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सुनो नताशा,
न करो धारण अपने कष्टों को आभूषणों की तरह
छुपा लो गड़े खजाने की तरह उन्हें,
नहीं तो मुश्किल में पड़ोगी
धो डालो यथाशीघ्र अपनी उँगलियों के पोरों पर जमे नक्षत्र-विषाद
नहीं तो जान लो नताशा, आएगा कोई राक्षस भिक्षुक के वेश में
तुम्हारे कष्टों को तो नहीं ही हरेगा, तुम्हें छल जाएगा
पौराणिक महाकाव्यों में उल्लेख है ऐसी कहानियों का
ठहरो नताशा, मत उगलो अग्निवर्षा करते शब्दबीज
जिससे जल जाए तुम्हारे घर का दक्षिण दुआर
जो संयोगवश प्रवेश द्वार भी है तुम्हारे घर का
संभलो कि यह तमाशबीन समय है
जानती तो हो न नताशा, घर छोड़कर वन को निकली स्त्रियाँ
भैरवी ही बनती हैं, बुद्ध नहीं बनती कदापि
याद करो नताशा कि तुम्हारी माँ ने कहा था प्रेम नहीं करना
कर सीता से यशोधरा तक का उल्लेख, कहा था
अत्यंत सुंदर स्त्रियों के भाग्य में प्रेम नहीं होता
माँ के मुख से निकली बात किसी मंत्रोच्चार से कम तो नहीं होती नताशा
फिर कौन सा मुँह लेकर कहोगी कि वो जो रिश्ता था, अब रिसता है|
देखो नताशा, तुम्हारी खंडित स्मृतियों की परिक्रमा करता है शब्दयान
और तुम्हें घेरे बैठी हैं कई दुर्लभ कवितायेँ
तो करो प्रतिज्ञा कि नहीं पढ़ोगी प्रेम की आयूहीन कविता आजन्म
हृदयहीन समाज की धिक्कारसभा में
सुनो नताशा,
यदि अपने दुखों के रंगों में रंग नील-बसना ही बनना है
तो आसमान बन जाओ, करो अपने व्यक्तित्व का विस्तार अपरिमित
किसी की छत बन जाओ, सजा लो कष्टों को बना सूरज, चाँद और तारे
करो वृष्टि स्नेह की, जब दिल भर आये
चलो, उठो नताशा, बहुत दूर जाना है
और देखो आसमान की ओर सर उठाकर, कहीं कोई करुणाधारा नहीं है
पर याद रहे नताशा, न करना उल्लेख प्रेम या स्वाधीनता का कभी
कि मानवता की पृष्ठभूमि पर फूटता है कष्ट का झरना इन्हीं दो पर्वतों से
सुनो नताशा,
न करो धारण अपने कष्टों को आभूषणों की तरह
छुपा लो गड़े खजाने की तरह उन्हें,
नहीं तो मुश्किल में पड़ोगी
सुनो नताशा,
न करो धारण अपने कष्टों को आभूषणों की तरह
छुपा लो गड़े खजाने की तरह उन्हें,
नहीं तो मुश्किल में पड़ोगी
धो डालो यथाशीघ्र अपनी उँगलियों के पोरों पर जमे नक्षत्र-विषाद
नहीं तो जान लो नताशा, आएगा कोई राक्षस भिक्षुक के वेश में
तुम्हारे कष्टों को तो नहीं ही हरेगा, तुम्हें छल जाएगा
पौराणिक महाकाव्यों में उल्लेख है ऐसी कहानियों का
ठहरो नताशा, मत उगलो अग्निवर्षा करते शब्दबीज
जिससे जल जाए तुम्हारे घर का दक्षिण दुआर
जो संयोगवश प्रवेश द्वार भी है तुम्हारे घर का
संभलो कि यह तमाशबीन समय है
जानती तो हो न नताशा, घर छोड़कर वन को निकली स्त्रियाँ
भैरवी ही बनती हैं, बुद्ध नहीं बनती कदापि
याद करो नताशा कि तुम्हारी माँ ने कहा था प्रेम नहीं करना
कर सीता से यशोधरा तक का उल्लेख, कहा था
अत्यंत सुंदर स्त्रियों के भाग्य में प्रेम नहीं होता
माँ के मुख से निकली बात किसी मंत्रोच्चार से कम तो नहीं होती नताशा
फिर कौन सा मुँह लेकर कहोगी कि वो जो रिश्ता था, अब रिसता है|
देखो नताशा, तुम्हारी खंडित स्मृतियों की परिक्रमा करता है शब्दयान
और तुम्हें घेरे बैठी हैं कई दुर्लभ कवितायेँ
तो करो प्रतिज्ञा कि नहीं पढ़ोगी प्रेम की आयूहीन कविता आजन्म
हृदयहीन समाज की धिक्कारसभा में
सुनो नताशा,
यदि अपने दुखों के रंगों में रंग नील-बसना ही बनना है
तो आसमान बन जाओ, करो अपने व्यक्तित्व का विस्तार अपरिमित
किसी की छत बन जाओ, सजा लो कष्टों को बना सूरज, चाँद और तारे
करो वृष्टि स्नेह की, जब दिल भर आये
चलो, उठो नताशा, बहुत दूर जाना है
और देखो आसमान की ओर सर उठाकर, कहीं कोई करुणाधारा नहीं है
पर याद रहे नताशा, न करना उल्लेख प्रेम या स्वाधीनता का कभी
कि मानवता की पृष्ठभूमि पर फूटता है कष्ट का झरना इन्हीं दो पर्वतों से
सुनो नताशा,
न करो धारण अपने कष्टों को आभूषणों की तरह
छुपा लो गड़े खजाने की तरह उन्हें,
नहीं तो मुश्किल में पड़ोगी
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