Sunday, October 6, 2013

बिखरते रिश्ते


नही बुनती जाल इस शहर में अब मकड़ियाँ
लगे हुए हैं जाले साज़िश 
की हर दीवार पर
बिखर गये हैं रिश्ते, अपनो की ही साज़िशो से
बस यादें टॅंगी रह गयी हैं घरों की किवाड़ पर
टुकड़े हुए रिश्तों के, ज़मीन के बँटवारे में
एक ही उपनाम है इस शहर के हर मिनार पर
क्यूँ बेच रहे हो आईने इस नुक्कर पर तुम
ये अंधो का शहर है, और धूल हर दीदार पर


सुलोचना 

1 comment:

  1. बहुत खूब, क्या लिखा है... वाह.... अगर मैं भी लिखता इस विषय पर तो यही लिखता.... एक एक पंक्ति दिल को छु गयी,क्योंकि ये निकली ही दिल से है.....It's An Inner voice of a Sensitive Heart.... Great.....

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