Saturday, October 19, 2013

टूटे दरख़्त

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क्यूँ मायूस हो तुम टूटे दरख़्त
क्या हुआ जो तुम्हारी टहनियों में पत्ते नहीं
क्यूँ मन मलीन है तुम्हारा कि
बहारों में नहीं लगते फूल तुम पर
क्यूँ वर्षा ऋतु की बाट जोहते हो
क्यूँ भींग जाने को वृष्टि की कामना करते हो


भूलकर निज पीड़ा देखो उस शहीद को
तजा जिसने प्राण, अपनो की रक्षा को
कब खुद के श्वास बिसरने का
उसने शोक मनाया है
सहेजने को औरों की मुस्कान
अपना शीश गवाया है


क्या हुआ जो नहीं हैं गुंजायमान तुम्हारी शाखें
चिडियों के कलरव से
चीड़ डालो खुद को और बना लेने दो

किसी ग़रीब को अपनी छत
या फिर ले लो निर्वाण किसी मिट्टी के चूल्‍हे में
और पा लो मोक्ष उन भूखे अधरों की मुस्कान में
नहीं हो मायूस जो तुम हो टूटे दरख़्त......



 
सुलोचना वर्मा

Thursday, October 10, 2013

दुर्गा पूजा


शक्ति के उपासक हैं ये लोग
यहाँ स्कंदमाता की पूजा होती है
गणेश कार्तिक को भोग लगता है
और अशोक सुंदरी फुट फुट रोती है


चंदन नही, रक्त भरे हाथों से
देवी का शृंगार करते हैं
गर्भ की कन्याओं का जो
वंश के नाम संहार करते हैं

अचरज होता है क्यूँ शक्ति के नाम पर
नौ दिनो का उपवास होता है
कहाँ मिलेंगी कंजके लोगों को
जहाँ गर्भ उनका अंतिम निवास होता है


कभी मन्त्र से, कभी जाप से
नर तुमको छल रहा है
मत आओ इस धरती पर देवी
यहाँ तो चिरस्थायि
भद्रकाल चल रहा है


सुलोचना वर्मा

Sunday, October 6, 2013

बिखरते रिश्ते


नही बुनती जाल इस शहर में अब मकड़ियाँ
लगे हुए हैं जाले साज़िश 
की हर दीवार पर
बिखर गये हैं रिश्ते, अपनो की ही साज़िशो से
बस यादें टॅंगी रह गयी हैं घरों की किवाड़ पर
टुकड़े हुए रिश्तों के, ज़मीन के बँटवारे में
एक ही उपनाम है इस शहर के हर मिनार पर
क्यूँ बेच रहे हो आईने इस नुक्कर पर तुम
ये अंधो का शहर है, और धूल हर दीदार पर


सुलोचना