Friday, February 23, 2018

वह जो इक गाँव था

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दृश्य - एक

किसी लड़की को देखने के लिए लड़के वाले आने वाले हैं| पड़ोस के किसी घर से कढ़ाई वाला खूबसूरत चादर आ रहा है तो किसी घर से आगरे से खरीद कर लाया गया चीनी मिट्टी का टी सेट | पड़ोस की कोई दीदी लड़की को तैयार कर रही है तो दूसरे मोहल्ले की कोई चाची खाना बनाने में मदद करने आ पहुँची है| लड़के वाले कोई मुश्किल सवाल कर दे तो उस स्थिति से निपटने के लिए मोहल्ले के सबसे होनहार स्कूली बच्चे को लड़की के ठीक पीछे खड़े रहने का निर्देश दिया गया है जिसका काम होगा धीरे से उस सवाल का जवाब लड़की को बता देना | आस-पड़ोस की चार-पाँच स्त्रियाँ लड़के वालों के आते ही लड़की की हुनर का गुणगान शुरू कर देती हैं|  पड़ोस की किसी खूबसूरत लड़की को लड़के वालों के सामने नहीं आने का निर्देश दिया जाता है कि कहीं लड़के वाले उसे ही न पसंद कर ले या जिसे देखने आए हैं उससे तुलना कर बैठे  |  दूसरे मोहल्ले से आई चाची जिन्होंने सुबह से लगकर तरह-तरह का खाना बनाया, लड़के वालों को खाना परोसते हुए कह रही हैं कि सारा खाना उसी लड़की ने बनाया है, जिसे वो देखने आए हैं| लड़के वाले जाते हुए बता जाते हैं कि लड़की उन्हें पसंद है और कई जुड़े हुए हाथ ईश्वर को धन्यवाद ज्ञापित करते हुए एक साथ आसमान की ओर बढ़ते हैं|

दृश्य - दो 

अस्सी बरस की विधवा वृद्धा शरीर की सारी शक्ति लगाकर कुएँ से पानी की बाल्टी खींच रही है| पड़ोस की एक युवती दौड़कर आती है और उनसे रस्सी की डोर लेते हुए कहती है कि वह नहाकर आयी है और उसके हाथ से जल पाकर ठाकुर जी अशुद्ध नहीं हो जाएँगे | वह बिला नागा बिना अनुरोध के ही उस वृद्धा का खाना भी बनाती है| जाड़े के मौसम में भी उसे रोज़ नहाना पड़ता है वरना वृद्धा उसके हाथ का खाना नहीं खाएगी | वह वृद्धा की मदद भी करती है और अक्सर डांट भी सुनती है|

दृश्य - तीन 

गाँव की जमादारनी बड़े अधिकार से तय करती है किसके लड़के की शादी में कौन सी साड़ी लेगी | कुछ दिनों तक गायब रहकर लौटते ही घर-घर जाकर अपनी तीर्थयात्रा के बारे में बताती है| सुहागिनों को आशीर्वाद देते हुए कहती है कि जैसे बच्चे उसे नसीब हुए, भगवान सभी को दे | बहुत सालों बाद उसकी मौत की खबर पाकर गाँव भर में एक उदासी पसर जाती है|

ऐसा है मेरी स्मृतियों में बसा मेरे बचपन का गाँव | पिछले कुछ सालों से गाँव जाते हुए पाया कि दृश्य कुछ इस कदर बदल गए -

दृश्य - एक 

गाँव में किसी के घर शादी है| दूसरे मोहल्ले की चाची नहीं जा रही हैं क्यूँकि उन्हें निमंत्रण पत्र तो मिला था, पर उस घर का  कोई सदस्य उन्हें बुलाने नहीं आया | दो घर बाद रहने वाले पंडित जी ने तय किया है कि आशीर्वाद देकर आ जाएँगे; खाना नहीं खाएँगे | उनका स्टैण्डर्ड नहीं मिलता | गाँव का सबसे होनहार लड़का, जो उस लड़की से एकतरफा प्रेम करता था, इस ताक में बारातियों के आसपास मंडरा रहा है कि मौका मिलते ही उन्हें अपना एक तरफा प्रेम कहानी लैला-मजनू की कहानी में रूपांतरित करके सुनाये | आखिर जो सुख उसे न मिला वो किसी और को क्यूँ मिले ! आस-पड़ोस की स्त्रियाँ मुँह दबाकर हँस रही हैं और कह रही हैं "जिसके घर जाएगी, उसे पता चलेगा कैसा सामान लेकर जा रहे हैं"|

