो घास उखाड़ रही हैं, बेहद शांत!

-क्या तुमने कभी सोचा था कि इस झील के किनारे आकर हम वो पायेंगे 

जो इतने दिनों तक नहीं पाया?


रूपहला जल सो-सोकर स्वप्न देख रहा है; सारा आकाश

नील के स्रोत से झर पड़ा है उसके सीने पर 

सूर्य के चुम्बन से | यहाँ जल उठेगा अपरूप इंद्रधनुष

तुम्हारे और मेरे रक्त के समुद्र को घेर 

क्या कभी सोचा था?


कल चिल्का में नाव से जाते हुए हमने देखा था 

कितनी दूर से उड़कर आ रही हैं दो तितलियाँ 

जल के ऊपर से।- इतना दुस्साहस! तुम हँसी थी और मुझे 

बहुत अच्छा लगा था।


तुम्हारा वह उज्ज्वल अपरूप चेहरा। देखो, देखो,

कितना नीला है यह आकाश और तुम्हारी आँखों में 

काँप रहे हैं कितने आकाश, कितनी मृत्युएँ, कितने नए जन्म

कैसे कहूँ|


३.किसी मृतका के प्रति


'नहीं भूलूंगा' - इतने बड़े साहसिक शपथ के साथ

जीवन नहीं करता माफ | इसलिए मिथ्या अंगीकार हो |

तुम्हारी परम मुक्ति, हे क्षणिका, अकल्पित पथ में 

व्याप्त हो |  तुम्हारा चेहरा-माया में मिले, मिले 

घास-पत्तियों में, ऋतुरंग में, जल में-स्थल में, आकाश के नीले में |

केवल इस बात को हृदय के निभृत प्रकाश में

जला कर रखता हूँ इस रात में - तुम थी, फिर भी तुम थी|


४. रूपान्तर 


दिन मेरे कर्म के प्रहार से धूल धूसरित 

रात्रि मेरी ज्वलंत जाग्रत स्वप्न में|

धातु के संघर्ष में जागो, हे सुंदर, शुभ्र अग्निशिखा,

वायु हो वस्तुपुंज, चाँद हो नारी,

मृत्तिका के फूल हों आकाश के तारे|

जागो, हे पवित्र पद्म, जागो तुम प्राण के मृणाल में,

मुक्ति दो मुझे हमेशा के लिए क्षणिका की अम्लान क्षमा में,

क्षणिक को करो चिरंत|

देह हो मन, मन हो प्राण, प्राण हो मृत्यु का संगम,

मृत्यु हो देह , प्राण, मन 

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বুদ্ধদেব বসু


१. এই শীতে 


আমি যদি ম’রে যেতে পারতুম

এই শীতে,

গাছ যেমন ম’রে যায়,

সাপ যেমন ম’রে থাকে

সমস্ত দীর্ঘ শীত ভ’রে।


শীতের শেষে গাছ নতুন হ’য়ে ওঠে,

শিকড় থেকে উর্ধ্বে বেয়ে ওঠে তরুণ প্রাণরস,

ফুটে ওঠে চিক্কণ সবুজ পাতায়-পাতায়

আর অজস্র উদ্ধত ফুলে।


আর সাপ ঝরিয়ে দেয় তার খোলশ,

তার নতুন চামড়া শঙ্খের মতো কাজ-করা;

তার জিহ্বা ছুটে বেরিয়ে আসে আগুনের শিখার মতো,

যে-আগুন ভয় জানে না।


কেননা তারা ম’রে থাকে

সমস্ত দীর্ঘ শীত ভ’রে,

কেননা তারা মরতে জানে।


যদি আমিও ম’রে থাকতে পারতুম—

যদি পারতুম একেবারে শূন্য হ’য়ে যেতে,

ডুবে যেতে স্মৃতিহীন, স্বপ্নহীন অতল ঘুমের মধ্যে—

তবে আমাকে প্রতি মুহূর্তে ম’রে যেতে হ’তো না

এই বাঁচার চেষ্টায়,

খুশি হবার, খুশি করার,

ভালো লেখার, ভালোবাসার চেষ্টায়।


२. চিল্কায় সকাল


কী ভালো আমার লাগলো আজ এই সকালবেলায়

কেমন করে বলি?

