Sunday, September 1, 2013

जीवन घर

1.9.2013


उस घर की दीवारों पर
उभर आईं दरारें
ज्यूँ वक़्त ले आता है
चेहरे पर झुर्रियाँ


आँगन से झाँक रही हैं
माधविलता की बेलें
ज्यूँ लकीर खींच देती है
माथे पर मजबूरियाँ


खिड़कियों पर सज गये हैं
मकड़ियों के जाले
ज्यूँ टूटा रिश्ता लाता है
संग अपने दूरियाँ


छत से टपक रही है
बारीशों की बूँदें
ज्यूँ विधवा घंटो रोती है
देखके अपनी चूड़ियाँ


सुलोचना वर्मा

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