दृश्य - दो 

घर के नब्बे वर्षीय बुजुर्ग एक कम्बल ओढ़े पड़े हैं जबकि उस घर के किशोर और किशोरी रजाई में दुबके हुए हैं| भूख लगी है, पर उम्मीद नहीं है कि मांगने पर खाना मिल ही जाएगा | जब भूख सहने की क्षमता खत्म होती रहती है, बुजुर्ग लाठी लेकर निकल पड़ते हैं किसी ऐसे पुराने पते पर जहाँ उन्हें पुकारे जाने पर उनके नाम के आगे "श्री" और नाम के पीछे "बाबु" अब भी लगाया जाता है| शाम होने से पहले उन्हें घर लौटने की चिंता सताती है कि उन्हें भरोसा ही नहीं कि उनके घर नहीं लौटने कि दशा में घरवाले उन्हें ढूँढने भी निकलेंगे ! घर में उनके ही सामने बैठ उस घर के छोटे-छोटे बच्चे उन्हें "गजनी" पुकारने लगे हैं कि रह-रहकर वह स्मृति लोप का शिकार हुए जाते हैं|

दृश्य - तीन 

एक समृद्ध घर के तीन बेटों की माँ बेहद बीमार है| उसे कोई पेट भर खाना नहीं दे रहा | पास के घर में सत्यनारायण पूजा है| खिड़की के पास आकर पड़ोसन से प्रसाद माँगती  हुई कहती है "जरा ज्यादा देना | बहुत भूख लगी है"| कई दिनों बाद जब वह मर गयी, लोगों ने देखा उसकी अर्थी पर कई प्रकार के फल और सूखे मेवे सजाकर रखे हुए थे | शव यात्रा कम शोभा यात्रा अधिक थी वह |

पिछले कई बार से गाँव से मिलने गाँव जाती हूँ और गाँव से बिना मिले ही लौट आती हूँ| न जाने कहाँ गया वह जो इक गाँव था ....

Monday, February 12, 2018

सेल्फी

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मृणाल यूँ तो साधारण दिखने वाली छरहरे बदन की साँवली लड़की थी, पर उसकी एक जोड़ी आँखों में वो चमक थी कि जो भी उसे देखता रौशन हो जाता | वो अपनी हिरणी जैसी आँखों से जिसे देखती उसकी आँखों पर जमी काई हट जाती और उन आँखों में फिर मृणाल का ही सपना तैरता | उसे तरह -तरह से सेल्फी लेने का बेहद शौक था और उसने सेल्फी कला में महारत हासिल कर ली थी| अगरतला के एक होटल व्यवसायी ने एकबार अंतरजाल पर उसकी सेल्फी देख उसका पता लगाया और फिर उससे संपर्क साधा | फिर मिलने के बहाने तलाश किए जाने लगे | मिलने का मतलब होता था ढेर सारे उपहार और महंगे होटलों में खाना |  कुछ ही महीनों में मृणाल को विवाह का प्रस्ताव भी मिला | समाज के एक मध्यम वर्गीय परिवार में पली-बढ़ी लड़की के लिए यह किसी स्वप्न से कम न था | मृणाल ने अपने पिता को विवाह प्रस्ताव से अवगत करवाया | पहले तो यह सुनकर कि उनकी बेटी किसी से प्रेम करती है, वह अपना आपा खो बैठे | फिर जैसे ही उन्होंने लड़के का नाम सुना, तो पहचान गए | वह शहर का जाना - माना होटल व्यवसायी था | उनकी आँखें चमक उठीं | इतने बड़े घर में रिश्ते की बात तो वह सोच भी नहीं सकते थे | लड़के का ब्राह्मण न होना अब कोई बड़ी बात नहीं थी | वो झट से तैयार हो गए | एक महीने के अंदर शादी भी हो गयी | खूब धूमधाम से संपन्न हुई थी शादी | मृणाल के पिता इस शादी से बेहद संतुष्ट थे |

शादी के चौथे दिन देर रात कोई दरवाजा ज़ोर-ज़ोर से पीट रहा था | मृणाल के पिता सोने ही गए थे कि असमय दस्तक से चौंक दरवाजे तक गए | दरवाजा खोलने से पहले पूछा "कौन"

"मैं, मैं हूँ बाबा, जल्दी दरवाजा खोलिए" मृणाल ने रुंधे हुए गले से कहा |

हडबडाहट में दरवाजा खोला गया | मृणाल नाईट गाउन पहने नंगे पाँव ही चली आई थी | उसे देख घर के लोग हैरान थे | 

"अरे ! ऐसे कैसे चली आई हो? क्या हुआ ? सब ठीक तो है न" एक साथ कई आवाजें गूँजी |

"जल्दी दरवाजा बंद करो | कुछ भी ठीक नहीं | बाबा, आप मुझे कहीं छुपा दीजिए न" मृणाल बेतहाशा रो रही थी|

"पर हुआ क्या" मृणाल की माँ ने उसे एक ओर खींचते हुए पूछा |

"वो दूसरे कमरे में फोन पर था | मैंने उसकी सारी बातें सुन लीं | मैंने अपनी कानों से सुना कि कल वो हनीमून के बहाने मुझे दुबई ले जाएगा और वहाँ मुझे बेच देगा | कीमत भी तय हो चुकी है" मृणाल काँप रही थी |