কী নির্মল নীল এই আকাশ, কী অসহ্য সুন্দর,

যেন গুণীর কণ্ঠের অবাধ উন্মুক্ত তান

দিগন্ত থেকে দিগন্তে;


কী ভালো আমার লাগলো এই আকাশের দিকে তাকিয়ে;

চারদিক সবুজ পাহাড়ে আঁকাবাঁকা, কুয়াশায় ধোঁয়াটে,

মাঝখানে চিল্কা উঠছে ঝিলকিয়ে।


তুমি কাছে এলে, একটু বসলে, তারপর গেলে ওদিকে,

স্টেশনে গাড়ি এসে দাড়িয়েঁছে, তা-ই দেখতে।

গাড়ি চ’লে গেল!- কী ভালো তোমাকে বাসি,

কেমন করে বলি?


আকাশে সূর্যের বন্যা, তাকানো যায়না।

গোরুগুলো একমনে ঘাস ছিঁড়ছে, কী শান্ত!

-তুমি কি কখনো ভেবেছিলে এই হ্রদের ধারে এসে আমরা পাবো

যা এতদিন পাইনি?


রূপোলি জল শুয়ে-শুয়ে স্বপ্ন দেখছে; সমস্ত আকাশ

নীলের স্রোতে ঝরে পড়ছে তার বুকের উপর

সূর্যের চুম্বনে।-এখানে জ্ব’লে উঠবে অপরূপ ইন্দ্রধণু

তোমার আর আমার রক্তের সমুদ্রকে ঘিরে

কখনো কি ভেবেছিলে?


কাল চিল্কায় নৌকোয় যেতে-যেতে আমরা দেখেছিলাম

দুটো প্রজাপতি কতদূর থেকে উড়ে আসছে

জলের উপর দিয়ে।- কী দুঃসাহস! তুমি হেসেছিলে আর আমার

কী ভালো লেগেছিল।


তোমার সেই উজ্জ্বল অপরূপ মুখ। দ্যাখো, দ্যাখো,

কেমন নীল এই আকাশ-আর তোমার চোখে

কাঁপছে কত আকাশ, কত মৃত্যু, কত নতুন জন্ম

কেমন করে বলি।


३. কোনো মৃতার প্রতি


‘ভুলিবো না’ – এত বড় স্পর্ধিত শপথে

জীবন করে না ক্ষমা | তাই মিথ্যা অঙ্গিকার থাক |

তোমার চরম মুক্তি, হে ক্ষণিকা, অকল্পিত পথে

ব্যপ্ত হোক | তোমার মুখশ্রী-মায়া মিলাক, মিলাক

তৃণে-পত্রে, ঋতুরঙ্গে, জলে-স্থলে, আকাশের নীলে |

শুধু এই কথাটুকু হৃদয়ের নিভৃত আলোতে

জ্বেলে রাখি এই রাত্রে — তুমি ছিলে, তবু তুমি ছিলে |


४. রুপান্তর


দিন মোর কর্মের প্রহারে পাংশু,

রাত্রি মোর জ্বলন্ত জাগ্রত স্বপ্নে |

ধাতুর সংঘর্ষে জাগো, হে সুন্দর, শুভ্র অগ্নিশিখা,

বস্তুপুঞ্জ বায়ু হোক, চাঁদ হোক নারী,

মৃত্তিকার ফুল হোক আকাশের তারা |

জাগো, হে পবিত্র পদ্ম, জাগো তুমি প্রাণের মৃণালে,

চিরন্তনে মুক্তি দাও ক্ষণিকার অম্লান ক্ষমায়,

ক্ষণিকেরে কর চিরন্তন |

দেহ হোক মন, মন হোক প্রাণ, প্রাণে হোক মৃত্যুর সঙ্গম,

মৃত্যু হোক দেহ প্রাণ, মন

Thursday, September 10, 2020

राग-विराग

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उसने कहा प्रेम
मेरे कानों में घुला राग खमाज
जुगलबंदी समझा मेरे मन ने
जैसे बाँसुरी पर हरिप्रसाद चौरसिया
और संतूर पर शिवकुमार शर्मा


विरह के दिनों में
बैठी रही वातायन पर
बनकर क़ाज़ी नज़रूल इस्लाम की नायिका
सुना मैंने रहकर मौन राग मिश्र देश
गाते रहे अजय चक्रवर्ती "पिया पिया पिया पापिया पुकारे"


