Friday, August 21, 2020

पंचतत्व

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बनकर स्रष्टा करना सृष्टि अहर्निश प्रेम की 

दफ़न करना अपनी जमीं पर सीने भर आशा 

कि अपने आप में पूरी पृथ्वी हो तुम 

जिसकी परिक्रमा करेंगे कई कई चाँद 

जो पोषित कर सकती है कई कई जीवन 


वृष्टि के जल को भर कलशी में 

पकाना दाल, धोना कपड़े 

बन मेघ भले पी जाना भवसागर  

आँखों का पानी बचा रहे 

बस इतना सा यत्न करना 


चूल्हे की आग में पकाना भंटा बैंगन

खाना पांता संग, मत करने देना शमन 

किसी को अपने भीतर की अग्नि का 

कि आत्मा में भर कर अंधेरा

नहीं लाया जा सकता उजाला जीवन में  


संसर्ग ही करना हो तो रहे ध्यान 

कि भले ही कर ले स्पर्श कोई शरीर का 

परन्तु तुम्हारे तुम को किंचित छू भी न सके 

न करना उत्सर्ग अपना असीम किसी को 

कि जमता रहे वहाँ संभावनाओं का मेघ 


बन चैत्र की आँधी घूमना माताल की तरह 

पर साधे रहना ताल जीवन का 

प्रेमशुन्य धरा पर लौटना बार-बार अनेक रूपों में 

बन कर प्रशांति की अविरल धारा 

क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा 


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