मृणाल के पिता ने उसकी माँ से विमर्श किया और उसी रात मृणाल को लेकर वे दूर किसी गाँव में मृणाल की मौसी के पास चले गए | मृणाल का वहाँ रहना हर दृष्टि से सुरक्षित था | उस गाँव में बिजली न के बराबर रहती थी, यातायात के साधन भी सीमित थे और वह मौसी उसकी शादी में भी किसी कारण से नहीं आ पायी थीं, इसलिए उनसे वर पक्ष के किसी का कोई परिचय भी नहीं था | 

कई महीने गुजर गए| न तो मृणाल के ससुराल से कोई उसकी खबर लेने उसके मायके आया और मृणाल के घरवालों ने भी उनसे कभी संपर्क साधने की कोशिश नहीं की | मृणाल अपनी मौसी के यहाँ इस डर के साथ जी रही थी कि किसी रोज़ उसका पति उसे ढूँढता हुआ वहाँ न आ धमके | मृणाल के माता - पिता हर महीने एकबार  आकर उसे देख जाते और चिंतित होते | मृणाल अपने हृदय के व्याघात को वाणी भले ही न देती हो, पर माता-पिता उसके चेहरे से सब पढ़ लेते | 

एक साल बाद मृणाल के पिता को पता चला कि उस होटल व्यवसायी ने फिर से शादी की | एकबार उनके मन में आया कि पुलिस को इत्तिला कर सब बता देना चाहिए पर अगले ही पल उन्होंने विवेचना की कि उस होटल व्यवसायी के पास इतनी संपत्ति है कि वह लगभग सभी कुछ खरीद सकता है| वह एक और लड़की की जिंदगी खराब होने से बचाना तो चाहते थे, पर अपनी बेटी की कीमत पर नहीं | उन्होंने सोचा शायद इसी में मृणाल की मुक्ति निहित है और तय किया कि वह कुछ नहीं कहेंगे | इस घटना के सात महीने बाद उन्होंने दूर शहर के एक लड़के से मृणाल की शादी कर दी | शादी मृणाल की मौसी के घर से सम्पन्न हुआ | मृणाल के नए ससुराल वालों को उसका नाम मेघबालिका बताया गया | 

मृणाल अपनी मौसी के घर रहते हुए घर के कामों में दक्ष हो गयी थी| फिर चुपचाप रहते हुए कब मौन रहना उसकी आदत में शुमार हो गया, उसे भी पता न चला | चुप रहकर घर का सारा काम करने वाली स्त्री किसे अच्छी नहीं लगेगी ! बहुत कम समय में उसने अपने नए ससुराल में सभी लोगों का मन मोह लिया | साल भर बाद जब उसने एक बेटे को जन्म दिया, तो दोनों परिवारों में उत्सव सा माहौल था | लगभग दो सालों के बाद मृणाल के चेहरे पर मुस्कान देख उसके माता-पिता संतुष्ट और खुश थे |

बेटा रोज़ थोड़ा-थोड़ा बड़ा हो रहा था और मेघबालिका रोज़ थोड़ा-थोड़ा मृणाल हुई जाती थी | कभी फोन से बेटे की तस्वीरें लेती तो कभी खुद की उसके साथ सेल्फी |  सुंदर -सुंदर सुखद तस्वीरों से भरा साल बीत गया और बेटा एक साल का हो गया | मृणाल ने अपने नए जीवन साथी को कभी बताया था कि जब कंचनजंघा पर भोर का सूरज अपनी लालिमा बिखेरता है, तो उस दृश्य को देखने वाला इंसान सभी कुछ भूल जाता है| बेटे के जन्मदिन पर तय हुआ कि तीनों प्राणी दार्जिलिंग घूमने जाएँगे और उस दृश्य का साथ आनन्द उठाएँगे | पाँच घंटे के सफर के बाद मृणाल बेटे और पति, राजीव के साथ दार्जिलिंग में थी | वह अतीत की यादों में देर तलक डूबी रही | शाम के चार बजे घूमते हुए वे एक बेकरी तक गए | अंदर जाकर देखा बेकरी बस नाम में ही था, वह दरअसल एक छोटा सा रेस्तरां था | बेटे के जन्मदिन का केक काटा गया और रेस्तरां में मौजूद लोगों में बाँटा गया | ढ़ेरों तस्वीरें ली गईं | रात का खाना खाकर जल्द ही होटल आने का कार्यक्रम था | सुबह कंचनजंघा पर सूरज का जादू देखना था | 