हमारे मिलन पर
शिराओं - उपशिराओं में बज उठा था मालकौंस
युगल स्वरों के परस्पर संवाद में
जैसे बिस्मिल्लाह खान बजाते थे शहनाई पर
और शुभ हुआ जाता था हर एक क्षण


लील लिया जीवन के दादरा और कहरवा को
वक़्त के धमार ताल ने
मिश्र रागों के आलाप पर
सुना मेरी लय को प्रलय शास्त्रीयता की पाबंद
आसपास की मेरी दुनिया ने


काश! इस पृथ्वी का हर प्राणी समझता संगीत की भाषा
और जानता कि बढ़ जाती है मधुरता किसी भी राग में
मिश्र के लगते ही, भले ही कम हो जाती हो उसकी शास्त्रीयता
और समझता कि लगभग बेसुरी होती जा रही इस धरा को
शास्त्रीयता से कहीं अधिक माधुर्य की है आवश्यकता |

लिखूंगी

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मुझे माफ़ करना प्राण सखा,
नहीं लिख पाउंगी मैं कोई महान कविता !
मैं लिखूंगी विशाल पहाड़
तुम ठीक उस जगह झरने का संगीत सुनना |


मैं लिखूंगी अलौकिक सा कुछ, लिखूंगी छल और दुःख भी
मेरे अनुभवों में शामिल है दुधमुंहे शिशु के शरीर की गंध,
कई दिनों से प्रेमी के फ़ोन का इंतजार करती
प्रेम में डूबी प्रेमिका को देखा है मैंने
"सहेला रे" गाती हुए किशोरी अमोनकर को सुना है कई बार
देखा है बिन ब्याही माँ को प्रसव से ठीक पहले
अस्पताल के रजिस्टर पर बच्चे के बाप का नाम दर्ज़ करते
देखा है परमेश्वरी काका को बचपन में
छप्पड़ पर गमछे से तोता पकड़ते हुए
कोई और कैसे लिख पायेगा भला वो तमाम दास्ताँ !


बचपन में थी जो कविता मेरे पास,उसका रंग था सुगापंछी
उसकी आँखों में देखते ही होता था साक्षात्कार ईश्वर से
कविता कभी-कभी संत बनकर गुनगुनाने लगती -
"चित्रकूट के घाट पर भई संतन की भीड़....."
मेरी कविता का तेज था किसी सन्यासिनी की मानिंद
वह कर सकती थी तानसेन से भी जुगलबंदी
वह कर सकती थी वो तमाम बातें जिनके लिए
नहीं हैं मौज़ूद कोई भी शब्द अभिधान में
एक पिंजड़ा था जो सम्भालता था
स्मृतियों का ख़ज़ाना कई युगों का


मैं अब जो कविता लिखूंगी, क्या होगा उसका रंग?
क्या उगा सकेगी जंगल "हरा" लिखकर मेरी कविता?
क्या लौट आयेंगे ईश्वर, संत और विस्मृत स्मृतियाँ?
लौट आयेंगे प्रेमी प्रतीक्षारत प्रेमिकाओं के पास?
"मंगलयान" और "चंद्रयान" हैं इस युग की पुरस्कृत कवितायेँ!

हासिल हो स्वच्छ हवा और जल हमारी भावी पीढ़ी को
ऐसी कविताएँ अनाथ भटक रही हैं न जाने कब से !
मैं उन कविताओं को गोद लूंगी |
फिर मेरी कविताओं के आर्तनाद से तूफ़ान आ जाये,
आसमान टूट पड़े या बिजली गिर जाए,
उनका हाथ मैं कभी नहीं छोडूंगी |
मेरी कविताओं के संधर्ष से फिर उगेगा हरा रंग धरा पर
गायेगा मंगल गान सुगापंछी
तो धरती चीर कर निकल पड़ेगी फल्गु और सरस्वती!


मुझे माफ़ करना प्राण सखा,
नहीं लिख पाउंगी मैं कोई महान कविता !
मैं लिखूंगी रेत, और कविता पढ़कर करूंगी नदी का आह्वान
किसी आदिम पुरुष सा उस नदी किनारे तुम करना मेरा इंतजार |