कार्यक्रम के मुताबिक वे अलसुबह होटल से निकले | रास्ते में जगह-जगह रुककर सेल्फी ली गयी | अंततः वे उस जगह पर पहुँच ही गए जहाँ उनके साथ अन्य सैलानी भी टाइगर हिल पर उगते हुए सूरज का इन्तजार कर रहे थे | लगभग आधे घंटे बाद सूर्योदय हुआ और कुछ देर के लिए वहाँ खड़े सभी लोगों की साँसे रुक गयीं | नजारा था ही ऐसा अलौकिक | मृणाल ने पहले टाइगर हिल पर सूरज की स्वर्णिम किरणों के बिखरते जादू को फोन के कैमरे में क़ैद किया और फिर उसने टाइगर हिल के उस मनोरम दृश्य के साथ पति और बेटे की तस्वीर ली | पास से तीनों का टाइगर हिल के साथ वाली सेल्फी में उनका चेहरा ही दिख रहा था, टाइगर हिल नहीं दिख रहा था | मृणाल ने राजीव से कहा भी कि वह किसी दूसरे सैलानी से आग्रह करे कि वह इन लोगों की तस्वीर खींच दे पर राजीव को किसी अजनबी के हाथों में फोन देना सुरक्षित न लगा और उसने कहा कि वह खुद ही थोड़ी दूरी पर आगे जाकर सेल्फी ले लेगा | वह फोन को सेल्फी मोड में रखकर फोन में देखता हुआ आगे बढ़ने लगा | फोन में उसकी नजरें कंचनजंघा पर टिकी थीं और उसका पीठ मृणाल की ओर थी | मृणाल ने अचानक गौर किया कि वह आगे बढ़ता ही जा रहा है और उसके चार कदम आगे गहरी खाई है| 

"ठहरो" वह चिल्लाई | पर वह उस मनोरम दृश्य में इस कदर खो चुका था कि जब तक वह समझ पाता कि यह उसकी मेघबालिका की आवाज है, उसके पाँव के नीचे से जमीन जा चुकी थी और वह हवा में तैरता हुआ खाई में गिर रहा था | सैलानी, जो अभी तक कंचनजंघा देखने में व्यस्त थे. उस ओर दौड़ पड़े और फोटो लेने लगे | मृणाल उन तस्वीरों में कहीं नहीं थी |

Sunday, February 4, 2018

पुरुषोत्तम

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दशरथ चौधरी की तीन संतानों में सबसे बड़ा था पुरुषोत्तम | दशरथ चौधरी जब खाड़ी देश से खूब सारा धन कमाकर लौटे, तो सबसे पहले इंटरमीडिएट में पढ़ रही बेटी का ब्याह कर दिया जबकि वह आगे पढ़ना चाहती थी | दोनों लड़कों को किसी तरह ग्रेजुएट होने तक फॉर्म भरने के रूपये दिए |  जब पुरुषोत्तम ग्रेजुएट हो गया , उसके पिता ने कहा "अब हम तुम्हारी जिम्मेदारी से मुक्त हुए | अब तुम्हारे जीवन की बागडोर तुम्हारे हाथों में है| अपने लिए कोई नौकरी देख लो | अब मैं तुम्हारा खर्चा नहीं चला सकता "

पुरुषोत्तम नौकरी ढूँढने दिल्ली चला आया | नौकरी ढूँढते हुए दो जोड़ी चप्पलों के घिस जाने के बाद उसे एक इंटेरनेट कैफे में नौकरी मिली | कॉलेज के दिनों से ही पुरुषोत्तम कंप्यूटर की मरम्मत करने लगा था | वही काम आया | एक दिन वहाँ उसने मैथिली को देखा | मैथिली सुन्दरता की प्रतिमा थी | पुरुषोत्तम कॉलेज के दिनों से ही उसे चाहता था, पर कभी इज़हार करने लायक साहस न जुटा पाया |

"अरे ! तुम यहाँ क्या कर रही हो" खुशी मिश्रित आश्चर्य से पुरुषोत्तम ने पूछा |

"यही सवाल मेरा भी है| तुम यहाँ क्या कर रहे हो"मैथिली ने खुशी जाहिर करते हुए कहा |

"मैं यहीं काम करता हूँ और पास ही रहता हूँ" कहते हुए पुरुषोत्तम कुछ उदास हो गया |

"अरे वाह ! बहुत बढ़िया | मैं यहाँ मेल चेक करने आई हूँ|" कहते हुए मैथिली एक कंप्यूटर की ओर बढ़ गयी |

जाने से पहले मैथिली ने अपना फोन नम्बर पुरुषोत्तम को देते हुए कहा "मैं दिल्ली विश्वविद्यालय के पास रहती हूँ जबकि मेरा दफ्तर दक्षिणी दिल्ली में है| तुम अपने कमरे के आसपास ही मेरे लिए भी कोई कमरा दूंढ़ दो"

"जरूर | समझो हो गया" पुरुषोत्तम ने आश्वस्त करते हुए कहा |

एक महीने बाद मैथिली पुरुषोत्तम की पड़ोसन बन चुकी थी | आसपास रहने के कारण अक्सर दोनों एक-दुसरे से टकरा जाते, कभी बस स्टॉप पर तो कभी सब्जी मंडी में और फिर कभी एक-दुसरे के घर चाय या खाने के बहाने अनायास ही हो आते |  एक रविवार पुरुषोत्तम ने मैथिली को बताया कि उसके बुआ के लडके की सगाई है और वह उसे अपने साथ ले जाना चाहता है| छुट्टी का दिन होने के नाते मैथिली बिना किसी संकोच के उसके साथ चल पड़ी |

चार मंजिला ईमारत की छत पर खूब भीड़ थी | मैथिली एक कोने में जा खड़ी हुई | पुरुषोत्तम भी उसके साथ ही खड़ा रहा और सभी से उसका परिचय कराता रहा | कुछ समय बाद उसके जीजा जी आए और कहा " आप दोनों को भी अब शादी के विषय में विचार करना चाहिए |"

मैथिली अवाक् होकर पुरुषोत्तम की ओर देखने लगी जबकि पुरुषोत्तम मुस्कुराकर रह गया | मैथिली को अजीब सी बैचेनी होने लगी और उसने पुरुषोत्तम से लौटने का आग्रह किया |  पुरुषोत्तम मैथिली को छोड़ने उसके कमरे तक गया | कमरे पर पहुँचते ही मैथिली ने पुरुषोत्तम से पूछा "तुम्हारे जीजा जी क्या कह रहे थे?"

"अरे छोड़ो | मैंने उनसे कुछ भी नहीं कहा | तुम्हें साथ देखा तो उन्हें लगा, शायद हम..."कहते हुए पुरुषोत्तम रुक गया |

"मैं तुम्हें कुछ बताना चाह रही थी| तुम अभिराम से तो मिल ही चुके हो पिछले इतवार" कहते हुए मैथिली संकोच कर रही थी |

"कौन, वो नीली आँखों वाला लड़का?" पुरुषोत्तम ने उत्सुक होकर पूछा |

"हाँ, वही | हम दोनों एक-दुसरे को चाहते हैं और शादी करना चाहते हैं" मैथिली को यह बताना बेहद जरूरी लगा |

"ओ..."कहकर उदासी छुपाता पुरुषोत्तम झूठी मुस्कान बिखेरता हुआ "गुड नाईट" कहकर चला गया | मैथिली अब थोड़ा हल्का महसूस कर रही थी |

पुरुषोत्तम सहज और सुलझे हुए व्यक्तित्व वाला इंसान था |  मैथिली का सच जानने के बाद वह भले ही संयमित हो गया था, पर दोस्ती निभाने में उसने कोई कसर नहीं छोड़ी |

उधर सगाई की शाम मैथिली को पुरुषोत्तम के साथ देखकर ही पुरुषोत्तम के घर में उसकी शादी को लेकर बातचीत शुरू हो चुकी थी, इधर मैथिली का पंजाब की एक बड़ी कम्पनी से नौकरी का बुलावा आ गया था | दस दिनों के बाद मैथिली पंजाब चली गयी |

एकदिन पुरुषोत्तम के पिता ने उसे बताया कि उन्होंने उसकी शादी के लिए लड़की पसंद कर ली है और कुरियर से लड़की की तस्वीरें भी भेज दी है| न पुरुषोत्तम से कुछ पूछा गया , न ही पुरुषोत्तम ने कुछ पूछा | कुछ दिनों बाद पुरुषोत्तम के हाथों में वह लिफ़ाफ़ा था जिसमे तस्वीरों के साथ थी उसके पिता की चिठ्ठी  |

"प्रिय पुरुषोत्तम,

उम्मीद है सब बढ़िया है| तुम्हारे लिए हमने एक लड़की पसंद की है| पसंद क्या, मैं तो उसके पिता को जुबान दे चूका हूँ| एकबार तुम भी वैदेही की तस्वीर देख लो, बाद में न कहना कि बिना लड़की देखे शादी करवा दी गयी | चाहो तो तस्वीर के पीछे लिखे मोबाइल नंबर पर बात भी कर लो | मुझे तो बड़ी सुशील लड़की लगी | दहेज भी मुँहमांगा दे रहे हैं| शादी के लिए अभी छुट्टियों की अर्जी दे दो, तीन महीने ही रह गए हैं|

और सुनो, शादी के लिए खरीदारी पर फिजूल खर्च करने की कोई जरुरत नहीं| सब मैं देख लूँगा |

हो सके तो शादी से दस दिन पहले आ जाना |

तुम्हारा पिता
दशरथ "

पुरुषोत्तम कुछ देर सोचता रहा और फिर तस्वीरों में खो गया | वैदेही एक साधारण सी दिखने वाली प्यारी लड़की लगी | उसने उसी रात वैदेही को फोन लगाया और बात की | बातों से वह बेहद प्यारी लगी और पुरुषोत्तम ने अपने घर में बता दिया कि उसे इस शादी से कोई आपत्ति नहीं | उसने मैथिली को भी फोन पर अपनी शादी कि सूचना दी |

घर में शादी की तैयारियाँ पूरी हुई और तीन महीने बाद पुरुषोत्तम और वैदेही की शादी हो गयी | पुरुषोत्तम वैदेही को लेकर वापस दिल्ली आ गया | खूब जमने लगी दोनों की आपस में और वैदेही ने हर प्रकार से पुरुषोत्तम का साथ दिया | वैदेही को पुरुषोत्तम के एक कमरे में रहना अच्छा नहीं लगता था, पर वह जानती थी कि पुरुषोत्तम की आय में उससे बेहतर कुछ नहीं मिल पाता | उसने पहले एक ब्यूटी पार्लर में प्रशिक्षण लिया और फिर वहीं काम करने लगी| कुछ समय बाद दोनों दो कमरों के घर में किराए पर रहने लगे | वैदेही ने अपना ब्यूटी पार्लर खोल लिया | इसी बीच पुरुषोत्तम को भी मनचाही तनख्वाह वाली नौकरी मिली | चार साल बाद उनके घर एक लड़की का जन्म हुआ जिसका नाम उन्होंने राज नंदिनी रखा | बच्ची के आने से वैदेही का काफी समय बच्ची की देखरेख में चला जाता जिससे ब्यूटी पार्लर खोलने में देर होती | ब्यूटी पार्लर से घर तीन किलोमीटर की दूरी पर था | पुरुषोत्तम ने इसका भी हल ढूँढ निकाला | उसने ब्यूटी पार्लर के ठीक सामने वाली गली में दो कमरे का घर किराए पर ले लिया | गली से निकलते ही बायीं ओर था प्रकाश ड्राईक्लिनर्स जिसके ठीक सामने था वैदेही ब्यूटी पार्लर | प्रकाश ड्राईक्लिनर्स को लगभग पुरुषोत्तम के ही उम्र का प्रकाश चलाता था| पिछले कुछ महीनों में पुरुषोत्तम और प्रकाश की अच्छी दोस्ती हो गयी थी | फिर पुरुषोत्तम था भी बड़ा मिलनसार | नए घर से पुरुषोत्तम का दफ्तर काफी दूर हो गया था, जिसकी वज़ह से उसे घर लौटने में अक्सर ही देर हो जाती थी |

अभी नए घर में आए बमुश्किल सात महीने ही गुजरे थे कि एक रविवार सब्जी खरीदते हुए  प्रकाश का सामना पुरुषोत्तम से हुआ |

"और भाई, तुम तो ईद का चाँद हो गए | कब जाते हो, कब आते हो, तुम्हारे तो दर्शन दुर्लभ हो गए" प्रकाश ने सब्जी वाले से टमाटर का थैला लेते हुए कहा |

"हाँ यार, क्या करूँ| रहता यहाँ हूँ और तुम तो जानते ही हो मेरा दफ्तर..."अभी पुरुषोत्तम बात पूरी भी नहीं कर पाया था|

"वो सब तो ठीक है, पर घर की भी कुछ खबर रखते हो या मुहल्लेवालों के भरोसे रख छोड़ा है अपना परिवार" प्रकाश ने पुरुषोत्तम के काँधे पर हाथ रखते हुए कहा |

"कहना क्या चाहते हो? मैं कुछ समझा नहीं" पुरुषोत्तम परेशान था |

"कुछ ख़ास नहीं | पिछले बीस - पच्चीस दिनों से एक गजब का संयोग दिखा | हर रोज़ दोपहर तीन बजे वैदेही भाभी राज नंदिनी को हेयर ड्रेसर के पास रखकर घर जाती हैं और उसके ठीक कुछ देर बाद अपने एम पी साहब, शुक्ला जी का बड़ा बेटा दशकंध आपके घर जाता है| हो सकता है आपको पता हो, पर मुझे लगा आपको बता देना ठीक रहेगा" कहते हुए प्रकाश प्रश्न भरी नजरों से पुरुषोत्तम की ओर देखने लगा |

पुरुषोत्तम को ठोकर तो जोर की लगी थी, पर उसने खुद को सहज दिखाते हुए कहा "ऐसा हो सकता है कि घर में कोई आए और मुझे पता न हो ! दशकंध वैदेही से भूगोल पढ़ने आता है| एमपी का बेटा है, मना करते नहीं बना | शाम में समय नहीं दे सकती न, इसलिए दिन में एक घंटे पढ़ाती है| तुम्हें शायद नहीं पता वैदेही ने भूगोल से स्नातक किया है|"

"ओह ! अच्छा " प्रकाश के लहजे में व्यंग था |

पुरुषोत्तम सब्जी की थैली उठाकर घर की ओर चल पड़ा | उसका मन बड़ा बेचैन था | वह पूरी रात परेशान रहा | उस रात उसने वैदेही से कई बार पूछा "वेद, क्या तुम मुझसे अब भी प्यार करती हो?"

"आज अचानक ऐसा क्यूँ पूछ रहे हो" वैदेही ने हाँ या ना के असमंजस को टालते हुए कहा | फिर जिस इंसान से ब्याह किया और जिसके बच्चे की माँ बनी, उससे यह कहना कि प्रेम खत्म हो गया, आसान भी तो नहीं होता |

अगले दिन पुरुषोत्तम बड़े अनमने तरीके से दफ्तर गया | उसका किसी काम में मन नहीं लग रहा था | उसने सर दर्द का बहाना बनाया और डेढ़ बजे दफ्तर से निकल पड़ा | उसे घर पहुँचने में अमूमन दो घंटे लगते, पर दिन में सडकें खाली थीं, सो डेढ़ घंटे में ही पहुँच गया | उसने कॉलिंग बेल बजाने के लिए हाथ उठाया, पर कुछ सोचकर रूक गया | वह पड़ोसी के घर गया और उनसे कहा कि उनकी छत पर उसके कपड़े उड़कर गिर गए और वह उन्हें उठाने आया है| वह छत पर गया और उस छत से सटे अपने घर की छत पर कूद गया | छत की सीढ़ियों से उतरता हुआ वह घर के अंदर दबे पाँव दाखिल हुआ | उसकी कानों तक जो आवाजें आ रहीं थीं, वह उनका पीछा करते हुए बैठक तक गया | दरवाजा बंद नहीं था, पर पूरी तरह खुला हुआ भी नहीं था | उसने बाहर से झाँककर वो मंजर देखा कि जड़ हो गया | सोफे पर वैदेही और दशकंध एक-दूसरे से गुथे हुए थे| कुछ देर रुककर वह खुद को संभालता हुआ वहीं कमरे के बाहर दीवार पर पीठ टेक कर आँखें मूँद बैठ गया |

थोड़ी देर बाद वैदेही ने जैसे ही दरवाजा खोला, उसकी आँखें फटी रह गयीं और दोनों हाथ जुबान पर | दशकंध तूफ़ान की तरह भाग गया |

पुरुषोत्तम भले ही चुप था, पर उसकी नजर वैदेही से न जाने कितने सवाल कर रही थी |

"मुझे माफ़ कर दो | मैं बेहद अकेली हो गयी थी | मुझे प्यार चाहिए था और तुम्हारे पास मेरे लिए वक़्त ही नहीं था | दशकंध ऐसे समय में मेरे जीवन में आया, जब मैं अकेलेपन और अवसाद की खाई में गिरती चली जा रही थी | अब जो चाहो मुझे सजा दो" कहती हुई वैदेही रोने लगी |

पुरुषोत्तम उठा और सीधे पार्लर गया | वहाँ उसने राज नंदिनी को उठाया और घर की ओर आने लगा | प्रकाश ने थोड़ी देर पहले दशकंध को उस गली से तूफ़ान की तरह गुजरते देखा था | फिर शाम के साढ़े चार बजे पुरुषोत्तम का पार्लर आकर राज नंदिनी को लेना... प्रकाश घटना का अंदाजा लगा चूका था | उसने पुरुषोत्तम को टोकते हुए कहा "सच्चे मित्र हैं हम तुम्हारे | कल तुमने भले ही हमारे सामने नाटक कर लिया, पर इस गली में जो नाटक होता है न, उसे न जाने कितने लोगों ने देखा है| अब तुम्हारी इज्जत इसी में है कि भगवान राम की तरह तुम भी वैदेही भाभी को छोड़ दो | (राज नंदिनी की ओर दिखाकर) इसे भी उनके साथ ही दे देना | न जाने कहाँ से आई है"

पुरुषोत्तम में आगे एक भी शब्द सुनने का धैर्य न बचा था | वह घर की ओर बढ़ गया |

घर आकर उसने राज नंदिनी को वैदेही के सुपुर्द करते हुए उसे खाना खिलाकर सुला देने को कहा | शाम के लगभग साढ़े सात बजे जब राज नंदिनी सो चुकी थी, पुरुषोत्तम ने वैदेही से कहा "तुम चाहो तो दशकंध शुक्ला के साथ जा सकती हो| राज नंदिनी मेरे पास रहेगी |"

"नहीं, मैं राज नंदिनी के बिना नहीं रह सकती" कहते हुए वैदेही फिर रोने लगी |

"मेरे बिना तो रह ही लोगी | अब तो आत्मनिर्भर भी हो" पुरुषोत्तम ने लगभग पूछने के अंदाज में कहा |

"मैं आज जो भी हूँ, सिर्फ तुम्हारी वज़ह से हूँ| तुमने अपने पिता की मर्जी के खिलाफ़ मुझे पार्लर जाकर काम सीखने का मौका दिया | तुमने मेरी सुविधा का ख्याल रखते हुए अपने दफ्तर से और भी दूर घर लिया | पर तुम घर देर से आने लगे | अक्सर मेरे सो जाने के बाद आते और अलसुबह उठकर चले जाते | तुम्हारी शक्ल तक ठीक से देखने के लिए मुझे रविवार का इन्तजार करना पड़ता | मुझे पार्लर से फुर्सत मिलती, तो आराम की जगह घर के काम और राज नंदिनी की देखभाल |प्यार के लिए तरस गयी थी | अकेलेपन और अवसाद के दलदल में मैं बेतरह धँस चुकी थी कि दशकंध एक दोस्त बनकर आया | उसने मुझे अपना वक़्त दिया और मुझे सुना | फिर हमलोग कब इतने करीब आ गए, पता ही नहीं चला| चलो, हम तुम्हारे दफ्तर के पास कोई घर ले लेते हैं| मैं पार्लर बंद कर दूँगी, पर इस परिवार को बिखरने न दूँगी| हम फिर से पहले की तरह रहेंगे एक कमरे में" वैदेही पुरुषोत्तम से लिपटकर रो-रो कर कह रही थी |

पुरुषोत्तम उस रात सो नहीं पाया | वह सोचता रहा कैसे वह एक कमरे के मकान में रहता था और वैदेही ने अपनी सूझबूझ और मेहनत से कम समय में ही घर की आर्थिक स्थिति दुरुस्त कर दिया था | वैदेही ने उससे कभी कोई शिकायत नहीं की बल्कि हमेशा उसकी मददगार बनी रही | आखिर उसने ऐसा क्यूँ किया ? थोड़े से प्रेम के लिए ? क्या प्रेम गैर जरूरी था जीवन में ? अगर हाँ, तो उसे आज वैदेही पर गुस्सा क्यूँ आया ? अगर नहीं, तो वैदेही ने क्या गलत किया अपने लिए थोड़ा सा प्रेम चुनकर ?  इसी तरह के कई प्रश्न जेहन में उभरते रहे जिनके जवाब भी वो खुद ही थे |

अगली सुबह वह दुसरे दिनों कि अपेक्षा जल्दी उठा और वैदेही से भी उठने को कहा | वैदेही असमंजस में कुछ समझ नहीं पा रही थी कि पुरुषोत्तम क्या चाह रहा था |

"क्या बात है" वैदेही ने डरते हुए पूछा |

"चलो, पार्क हो आते हैं| याद है तुम्हें हम शादी के बाद जब पहली बार दिल्ली आए थे, तुम मुझे जबरन उठाकर पार्क ले जाती थी| मुझे लग रहा है कि हमें फिर से हर सुबह पार्क जाना चाहिए" पुरुषोत्तम ने शांत आवाज में कहा |

वैदेही कुछ देर तक अपलक पुरुषोत्तम को देखती रही और फिर उससे लिपटकर रोने लगी |

थोड़ी देर बाद राज नंदिनी को लेकर दोनों पास के पार्क गए | राज नंदिनी पार्क में चिड़िया और मोर देखकर बेहद खुश थी | वैदेही और पुरुषोत्तम जैसे अतीत के दिनों में खो गए थे |

सुबह की सैर से लौटते हुए उन दोनों ने तय किया कि रात का खाना वह बाहर खाएँगे | फिर पुरुषोत्तम अपने दफ्तर चला गया और वैदेही घर का काम निपटाकर अपने पार्लर|

शाम में पुरुषोत्तम जल्दी आ गया था | जब रात का खाना खाकर वे लौट रहे थे,  प्रकाश ड्राईक्लीनर्स बंद कर रहा था |

"ओह ! मुझे तो लगा था रामचंद्र जी सीता जी को जंगल तक छोड़ने गए हैं| पर देखकर लग रहा है अग्नि परीक्षा देकर स्वयं आए हैं "प्रकाश ने पुरुषोत्तम के करीब आकर कहा |

"मैं एक औसत इंसान हूँ, कोई भगवान नहीं | गलती इंसानों से ही होती है| औसत इंसानों से तो कई बार | मैंने भी कई दूसरी तरह की गलतियाँ की हैं जिंदगी में | जब मैं साधारण सा मनुष्य हूँ, तो जीवन संगिनी के रूप में देवी या सती कि अपेक्षा भी नहीं रखता| अगर वैदेही से गलती हुई, तो कहीं न कहीं मुझसे भी लापरवाही हुई तो है| फिर सजा उस अकेली को क्यूँ?" पुरुषोत्तम कि आवाज में आत्मविश्वास था |

"भगवान हो कि नहीं हो, नहीं पता | पर एक बात तो माननी ही पड़ेगी कि पुरुषों में उत्तम पुरुष हो | साधारण या औसत तो बिलकुल भी नहीं| आज से और भी सम्मान बढ़ गया तुम्हारे लिए" कहते हुए प्रकाश ने पुरुषोत्तम को गले लगाया और आगे बढ़ गया |

राज नंदिनी ऊँगली से घर की ओर इंगित कर रही थी, वे एक-दूसरे का हाथ थामे घर की ओर चल पड़े | पूर्णिमा का चाँद अपनी शीतल छाया उन पर बनाता हुआ उनके साथ चलने लगा |